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आ तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण
मन्दिर या मस्जिद में है और न धर्म के नाम पर पुकारी जाने वाली पुस्तकें ही धर्म हैं । धर्म तो सत्य और अहिंसा है । आत्मशुद्धि का साधन है ।" जिन लोगों ने सामाजिक सहयोग को धर्म का बाना पहना दिया है, उनको प्रतिबोध देते हुए उनका कहना है- "किसी को भोजन देना, वस्त्र की कमी में सहायता प्रदान करना, रोग आदि का उपचार करना अध्यात्म धर्म नहीं, किन्तु पारस्परिक सहयोग है, लौकिक धर्म है।
आचार्य तुलसी एक ऐसे धर्म के पक्षधर हैं, जहां सुख-शांति की पावन गंगा-यमुना प्रवाहित होती है । इस विषय में वे कहते हैं- " मैं तो उसी धर्म का प्रचार व प्रसार करने में लगा हुआ हूं, जो त्रस्त, दुःखी व व्याकुल मानव जीवन को आत्मिक सुख-शांति व राहत की ओर मोड़ने वाला है, जो नारकीय धरातल पर खड़े जन-जीवन को सर्वोच्च स्वर्गीय धरातल की ओर आकृष्ट करने वाला है ।
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इस सन्दर्भ में उनकी दूसरी टिप्पणी भी विचारणीय है- " मैं जिस धर्म की प्रतिष्ठा देखना चाहता हूं, वह आज के भेदात्मक जगत् में अभेदात्मक स्वरूप की कल्पना है । धर्म को मैं निर्विशेषण देखना चाहता हूं। आज तक उसके पीछे जितने भी विशेषण लगे, उन्होंने मनुष्य को बांटने का ही प्रयत्न किया है । इसलिए आज एक विशेषणरहित धर्म की आवश्यकता है, जो मानव-मानव को आपस में जोड़ सके । यदि विशेषण ही लगाना चाहें तो उसे मानव-धर्म कह सकते हैं । इस धर्म का स्थान मंदिर, मठ या मस्जिद नहीं, अपितु मनुष्य का हृदय है । "३ धार्मिक कौन ?
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धर्म और धार्मिक को अलग नहीं किया जा सकता । धर्म धार्मिक के जीवन में मूर्त रूप लेता है किन्तु आज धार्मिक का व्यवहार धर्म के सिद्धान्तों से विपरीत है । आचार्य तुलसी कहते हैं- “मेरा विश्वास अधार्मिक को धार्मिक बनाने से पहले तथाकथित धार्मिक को सच्चा धार्मिक बनाने में है । आज अधार्मिक को धार्मिक बनाना उतना कठिन नहीं, जितना कठिन एक धार्मिक को वास्तविक धार्मिक बनाना है ।" धर्मस्थान में धार्मिक और बाहर निकलते ही अन्याय, अत्याचार एवं शोषण - इस विरोधाभासी दृष्टिकोण के वे सख्त विरोधी हैं । धार्मिक के दोहरे व्यक्तित्व पर व्यंग्य करते हुए आचार्य तुलसी कहते हैं- " आज धार्मिक भगवान् से
१. एक बूंद : एक सागर, पृ० ७४१ ।
२. जैन भारती, ३० मई १९५४ ।
३. हिसार, स्वागत समारोह में प्रदत्त प्रवचन से उद्धृत ।
४. ५-७-८४ जोधपुर में हुए प्रवचन से उद्धृत |
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