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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना
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(1) सदार्चन पूजा - इसे नित्यमह पूजा या नित्य नियम पूजा भी कहते हैं । यह चार प्रकार से की जाती है ।
क) अपने घर से अष्ट द्रव्य ले जाकर जिनालय में जिनेन्द्र देव की
करना ।
पूजा करना ।
ख) जिन प्रतिमा व जिनमन्दिर का निर्माण कराना ।
ग) दानपत्र लिखकर ग्राम-खेत आदि का दान देना । घ) मुनिराजों को आहार देना ।
(2) चतुर्मुख पूजा (सर्वतोभद्र पूजा) - मुकुटबद्ध राजाओं द्वारा महापूजा
(3) कल्पद्रुम पूजा - चक्रवर्ती राजा द्वारा किमिच्छिक दान देने के साथ जिनेन्द्र भगवान का पूजोत्सव करना ।
(4) आष्टानिक पूजा - अष्टानिका पर्व में सर्व साधारण के द्वारा पूजा का आयोजन करना ।
(5) ऐन्द्रध्वज पूजा - यह पूजा इन्द्रों द्वारा की जाती है ।
उपर्युक्त पाँच प्रकार की पूजनों में हम लोग सामान्य जन प्रतिदिन केवल सदार्चन (नित्यमह) का 'क' भाग ही करते हैं। शेष पूजा भी यथा अवसर यथायोग्य व्यक्तियों द्वारा की जाती है ।
वसुनन्दि श्रावकाचार में नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से द्रव्यपूजा के छह भेद कहे हैं।
नाम पूजा-अरहन्तादि का नाम उच्चारण करके विशुद्ध प्रदेश में जो पुष्प क्षेपण किये जाते हैं, वह नामपूजा है।
स्थापना पूजा - यह दो प्रकार की है - सद्भाव स्थापना और असद्भाव स्थापना। आकारवान वस्तु में अरहन्तादि के गुणों का आरोपण करना सद्भाव स्थापना है तथा अक्षतादि में अपनी बुद्धि से यह परिकल्पना करना कि यह अमुक देवता है, असद्भाव स्थापना है। असद्भाव स्थापना मूर्ति की उपस्थिति में नहीं की जाती ।
द्रव्य पूजा – अरहन्तादि को गन्ध, पुष्प, अक्षतादि समर्पित करना तथा उठकर खड़े होना, नमस्कार करना, प्रदक्षिणा देना आदि शारीरिक क्रियाओं तथा वचनों से स्तवन करना द्रव्य पूजा है ।