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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना भ्रामक है। मीमांसा का मोक्ष-विचार न्याय-वैशेषिक के मोक्ष - विचार से मिलता-जुलता है। नैयायिकों ने मोक्ष को आनन्द की अवस्था नहीं माना है। नैयायिकों ने मोक्ष को आत्मा के ज्ञान, सुख, दुख से शून्य अवस्था कहा है।
मीमांसा के मतानुसार मोक्ष की प्राप्ति ज्ञान और कर्म से सम्भव है। प्रभाकर ने काम्य और निषिद्ध कर्मों को न करने तथा नित्य कर्मों के अनुष्ठान एवं आत्मज्ञान को मोक्ष का उपाय कहा है। आत्मज्ञान मोक्ष के लिए आवश्यक है, क्योंकि आत्म-ज्ञान ही धर्माधर्म के संचय को रोककर शरीर के आत्यन्तिक उच्छेद का कारण हो जाता है। अतः मोक्ष की प्राप्ति के लिए ज्ञान और कर्म दोनों आवश्यक हैं।
कुमारिल्ल ने भी कहा है कि जो शरीर के बन्धन से छुटकारा पाना चाहता है, उसे काम्य और निषिद्ध कर्म नहीं करना चाहिए; लेकिन नित्य और नैमित्तिक कर्मों का उसे त्याग नहीं करना चाहिए। इन कर्मों को न करने से पाप होता है और करते रहने से पाप नहीं होता । केवल कर्म से मोक्ष नहीं प्राप्त हो सकता है। केवल आत्मज्ञान को ही मोक्ष का साधन नहीं समझना चाहिएँ। कुमारिल्ल के मतानुसार मोक्ष कर्म और ज्ञान के सम्मिलित प्रयास से सम्भव है। अतः प्रभाकर तथा कुमारिल्ल के मोक्ष विचार में अत्यधिक समता है ।
निष्कर्षतः मीमांसा के दर्शन सम्बन्धी विचार और विवेचन पर एक आलोचनात्मक दृष्टि डालने से यह स्पष्ट है कि चिन्तन बहुत गम्भीर नहीं है । उनके दार्शनिक सिद्धान्तों में अधिक गहराई नहीं है । फिर भी मीमांसा ही वह शास्त्र है, जिसके नियमों का सहारा लेकर धर्मशास्त्रों की बहुत-सी जलती हुई समस्याओं का समाधान किया गया है। मोक्ष को प्राप्त करने में आत्मा की अहम भूमिका बताते हुए कुमारिल भट्ट कहते हैं कि मोक्षावस्था में जब मन और इन्द्रियाँ भी नहीं होतीं, आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप अर्थात् ज्ञान शक्तिरूप में रहती है। मोक्षावस्था में आत्मा एक ज्ञानशक्ति सत्ता मात्र है । ऐसा मानकर भी वे आत्मा की स्थिति को अर्थात् अध्यात्म को स्वीकार करते हैं। 3. अध्यात्म विभिन्न मनीषियों की दृष्टि में
भारतीय दर्शन की मुख्य विशेषता व्यावहारिकता है। भारत में जीवन की समस्याओं को हल करने के लिए दर्शन का सृजन हुआ है। जब मानव ने अपने को दुःखों के आवरण से घिरा हुआ पाया, तब उसने पीड़ा और क्लेश से छुटकारा पाने की कामना की । इस प्रकार दुःखों से निवृत्ति के लिए