________________
१५२
आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण
वे कहते हैं ..."चुनाव चाहे संसद के हों, विधान सभाओं के हों, महाविद्यालयों के हों या अन्य सभा-संस्थाओं के, जहां नीति की बात पीछे छूट जाती है, वहां महासमर मच जाता है।''
चुनाव के समय हर राजनैतिक दल अपने स्वार्थ की बात सोचता है तथा येन-केन-प्रकारेण ज्यादा-से-ज्यादा वोट प्राप्त करने की तरकीबें निकालता है । आचार्य तुलसी का मंतव्य है कि जब तक शासक और जनता को लोकतंत्र के अनुसार प्रशिक्षित एवं दीक्षित नहीं किया जाएगा, तब तक लोकतंत्र सुदृढ़ नहीं बन सकता। वे अपने विशिष्ट लहजे में कहते हैं कि आश्चर्य तो तब होता है, जब कई अंगूठे छाप व्यक्ति भी जनता द्वारा निर्वाचित होकर संसद में पहुंच जाते हैं।"
मतदान की प्रक्रिया में शुद्धि न आने के वे तीन कारण स्वीकारते हैं --अज्ञान, अभाव एवं मूढ़ता। इस सन्दर्भ में उनकी निम्न टिप्पणी पठनीय है--"अनेक मतदाताओं को अपने हिताहित का ज्ञान नहीं है, इसलिए वे हित-साधक व्यक्ति या दल का चुनाव नहीं कर पाते । अनेक मतदाता अभाव से पीड़ित हैं । वे अपने मत को रुपयों में बेच डालते हैं। अनेक मतदाता मोहमुग्ध हैं, इसलिए उनका मत शराब की बोतलों के पीछे लुढ़क जाता है।"
इसी प्रसंग में उनकी निम्न टिप्पणी जनता की आंखों को खोलने वाली है --"जो जनता अपने वोटों को चंद चांदी के टुकड़ों में बेच देती हो, सम्प्रदाय या जाति के उन्माद में योग्य-अयोग्य की पहचान खो देती हो, वह जनता योग्य उम्मीदवार को संसद में कैसे भेज पाएगी ?"४ उनके विचारों से स्पष्ट है कि स्वच्छ प्रशासन लाने का दायित्व जनता का है। चुनाव के समय वह जितनी जागरूक होगी, उतना ही देश का हित होगा।
आचार्य तुलसी ने अणुव्रत के माध्यम से चुनावी वातावरण को स्वस्थ बनाने का प्रयत्न किया है। उनका मानना है कि चुनाव का माहौल तूफान से भी अधिक भयंकर होता है। उस समय अणुव्रत के माध्यम से नैतिकता का एक छोटा-सा दीप भी जलता है तो कम-से-कम वह प्रकाश के अस्तित्व को तो व्यक्त करता ही है। यदि चुनाव को पवित्र संस्कार नहीं दिया गया तो भारत की त्यागप्रधान परम्परा दुर्बल एवं क्षीण हो जाएगी।'५
१. विज्ञप्ति सं० ८९९ । २. अणुव्रत, १ फरवरी, १९९१ । ३. राजपथ की खोज', पृ० १२८ । ४. जैन भारती, १८ फरवरी, १९६८ । ५. विज्ञप्ति सं० ९७२ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org