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आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण
अहिंसक ही अहिंसा को कमजोर बनाते हैं।" वे मानते हैं--"अहिंसा व्यक्ति या समाज को कमजोर बनाती है-यह भ्रम इसलिये उत्पन्न हुआ कि सही अर्थ में अहिंसा में विश्वास रखने वाले धार्मिकों ने अपनी दुर्बलता को अहिंसा की ओट में पाला-पोसा। इसी बात को वे व्यंग्यात्मक भाषा में प्रस्तुत करते हैं- "शेर के सामने खरगोश कहे कि मैं अहिंसक हूं, इसलिए तुमको नहीं मारता तो क्या वह अहिंसक हो सकता है ?' इसी सन्दर्भ में उनकी दूसरी टिप्पणी भी महत्त्वपूर्ण है--- "मैं कायरता को अहिंसा नहीं मानता। डर से छुपने वाला यदि अपने को अहिंसक कहे तो मैं उसे प्रथम दर्जे की कायरता कहूंगा। वह दूसरों को क्या मारे जो स्वयं ही मरा हुआ है।" आचार्य तुलसी अहिंसक को शक्ति सम्पन्न होना अनिवार्य मानते हैं अतः खुले शब्दों में आह्वान करते हैं.---"जिस दिन अहिंसक मौत से नहीं घबराएगा। वह दिन हिंसा की मौत का दिन होगा। हिंसा स्वतः घबराकर पीछे हट जायेगी और अपनी हार स्वीकार कर लेगी।"3 लोकतंत्र और अहिंसा
"लोकतंत्र से अहिंसा निकल गयी तो वह केवल अस्थिपंजर मात्र बचा रहेगा"-आचार्य तुलसी की यह उक्ति राजनीति में अहिंसा की महत्ता को प्रतिष्ठित करती है। अहिंसा को तेजस्वी और वर्चस्वी बनाने हेतु उनका चिन्तन है कि एक शक्तिशाली अहिंसक दल का निर्माण किया जाए, जो राजनीति के प्रभाव से सर्वथा अछुता रहे पर राजनीति को समय-समय पर मार्गदर्शन देता रहे।
हिंसा में विश्वास रखने वाले राजनीतिज्ञों को वे चेतावनी देते हुए कहते हैं--"मैं राजनीतिज्ञों को एक चेतावनी देता हूं कि हिंसात्मक क्रांति ही सब समस्याओं का समुचित समाधान है वे इस भ्रांति को निकाल फेंके । अन्यथा स्वयं उन्हें कटु परिणाम भोगना होगा। हिंसक क्रांतियों से उच्छृखलता का प्रसार होता है। आज के हिंसक से कल का हिंसक अधिक क्रूर होगा, फिर कैसे शांति रह सकेगी ?"
लोकतंत्र अहिंसा का प्रतिरूप होता है, क्योंकि उसमें व्यक्ति स्वातंत्र्य को स्थान है। पर आज की बढ़ती हिंसा से वे अत्यंत चिंतित ही नहीं, आश्चर्यचकित भी हैं-"दिन है और अंधकार है---इस उक्ति में जितना
१. एक बूंद : एक सागर, पृ० २५२ । २. एक बूंद : एक सागर, पृ० २७४ । ३. पथ और पाथेय, पृ० ३६ । ४. जैन भारती, ३१ मार्च १९६८ ।
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