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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना करना ही पड़ता है। ऐसे कर्मों का उदाहरण ध्यान, स्नान, संध्या, पूजा आदि कर्म हैं। दैनिक प्रार्थना भी नित्य कर्म है। प्रत्येक व्यक्ति को प्रातः काल और संध्या काल प्रार्थना करना अनिवार्य है। इन कर्मों के करने से पुण्य संचय नहीं होता है, परन्तु इनके नहीं करने से पाप का उदय होता है ।
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(2) नैमित्तिक कर्म - नैमित्तिक कर्म उन कर्मों को कहा जाता है जो विशेष अवसरों पर किये जाते हैं । चन्द्र-ग्रहण अथवा सूर्य ग्रहण के समय गंगा में स्नान करना नैमित्तिक कर्म का उदाहरण है। इसके अतिरिक्त जन्म, मृत्यु और विवाह के समय किये गये कर्म भी नैमित्तिक कर्म के उदाहरण हैं । इस कर्म के करने से विशेष लाभ नहीं होता है, परन्तु यदि इन्हें नहीं किया जाए तो पाप संचय होता है ।
( 3 ) काम्य कर्म - ऐसे कर्म निश्चित फल की प्राप्ति के उद्देश्य से किये जाते हैं, काम्य कर्म कहलाते हैं । पुत्र - प्राप्ति, धन प्राप्ति, ग्रह - शान्ति आदि के लिए जो यज्ञ, हवन, बलि तथा अन्य कर्म किये जाते हैं, काम्य कर्म के उदाहरण हैं । प्राचीन मीमांसकों का कथन है स्वर्गकामो यजेत । जो स्वर्ग चाहता है, वह यज्ञ करे । स्वर्ग-प्राप्ति के लिए किये जानेवाले कर्म काम्य कर्म में समाविष्ट हैं । ऐसे कर्मों के करने से पुण्य संचय होता है.. इनके नहीं करने से पाप का उदय नहीं होता है।
परन्तु
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(4) प्रायश्चित्त कर्म - यदि कोई व्यक्ति निषिद्ध कर्म को करता है तो उसके अशुभ फल से बचने के लिए प्रायश्चित्त होता है। ऐसी परिस्थिति में बुरे फल को रोकने के लिए अथवा कम करने के लिए जो कर्म किया जाता है । वह प्रायश्चित्त कर्म कहा जाता है । प्रायश्चित्त के लिए अनेक विधियों का वर्णन पूर्ण रीति से किया जाता है
ऊपर वर्णित कर्मों में कुछ ऐसे कर्म (नित्य और नैमित्तिक कर्म) हैं, जिनका पालन वेद़ का आदेश समझकर करना चाहिए। इन कर्मों का पालन इसलिए करना चाहिए कि वेद वैसा करने के लिए आज्ञा देते हैं । कर्त्तव्य का पालन हमें इसलिए नहीं करना चाहिए कि उनसे उपकार होगा, बल्कि इसलिए करना चाहिए कि हमें कर्त्तव्य करना है ।
मीमांसा की तरह कान्ट मानता है कि कर्त्तव्य, कर्त्तव्य के लिए होना चाहिए। भावनाओं या इच्छाओं के लिए नहीं । इसका कारण यह है कि भावनाएँ मनुष्य को कर्त्तव्य के पथ से नीचे ले जाती हैं। उक्त समता के