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आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण
___..इसके साथ ही वे अहिंसक समाज की प्रतिष्ठा में निम्न प्रवृत्तियों का होना आवश्यक मानते हैं
१. वर्तमान शिक्षा प्रणाली की पुनर्रचना-वर्तमान शिक्षा प्रणाली में बुद्धि-पाटव और तर्कशक्ति का विकास हो रहा है पर चरित्र
शील व्यक्ति पैदा नहीं हो रहे हैं । २. संयमी एवं त्यागी पुरुषों को महत्त्व देना। सत्ताधारी एवं पूंजीपतियों को महत्त्व देने का अर्थ है--जन-साधारण को पूंजी एवं सत्ता के लिए लोलुप बनाना । संयम को प्रधानता देने से पूंजीपति भी संयम की ओर अग्रसर होंगे। जहां संयम होगा,
वहां हिंसा नहीं हो सकती। ३. इच्छाओं का अल्पीकरण-'आज आर्थिक असमानता चरम सीमा पर है। कोई धनकुबेर धन का अंबार लगा रहा है तो उसका पड़ोसी भूख से मर रहा है। यह असमानता हिंसा को जन्म दे रही है। इसे मिटाये बिना समाज में अहिंसा का विकास कम सम्भव है।"
इस स्थिति में परिवर्तन के लिए आचार्य तुलसी का सुझाव है कि व्यक्ति, आर्थिक व्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था-इन तीनों में सापेक्ष और संतुलित परिवर्तन हो, तभी स्वस्थ समाज या अहिंसक समाज की परिकल्पना की जा सकती है।
आचार्य तुलसी का दृढ़ विश्वास है कि समाज की अनेक कठिन समस्या का हल अहिंसा द्वारा खोजा जा सकता है। पर उसके लिये हिंसा के स्थान पर अहिंसा, शस्त्र-प्रयोग के स्थान पर निःशस्त्रीकरण तथा क्रूरता की तुलना में करुणा का मूल्यांकन करना होगा। वैचारिक अहिंसा
महावीर ने वैचारिक एवं मानसिक हिंसा को प्राण-वियोजन से भी अधिक घातक माना है। इस सन्दर्भ में आचार्य तुलसी का मन्तव्य है कि प्राणी की हत्या करने वाला शायद उसी की हत्या करता है पर विचारों की हत्या करने वाला न जाने कितने प्राणियों की हत्या का हेतु बन जाता है। अपने एक प्रवचन में आश्चर्य व्यक्त करते हुए वे कहते हैं-"व्यक्ति धन के लिए लड़ सकता है, पत्नी के लिए भी संघर्ष कर सकता है, यह सम्भव है। पर विचारों के लिए लड़े, बड़े-बड़े महायुद्ध करे, लाखों व्यक्तियों के खून १. ५ अगस्त ७०, पत्रकार वार्ता, रायपुर। २. अमृत सन्देश, पृ० ४५ । ३. गृहस्थ को भी अधिकार है धर्म करने का, पृ० १७ ।
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