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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना 103
जो निश्चय सम्यग्दर्शनादि सहित हैं; तीन कषायरहित, शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्म को अंगीकार करके अन्तरंग में तो उस शुद्धोपयोग द्वारा स्वयं अपना अनुभव करते हैं, किसी को इष्ट-अनिष्ट मानकर राग-द्वेष नहीं करते, हिंसादिरूप अशुभोपयोग का तो अस्तित्त्व ही जिनके नहीं रहा है- ऐसी अन्तरंगदशा सहित बाह्य दिगम्बर सौम्य मुद्राधारी हुए हैं और छठवें प्रमत्तसंयत गुणस्थान के समय अट्ठाईस मूलगुणों का अखण्डरूप से पालन करते हैं। वे तथा जो अनन्तानुबन्धी एवं अप्रत्याख्यानीय ऐसे दो कषाय के अभाव सहित सम्यग्दृष्टि श्रावक हैं, वे मध्यम अन्तरात्मा हैं अर्थात छठवें और पाँचवें गुणस्थानवी जीव मध्यम अन्तरात्मा हैं और व्रतरहित सम्यग्दृष्टि जीव जघन्य अन्तरात्मा कहलाते हैं।
परमात्मा का स्वरूप- जो परमपद में स्थित हैं, वे परमात्मा हैं। ये परमात्मा सकल और निकल के भेद से दो प्रकार के होते हैं।
(1) सकल. परमात्मा- चार घाति कर्मों को नाश करने वाले लोक तथा अलोक को जानने-देखने वाले अरहन्त परमेष्ठी शरीर सहित सकल परमात्मा कहलाते हैं।
(2) निकल परमात्मा- जो आठ कर्मों से रहित लोकाग्र में स्थित हैं तथा जिनके परम औदारिक शरीर का भी अभाव हो गया है, वे सिद्ध परमेष्ठी शरीर रहित होने से निकल परमात्मा हैं। जैसा कि दौलतराम जी ने लिखा है -
ज्ञानशरीरी त्रिविध कर्मरूप वर्जित सिद्ध महन्ता। . ते हैं निकल अमल परमातम भोगैं शर्म अनन्ता।178
इस प्रकार जैन मतानुसार द्यानतराय ने परमात्मा के दोनों ही रूपों सकल और निकल परमात्मा का वर्णन किया है। द्यानतराय ने परमात्मा को अन्तर्यामी, तीन लोक के ज्ञाता, तीन लोक का स्वामी आदि माना है। जैसा कि देवपूजा में उन्होंने लिखा है -
बहु तृषा सतायो, अति दुःख पायो, तुम पै आयो जल लायो। उत्तम गंगाजल, शुचि अति शीतल, प्रासुक निर्मल गुन गायो। प्रभु अन्तरजामी, त्रिभुवननामी, सबके स्वामी, दोष हरो। या अरज सुनीजै ढील न कीजै, न्याय करीजै दया करो।"
. उसी प्रकार देव का स्वरूप बताते हुए द्यानतराय देवपूजा की जयमाला में इस प्रकार लिखते हैं -