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गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन
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करने वाली निम्न पंक्तियां उनके सार्वजनिक एवं आत्मीय व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है- "युवापीढ़ी सदा से मेरी आशा का केन्द्र रही है, चाहे वह मेरे दिखाए मार्ग पर कम चल पायी हो या अधिक चल पाई हो, फिर भी मेरे मन में उनके प्रति कभी भी अविश्वास और निराशा की भावना नहीं आती। मुझे युवक इतने प्यारे लगते हैं, जितना कि मेरा अपना जीवन । मैं उनकी अद्भुत कार्यजा शक्ति के प्रति पूर्ण विश्वस्त हूं।"१ समाज और अर्थ
समाज से अर्थ को अलग नहीं किया जा सकता । क्योंकि सामाजिक जीवन में यह विनियोग का साधन है । अपरिग्रही एवं अकिंचन होने पर भी आचार्य तुलसी ने अपने साहित्य में समाज के सभी विषयों पर सूक्ष्म विश्लेषण प्रस्तुत किया है। अर्थ के बारे में उनका चिंतन है कि सामाजिक प्राणी के लिए धन जीवन चलाने का साधन हो सकता है, पर जब उसे जीवन का साध्य मान लिया जाता है, तब शोषण, उत्पीड़न, अनाचरण, अप्रामाणिकता, हिंसा और भ्रष्टाचार से व्यक्ति बच नहीं सकता।
___अर्थशास्त्री उत्पादन-वृद्धि के लिए इच्छा-तृप्ति एवं इच्छा-वृद्धि की बात कहते हैं । पर आचार्य तुलसी इच्छा-तृप्ति के स्थान पर इच्छा-परिमाण एवं इच्छा-रूपान्तरण की बात सुझाते हैं, क्योंकि इच्छाओं का क्षेत्र इतना विशाल है कि उनकी पूर्ण तृप्ति असंभव है। उनके इच्छा-परिमाण का अर्थ वस्तु-उत्पादन बन्द करना या गरीब होना नहीं, अपितु अनावश्यक संग्रह के प्रति आकर्षण कम करना है। आचार्य तुलसी का चितन है कि निस्सीम इच्छाएं व्यक्ति को आनंदोपलब्धि की विपरीत दिशा में ले जाती हैं अतः इच्छाओं का परिष्कार ही समाज-विकास या जीवन-विकास है।
राष्ट्र-विकास के संदर्भ में वे इच्छा-परिमाण को व्याख्यायित करते हुए कहते हैं--- "इच्छाओं का अल्पीकरण विलासिता को समाप्त करने के लिए है। अनन्त आसक्ति और असीम दौड़धूप से बचने के लिए है, न कि देश की अर्थव्यवस्था का अवमूल्यन करने के लिए।" वे इस सत्य को स्वीकार करते हैं कि संसारी व्यक्ति भौतिक सुखों से सर्वथा विमुख बन जाए, यह आकाशकुसुम जैसी कल्पना है किंतु अन्याय के द्वारा धन-संग्रह न हो, अनर्थ में अर्थ का प्रयोग न हो, यह आवश्यक है।
__ समाज के आर्थिक वैषम्य को दूर करने हेतु वे नई सोच प्रस्तुत करते हैं ---"आर्थिक वैषम्य मिटाओ' इसकी जगह हमारा विचारमूलक प्रचार कार्य यह होना चाहिए कि 'आर्थिक दासता मिटाओ'।"२ इसके लिए आचार्य १. एक बूंद : एक सागर, पृ० १७११ । २. एक बूंद : एक सागर, पृ० ३८९ ।
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