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आ तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण
स्वागत हुआ । किन्तु उस चातुर्मास के दौरान कुछ लोग उनकी लोकप्रियता को सह नहीं सके । उनके खण्डकाव्य 'अग्नि-परीक्षा' को आधार बनाकर कुछ गलत तत्त्वों ने साम्प्रदायिक हिंसा का वातावरण तैयार कर दिया । उन्होंने आचार्य श्री पर यह आरोप लगाया कि उन्होंने सीता को गाली दी है। जनता इस बात को सुनकर भड़क उठी । स्थान-स्थान पर आचार्यश्री के पुतले जलाए गये, पथराव हुआ तथा और भी हिंसात्मक वारदातें होने लगीं । इस वातावरण को देखकर पत्रकारों को संबोधित करते हुए आचार्यश्री ने अपना संक्षिप्त वक्तव्य दिया- "मैं अहिंसा और समन्वय में विश्वास करता हूं । मेरे कारण से दूसरों को पीड़ा पहुंची, इससे मुझे भी पीड़ा हुई । प्रस्तुत चर्चा के दौरान कुछ विद्वानों के मूल्यवान् सुझाव मेरे सामने आए हैं । अग्रिम संस्करण में उन पर मैं गंभीरतापूर्वक विचार करूंगा ।"
इसके बावजूद भी विरोधी सभाओं का आयोजन हुआ, जुलूस आदि निकाले गये । स्थिति जटिल एवं गंभीर बन गई। उस स्थिति में भी वे वीर अहिंसक की भांति अडोल रहे तथा शांति स्थापना हेतु अपना मंतव्य व्यक्त करते हुए कहा – “मेरे लिए प्रतिष्ठा और अप्रतिष्ठा का प्रश्न मुख्य नहीं है । यदि शांति के लिए मेरा शरीर भी चला जाए तो भी मैं उसे ज्यादा नहीं मानता। प्रतिष्ठा की बात पहले भी नहीं थी, किन्तु परिस्थिति कुछ दूसरी थी । आज स्थिति उससे भिन्न है । मुझे निमित्त बनाकर हिंसा का वातावरण उभारा जा रहा है । मैं नहीं चाहता कि मैं हिंसा का कारण बनूं, पर किसी प्रकार बना दिया गया हूं। मैं इसके लिए किसी को दोष नहीं देता । मैंने अपने मिशन को चलाने का बराबर प्रयत्न किया है और आगे भी करता रहूंगा । ऐसी स्थिति केवल मेरे लिए ही बनी है, ऐसा नहीं है । महावीर, गांधी और विनोबा के साथ भी ऐसा ही हुआ है ।'
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उनकी करुणा और अहिंसा की पराकाष्ठा तो उस समय देखने को मिली, • जब हिंसा के दौरान कुछ विरोधी व्यक्ति पुलिस के द्वारा पकड़े गये तब उनके प्रति अधिकारियों से अपना आत्मनिवेदन उन्होंने इस भाषा में रखा -- "आज जो लोग गिरफ्तार हुए, उसकी मुझे पीड़ा है। मुझे उनके प्रति सहानुभूति है । मेरे मन में उनके प्रति किसी प्रकार का रोष नहीं है । मैं आप लोगों से अनुरोध करता हूं कि यदि संभव हो सके तो आज रात्रि में ही गिरफ्तार लोगों को मुक्त कर दिया जाए ।"
विरोधी लोगों द्वारा पंडाल जलाने पर भी वे वहीं स्थिरयोगी बनकर बैठे रहे । आचार्य श्री का यह स्पष्ट मंतव्य है कि अहिंसक कायर नहीं हो सकता । जो मरने से डरता है, वह अहिंसा का अंचल भी नहीं छू सकता । लोगों के निवेदन करने पर भी वे दृढ़तापूर्वक कहते हैं मैं यहीं बैठा हूं देखता हूं क्या होता है ? उस भयावह स्थिति में भी वे प्रकम्पित नहीं हुए ।
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