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आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण
पड़े हैं। वर्तमान काल में गांधी के बाद आचार्य तुलसी का नाम आदर से लिया जा सकता है, जिन्होंने अहिंसा को प्रयोग के धरातल पर प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न किया है ।
यद्यपि आचार्य तुलसी पूर्ण अहिंसक जीवन जीते हैं, पर उनके विचार बहुत सन्तुलित एवं व्यावहारिक हैं । अहिंसा के प्रयोग एवं परिणाम के बारे में उनका स्पष्ट मन्तव्य है कि दुनिया की सारी समस्याएं अहिंसा से समाहित हो जाएंगी, यह मैं नहीं मानता पर इसका अर्थ यह नहीं कि वह निर्बल है । अहिंसा में ताकत है पर उसके प्रयोग के लिए उचित एवं उपयुक्त भूमिका चाहिए । बिना उपयुक्त पात्र के अहिंसा का प्रयोग वैसे ही निष्फल हो जाएगा जैसे ऊषर भूमि में पड़ा बीज ।'
अहिंसा का प्रयोग क्षेत्र कहां हो ? इस प्रश्न के उत्तर में उनका चिन्तन निश्चित ही अहिंसा के क्षेत्र में नयी दिशाएं उद्घाटित करने वाला है - " मैं मानता हूं अहिंसा केवल मन्दिर, मस्जिद या गुरुद्वारा तक ही सीमित न रहे, जीवन व्यवहार में उसका प्रयोग हो । अहिंसा का सबसे पहला प्रयोगस्थल है - व्यापारिक क्षेत्र, दूसरा क्षेत्र है राजनीति । "
वर्तमान में अहिंसक शक्तियों के प्रयोग में ही कोई ऐसी भूल हो रही है, जो उसकी शक्तियों की अभिव्यक्ति में अवरोध ला रही है । उसमें एक कारण है उसका केवल निषेधात्मक पक्ष प्रस्तुत करना । आचार्य तुलसी कहते हैं कि विधेयात्मक प्रस्तुति द्वारा ही अहिंसा को अधिक शक्तिशाली बनाया जा सकता है ।
जो लोग अहिंसा की शक्ति को विफल मानते हैं, उनकी भ्रान्ति का निराकरण करते हुए वे कहते हैं- " आज हिंसा के पास शस्त्र है, प्रशिक्षण है, प्रेस है, प्रयोग है, प्रचार के लिए अरबों-खरबों की अर्थ-व्यवस्था है । मानव जाति ने एक स्वर से जैसा हिंसा का प्रचार किया वैसा यदि संगठित होकर अहिंसा का प्रचार किया होता तो धरती पर स्वर्ग उतर आता, मुसीबतों के बीहड़ मार्ग में भव्य एवं सुगम मार्ग का निर्माण हो जाता, ऐसा नहीं किया गया फिर अहिंसा की सफलता में सन्देह क्यों ? वे स्पष्ट शब्दों में कहते हैं- " मैं तो अहिंसा की ही दुर्बलता मानता हूं कि उसके अनुयायियों का संगठन नहीं हो पाया। कुछ अहिंसा-निष्ठ व्यक्तियों का संगठन में इसलिए विश्वास नहीं है कि वे उसमें हिंसा का खतरा देखते हैं। मैं अहिंसा की वीर्यवत्ता के लिए संगठन को उपयोगी समझता हूं। हिंसा वहां है, जहां बाध्यता हो । साधना के सूत्र पर चलने वाले प्रयत्न व्यक्तिगत स्तर पर
१. प्रवचन पाथेय भाग-९, पृ० २६५ । २. जैन भारती, १७ सित० ६१ ।
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