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गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन
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स्वर प्रखरता से मुखर हो रहा था । आचार्य श्री ने स्थिति की गंभीरता का आकलन किया और बिना इसे प्रतिष्ठा का बिन्दु बनाए पास के चौक में एक ओर हटते हुए सामने वाले जुलूस के लिए रास्ता छोड़ दिया। हालांकि आचार्यश्री का यह निर्णय जुलस में सम्मिलित गर्म खून वाले अनुयायियों को बहुत अप्रिय लगा पर तेरापन्थ संघ के अनुशासन की ऐसी गौरवशाली परम्परा रही है कि आचार्य का कोई भी प्रिय अप्रिय निर्णय बिना किसी ननुनच के स्वीकार्य होता है। इसलिए जुलूस में सम्मिलित सभी सन्त तथा हजारों लोग भी आचार्य श्री का अनुगमन करते हुए एक तरफ हट गए। सामने वाले जुलूस के गुजर जाने के पश्चात् ही उन्होंने अपने गन्तव्य के लिए प्रस्थान किया। पूरे शहर में इस घटना की तीव्र प्रतिक्रिया हुई।
प्रतिपक्ष के समझदार लोगों ने भी यह महसूस किया कि आचार्यश्री ने सूझ-बूझ एवं अहिंसक नीति के आधार पर सही समय पर सही निर्णय लेकर शहर को एक सम्भावित रक्तरंजित संघर्ष से बचा लिया। तत्कालीन बीकानेर नरेश महाराज गंगासिंहजी ने कहा--"आचार्यश्री भले ही अवस्था में छोटे हों, पर उनकी यह सूझ-बूझ वृद्धों की सी है। उन्होंने बड़ी समझदारी एवं शांति से काम लिया।" यह उनकी अहिंसा एवं शांतिवादिता की प्रथम विजय थी।
सन् १९६१ के आसपास की घटना है। आचार्यश्री बाडमेर, बायतू होते हुए जसोल पधार रहे थे। विरोधियों ने ऐसे पेम्पलेट निकाले की कहीं धर्मवृद्धि के स्थान पर सिरफोड़ी न हो जाए । इससे भी आगे उन्होंने नियत प्रवचनस्थल पर वंचनापूर्वक अड्डा जमा लिया । इससे श्रद्धालुओं के मन में रोष उभर आया । आचार्यश्री इस विरोधी विष को भी शंकर की तरह पी गए । वे शहर के बाहर ही किसी के मकान में ठहर गए। पर लोग तो वहां भी पहुंच गए।
__ उनमें कुछ श्रद्धालु थे तो कुछ आचार्यश्री की आंखों में रोष की झलक देखने आए थे । आचार्य वर ने दोनों ही पक्षों के लोगों की मनःस्थिति को ध्यान में रखते हुए कहा- "हमें विरोध का उत्तर शांति से देना है। मुझे ताज्जुब हुआ जब मैंने यह पढ़ा कि धर्मवृद्धि के स्थान पर कहीं सिरफोड़ी न हो जाए। क्या हम आग लगाने आते हैं ? संन्यस्त होकर भी क्या हम रोटी, कपड़ा और स्थान के लिए झगड़ें ? हममें क्रांति के भाव जागें कि गाली का उत्तर भी शांति से दे सकें। मैंने सुना है कि कुछ अनुयायी कहते हैं ---आचार्यश्री को जाने दो फिर देखेंगे । यदि मेरे जाने के बाद उनकी आंखों में उबाल आ गया तो मैं कहना चाहता हूं कि तुम लोगों ने केवल नारे लगाए हैं आचार्य तुलसी को नहीं पहचाना है। 'शठे शाठ्यं समाचरेद्' यह राजनीति का सूत्र हो सकता है; धर्मनीति का नहीं। हमें तो बुरों के दिल
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