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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना 101 , ममता डोरी तोरी नाहीं उत्तम तै भए हीना।। द्यानत मन वच काय लगाकै जिन अनुभौ चितदीना। अनुभौ धारा ध्यान विचारा मंदर कलस नवीना ।।
कविवर द्यानतराय ने जैनोक्त मतानुसार ही आत्मा को व्यक्त किया है। जैसा कि वृहद द्रव्यसंग्रह में आत्मा का स्वरूप इस प्रकार बताया है।
तिक्काले चदुपाणा इंदियबलमाउआणपाणो य। ववहारा सो जीवो णिच्छयणयदो दु चेदणा जस्स।। 3 ।।"
भावार्थ - तीन काल में इन्द्रिय, बल, आयु और आनपान इन चारों प्राणों को जो धारण करता है, वह व्यवहार नय से जीव है। निश्चयनय से जिसके चेतना है, वही जीव है।। 3 ।।
द्यानतराय ने भी एक सवैये में यही कहा है।
चेतना सहित जीव तिहुँकाल राजत है। ग्यान दरसन भाव सदा जस लहिए। रूप रस गंध फास पुद्गल कौ विलास । मूरतीक रूपी विनासीक जड़ कहिये ।। याही अनुसार परदर्व को ममत्त डारि। अपनो सभाव धारि आप माहिं रहिएकरिए यही इलाज जातें होत आप काज।
राग दोष मोह भावको समान दहिए।।2 _जैन मतानुसार आत्मा को सिद्ध के समान शुद्ध स्वीकारा गया है अर्थात् जिस प्रकार का आत्मा अरहन्त और सिद्धों में स्थित है, उसी प्रकार का आत्मा संसारी प्राणियों में है; किन्तु भेद कर्मों की उपस्थिति का पड़ जाता है। जैसा कि कहा गया है
बिन देह अविनाशी, अतीन्द्रिय, शुद्ध निर्मल सिद्ध ज्यों। लोकाग्र में जैसे विराजें, जीव हैं भवलीन त्यों।।
अर्थ-जिस प्रकार लोकाग्र में सिद्ध भगवन्त अशरीरी, अविनाशी, अतीन्द्रिय, निर्मल और विशुद्ध आत्मा हैं, उसी प्रकार संसार में सब जीव जानना।
उसी प्रकार समयसार की गाथा 49 में भी कहा है - व्यवहार नय से हैं कहे सब जीव के ही भाव ये। हैं शुद्ध नय से जीव सब भवलीन सिद्ध स्वभाव से ।।