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___ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण
संस्कारों की। लड़की ससुराल जाते ही सास-ससुर आदि के साये से दूर रहने लगेगी तो उसे संस्कार कौन देगा ? पति के ऑफिस चले जाने पर सुबह से शाम तक अकेली स्त्री क्या करेगी ? बीमारी आदि की परिस्थिति में सहयोग किसका मिलेगा? कहीं आने-जाने के प्रसंग में घर और बच्चों का दायित्व कौन ओढ़ेगा? ऐसे ही कुछ और सवाल हैं, जो संयुक्त परिवार से मिलने वाली सुविधाओं को उजागर कर रहे हैं।"
___ अच्छे संस्कारों का संक्रमण संयुक्त परिवार की सबसे बड़ी उपयोगिता है । इस तथ्य को आचार्य तुलसी अनेक बार भारतीय जनता के समक्ष प्रस्तुत करते रहते हैं । भारत की प्राचीन संस्कृति की अवगति देते हुए वे आज की युवापीढ़ी को प्रतिबोध दे रहे हैं.-"प्राचीनकाल में बूढ़ी नानियों-दादियों के पास संस्कारों का अखूट खजाना हुआ करता था। सूर्यास्त के बाद बच्चों का जमघट उन्हीं के आस-पास रहता था। वे मीठी-मीठी कहानियां सुनाती, लोरियां गातीं, बच्चों के साथ संवाद स्थापित करतीं और बातों ही बातों में उन्हें संस्कारों की अमूल्य धरोहर सौंप जातीं। जिन लोगों को अपना बचपन नानियों-दादियों के साये में बिताने का मौका मिला है, वे आज भी उच्च संस्कारों से सम्पन्न हैं।"
अलगाववादी मनोवृत्ति वाली युवापीढ़ी को रूपान्तरण का प्रतिबोध देते हुए उनका कहना है-- "जो व्यक्ति परिवार में बढ़ते हुए झगड़ों के कारण अलग रहने का निर्णय लेते हैं, उन्हें स्थान के बदले स्वभाव बदलने की बात सोचनी चाहिए '' इसी प्रकार परिवार की बुजुर्ग महिलाओं को भी मनोवैज्ञानिक तरीके से स्वभाव-परिवर्तन एवं व्यवहार परिष्कार की बात सुझाते हैं... "जिस प्रकार महिलाएं अपनी बेटी की गलती को शांति से सह लेती हैं, उसी प्रकार बहू को भी सहन करना चाहिए। अन्यथा उनके जीवन में दोहरे संस्कार और दोहरे मानदण्ड सक्रिय हो उठेंगे।"
__ परिवार में शान्त सहवास का होना अत्यन्त अपेक्षित है। आचार्य तुलसी तो यहां तक कह देते हैं-... "जहां एक सदस्य दूसरे के जीवन में विघ्न बने बिना रहता है, जहां सापेक्षता बहुत स्पष्ट होती है, वहीं सही अर्थ में परिवार बनता है।'५ संयुक्त परिवार में शांत एवं सौहार्दपूर्ण सहवास के लिए आचार्य तुलसी चार गुणों का होना अनिवार्य मानते हैं- १. सहनशीलता,
१. दोनों हाथ : एक साथ, पृ० ५। २. आह्वान, पृ० ४। ३. बीती ताहि विसारि दे, पृ० ६७ । ४. अतीत का विसर्जन : अनागत का स्वागत, पृ० १४२ । ५. क्या धर्म बुद्धिगम्य है ? , पृ० ६६ ।
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