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आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण
धर्म और राजनीति की समस्या को सुलझाने के लिए वे राजनयिकों को भी अनेक बार सुझाव दे चुके हैं-- "यदि धर्मनिरपेक्षता को सम्प्रदायनिरपेक्षता के रूप में मान्यता देकर मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाया जाय तो राष्ट्रीय एकता की नींव सशक्त हो सकती है। मेरा विश्वास है कि हिंदुस्तान सम्प्रदायनिरपेक्ष होकर अपनी एकता बनाए रख सकता है किंतु धर्महीन होकर अपनी एकता को सुरक्षित नहीं रख सकता।''
राष्ट्रीय एकता को सबसे बड़ा खतरा उन स्वार्थी राष्ट्र-नेताओं से भी है, जो केवल अपने हित की बात सोचते हैं। देश-सेवा के नाम पर अपना घर भरते हैं; तथा धर्म, सम्प्रदाय, वर्ग आदि के नाम पर जनता को बांटने का प्रयत्न करते हैं। इस संदर्भ में आचार्य तुलसी का उन लोगों के लिए संदेश है-- ० पूरे विश्व को चरित्र की शिक्षा देने वाला भारत आज इतना दीनहीन क्यों होता जा रहा है ? स्वार्थ का कौन सा ऐसा दैत्य उसे इस प्रकार नचा रहा है ? क्या इस देश की जनता परार्थ और परमार्थ
की भूमिका पर खड़ी होकर नहीं सोच सकती ? २ ० राष्ट्रीय धरा से जुड़कर रहने में ही सबकी अस्मिता सुरक्षित रह सकती है तथा सबको विकास का अवसर मिल सकता है ।
राष्ट्रीय एकता परिषद् की दूसरी संगोष्ठी के अवसर पर प्रेषित अपने एक विशेष संदेश में वे खुले शब्दों में कहते हैं-दलगत राजनीति और चुनाव समस्याओं को उभारने में सक्रिय भूमिका निभाते हैं। अपने-अपने दल की सत्ता स्थापित करने के लिए कभी-कभी वे काम भी हो जाते हैं, जो राष्ट्र के हित में नहीं हैं । ....... सत्ता को हथियाने की स्पर्धा होना अस्वाभाविक नहीं है पर स्पर्धा के वातावरण में जैसे-तैसे बहुमत और सत्ता पाने पर ही ध्यान केन्द्रित रहता है । यह एक समस्या है, जो राष्ट्रीय एकता की बहुत बड़ी बाधा है। वे भारत के राजनैतिक दलों की बदतर स्थिति का जिक्र करते हुए कहते हैं - "भारत में एक-दो दल नहीं, दल में भी उपदल हैं । उपदल में भी और दलदल हैं । सभी में ऐसे दुर्दान्त कलह पनप रहे हैं कि भाड़ में चने की भांति एक एक ओर भागता है तो दूसरा दूसरी ओर । ... ... कभी-कभी तो वे बच्चों के खेल से भी ज्यादा घटिया हो जाते हैं । इस प्रकार अपने ही
१. युवादृष्टि, फर० १९९४ । २. बैसाखियां विश्वास की, पृ० ८७ । ३. अणुव्रत पाक्षिक, १६ मई १९९० । ४. बैसाखियां विश्वास की, पृ० १०५ । ५. विज्ञप्ति सं० ९४४ ।
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