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आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण · अहिंसक शक्ति के संगठन के सन्दर्भ में उनकी यह प्रस्थापना कितनी मौलिक एवं प्रेरक है-''अहिंसा और धर्म की शक्ति में तेज नहीं आ रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण है कि दो डाकू, चोर या उपद्रवी मिल जाएंगे किन्तु दो अहिंसक या धार्मिक नहीं मिल सकते। मेरा निश्चित अभिमत है कि हिंसा में जितनी शक्ति लगाई गई, उस शक्ति का लक्षांश भी यदि अहिंसा की सृष्टि में लगता तो ऐसी विलक्षण शक्ति पैदा होती, जिसके परिणाम चौंकाने वाले होते।" उनका आत्म-विश्वास अनेक अवसरों पर इन शब्दों में अभिव्यक्त होता है-"जिस दिन सामूहिक रूप से अहिंसा के प्रशिक्षण एवं प्रयोग की बात सम्भव होगी, हिंसा की सारी शक्तियों का प्रभाव क्षीण हो जाएगा।"
अहिंसा के प्रशिक्षण हेतु उनकी सन्निधि में दो अन्तर्राष्ट्रीय कांफेन्सों का आयोजन भी हो चुका है। प्रथम सम्मेलन दिसम्बर १९८८ में हुआ, जिसमें ३५ देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। द्वितीय अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन फरवरी १९९१ में हुआ। इन दोनों सम्मेलनों का मुख्य उद्देश्य था बढ़ती हुई हिंसा की विविध समस्याओं का समाधान तथा अहिंसा का विधिवत् प्रशिक्षण देकर एक अहिंसावाहिनी का निर्माण करना। अहिंसक शक्तियों को संगठित करने में यह लघु किन्तु ठोस उपक्रम बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ। इन सम्मेलनों में ऐसी प्रशिक्षण प्रणाली प्रस्तुत की गयी, जिससे मनुष्य की शक्ति ध्वंस में नहीं, अपितु रचनात्मक शक्तियों के विकास में लगे तथा अहिंसा की सामूहिक शक्ति का प्रदर्शन किया जा सके । अहिंसा का स्वरूप
भारतीय संस्कृति अध्यात्मप्रधान संस्कृति है। अध्यात्म की आत्मा अहिंसा है। भारतीय ऋषि-मुनियों ने अहिंसा का जो शाश्वत गीत गाया है, वह आज भी हमारे समक्ष आदर्श प्रस्तुत करता है। अहिंसा चिरन्तन जीवन-मूल्य है, अतः यह तो नहीं कहा जा सकता कि उसकी खोज किसने की, पर महात्मा गांधी कहते हैं कि इस हिंसामय जगत् में जिन्होंने अहिंसा का नियम ढूंढ निकाला, वे ऋषि न्यूटन से कहीं ज्यादा बड़े आविष्कारक थे । वे वैलिंग्टन से ज्यादा बड़े योद्धा थे, उनको मेरा साष्टांग प्रणाम है।
महावीर ने अहिंसा को जीवन का विज्ञान कहा है । वेद, उपनिषद्, स्मृति, महाभारत आदि अनेक ग्रन्थों में इसका स्वरूप विश्लेषित हुआ है। पर इसके स्वरूप में आज भी बहुत विप्रतिपत्ति है । यही कारण है कि अनेक
१. अमृत सन्देश, पृ० ४४ । २. मेरे सपनों का भारत, पृ० ८२ ।
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