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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना 47 की अभिव्यक्ति है। ब्रह्म ही जगत की उत्पत्ति का कारण है। जगत ब्रह्म से उत्पन्न होता है, उसी से पलता है और अन्त में उसी में समा जाता है। वृहदारण्यक उपनिषद् में कहा गया है कि ब्रह्म सृष्टि की रचना करता है और उसी में प्रविष्ट हो जाता है। देश, काल, प्रकृति आदि ब्रह्म का आवरण हैं, क्योंकि सभी में ब्रह्म व्याप्त है। जिस प्रकार नमक पानी में घुल कर सारे पानी को व्याप्त कर लेता है, उसी प्रकार ब्रह्म पदार्थों के अन्दर व्याप्त हो जाता है।
उपनिषद् में कई स्थानों पर जगत को ब्रह्म का विकास माना गया है। ब्रह्म से जगत के विकास का क्रम भी उपनिषदों में निहित है। विकास का क्रम यह है कि सर्वप्रथम ब्रह्म से आकाश का विकास होता है। आकाश से वायु का, वायु से अग्नि का विकास होता है। जगत के विकास के अतिरिक्त उपनिषद् में जगत के पाँच स्तरों का उल्लेख हुआ है, जिसे 'पंचकोष' कहा जाता है। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय को पंचकोष कहा गया है। भौतिक पदार्थ को अन्नमय कहा गया है। पौधे प्राणमय हैं, पशु मनोमय है। मनुष्य को विज्ञानमय तथा विश्व के वास्तविक स्वरूप को आनन्दमय कहा गया है।
सष्टि की व्याख्या उपनिषदों में सादृश्यता एवं उपमाओं के बल पर की गयी है। जैसे प्रज्ज्वलित अग्नि से चिनगारियाँ निकलती हैं, सोने से गहने बन जाते हैं, मोती से चमक उत्पन्न होती है, बाँसुरी से ध्वनि निकलती है; वैसे ही ब्रह्म से सृष्टि होती है। मकड़ी की उपमा से भी जगत के विकास की व्याख्या की गई है। जिस प्रकार मकड़ी के अन्दर से उसके द्वारा बनाये गये जल के धागे निकलते हैं, इसी प्रकार ब्रह्म से सृष्टि होती है। सृष्टि को ब्रह्म की लीला भी माना गया है, क्योंकि यह आनन्ददायक खेल है।
निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि 'उपनिषदों में कहीं भी विश्व को एक भ्रमजाल नहीं कहा गया है। उपनिषद के ऋषिगण प्राकृतिक जगत् के अन्दर जीवन-यापन करते रहे और उन्होंने इस जगत् से दूर भागने का विचार तक नहीं किया। जगत् को कहीं भी उपनिषद् में निर्जन एवं शून्य नहीं माना गया है। अतः उपनिषद् जगत् से पलायन की शिक्षा नहीं देता है। 19 उपनिषदों में माया और अविद्या सम्बन्धी विचार -..
उपनिषदों में माया और अविद्या का विचार भी पूर्णतः व्याप्त है।