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100 कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना
द्यानतराय ने आत्मा को अनेक उपमानों से दर्शाया है। जैसा कि उन्होंने एक पद में कहा है -
आतम रूप अनुपम है घट माहिं विराजै। जाके सुमरन जाप सो, भव-भव दुःख भाजै हो।।
आत्मा को जानने में ही सार की बात कहते हुए द्यानतराय कहते हैं कि बिना आत्मा के जाने दुःख का अभाव नहीं होगा और जब तक राग-द्वेष विभाव भावों का अभाव नहीं होगा, तब तक सुख की प्राप्ति सम्भव नहीं है।
__ वे अपने आध्यात्मिक पदों के माध्यम से संसारीजनों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं -
आतम अनुभव करना रे भाई।। (टेक) जब लौं भेद ज्ञान नहिं उपजै, जनम मरन दुःख भरना रे।। भाई।। आतम पढ़ नव तत्त्व बखाने, व्रत तप संजम धरना रे। आतम-ज्ञान बिना नहिं कारज, जोती-संकट परना रे।। सकल ग्रन्थ दीपक हैं भाई, मिथ्या तमके हरना रे। कहा करैं ते अंध पुरुष को, जिन्हें उपजना मरना रे। द्यानत जे भवि सुख चाहत हैं, तिनको यह अनुसरना रे। सोऽहं ये दो अक्षर जपकै, भव जल पार उतरना रे।। 68
आत्मा के स्वरूप के बारे में बताते हुए द्यानतरायजी कहते हैं कि - अब हम आतम को पहचाना जी।। टेक।।। जैसा सिद्धक्षेत्र में राजत, तैसा घट में जाना जी। देहादिक परद्रव्य न मेरे, मेरा चेतन बाना जी। द्यानत जो जानै सो स्याना, नहिं जाने सो दिवाना जी ।। ..
आत्मज्ञान नहीं करने वालों को एवं बाह्याडम्बरों में फँसने वाले पण्डितों, विद्वानों को फटकारते हुए कविवर द्यानतराय कहते हैं कि -
जो तें आतम हित नहीं कीना।। रामा रामा धन धन काजै नर भव फल नहीं लीना।। जो।। जप तप करि कै लोक रिझाये प्रभुता के रस भीना। अंतरगति परनमन (न) सोधे एकौ गरज सरीना।। बैठि सभा में बहु उपदेशे आप भए परवीना ।