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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना 117
अर्थात् जिस प्रकार चिन्तामणि रत्न बड़ी कठिनाई से प्राप्त होता है, उसी प्रकार इस जीव ने त्रस की पर्याय बड़ी कठिनता से प्राप्त की; उस त्रस पर्याय में भी लट (इल्ली) आदि दो इन्द्रिय जीव, चींटी आदि तीन इन्द्रिय जीव और भँवरा आदि चार इन्द्रिय जीव के शरीर धारण करके मरा और अनेक दुःख सहन किये।
इसी तरह के विचार दौलतरामजी ने तीसरी ढाल में भी व्यक्त किये हैंदौल 'समझ' सुन चेत सयाने, काल वृथा मत खोवै। यह नरभव फिर मिलन कठिन है, जो सम्यक् नहिं होवै।।100
मनुष्यभव को दुर्लभ बताते हुए धर्मधारण करने को प्रेरित करते हुए कवि द्यानतराय कहते हैं कि -
रे जिय नरभव पाया, कुल जाति विमल तू आया। जो जैनधर्म नहिं धारा, सब लाभ विषयसंग हारा।। लखि बात हृदय गह लीजे, जिनकथित धर्म नित कीजे। भव दुःख सागर को तरिये, सुख से नव का ज्यों बरिये। ले सुधि न विषय रस भरिया, भ्रम मोह ने मोहित करिया।। विधि ने जब दई घुमरिया, तब नरक भूमि ते परिया। अब नर कर धर्म अगाऊ, जब लों धन यौवन चाऊ ।। जब लो नहिं रोग सतावै, तोहि काल न आवन न पावै ।101
___ उपर्युक्त पद में द्यानतराय जी कहते हैं कि मनुष्य भव चिन्तामणि रत्न के समान दुर्लभ है। जिस प्रकार अन्धे के हाथ बटेर लग जाये, किन्तु वह उसे व्यर्थ ही गँवा देता है। कभी यह जीव नरकगति में तो कभी तिर्यंच गति में, तो कभी स्वर्ग में जाता है। इस संसार में घूमता हुआ दुर्लभता से नरभव पाता है। मनुष्य भव प्राप्त कर व्यर्थ गँवाना उसी प्रकार है, जैसे अमृत मिलने पर उसे पाँव धोने में प्रयोग करना। द्यानतरायजी अन्त में उपदेश देते हैं कि यदि तुम भवसागर से पार होना चाहते हो तो विषय-कषाय को छोड़ दो। इसी से सम्बन्धित भावों को निम्न पद में भी दर्शाया है।
राग-सोरठ
ग्यान बिना सुख पाया रे भाई। भौ दस आठउ श्वास सास मैं, साधारन लपटाया रे।। भाई।। काल अनन्त यहाँ तोहि बीते, जब भई मंद कषाया रे।। "