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आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण
___ आचार्य तुलसी मानते हैं कि राष्ट्र को हम परिवार का महत्व दें, तभी व्यक्ति में राष्ट्र-प्रेम की भावना उजागर हो सकती है। इस प्रसंग में उनका निम्न वक्तव्य कितना प्रेरक बन पड़ा है-“व्यक्ति का अपने परिवार के प्रति प्रेम होता है तो वह पारिवारिक जनों के साथ विश्वासघात नहीं करता है। यदि वैसा ही प्रेम राष्ट्र के प्रति हो जाए तो वह राष्ट्र के साथ विश्वासघात कैसे करेगा? राष्ट्र-प्रेम विकसित हो तो जातीयता, सांप्रदायिकता और राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं दूसरे नम्बर पर आ जाती हैं, राष्ट्र का स्थान सर्वोपरि रहता है।"
आचार्य तुलसी ने भारत की स्वतंत्रता के साथ ही जनता के समक्ष यह स्पष्ट कर दिया कि अंग्रेजों के चले जाने मात्र से देश की सारी समस्याओं का हल होने वाला नहीं है। बाह्य स्वतंत्रता के साथ यदि आंतरिक स्वतन्त्रता नहीं जागेगी तो यह व्यर्थ हो जाएगी। प्रथम स्वाधीनता दिवस पर प्रदत्त प्रवचन का निम्न अंश उनकी जागृत राष्ट्र-चेतना का सबल सबूत है..."कल तक तो अच्छे बुरे की सब जिम्मेदारी एक विदेशी हुकूमत पर थी। यदि देश में कोई अमंगल घटना घटती या कोई अनुत्तरदायित्वपूर्ण बात होती तो उसका दोष, उसका कलंक विदेशी सरकार पर मढ़ दिया जाता या गुलामी का अभिशाप बताया जा सकता था । लेकिन आज तो स्वतंत्र राष्ट्र की जिम्मेदारी हम लोगों पर है। ....."स्वतंत्र राष्ट्र होने के नाते अब अच्छे बुरे की सब जिम्मेदारी जनता और उससे भी अधिक जन-सेवकों (नेताओं) पर है। अब किसी अनुत्तरदायित्वपूर्ण बात को लेकर दूसरों पर दोष भी नहीं मढ़ सकते । अब तो वह समय है, जबकि आत्मस्वतंत्रता तथा विश्वशांति के प्रसार में राष्ट्र को अपनी आध्यात्मिक वृत्तियों का परिचय देना है और यह तभी संभव है जबकि राष्ट्रनेता और राष्ट्र की जनता दोनों अपने उत्तरदायित्व का ख्याल रखें।"२
. इसी संदर्भ में स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू के मिलन प्रसंग को उद्धृत करना भी अप्रासंगिक नहीं होगा। पंडित नेहरू जब प्रथम बार दिल्ली में आचार्य तुलसी से मिले तो उन्होंने कहा - आचार्यजी ! आपको क्या चाहिए ? आचार्यश्री ने उत्तर देते हुए कहा.. पंडितजी ! हम लेने नहीं, आपको कुछ देने आए हैं। हमारे पास त्यागी एवं पदयात्री साधु कार्यकर्ताओं का एक बड़ा समुदाय है। उसे मैं नवोदित देश के नैतिक उत्थान के कार्य में लगाना चाहता हूं क्योंकि मेरा ऐसा मानना है
१. तेरापंथ टाइम्स, २४ सित. १९९० । २. संदेश, पृ० २०,२१ ।
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