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116 कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना करने के लिए रोगग्रस्त व्यक्ति की उपमा का व्यवहार किया जाता है। एक रोग ग्रस्त व्यक्ति को जो रोग से मुक्त होना चाहता है, चिकित्सक के प्रति आस्था रखनी चाहिए, उसके द्वारा दी गयी दवाओं का ज्ञान होना चाहिए और चिकित्सक के मतानुसार आचरण भी करना चाहिए। इस प्रकार सफलता (मोक्ष) के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का सम्मिलित प्रयोग आवश्यक है।
अब, तीनों की व्याख्या एक-एक कर अपेक्षित है -
(1) सम्यग्दर्शन- सात तत्त्वों के प्रति श्रद्धा की भावना को रखना 'सम्यग्दर्शन' कहा जाता है। जैसा कि द्यानतराय ने लिखा है -
. आप आप निहचै लखै, तत्त्व प्रीति व्योहार । रहित दोष पच्चीस हैं, सहित अष्ट गुन सार ।।96
(2) सम्यग्ज्ञान- तत्त्वों का यथार्थज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है। जीव और अजीव के अन्तर को न समझने के फलस्वरूप बन्धन का प्रादुर्भाव होता है, जिसे रोकने के लिए ज्ञान आवश्यक है।
सम्यग्ज्ञान के स्वरूप को बताते हुए द्यानतराय लिखते हैं कि - पंच भेद जाके प्रगट, शेय-प्रकाशनमान । मोह-तपन-हर-चन्द्रमा, सोई सम्यग्ज्ञान ।। "
(3) सम्यक्चारित्र- सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानपूर्वक किया जानेवाला सदाचरण सम्यक्चारित्र कहलाता है।
द्यानतराय सम्यक्चारित्र की महिमा गाते हुए कहते हैं कि - सम्यक्चारित्र रतन सँभालौ, पाँच पाप तजि के व्रत पालौ। पंच समिति त्रय गुपति गहीजै, नर भव सफल करहु तन छीजै ।। 88
इस प्रकार द्यानतरायजी ने अपने काव्य के माध्यम से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की एकता को मोक्षमार्ग बतलाकर कहा कि मोक्ष के लिए इन तीनों की परम आवश्यकता है। (5) द्यानतराय के काव्य में मनुष्य जन्म की दुर्लभता पर विचार -
मनुष्य भव को सभी दर्शनों ने दुर्लभ बताया है। दौलतरामजी ने मनुष्य जन्म की दुर्लभता पर अपने विचार इस प्रकार दिए हैं -
दुर्लभ लहि ज्यों चिंतामणि, त्यो पर्याय लही त्रसतणी। लट पिपील अलि आदि शरीर, धर-धर-मर्यो सही बहु पीर ।