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38 कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना
आस्तिक और नास्तिक का वर्गीकरण-कुछ अन्य विद्वानों ने इनको आस्तिक और नास्तिक के रूप में वर्गीकृत किया है। इनमें 'आस्तिक' का अर्थ है-'है' इस प्रकार का विश्वास करने वाला और नास्तिक का अर्थ है-'नहीं है' इस प्रकार का विश्वास करने वाला। इन दोनों ही शब्दों की व्युत्पत्ति, पाणिनी के 'अस्ति नास्ति दिष्टं मतिः' इस सूत्र के नियमानुसार क्रमशः 'अस्ति इति मतिः यस्य सः और 'नास्ति इति मतिः यस्य सः' के रूप में की गई है।
सूत्र में यह स्पष्ट नहीं है कि यह अस्तित्व और अनस्तित्व किस वस्तु का है, किन्तु बाद में आचार्यों ने परलोक शब्द जोड़कर अभीष्ट वाक्य की पूर्ति की; इस प्रकार उनकी व्याख्या के अनुसार परलोक की सत्ता में विश्वास करने वालों को आस्तिक (अस्ति परलोकः इति मतिर्यस्य सः) और परलोक की सत्ता में विश्वास न करने वाले को नास्तिक (नास्ति परलोकः इति मतिर्यस्य सः) कहा गया है; परन्तु इस वर्गीकरण में वर्गीकरण जैसा कुछ नहीं है, क्योंकि सभी भारतीय दर्शनों में केवल चार्वाक दर्शन ही ऐसा है, जिसे उक्त अर्थ में नास्तिक कहा जा सकता है।
शेष सभी दर्शन परलोक में किसी न किसी रूप में विश्वास करने के कारण आस्तिक ही हैं और कोई भी वर्गीकरण केवल एक को तो अलग करने के लिए हो नहीं सकता। वस्तुतः इससे अच्छा वर्गीकरण तो भौतिक-अभौतिक के आधार पर हो सकता है।
परन्तु नास्तिक और आस्तिक शब्दों का अर्थ व्याकरणिक व्युत्पत्ति से न लेकर यदि हम 'मनुस्मृति के अनुसार लें अर्थात् वेद की निन्दा करने वाला नास्तिक है (नास्तिको वेदनिन्दकः) और उसको प्रमाण मानने वाला आस्तिक है तो उपर्युक्त वर्गीकरण को बहुत उचित माना जा सकता है और इस आधार पर चार्वाक, जैन और बौद्ध दर्शनों को नास्तिक कोटि में रखा जाता है, क्योंकि वे वेदों को प्रमाण नहीं मानते हैं, इसके विपरीत वेदों को किसी न किसी रूप में प्रमाण मानने के कारण वर्तमान में 'षड्दर्शन' के नाम से प्रसिद्ध-न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त आदि दर्शन धाराएँ आस्तिक की कोटि में समाविष्ट होंगी। ...
उपनिषदों में आत्मज्ञान को बहुत महत्त्व दिया गया है। इस आत्मज्ञान का ही दूसरा नाम आध्यात्मिकता है। आध्यात्मिकता का विकास और उन्नयन दर्शन के द्वारा ही सम्भव है। विपरीत ज्ञान एवं मिथ्याज्ञान, जो