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गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन
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हुआ है या हो रहा है, वह निश्चित रूप से चिन्तनीय है । बीसवीं सदी के हिन्दुस्तानियों द्वारा की गई इस हिमालयी भूल का प्रतिकार या प्रायश्चित्त इस सदी के अन्त तक हो जाए तो बहुत शुभ है, अन्यथा आने वाली शताब्दी की पीढ़ियां अपने पुरखों को कोसे बिना नहीं रहेंगी।"
आचार्य तुलसी का निश्चित अभिमत है कि राष्ट्र का विकास पुरुषार्थचेतना से ही सम्भव है । देशवासियों की पुरुषार्थ चेतना को जगाने के लिए वे उन्हें अतीत के गौरव से परिचित करवाते हुए कहते हैं-"जो भारत किसी जमाने में पुरुषार्थ एवं सदाचार के लिए विश्व के रंगमंच पर अपना सिर उठाकर चलता था, आज वही पुरुषार्थहीनता एवं अकर्मण्यता फैल रही है । मेरा तो ऐसा सोचना है कि हिन्दुस्तान को अगर सुखी बनना है, स्वतन्त्र रहना है तो वह विलासी न बने, श्रम को न भूले।" इसी सन्दर्भ में जापान के माध्यम से हिन्दुस्तानियों को प्रतिबोध देती उनकी निम्न पंक्तियां भी देश की पुरुषार्थ-चेतना को जगाने वाली हैं.... "हिन्दुस्तानी लोग बातें बहुत करते हैं, पर काम करने के समय निराश होकर बैठ जाते हैं। ऐसी स्थिति में प्रगति के नए आयाम कैसे खुल पाएंगे? जिस देश के लोग पुरुषार्थी होते हैं, वे कहीं-के-कहीं पहुंच जाते हैं । जापान इसका साक्षी है। पूरी तरह से टूटे जापान को वहां के नागरिकों ने कितनी तत्परता से खड़ा कर लिया। क्या भारतवासी इससे कुछ सबक नहीं लेंगे ?"२
राजनीति
किसी भी राष्ट्र को उन्नत और समृद्धि की ओर अग्रसर करने में सक्रिय, साफ-सुथरी एवं मूल्यों पर आधारित राजनीति की सर्वाधिक आवश्यकता रहती है । आचार्य तुलसी की दृष्टि में वही राजनीति अच्छी है, जो राज्य को कम-से-कम कानून के घेरे में रखती है। राष्ट्र के नागरिकों को ऐसा स्वच्छ प्रशासन देती है, जिससे वे निश्चिन्तता और ईमानदारी के साथ जीवनयापन कर सकें ।'
देश की राजनीति को स्वस्थ एवं स्थिर रूप देने के लिए वे निम्न चिन्तन-बिन्दुओं को प्रस्तुत करते हैं
१. शासन का लोकतांत्रिक एवं सम्प्रदायनिरपेक्ष स्वरूप अक्षुण्ण रहे।
शासन की दृष्टि में यदि हिन्दू, मुसलमान, अकाली आदि भेदरेखाएं जन्मेंगी तो 'भारत' भारत नहीं रहेगा। २. सत्य एवं अहिंसात्मक आचारभित्ति बनी रहे । हिंसा और दोहरी
१. एक बूंद : एक सागर, पृ० १६७८ । २. बैसाखियां विश्वास की, पृ० ९५॥ ३. अमृत संदेश, पृ० ५१ ।
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