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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना
समान तन्त्र कहना पूर्णतः संगत है।
वैशेषिक दर्शन में आत्मा का स्वरूप
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वैशेषिक दर्शन में आत्मा उस सत्ता को कहा गया है, जो चैतन्य का आधार है। इसलिए कहा गया है कि आत्मा वह द्रव्य है, जो ज्ञान का आधार है। वस्तुतः वैशेषिक ने दो प्रकार की आत्माओं को माना है(1) जीवात्मा और (2) परमात्मा ।
जीवात्मा की चेतना सीमित है, जबकि परमात्मा की चेतना असीमित है। जीवात्मा अनेक हैं, जबकि परमात्मा एक है। परमात्मा ईश्वर का दूसरा ही नाम है। ईश्वर की व्याख्या करने से पूर्व हम जीवात्मा की, जिसे साधारणतः आत्मा कहा जाता है, व्याख्या करेंगे।
वैशेषिक के मतानुसार ज्ञान, सुख, दुःख, इच्छा, धर्म, अधर्म आदि आत्मा के विशेष गुण हैं । जीवात्मा अनेक हैं। जितने शरीर हैं, उतनी ही जीवात्मा होती हैं । प्रत्येक जीवात्मा में मन का निवास होता है, जिसके कारण इनकी विशिष्टता विद्यमान रहती है । आत्मा की अनेकता को वैशेषिक ने जीवात्माओं की अवस्थाओं में भिन्नता के आधार पर सिद्ध किया है। कुछ जीवात्मा सुखी हैं, कुछ दुःखी हैं, कुछ धनवान हैं, कुछ निर्धन हैं। ये विभिन्न अवस्थाएँ अनेक आत्माओं को प्रस्तावित करती हैं । 34
वैशेषिक ने आत्मा को अमर माना है । यह अनादि और अनन्त है। आत्मा की सत्ता को प्रमाणित करने के लिए वैशेषिक ने कुछ युक्तियों का उपयोग किया है। वे ये हैं- (1) प्रत्येक गुण का कुछ न कुछ आधार होता है । चैतन्य एक गुण है। इस गुण का आश्रय शरीर, मन और इन्द्रियाँ नहीं हो सकतीं। अतः इस गुण का आश्रय आत्मा है। चैतन्य आत्मा का स्वरूप गुण नहीं है, अपितु यह उसका आगन्तुक गुण | आत्मा में चैतन्य का आविर्भाव तब होता है; जब आत्मा का सम्पर्क शरीर, इन्द्रियों और मन से होता है। आत्मा की यह व्याख्या सांख्य-योग की आत्मा की व्याख्या से भिन्न प्रतीत होती है। सांख्य- योग के मतानुसार चैतन्य आत्मा का स्वरूप लक्षण है।
(2) जिस प्रकार कुल्हाड़ी का व्यवहार करने के लिए एक व्यक्ति की आवश्यकता होती है; उसी प्रकार आँख, कान, नाक आदि विभिन्न ज्ञानेन्द्रियों का उपयोग करने वाला भी कोई होना चाहिए, वही आत्मा है ।