________________
कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना 43
कठोपनिषद् में निषेधात्मक व्याख्या पर बल देते हुए कहा गया है कि ब्रह्म अशब्द, अरूप, अस्पर्श, अरस, अगन्ध, अनादि और अनन्त है। तैत्तरीय उपनिषद् में ब्रह्म को 'वाणी' एवं 'मन' से परे बतलाया गया है। ब्रह्म को न पाकर वाणी और मन लौट आते हैं। (यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह) इस प्रकार नेति-नेति सिद्धान्त के द्वारा ब्रह्म की अनिर्वचनीयता का बोध होता है। ब्रह्म की अनिर्वचनीयता से यह निष्कर्ष निकालना कि ब्रह्म असत् है भ्रामक होगा। ... ब्रह्म अनन्तिम है। वह सभी प्रकार की सीमाओं से शून्य है, परन्तु इससे यह निष्कर्ष निकालना कि ब्रह्म अज्ञेय है, सर्वथा गलत होगा। उपनिषद् में ब्रह्म को ज्ञान का आधार कहा गया है। वह ज्ञान का विषय नहीं है।
___ब्रह्मज्ञान ही उपनिषदों का लक्ष्य है। ब्रह्मज्ञान के बिना कोई भी ज्ञान सम्भव नहीं है, उसे अज्ञेय कहना भ्रामक है। यद्यपि उपनिषद् में ब्रह्म को निर्गुण कहा गया है, परन्तु इससे यह निष्कर्ष निकालना कि ब्रह्म गुणों से शून्य है अनुचित होगा। ब्रह्म के तीन स्वरूप लक्षण बतलाये गये हैं। वह विशुद्ध सत्, विशुद्ध चित् और विशुद्ध आनन्द हैं। जिस सत्, चित् और आनन्द को हम व्यावहारिक जगत में पाते हैं; वह ब्रह्म का सत्, चित् और आनन्द नहीं है। ब्रह्म का सत् सांसारिक सत् से परे है। उसका चित् ज्ञाता और ज्ञेय के भेद से परे है। ब्रह्म स्वभावतः सत्, चित् और आनन्द है। अतः उपनिषद् में ब्रह्म को 'सच्चिदानन्द' कहा गया है। उपनिषदों में जीव और आत्मा :
· उपनिषदों में आत्मा को चरम तत्त्व माना गया है, आत्मा और ब्रह्म वस्तुतः अभिन्न हैं। उपनिषद् में आत्मा और ब्रह्म की अभिन्नता पर जोर दिया गया है। 'तत्त्वमसि अहं ब्रह्मास्मि' आदि वाक्य आत्मा और ब्रह्म की एकता पर बल देते हैं। शंकर ने भी आत्मा और ब्रह्म के अभेद पर जोर दिया है। आत्मा मूल चैतन्य है। वह ज्ञाता है, ज्ञेय नहीं है। मूल चेतना के आधार को ही आत्मा कहा गया है। वह नित्य और सर्वव्यापी है। आत्मा-विचार उपनिषदों का केन्द्र बिन्दु है। यही कारण है कि आत्मा की विशद व्याख्या उपनिषदों में निहित है।
प्रजापति और इन्द्र के वार्तालाप में प्रजापति आत्मा के स्वरूप की चर्चा करते हुए कहते हैं कि यह शरीर नहीं है। इसे वह भी नहीं कहा जा