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गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन
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विचारों का प्रस्तुतीकरण हुआ है । यह पुस्तक दक्षिण यात्रा के परिव्रजन काल की कुछ सामग्री हमारे सामने प्रस्तुत करती है । ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह पुस्तक अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है । क्योंकि अनेक व्यक्तियों के बारे में इस पुस्तक में आचार्य तुलसी के विचारों का संकलन है । अहिंसा में आस्था रखने वाले पाठक को यह पुस्तक नया आलोक देगी, ऐसा विश्वास है ।
धर्म और भारतीय दर्शन
आचार्य तुलसी की इस पुस्तिका में 'भारतीय दर्शन परिषद्' के रजत जयंती समारोह के अवसर पर कलकत्ते में पठित एक विशेष लेख का संकलन है । यह लेख धर्म के शुद्ध स्वरूप का बोध तो कराता ही है साथ ही धर्म क्यों, इस पर भी दार्शनिक दृष्टि से विवेचन प्रस्तुत करता है । प्रस्तुत निबन्ध तथाकथित धार्मिकों को कुछ नए सिरे से सोचने को मजबूर करता है ।
धर्म : सब कुछ है, कुछ भी नहीं
१९५० में हुए 'सर्वधर्म संकलित है । इस लेख वर्णित धर्म का स्वरूप
इस पुस्तिका में दिल्ली में जनवरी सन् सम्मेलन' में आचार्य तुलसी का प्रेषित प्रवचन का शीर्षक ही आकर्षक नहीं है अपितु इसमें भी मार्मिक हृदयस्पर्शी और नवीनता लिए हुए है। आचार्य तुलसी मंतव्य है कि यदि धर्म इस जन्म में शांति और सुख उससे पारलौकिक शांति की कल्पना व्यर्थ है । इसलिए परक और क्रियाकांडयुक्त धर्म को महत्त्व न देकर धर्म के में उतारने की बात जनता के समक्ष रखी है । इसी तथ्य की पुष्टि प्रवचन के उपसंहार में इन शब्दों में होती है "मैं तो यही कहूंगा कि यदि धर्म का आचरण किया जाए तो वह विश्व को सुखी करने के लिए सर्वशक्तिमान् है और यदि धर्म का आचरण न किया जाए तो वह कुछ भी नहीं कर सकता है : "
धर्म-सहिष्णुता
अणुव्रत के माध्यम से धर्मक्रांति का जो स्वर आचार्य तुलसी ने बुलन्द किया है, वह भारत के इतिहास में अविस्मरणीय है । उनके ओजस्वी विचारों ने मृतप्रायः धार्मिक क्रियाकांडों को नवीनता प्रदान कर उन्हें जीवंत करने का प्रयत्न किया है । सांप्रदायिकता एवं धार्मिक असहिष्णुता को मिटा कर सर्वधर्मसमन्वय का वातावरण बनाया है ।
धार्मिक संकीर्णता के दुष्परिणामों को देखकर अपनी पीड़ा की अभिव्यक्ति लेखक ने पुस्तिका की भूमिका में इन शब्दों में की है---" सब धर्मों
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नहीं देता है तो उन्होंने उपासनासंदेश को जीवन
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