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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना
वे हैं - (1) जागृतावस्था, (2) स्वप्नावस्था, ( 3 ) सुषुप्तावस्था और (4) तुरीयावस्था ।
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जागृतावस्था में जीवात्मा 'विश्व' कहलाता है। वह बाह्य इन्द्रियों द्वारा सांसारिक विषयों का भोग करता है ।
स्वप्नावस्था में जीवात्मा 'तैजस' कहलाता है । वह आन्तरिक सूक्ष्म वस्तुओं को जानता है और उनका भोग करता है।
सुषुप्ति की अवस्था में जीवात्मा 'प्रज्ञा' कहलाता है, जो कि शुद्ध चित्त के रूप में विद्यमान रहता है। इस अवस्था में वह आन्तरिक या बाह्य वस्तुओं को नहीं देखता है। तुरीयावस्था में जीवात्मा को आत्मा कहा जाता है । वह शुद्ध चैतन्य है । तुरीयावस्था की आत्मा ही ब्रह्म है । माण्डूक्य उपनिषद् में आत्मा की इन अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है ।
तैत्तिरीय उपनिषद् में जीव के पाँच कोषों का वर्णन है - (1) अन्नमय कोष -स्थूल शरीर को अन्नमय कोष कहा गया है। यह अन्न पर आश्रित है। (2) प्राणमय कोष - अन्नमय कोष के अन्दर प्राणमय कोष है । यह शरीर में गति देने वाली प्राण शक्तियों से निर्मित हुआ है । यह प्राण पर आश्रित है । (3) मनोमय कोष - प्राणमय कोष के अन्दर मनोमय कोष है। यह मन पर निर्भर है। इसमें स्वार्थमय इच्छायें हैं । (4) विज्ञानमय कोष - मनोमय कोष के अन्दर 'विज्ञानमय कोष' है । यह बुद्धि पर आश्रित है। इसमें ज्ञाता और ज्ञेय का भेद करने वाला ज्ञान निहित है । ( 5 ). आनन्दमय कोष - विज्ञानमय कोष के अन्दर आनन्दमय कोष है । यह ज्ञाता और ज्ञेय के भेद से शून्य चैतन्य है। इसमें आनन्द का निवास है । यह पारमार्थिक और पूर्ण है । यह आत्मा का सार है, न कि कोष । यही ब्रह्म है । इस आत्मा के ज्ञान से जीवात्मा बन्धन से छुटकारा पा जाता है। इस ज्ञान का आधार अपरोक्ष अनुभूति है ।
चूँकि आत्मा का वास्तविक स्वरूप आनन्दमय है, इसलिए आत्मा को सच्चिदानन्द भी कहा गया है। आत्मा शुद्ध सत्, चित्त और आनन्द का सम्मिश्रण है। आत्मा की विभिन्न अवस्थाओं के विश्लेषण से यह सिद्ध हो जाता है कि आत्मा सत् + चित् + आनन्द है ।
उपनिषदों में जगत सम्बन्धी विचार
उपनिषद् दर्शन में जंगत को सत्य माना गया है, क्योंकि जगत ब्रह्म