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गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन
१४७ जागतिक मानते हैं, फिर भी भारत की पावनभूमि में जन्म लेने के कारण उसके प्रति अपनी विशेष जिम्मेवारी समझते हैं । उनके मुख से अनेक बार ये भाव व्यक्त होते रहते हैं- “यद्यपि किसी देशविशेष से मेरा मोह नहीं है, तथापि मैं भारत में भ्रमण कर रहा हूं, अतः जब तक श्वास रहेगा, मैं राष्ट्र, समाज व संघ के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह करता रहूंगा।' राष्ट्रीय विकास हेतु वे अनुशासन और मर्यादा की प्राण-प्रतिष्ठा को अनिवार्य मानते हैं। उनकी अवधारणा है कि अनुशासन और व्यवस्थाविहीन राष्ट्र को पराजित करने के लिए शत्रु की आवश्यकता नहीं, वह अपने आप पराजित हो जाता है।
राष्ट्र-निर्माण के नाम पर होने वाली विसंगतियों को प्रश्नात्मक शैली में प्रस्तुत करते हुए वे कड़े शब्दों में कहते हैं- "क्या राष्ट्र की दूर-दूर तक सीमा बढ़ा देना राष्ट्र-निर्माण है ? क्या सेना बढ़ाना राष्ट्र-निर्माण है ? क्या संहारक अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण व संग्रह करना राष्ट्र-निर्माण है ? क्या भौतिक व वैज्ञानिक नए-नए आविष्कार करना राष्ट्र-निर्माण है ? क्या सोना, चांदी और रुपए-पैसों का संचय करना राष्ट्र-निर्माण है ? क्या अन्यान्य शक्तियों व राष्ट्रों को कुचलकर उन पर अपनी शक्ति का सिक्का जमा लेना राष्ट्र-निर्माण है ? यदि इन्हीं का नाम राष्ट्र-निर्माण होता है तो मैं जोर देकर कहूंगा, यह राष्ट्र-निर्माण नहीं, बल्कि राष्ट्र का विध्वंस है।'
देश की समस्या को व्यक्त करने वाले प्रश्नों के परिप्रेक्ष्य में उनके राष्ट्र-चिन्तन के गांभीर्य को समझा जा सकता है-- "जिस देश में करोड़ों व्यक्तियों को दलित समझा जा रहा है, रन्हें अस्पृश्य माना जा रहा है, उनके सामने भोजन और मकान की समस्या है, स्वास्थ्य और शिक्षा की समस्या है, क्या उस देश में अपने आपको स्वतन्त्र और सुखी मानना लज्जास्पद नहीं है ?
राष्ट्र के विकास में वे तीन मूलभत बाधाओं को स्वीकार करते हैं--- "जीवन के प्रति सही दृष्टिकोण का अभाव, आत्म-नियन्त्रण की अक्षमता तथा बढ़ती आकांक्षाएं--ये ऐसे कारण हैं, जो देश को समस्याओं की धधकती आग में झोंक रहे हैं।"
जिस प्रकार गांधीजी ने 'मेरे सपनों का भारत' पुस्तक लिखी, वैसे ही आचार्य तुलसी कहते हैं- “मेरे सपनों में हिन्दुस्तान का एक रूप है, वह इस प्रकार है
१. नैतिक संजीवन, पृ० ९ । २. जैन भारती, ९ दिस० १९७३ । ३. १६-११-७४ के प्रवचन से उद्धत ।
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