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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना 67 स्वभाव है। इसके अतिरिक्त न्याय-वैशेषिक आत्मा को इच्छा, द्वेष, सुख, दुख, प्रयत्न आदि का आधार बुद्धि को मानता है।
सांख्य शंकर के आत्मा-सम्बन्धी विचार से सहमत नहीं है, शंकर ने आत्मा को चैतन्य के साथ ही साथ आनन्दमय माना है। आत्मा सत्+चित्+आनन्द-सच्चिदानंद है।
सांख्य आत्मा को आनन्दमय नहीं मानता है। आनन्द और चैतन्य विरोधात्मक गुण हैं। एक ही वस्तु में आनन्द और चैतन्य का निवास मानना भ्रान्तिमूलक है। इसके अतिरिक्त आनन्द सत्त्व का फल है, आत्मा सत्त्वगुण से शून्य है, क्योंकि वह त्रिगुणातीत है। इसलिए आनन्द आत्मा का स्वरूप नहीं हो सकता है, फिर यदि आत्मा को आनन्द से युक्त माना जाए तो आत्मा का स्वरूप नहीं हो सकता है। फिर यदि आत्मा को आनन्द से युक्त माना जाए तो आत्मा में चैतन्य और आनन्द के द्वैत का निर्माण होगा। इस द्वैत से मुक्त करने के लिए सांख्य ने आत्मा को आनन्दमय नहीं माना है।
सांख्य और शंकर के आत्मा-सम्बन्धी विचार में दूसरा अन्तर यह है कि शंकर ने आत्मा को एक माना है, जबकि सांख्य ने आत्मा को अनेक माना है। शंकर के अनुसार आत्मा की अनेकता अज्ञान के कारण उपस्थित होती है। जिसके फलस्वरूप वह अयथार्थ है, परन्तु सांख्य अनेकता को सत्य मानता है।
सांख्य का पुरुष-विचार बुद्ध के आत्मा-विचार से भिन्न है। बुद्ध ने आत्मा को विज्ञान का प्रवाह माना है, परन्तु सांख्य ने इसके विपरीत परिवर्तनशील आत्मा को मानकर आत्मा की नित्यता पर जोर दिया है।
सांख्य के 'आत्मा' और चार्वाक के 'आत्मा' में मूल भेद यह है कि सांख्य आत्मा को अभौतिक मानता है, जबकि चार्वाक आत्मा को शरीर से अभिन्न अर्थात् भौतिक मानता है। सांख्य के बन्धन और मोक्ष सम्बन्धी विचार
___सांख्य संसार को दुखमय मानता है। जरा, मृत्यु, रोग, जन्म आदि सांसारिक दुःखों का प्रतिनिधित्व करते हैं। विश्व दुःखों से परिपूर्ण हैं, क्योंकि समस्त विश्व गुणों के अधीन है। जहाँ गुण हैं, वहाँ दुख है। संसार को दुःखात्मक मानकर सांख्य भारतीय विचारधारा की परम्परा का पालन करता