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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना 113 तरह सब मिलाकर 148 कर्मों के जाल को तोड़कर जीव मुक्त हो जाता है और वहाँ अनन्त सुखों को भोगता है।
' हे प्रभु! मैं आपके पैरों में पड़ता हूँ, आप मुझे अपने समीप बुला लेवें अर्थात् अपने समान मुझे भी कर्मों से रहित कर देवें।
___ आठों कर्मों का नाश कर परमपद सिद्धपद पाने के लिए कवि द्यानतराय अपने एक पद में लिखते हैं -
मैं निज आतम कब ध्याऊँगा।। टेक।। रागादिक परिनाम त्यागकै, समतासौ लौ लाऊँगा ।। मैं ।। मन-वच-काय जोग थिर करकै, ज्ञान समाधि लगाऊँगा। कब हौ क्षिपक श्रेणि चढ़ि ध्याऊँ, चारित मोह नशाऊँगा।। मैं ।। चारों करम घातिया खन करि, परमात्म पद पाऊँगा। ज्ञान दरश सुख बल भण्डारा, चार अघाति नशाऊँगा।। मैं ।। परम निरंजन सिद्ध शुद्धपद परमानंद कहाऊँगा। 'द्यानत' यह सम्पत्ति जब पाऊँ, बहुरि न जग में जाऊँगा।। मैं । 188 ... इस प्रकार द्यानतरायजी ने जैनोक्त कर्म एवं कर्म प्रकृतियों का वर्णन रोचक ढंग से किया है। यद्यपि कर्म एवं कर्म प्रकृतियों का विषय कठिन हैं, किन्तु उनकी पद्य रचना से कर्मों का स्वरूप सरल और सुगम हो गया है। (4) द्यानतराय के मोक्ष सम्बन्धी विचार -
मोक्ष के स्वरूप के बारे में आचार्य उमास्वामी लिखते हैं - . 'बन्धहेत्वभाव-निर्जराभ्यां कृत्स्नकर्म विप्रमोक्षो मोक्षः ।
अर्थात् आत्मा का कर्मबन्धन से पूर्णतः मुक्त हो जाना ही मोक्ष है। यह भी दो प्रकार का होता है- द्रव्यमोक्ष और भाव मोक्ष । आत्मा के जो शुद्धभाव कर्मबन्धन से मुक्त होने में हेतु होते हैं, वे भाव ही भावमोक्ष है और आत्मा का द्रव्यकर्मों से मुक्त हो जाना द्रव्यमोक्ष है और आत्मा का सिद्धालय में जाकर सिद्ध दशा पाना ही मोक्ष है। वह मोक्ष अनन्त आनन्द स्वरूप एवं निराकुल सुखरूप है, जिसे इन्द्रियों से अनुभव नहीं किया जा सकता है। उस अतीन्द्रिय आनन्द के बारे में पण्डित टोडरमलजी लिखते हैं -
‘स्वर्ग विषै सुख है, तिनि” अनन्त गुणाँ मोक्ष विर्षे सुख है। सो इस