________________
गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन की आर्त्तवेदना है। अतः सुख का हेतु स्वभाव है। इसी प्रसंग में धर्म के संदर्भ में उनकी निम्न पंक्तियां भी पठनीय हैं
“किसी ने धर्म को अमृत बताया और किसी ने अफीम की गोली । ये दो विरोधी तथ्य हैं । पर इन दोनों ही तथ्यों में सत्यांश हो सकता है। प्रेम और मैत्री की बुनियाद पर खड़ा हुमा धर्म अमृत है तो साम्प्रदायिक उन्माद से ग्रस्त धर्म अफीम का काम करने लग जाता है।" इसी शैली में उनका निम्न वक्तव्य भी उद्धरणीय है
___ "मेरा अभिमत है कि बाहर भी देखो और भीतर भी। अन्तर्जगत् से उपेक्षित रहना अपने विकास को नकारना है । बाह्य जगत् के प्रति उपेक्षा करना, जो कुछ हम जी रहे हैं, उसे अस्वीकार करना है। जितनी अपेक्षा है, उतना बाहर देखो। जितनी अपेक्षा है, उतना आत्मदर्शन करो।"
_ प्रवचनकार होने के कारण दे प्रसंगवश एक साथ जुड़ी हुई अनेक बातों को धाराप्रवाह कह देते हैं। इस कारण कहीं-कहीं उनकी भाषा और शैली बहुत दुरूह हो गयी है । इस परिप्रेक्ष्य में निम्न उद्धरण द्रष्टव्य है--
"जब तक व्यक्ति व्यक्ति रहता है, तब तक उसके सामने महत्त्वाकांक्षा, महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए परिग्रह या संग्रह, परिग्रह या संग्रह के लिए शोषण या अपहरण, शोषण के लिए बौद्धिक या कायिक शक्ति का विकास, बौद्धिक और दैहिक शक्ति-संग्रह के लिए विद्या की दुरभिसंधि, स्पर्धा आदिआदि समस्याएं नहीं होतीं।"
उनके अनुभूतिप्रधान एवं व्यक्तिप्रधान निबंधों में प्रथम पुरुष का प्रयोग हुआ है। 'मैं' सर्वनाम का प्रयोग करके उन्होंने अपनी अनुभूतियों एवं अभिमतों को उपन्यस्त किया है । जैसे-‘ऐसे मिला मुझे अहिंसा का प्रशिक्षण', 'मेरी यात्रा' आदि । अनुभूत घटनाएं या संवेदनाएं उन्होंने आत्माभिव्यंजन के प्रयोजन से नहीं, बल्कि पाठक के साथ तादात्म्य स्थापित करने के लिए लिखी हैं । व्यक्तिवादी शैली में निबद्ध निम्न वाक्य तनावग्रस्त एवं गमगीन व्यक्तियों को अभिनव प्रेरणा देने वाला है---
___ "मैं कल जितना खुश था, उतना ही आज हूं। मेरे लिए सभी दिन उत्सव के हैं, सभी दिन स्वतंत्रता के हैं।"
० मेरा स्वागत ही स्वागत होता तो शायद अहंभाव बढ़ जाता । मुझे पग-पग पर विरोध ही विरोध झेलना पड़ता तो हीनता का भाव भर जाता । मैं इन दोनों स्थितियों के बीच रहा । न अहं, न हीनता । इसलिए मैं बहुत बार अपने विरोधियों को बधाई देता हूं।" हिन्दी साहित्य में इस शैली का दर्शन रामचन्द्र शुक्ल के निबंधों में मिलता है ।
१. विज्ञप्ति संख्या ८०७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org