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आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण तात्पर्य यह है कि बुरा बने रहने के लिए आदमी धर्म का कवच धारण करता है । यही है धर्म के साथ खिलवाड़ और आत्मवंचना।'
आचार्य तुलसी अनेक बार इस बात को कहते हैं- "ऐश्वर्य सम्पदा धर्म का नहीं, परिश्रम का फल है। धर्म का फल है शांति, धर्म का फल है --- पवित्रता, धर्म का फल है-सहिष्णुता और धर्म का फल है---प्रकाश ।२
अशिक्षा, सामाजिक रूढियों एवं विकृतियों की तो जनक है ही, धर्म क्षेत्र में फैलने वाली विकृतियों में भी इसका बहुत बड़ा हाथ है। आचार्य तुलसी ने असाम्प्रदायिक नीति से धर्मक्षेत्र में पनपने वाली विकृतियों की ओर अंगुलि निर्देश ही नहीं किया, रूपान्तरण एवं परिष्कार का प्रयास भी किया है। काव्य की निम्न पंक्तियों में वे रूढ धार्मिकों को चेतावनी दे रहे हैं---
इस वैज्ञानिक युग में ऐसे धर्म न चल पाएंगे।
केवल रूढिवाद पर जो चलते रहना चाहेंगे। पदयात्रा के दौरान उनके प्रवचनों से प्रभावित होकर भी अनेक लोगों ने धार्मिक रूढियों का परित्याग किया है । दिनांक २८ अगस्त १९६९ की घटना है। आचार्य तुलसी कर्नाटक प्रदेश की यात्रा पर थे। एक गांव में उन्होंने देखा कि एक जुलूस निकल रहा है। वह जुलूस राजनैतिक नहीं, अपितु धर्म और भगवान् के नाम पर था। जुलूस के साथ अनेक निरीह प्राणियों का झुंड चल रहा था। जुलूस का प्रयोजन पूछने पर ज्ञात हुआ कि अकाल की स्थिति को दूर करने के लिए भगवान् को प्रसन्न करने के लिए यह उपक्रम किया गया है। आचार्य तुलसी ने सायंकालीन प्रवचन सभा में ग्रामवासियों को प्रतिबोधित करते हुए कहा--- "प्राकृतिक प्रकोप से संघर्ष करके उस पर विजय पाना तो बुद्धिगम्य है पर बेचारे निरीह प्राणियों की बलि देकर देवता को प्रसन्न करना तो मेरी समझ के बाहर है........ आज के वैज्ञानिक युग में भी ऐसे क्रूरतापूर्ण कार्य सार्वजनिक रूप से हों. और उसे शिक्षित एवं सभ्य कहलाने वाले लोग देखते रहें, इससे बड़ी चिंता एवं शर्म की बात क्या हो सकती है ? राजस्थान के अनेकों गांवों में आचार्य तुलसी की प्रेरणा से लोग इस बलि प्रथा से मुक्त हुए हैं।
धर्मक्षेत्र में पनपी विकृतियों को दूर करने के लिए आचार्य तुलसी तीन उपाय प्रस्तुत करते हैं
१. हमारे विचार शुद्ध, असंकीर्ण और व्यापक हों।
२. विचारों के अनुरूप ही हमारा आचार हो। १. रामराज्य पत्रिका (कानपुर), अक्टू०, १९५८ । २. क्या धर्म बुद्धिगम्य है ? पृ० ९ । ३. जैन भारती, २३ मार्च १९६९ ।
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