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गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन
सहिष्णता के अभाव में मानसिक सन्तुलन बिगड़ जाता है। मन सन्तुलित न हो तो अहिंसात्मक प्रतिकार की बात समझ में नहीं आती, इसलिये वैचारिक सहिष्णुता की बहुत अपेक्षा रहती है।'
मृत्यु से डरने वाला तथा कष्ट से घबराने वाला व्यक्ति थोड़ी-सी यातना की सम्भावना से ही विचलित हो जाता है। ऐसे व्यक्ति हिंसात्मक परिस्थिति के सामने घुटने टेक देते हैं। इस विषय में आचार्य तुलसी का अभिमत है-- “जो व्यक्ति कष्टसहिष्णु होते हैं, वे विषम स्थिति में भी अन्याय और असत्य के सामने झुकने की बात नहीं सोचते। ऐसे व्यक्ति अहिंसात्मक प्रतिकार में अधिक सफल होते हैं । उनकी कष्ट-सहिष्णुता इतनी बढ़ जाती है कि वे मृत्यु तक का वरण करने के लिये सदा उद्यत रहते हैं। जिन व्यक्तियों को मृत्यु का भय नहीं होता, वे सत्य की सुरक्षा के लिए सब-कुछ कर सकते हैं। प्रतिरोधात्मक अहिंसा का प्रयोग इन्हीं व्यक्तियों द्वारा किया जाता है।
कुछ व्यक्ति हड़ताल, घेराव आदि साधनों को अहिंसात्मक प्रतिकार के रूप में स्वीकार करते हैं किन्तु इस विषय में आचार्य तुलसी का दृष्टिकोण कुछ भिन्न है । वे स्पष्ट कहते हैं-"घेराव में हिंसात्मक उपकरणों का सहारा नहीं लिया जाता, यह ठीक है, फिर भी वह अहिंसा का साधन नहीं हो सकता, क्योंकि इसमें उत्सर्ग की भावना विलुप्त है। अपनी शक्ति से किसी को बाध्य करना अहिंसा नहीं हो सकती क्योंकि बाध्यता स्वयं हिंसा है। इस प्रकार सविनय अवज्ञा आन्दोलन, सत्याग्रह, घेराव आदि साधनों की भूमिका में विशुद्धता, तटस्थ दृष्टिकोण, देशकाल और परिस्थितियों का सही विचार और आत्मोत्सर्ग की भावना निहित हो तो मैं समझता हूं कि अहिंसा को इन्हें स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं होता।"
इस कथन का तात्पर्य यह है कि अन्याय से अन्याय को परास्त करना दुर्बलता है तथा अन्याय को स्वीकार करना भी बहुत बड़ी कायरता और हिंसा है। उनका अपना अनुभव है कि यदि मांग में औचित्य है तो उसे स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं रहनी चाहिए अन्यथा हिंसा के सामने झुकना सिद्धांत की हत्या करना है।" सद्भावना, मैत्री, प्रेम, करुणा की वृत्ति से हिंसा को पराजित किया जा सकता है। बलप्रयोग, दबाव या बाध्यता चाहे अहिंसात्मक ही क्यों न हो, उसमें सूक्ष्म हिंसा का भाव रहता है। अहिंसात्मक प्रतिरोध की शक्ति बलिदान की भावना तथा अभय की साधना से ही सफल हो सकती है। क्योंकि स्वयं हिंसा भी बलिदान के
१. अणुव्रत के आलोक में, पृ० ५० २. अणुव्रत के आलोक में, पृ० ५० ।
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