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40 कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना ओर आचार्य बादरायण ने वैदिक परम्परा के दर्शन-औपनिषद दर्शन को एक सुव्यवस्थित दर्शन-वेदान्तदर्शन रूप में प्रस्तुत करने के लिए ब्रह्मसूत्रों की रचना की। ब्रह्मसूत्रों में औपनिषद सिद्धान्तों को प्रतिपादित करते हुए सांख्य, वैशेषिक जैन एवं बौद्ध विरोधी मतों का निराकरण किया गया है।
आधुनिक काल में भी सामान्य रूप से समस्त भारतीय दर्शनों एवं विशिष्ट दर्शनों को लेकर प्राच्य और पाश्चात्य भाषाओं में एक विशाल साहित्य लिखा गया है जिनमें यद्यपि मौलिकता का अंश तो कम है, किन्तु उसने ऐतिहासिक विकासक्रम को दर्शाते हुए उनका जो तुलनात्मक और विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है, उसके कारण उसका महत्त्व कम नहीं है। वैदिक परम्परा वेदमूलक है। वैदिक-संस्कृति के वाहक वेदों की गणना विश्व की प्राचीनतम व उच्चतम कोटि के साहित्य में होती है। वेदों से प्राचीनतम धर्म, दर्शन, समाज व संस्कृति की विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है - (क) वेदों में अध्यात्म का स्वरूप :- चूंकि वेद क्रियाकाण्ड में विश्वास करते हैं। अतः वेदों में अध्यात्म को अवकाश नहीं है। वेदों में अत्यल्प ही अध्यात्म का वर्णन है। जैसा कि मुण्डकोपनिषद में कहा गया है –
परा चैवाऽपरा च।।4।। मुण्डकोपनिषद। 101 || तत्राऽपरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदऽथर्ववेदः।।
अथ परा यया तद क्षर मधि गम्यते ।। 5 ||15
अर्थात् दो विद्यायें जाननी चाहिए-परा विद्या और अपरा विद्या। ऋग्वेद आदि चारों वेद तथा तत्सम्बन्धी अन्य साहित्य वे सब अपरा विद्या अर्थात् सांसारिक विद्यायें हैं तथा जिस विद्या के द्वारा यह अन्तरात्मा, प्रत्यगात्मा, विविक्तात्मा जाना जाता है, वह परा विद्या है।
' अर्थात् उपनिषद आदि अध्यात्म शास्त्रों को परा विद्या कहते हैं जबकि निरूक्तकार के मत में वेदों में अत्यल्प मन्त्र आध्यात्मिक हैं और उपनिषदों के मत से वेदों में अध्यात्म ज्ञान है ही नहीं अथवा यदि है भी तो वह नहीं के बराबर है।
इसकी पुष्टि गीता में की गई है। यथा - वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः।। 21 42।।