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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना पर आधारित है। सांख्य की तरह योग भी सत् कार्यवाद को अपनाता है, अतः सांख्य और योग को समान तन्त्र कहना संगत है ।
योगदर्शन एक व्यावहारिक दर्शन है, जबकि सांख्य एक सैद्धान्तिक दर्शन है। सांख्य के सैद्धान्तिक पक्ष का व्यावहारिक प्रयोग ही योगदर्शन कहलाता है, अतः योगदर्शन योगाभ्यास की पद्धति को बतलाकर सांख्य-दर्शन को सफल बनाता है ।
सांख्य दर्शन में ईश्वर की चर्चा नहीं हुई है। सांख्य ईश्वर के सम्बन्ध में पूर्णतः मौन है। इसमें कुछ विद्वानों ने सांख्य को अनीश्वरवादी कहा है, परन्तु सांख्य का दर्शन इस विचार का पूर्णरूप से खण्डन नहीं करता है सांख्य में कहा गया है 'ईश्वरासिद्धेः' ईश्वर असिद्ध है। सांख्य में 'ईश्वराभावात्' ईश्वर का अभाव है, नहीं कहा गया है। योगदर्शन में ईश्वर के स्वरूप की पूर्णरूप से चर्चा हुई है । ईश्वर को प्रस्थापित करने के लिए तर्कों का भी प्रयोग किया गया है। ईश्वर को योग-दर्शन में योग का विषय कहा गया है। चूँकि सांख्य और योग समान तन्त्र हैं, इसलिए योग की तरह सांख्य-दर्श में भी ईश्वरवाद की चर्चा अवश्य हुई होगी 150
योगदर्शन में योग के स्वरूप, उद्देश्य और पद्धति की चर्चा हुई है । सांख्य की तरह योग भी मानता है कि बन्धन का कारण अविवेक है । पुरुष और प्रकृति की भिन्नता का ज्ञान नहीं रहना ही बन्धन है । बन्धन का नाश विवेक ज्ञान से सम्भव है। विवेक ज्ञान का अर्थ पुरुष और प्रकृति के भेद का ज्ञान कहा जा सकता है। जब आत्मा को अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाता है, जब आत्मा यह जान लेती है कि मैं मन, बुद्धि, अहंकार से भिन्न . हूँ, तब वह मुक्त हो जाती है। योगदर्शन में इस आत्म-ज्ञान को अपनाने के लिए योगाभ्यास की व्याख्या हुई है ।
योगदर्शन में योग का अर्थ है - 'चित्तवृत्ति का निरोध' मन, अहंकार और बुद्धि को चित्त कहा जाता है। ये अत्यन्त ही चंचल हैं; अतः इनका निरोध परमावश्यक है । 51
चित्त भूमियाँ
योगदर्शन चित्तभूमि अर्थात् मानसिक अवस्था के भिन्न-भिन्न रूपों में विश्वास करता है । व्यास चित्त की पाँच अवस्थाओं अर्थात् पाँच भूमियों का उल्लेख किया है। वे (1) क्षिप्त, (2) मूढ़, (3) विक्षिप्त, (4) एकाग्र, (5) निरुद्ध ।