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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना
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न्याय आत्मा को स्वरूपतः अचेतन मानता है । आत्मा में चेतना का संचार एक विशेष परिस्थिति में होता है, चेतन का उदय आत्मा में तभी होता है |23 जब आत्मा का सम्पर्क मन के साथ तथा मन का इन्द्रियों के साथ सम्पर्क होता है तथा इन्द्रियों का ब्राह्य जगत् के साथ सम्पर्क होता है । यदि आत्मा का ऐसा सम्पर्क न हो तो आत्मा में चैतन्य का आविर्भाव नहीं हो सकता है
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इस प्रकार चैतन्य आत्मा का आगन्तुक गुण है । आत्मा वह द्रव्य है, जो स्वरूपतः चेतन न होने के बावजूद भी चैतन्य को धारण करने की क्षमता रखती है। आत्मा का स्वाभाविक रूप सुषुप्ति और मोक्ष की अवस्था में दिख पड़ता है। जब वह चैतन्य गुण से शून्य रहती है । जागृत अवस्थाओं में मन, इन्द्रियाँ तथा बाह्य जगत में सम्पर्क होने के कारण आत्मा में चैतन्य का उदय होता है । न्याय का आत्मविचार जैन और सांख्य के आत्म-विचार का विरोधी है। जैन और सांख्य दर्शनों में आत्मा को स्वरूपतः चेतन माना गया है। इन दर्शनों में चैतन्य को आत्मा का गुण कहने के बजाय स्वभाव माना गया है ।
आत्मा शरीर से भिन्न है । शरीर को अपनी चेतना नहीं है । शरीर जड़ है, परन्तु आत्मा चेतन है आत्मा शरीर के अधीन है। इसलिए शरीर आत्मा के बिना क्रिया नहीं कर सकता है। 24
आत्मा बाह्य इन्द्रियों से भिन्न है; क्योंकि कल्पना, विचार आदि मानसिक व्यापार बाह्य इन्द्रियों के कार्य नहीं हैं । 25 आत्मा मन से भी भिन्न है। न्याय-दर्शन में मन को अणु माना गया है। अणु होने के कारण मन अप्रत्यक्ष है। मन को आत्मा मानने से सुख, दुःख भी मन ही के गुण होंगे तथा वे अणु की तरह अप्रत्यक्ष होंगे; परन्तु सुख, दुःख की प्रत्यक्ष अनुभूति हमें मिलती है, जो यह प्रमाणित करता है कि सुख, दुःख मन के गुण नहीं हैं; अतः मन को आत्मा नहीं माना जा सकता है।
आत्मा को मन का प्रवाह मानना भी अप्रमाण - संगत है। यदि हम आत्मा को विज्ञान का प्रवाह मात्र मानते हैं तो वैसी हालत में स्मृति की व्याख्या करना असम्भव हो जाता है, अतः बौद्ध दर्शन ने आत्मा को विज्ञान का प्रवाह मानकर भारी भूल की है।
आत्मा को शुद्ध चैतन्य मानना जैसा कि शंकर ने माना है भी भ्रामक है। इसका कारण यह है कि शुद्ध चैतन्य नामक कोई पदार्थ नहीं है। चैतन्य