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गय साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन
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बहिनों को भारतीय संस्कृति की गरिमा से अवगत कराते हुए उन्हें मातृत्वबोध देना चाहते हैं
"क्या मां की ममता का स्रोत सूख गया ? पाषाण खण्ड जैसे बच्चे को भी भार न मानने वाली मां एक स्वस्थ और संभावनाओं के पुंज शिशु का प्राण ले लेती है, क्या वह क्रूर हिंसा नहीं है ?" व्यक्ति प्राणी जगत् के प्रति संवेदनशील नहीं है, इसलिए आज हिंसा प्रबल है। प्राचीनकाल में प्रसाधन के रूप में प्राकृतिक चीजों का प्रयोग होता था। लेकिन आज अनेक जीवित प्राणियों के रक्त और मांस से रंजित वह सौन्दर्य-सामग्री कितने ही बेजुबान प्राणियों की आहों से निर्मित होती है। इस अनावश्यक हिंसा का समाधान व्यंग्य भाषा में करते हुए वे कहते हैं
"प्रसाधन सामग्री के निर्माण में निरीह पशु-पक्षियों के प्राणों का जिस बर्बरता के साथ हनन होता है, उसे कोई भी आत्मवादी वांछनीय नहीं मान सकता। जिस प्रसाधन सामग्री में मूक प्राणियों की कराह घुली है, उनका प्रयोग करने वाले अपने शरीर को भले ही सुन्दर बना लें पर उनकी आत्मा का सौन्दर्य सुरक्षित नहीं रह सकेगा।
आज की घोर हिंसा एवं आतंक को देखकर भी उनका मन कम्पित या निराश नहीं होता । उनका विश्वास कभी डोलता नहीं, अपितु इन शब्दों में स्फुटित होता है-“समूची दुनिया अहिंसा अपना नहीं सकती, इसलिए हमें निराश, चिन्तित या पीछे हटने की आवश्यकता नहीं है। हमें तो इसी भावना से अहिंसा को लेकर चलना है कि कहीं अहिंसा की तुलना में हिंसा बलवान्, स्वच्छन्द और अनियंत्रित न बन जाए।"3 अहिंसा की तुलना में हिंसा शक्तिशाली हो रही है। अतः मात्रा के इस असन्तुलन को मिटाने की प्रेरणा एवं भविष्य की चेतावनी देते हुए उनका कहना है-"यदि अहिंसा के द्वारा हिंसा का मुकाबला नहीं किया गया तो निश्चित समझिए कि एक दिन मन्दिर, मठ, स्थानक, आश्रम और हमारी संस्कृति पर धावा होने वाला है। हिंसा की इस समस्या को समाहित करने के लिए वैज्ञानिकों को सुझाव देते हुए वे कहते हैं कि पहले अन्वेषण किया जाए कि मस्तिष्क में हिंसा के स्रोत कहां विद्यमान हैं ? क्योंकि स्रोतों की खोज करके ही उन्हें परिष्कृत करने और बदलने की बात सोचकर हिंसक शक्ति को नियंत्रित तथा अहिंसा को शक्तिशाली बनाया जा सकता है। १. बैसाखियां विश्वास की, पृ० ५९ । २. सफर : आधी शताब्दी का, पृ० ९५ । ३. प्रवचन पाथेय भाग-९, पृ० २६६ । ४. एक बूंद : एक सागर, पृ० २६७ । ५. सफर : आधी शताब्दी का, पृ० ५८ ।
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