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गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन
और नए शिल्पन से मेरा व्यामोह है, यह बात तो नहीं है फिर भी नवीनता मुझे प्रिय है क्योंकि मेरा यह अभिमत है कि शैलीगत नव्यता भी विचार संप्रेषण का एक सशक्त माध्यम है । सृजन की अनाहत धारा स्रष्टा और द्रष्टा दोनों को ही भीतर तक इतना भिगो देती है कि लौकिक शब्दों में लोकोत्तर अर्थ की आत्मा निखरने लगती है।"
शैली लेखक के सोचने और देखने का अपना तरीका है अतः प्रत्येक साहित्यकार की शैली के कुछ विशिष्ट गुण होते हैं । आचार्य तुलसी की भाषा-शैली की कुछ निजी विशेषताओं का अंकन निम्न बिन्दुओं में किया जा सकता है
प्राचीन जीवन-मूल्यों की सीधी-साधी भाषा में प्रस्तुति किसी सोए मानस को झकझोर कर नहीं जगा सकती। उन्होंने प्राचीन मूल्यों को आधुनिक भाषा का परिधान पहनाकर उसकी इतनी सरस और नवीन प्रस्तुति दी है कि उसे पढ़कर कोई भी आकृष्ट हुए बिना नहीं रह सकता। पांच महाव्रत के स्वरूप को अनुभूति के साथ जोड़ते हुए वे कहते हैं- "मैं शांतिपूर्ण जीवन जीना चाहता हूं क्या अहिंसा इससे भिन्न है ? मैं यथार्थ जीवन जीना चाहता हूं, क्या सत्य इससे भिन्न है ? मैं प्रामाणिक जीवन जीना चाहता हूं, क्या अस्तेय इससे पृथक् चीज है ? मैं शक्ति-सम्पन्न और वीर्यवान जीवन जीना चाहता हूं, क्या ब्रह्मचर्य इससे भिन्न है ? मैं संयमी जीवन जीना चाहता हूं क्या अपरिग्रह इससे भिन्न है ?"
काव्य की भांति उनके गद्यसाहित्य में भी कहीं-कहीं ऐसी भाषा का प्रयोग हुआ है, जिसमें कलात्मकता एकदम मुखर हो उठी है तथा उसमें आलंकारिता की छवि भी निखर भायी है। प्रस्तुत वाक्यों में यमक एवं श्लेष का चमत्कार दर्शनीय है-- १. 'हमने तो टप्पे को टाल दिया था किन्तु टप्पे वालों की भावना इतनी
तीव्र थी कि टप्पा लेना ही पड़ा।' २. 'आज इतवार है पर एतबार है क्या ? ३. 'यदि जीवन पाक नहीं है तो पाकिस्तान बनाने से क्या होने वाला है ?'
गद्य साहित्य में भी उनका उपमा वैचित्य अनुपम है। अनेक नई उपमाओं का प्रयोग उनके साहित्य में मिलता है। निम्न उदाहरण उनके उपमा प्रयोग के सफल नमूने कहे जा सकते हैं___० 'बच्चे-बच्चे के मुख पर झूठ और कपट ऐसे हैं मानो वह ग्रीष्म ऋतु की लू है। जो कहीं भी जाइए, सब जगह व्याप्त मिलेगी।"3
१. एक बूंद : एक सागर, पृ० १७०६ २. राजस्थान में 'टप्पा' चक्कर खाने को कहते हैं । ३. जैन भारती, २१ मई ५३ पृ० २७४
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