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अ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण
५. उस समाज के आधार में अहिंसा होगी । उसका यह विश्वास होगासमस्या का सही समाधान अहिंसा में ही है । अपनी हर समस्या को वह अहिंसा के माध्यम से ही सुलझाने का प्रयत्न करेगा । ""
अणुव्रत जिस आदर्श एवं शोषणविहीन समाज की रूपरेखा प्रस्तुत करता है, साम्यवाद के सामने भी वही कल्पना है पर इन दोनों की प्रक्रिया में भिन्नता है । इस भेदरेखा को स्पष्ट करते हुए आचार्य तुलसी कहते हैं। " शोषण विहीन और स्वतन्त्र समाज की रचना साम्यवाद और अणुव्रत दोनों का उद्देश्य है पर दोनों की प्रक्रिया भिन्न है । साम्यवाद व्यवस्था देता है और अणुव्रत वृत्तियों को परिमार्जित करता है । व्यवस्था की गति तीव्र हो सकती है किंतु वह उत्तरोत्तर लक्ष्य से प्रतिकूल होती जाती है । अणुव्रत की गति मंद है पर वह उत्तरोत्तर लक्ष्य के अनुकूल है। त्वरित गति का उतना महत्त्व नहीं है, जितना लक्ष्य-प्रतिबद्ध गति का है । साम्यवादी देशों का व्यक्तिवाद की ओर बढ़ता हुआ झुकाव देखकर यह सहज ही जाना जा सकता है कि व्यवस्था परिवर्तन की अपेक्षा वृत्ति-परिवर्तन का क्रम प्रशस्य है ।"२ समग्र मानव समाज के लिए गहन एवं हितावह चिन्तन करने वाले युगद्रष्टा आचार्य तुलसी ने अपने आध्यात्मिक आंदोलनों द्वारा जिस शोषणविहीन एवं सुखसमृद्धि से परिपूर्ण अणुव्रत समाज की कल्पना की है, उस कल्पना की पूर्ति सभी समस्याओं का निदान बनेगी, ऐसा विश्वास है ।
कहा जा सकता है कि आचार्य तुलसी के समाज-चिंतन में जो क्रांतिकारिता, परिवर्तन एवं नए दिशाबोध हैं, वे समाजशास्त्रियों को भी चिन्तन की नयी खुराक देने में समर्थ हैं ।
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१. अणुव्रत : गति-प्रगति, पृ० १३६ । २. अणुव्रत के आलोक में, पृ० २२ ।
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