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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना स्वतन्त्र सृष्टि के कार्य से अलग हो जाती है । मोक्ष की अवस्था में विविध दुख का नाश हो जाता है। सभी प्रकार के दुखों का विनाश ही मोक्ष है। मोक्ष, अज्ञान, इच्छा, धर्म और अधर्म - दुखों के कारण का विनाश कर देता है। इसके फलस्वरूप दुखों का आप से आप अन्त हो जाता है। सांख्य के अनुसार मोक्ष सुखरूप नहीं है
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यहाँ पर सांख्य का मोक्ष सम्बन्धी विचार शंकर के मोक्ष - सम्बन्धी" विचार से भिन्न हैं। शंकर ने मोक्ष को आनन्दमय माना है, परन्तु सांख्य मोक्ष को आनन्दमय या सुखरूप नहीं मानता है। सुख-दुख सापेक्ष और अवियोज्य है । जहाँ सुख होगा, वहाँ दुख भी अवश्य होगा। मोक्ष को सुख और दुख से परे माना जाता है। इसके अतिरिक्त मोक्ष को आनन्दमय नहीं मानने का दूसरा कारण यह है कि सुख अथवा आनन्द उन्हीं वस्तुओं में होता है, जो .. सत्त्व गुण के अधीन हैं; क्योंकि आनन्द सत्त्व गुण का कार्य है।
मोक्ष की अवस्था त्रिगुणातीत है। अतः मोक्ष को आनन्दमय मानना प्रमाण संगत नहीं है ।
सांख्य दो प्रकार की मुक्ति को मानता है- (1) जीवन मुक्ति (2) विदेह मुक्ति |
जीव को ज्यों ही तत्त्वज्ञान का अनुभव होता है, त्यों ही वह मुक्त हो जाता है। यद्यपि वह मुक्त हो जाता है, फिर भी पूर्व जन्मों के प्रभाव के कारण उसका शरीर विद्यमान रहता है, शरीर का रहना मुक्ति प्राप्ति में बाधा नहीं डालता है। पूर्व जन्मों के कर्मों का फल जब तक शेष नहीं हो जाता है, शरीर जीवित रहता है। इसकी व्याख्या एक उपमा से की जाती है । जिस प्रकार कुम्हार के डण्डे को हटा लेने के बावजूद पूर्व वेग के कारण कुम्हार का चक्का कुछ समय तक घूमता रहता है, उसी प्रकार पूर्व जन्म के उन कर्मों के कारण जिनका फल समाप्त नहीं हुआ है, शरीर मुक्ति के बाद. भी कुछ समय तक कायम रहता है। इस प्रकार की मुक्ति को जीवन मुक्ति, कहा जाता है ।
जीवन मुक्ति का अर्थ है - जीवनकाल में मोक्ष की प्राप्ति | इस मुक्ति .. को सन्देह मुक्ति भी कहा जाता है; क्योंकि इस मुक्ति में देह विद्यमान रहता है। जीवन मुक्त व्यक्ति के शरीर के रहने पर भी शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं अनुभव करता। वह क़र्म करता है, परन्तु उसके द्वारा किये गये कर्म से फल का संचय नहीं होता है, क्योंकि कर्म की शक्ति समाप्त हो जाती है, अन्तिम