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आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण
दारिद्र्य नहीं है ?"" उक्त उद्धरण का अर्थ यह नहीं कि वे समाज में सभी को संन्यासी जैसा जीवन व्यतीत करने का संदेश देते हैं । निम्न वक्तव्य उनके सन्तुलित एवं सटीक चिन्तन का प्रमाणपत्र कहा जा सकता है - " मैं सामाजिक जीवन में आमोद-प्रमोद की समाप्ति की बात नहीं कहता, न उसमें रुकावट डालता हूं, किन्तु यदि हमने युग की धारा को नहीं समझा तो हम पिछड़ जाएंगे ।
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व्यवसाय
सामाजिक प्राणी के लिए आजीविका हेतु व्यवसाय करना आवश्यक है । क्योंकि उसके बिना जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती । आचार्य तुलसी व्यवसाय में नैतिकता को अनिवार्य मानते हैं । इस सन्दर्भ में उनका निम्न सम्बोध अत्यन्त प्रेरक है - " व्यवसाय में नैतिक मूल्यों की अवहेलना जघन्य अपराध है । शस्त्रास्त्र द्वारा मनुष्य का विनाश कब होगा, निश्चित नहीं है, लेकिन मानव यदि नैतिक और प्रामाणिक नहीं बना तो वह स्वयं अपनी नजरों में गिर जाएगा, यह स्थिति विनाश से भी अधिक खतरनाक होगी ।''३ सम्पूर्ण व्यापारी समाज को उनका प्रतिबोध है- 'जाए लाख पर रहे साख' इस आदर्श की मीनार पर खड़े व्यक्ति कभी नैतिक मूल्यों का अतिक्रमण नहीं कर सकते । नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों की खोज करने वाला समाज प्रकाश की खोज करता है, अमृत की खोज करता है और आनन्द की खोज करता है ।'
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व्यापार के क्षेत्र में चलने वाली अनैतिकता एवं अप्रामाणिकता को देख-सुनकर उनका मानस कभी-कभी बेचैन हो जाता है । इसलिए वे समयसमय पर प्रवचन सभाओं में इस विषय में अपने प्रेरक विचारों से समाज को लाभान्वित करते रहते हैं । दक्षिण यात्रा के दौरान एक सभा को सम्बोधित करते हुए वे कहते हैं- " आप व्यापार करते हैं, पैसा कमाते हैं, इसमें मुझे कोई आपत्ति नहीं । किन्तु व्यापार में जो बुराई है, धोखा है, लिए मैं उपदेश नहीं दूं, समाज को नई सूझ न दूं, यह कैसे आपके विरोध के भय से नैतिकता की आवाज बन्द नहीं कर सकता । शोषण और अमानवीय व्यवहार के विरोध में मैं जीवन भर आवाज उठाता रहूंगा ।
उसे छुड़ाने के सम्भव है ? मैं
१. आह्वान, पृ० १२,१३ ।
२. एक बूंद : एक सागर, पृ० १७२७ ।
३. वही, पृ० ८२४ ।
४. वही, पृ० ८३३ । ५. २-७-१९६८
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