Book Title: Vidhi Marg Prapa
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ হনা ক্লিাহীলতি গী বিনাহি ভূহিন विधि मार्गप्रपा संशोधक एवं पुनर्सम्पादक साहित्यवाचस्पति महोपाध्याय विनयसागर प्रकाशक प्राकृतभारती अकादमी, जयपुर श्री जैन श्वे. खरतरगच्छ संघ, सांचोर Jain Education Internal J anelorary.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि मार्ग प्रपा जिनेश्वरसूरि से आरम्भ हुई सुविहित खरतरगच्छ परम्परा में अनेक गीतार्थ विद्वान व धर्मप्रभावक महापुरुष हुए हैं। जिनप्रभसूरि इसी परम्परा की लघु खरतर शाखा के आचार्य जिनसिंहसूरि के पट्टधर विक्रम की चौदहवीं शताब्दी में हुए । इनका दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद तुगलक पर बहुत अधिक प्रभाव था जिसका उपयोग इन्होंने शासन प्रभावना हेतु किया। जिनप्रभसूरि ने अपने गच्छ की विशेषता, शास्त्रसम्मत आचार-चर्या, को सम्पूर्ण एवं सर्वांग रूप से विधि-मार्ग-प्रपा नामक ग्रन्थ में समेट कर भविष्य के लिए प्रामाणिक विधि-विधान उपलब्ध कराने का महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पादित किया है। यह ग्रन्थ उन्होंने अपनी प्रौढावस्था में रचा था अतः लगभग समस्त विधि-विधानों के सन्दर्भ व प्रकियाएं उनके द्वारा स्वानुभूत थीं, केवल संकलन मात्र नहीं । पुस्तक का रचना वैशिष्ट्य इस बात प्रकट होता है कि श्रावक जीवन से संबंधित, श्रमण जीवन से संबंधित तथा दोनों के संयुक्त क्रियाकलापों से संबंधित सभी विधि-विधान इसमें समेट लिये गये हैं। इसे विधि-विधान का सन्दर्भ कोश कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। श्वेताम्बर आम्नाय के लगभग सभी गच्छ अपने समस्त विधि-विधान मूलतः इस अद्वितीय पुस्तक के आधार पर करते रहे हैं। कालान्तर में अपनी-अपनी परम्परा की कतिपय विशिष्टताएँ बताने के लिए कुछ परिवर्तन कर इस विषय के पृथक् ग्रन्थ तैयार किये गये, किन्तु आधार ग्रन्थ यही रहा। विधि-विधान की सन्दर्भ पुस्तक होने के कारण इसका महत्त्व जितना श्रमण समुदाय के लिए है, उतना ही धर्मिष्ठ समुदाय तथा विद्वज्जनों के लिए भी है। For Private & Personal Use Dnly. www.janelley.org Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भारती अकादमी पुष्प -१३२ यवन सम्राट् सुलतान महम्मद तुगलक प्रतिबोधक | হাসন সম্মান জিনসন্মসূতি মনি विधि मार्ग प्रपा नाम सुविहित - समाचारी प्रधान - सम्पादक साहित्यवाचस्पति महोपाध्याय विनयसागर प्रथम संस्करण सम्पादक पद्मश्री पुर तत्त्वाचार्य मुनि जिनविजय प्रकाशक प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर श्री खरतरगच्छ संघ, सांचोर Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: सचिव, प्राकृत भारती अकादमी १३ - ए , मेन मालवीय नगर, जयपुर - ३०२०१७ ५२४८२७, ५२४८२८ अध्यक्ष, श्री जैन श्वे० खरतरगच्छ संघ कुशल भवन, सुनारों का वास, सांचोर - ३४३०४१ पुनर्मुद्रण : २००० © प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर (राज.) मूल्य: मुद्रक : पॉपुलर प्रिन्टर्स जयपुर VIDHI MARGA PRAPA / JINA PRABHASŪRI : * EDITOR : M. VINAY SAGAR * Reprint : 2000 Price Rs.125/ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय श्वेताम्बर जैन आम्नाय की जो विभिन्न शाखाएं आज विद्यमान हैं उनमें सबसे प्राचीन शाखा है खरतरगच्छ। विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक श्वेताम्बर जैन श्रमण वर्ग में शिथिलाचार अपने चरम तक पहुंच चुका था। जैन श्रमण की शास्त्र-सम्मत आत्म-साधना की ओर प्रेरित सतत विद्यार्जन और कठोर - चर्या का स्थान चैत्यवाद और सुविधा सम्पन्न - चर्या ने ले लिया था। यद्यपि अनेक चैत्यवासी श्रमण आत्म-साधना, विद्याध्ययन, चिन्तन व सृजन कार्यों में संलग्न थे, किन्तु शिथिलाचार का व्यामोह धीरे-धीरे आत्म-कल्याण के पद को लीलता जा रहा था। इन विषम परिस्थितियों में भी कुछ क्रियासम्पन्न आत्म-साधक श्रमण इस शिथिलाचार तथा धर्मह्रास से चिंतित एवं जिन-वाचित विशुद्ध साधना-मार्ग की पुनर्स्थापना की ओर प्रयत्नरत थे। इस पुनरुत्थान के कार्य को सम्पन्न करने का साहसी संकल्प लिया वर्धमानसूरि ने। वे अपनी चैत्यवासी परम्परा की सुविधाओं को त्याग सुविहित मार्ग के शीर्षस्थ आचार्य उद्योतनसूरि के शिष्य बन गये और अपने संकल्प को क्रियान्वित करने में जुट गए। वर्धमानसूरि ने अपने शिष्य समुदाय - जिनेश्वरसूरि, बुद्धिसागरसूरि आदि समुदाय को इस हेतु विद्याभ्यास करवाया तथा विशुद्धचर्या में दृढ किया। जब उन्हें विश्वास हो गया कि उनका समुदाय यथेष्ट आध्यात्मिक तथा बौद्धिक शक्ति से संपन्न हो चुका है तब वे पाटण आए । जो उस काल में चैत्यवासियों का गढ था। यहाँ के राजा दुर्लभराज की राजसभा में १०७२ से १०७६ विक्रम के मध्य किसी समय चैत्यवासी सम्प्रदाय के प्रमुख आचार्य सूराचार्य से जिनेश्वरसूरि का शास्त्रार्थ हुआ। इसी शास्त्रार्थ में जिनेश्वरसूरि ने स्थापित किया कि चैत्यवास-चर्या शास्त्रविरुद्ध है और विशुद्ध सुविहितचर्या शास्त्रसम्मत। जिनेश्वरसूरि की ओजस्विता और प्रमाणों की अकाट्यता से प्रभावित हो दुर्लभराज ने उन्हें खरतरविरुद से सम्मानित किया। जिनेश्वरसूरि से आरम्भ हुई सुविहित खरतरगच्छ परम्परा में अनेक गीतार्थ विद्वान व धर्मप्रभावक महापुरुष हुए। जिन्होंने जैन साहित्य की संपदा को निरन्तर वर्धित किया। जिनप्रभसूरि इसी परम्परा की लघु खरतर शाखा के आचार्य जिनसिंहसूरि के पट्टधर विक्रम की चौदहवीं शताब्दी में हुए। इनकी अनेक रचनाओं में से दो का सर्वकालीन महत्त्व है - १. विविध तीर्थकल्प और २. विधि-मार्ग-प्रपा। इनका दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद तुगलक पर बहुत अधिक प्रभाव था जिसका उपयोग इन्होंने शासन प्रभावना हेतु किया। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रसम्मत आचार-चर्या खरतरगच्छ की विशेषता रही है। जिनप्रभसूरि ने अपने गच्छ की इसी विशेषता को सम्पूर्ण एवं सर्वांग रूप से इस ग्रन्थ में समेट कर भविष्य के लिए प्रामाणिक विधि-विधान उपलब्ध कराने का महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पादित किया है। यह ग्रन्थ उन्होंने अपनी प्रौढावस्था में रचा था अतः लगभग समस्त विधि-विधानों के सन्दर्भ व प्रकियाएं उनके द्वारा स्वानुभूत थीं, केवल संकलन मात्र नहीं। पुस्तक का रचना वैशिष्ट्य इस बात से प्रकट होता है कि श्रावक जीवन से संबंधित, श्रमण जीवन से संबंधित तथा दोनों के संयुक्त क्रियाकलापों से संबंधित सभी विधि-विधान इसमें समेट लिये गये हैं। इसे विधि-विधान का सन्दर्भ कोश कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। श्वेताम्बर आम्नाय के लगभग सभी गच्छ अपने समस्त विधि-विधान मूलत: इस अद्वितीय पुस्तक के आधार पर करते रहे हैं। कालान्तर में अपनी-अपनी परम्परा की कतिपय विशिष्टताएँ बताने के लिए कुछ परिवर्तन कर इस विषय के पृथक् ग्रन्थ "तैयार किये गये, किन्तु आधार ग्रन्थ यही रहा। इस ग्रन्थ का प्रथम संस्करण का प्रकाशन श्री जिनदत्तसूरि पुस्तकोद्धार फण्ड, सूरत के द्वारा ईस्वी सन १९४१ में हुआ था। यह संस्था गच्छ के प्रभावक आचार्य श्री जिनकृपाचन्द्रसूरिजी महाराज ने स्थापित की थी और आचार्य श्री जयसागरसूरि, उपाध्याय सुखसागरजी, मुनि श्री मंगलसागरजी एवं प्रसिद्ध पुरातत्त्वविद् मुनि कान्तिसागरजी के प्रयासों से अनेकों ग्रन्थ प्रकाशित हुए थे जो आज दुर्लभ हैं। . स, हस्तलिखित पाण्डुलिपियों के आधार पर इसका सम्पाढ: पद्मश्री पुरातत्त्वाचार्य मुनि जिनविजयजी ने किया था। उन्होंने इस ग्रन्थ की विस्तृत भूमिका लिखी है तथा श्री अगरचन्दजी नाहटा श्री भंवरलालजी नाहटा ने जिनप्रभसूरि के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विस्तार से प्रकाश डाला है। इन विद्वानों ने जैन साहित्य को प्रकाश में लाने का जो महत्त्वपूर्ण काम किया है। उसके लिए यहाँ आभार प्रकट करना समीचीन होगा। - जिनप्रभसूरि द्वारा रचित ग्रन्थों व स्तोत्रों की जो सूची नाहटा बन्धुओं ने इनकी जीवनी में दी है उसके अतिरिक्त भी इनकी रचनाओं का उल्लेख मिलता है। इस विषय में विस्तार से चर्चा मेरी पुस्तक शासन प्रभावक आचार्य जिनप्रभसूरि और उनका साहित्य में देखी जा सकती है। नाहटा बन्धुओं की सूची के अतिरिक्त रचनाओं की सूची निम्न प्रकार हैं :क्रमांक रचना नाम । क्रमांक रचना नाम १. गुणानुरागकुलक कालचक्रकुलक ३. उपदेशकुलक ४. परमात्मद्वात्रिंशिका ५. प्रायश्चितविशुद्धि व्यवस्था पत्र शेषसंग्रह टीका भवियकुटुम्बचरियं गायत्री विवरण - १०. ह्रींकारकल्प शक्रस्तवाम्नाय १२. अलंकार कल्प विधि सारस्वतदीपक A For Privatpersonal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्य संख्या आदि पद परमेष्ठिनं सुरतरून् नाभेयं शोचि निर्ममो० सिद्धो वर्णसमाम्नाय:० क्रमांक रचना नाम पंचपरमेष्ठिस्तव: चतुर्विंशतिजिनस्तव: पुण्डरीकगिरिमण्डण-ऋषभस्तव: (कातन्त्रसन्धिसूत्रगर्भित) युगादिदेवस्तव: शान्तिजिनस्तवः अरजिनस्तव: पार्श्वजिनस्तव: वीरजिनस्तवः तीर्थमालास्तव: १०. स्तुतित्रोटक: सुधर्मगणधरस्तवः (विविधछंदमय) १२. पद्मावतीचतुष्पदिका वर्धमानविद्यास्तवः परमतत्त्वावबोधद्वात्रिंशिका मेरौ दुग्धपयोधि वा० शृंगारभासुरसुरासुर० जय शरदशकलदशहयवदन० श्रीपार्श्वपरमात्मानं० विश्वश्रीधुरच्छिदे० चउवीसंपि जिणिंदे० ते धन्नपुन्नसुकयत्थनरा० आगमत्रिपथगा हिमवन्तं० जिणसासणु अवधारि० आसि किलठुत्तरसय० धर्माधर्मान्तरं मत्वा० १५. हीयाली (अपूर्ण) चारि चलण चउ० इनमें से अप्रकाशित १८ लघु कृतियाँ एवं स्तोत्र तथा जिनप्रभसूरि परम्परा के ४ गीत शासन प्रभावक आचार्य जिनप्रभ और उनका साहित्य' में प्रकाशित किये हैं। श्री जिनदत्तसूरि पुस्तकोद्धार फण्ड, सूरत और सिंघी जैन ग्रन्थमाला ने अनेक दुर्लभ ग्रन्थों को पुस्तकाकार व पत्राकार रूप में प्रकाशित किया था। दुर्भाग्यवश पुनर्मुद्रण के अभाव में यह पुस्तकें आज सहज उपलब्ध नहीं हैं। आचार्य प्रवर श्री मुनिचन्द्रसूरिजी महाराज की सत्प्रेरणा से प्राकृत भारती ने इस कमी को दूर करने के लिए एक-एक कर उन सभी पुस्तकों के पुनर्मुद्रण की योजना बनाई है जिनकी वर्तमान शोधकर्ताओं तथा श्रमणवर्ग को आवश्यकता पड़ती है। ___ इसी योजना के अन्तर्गत विधि-मार्ग-प्रपा पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करते हुए हमें हर्ष होता है। विधि-विधान की सन्दर्भ पुस्तक होने के कारण इसका महत्त्व जितना श्रमण समुदाय के लिए है, उतना ही धर्मिष्ठ समुदाय तथा विद्वज्जनों के लिए भी है। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत के इस ग्रन्थ का अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं हुआ था । ऐसे व्यापक उपयोग के ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद समाज की एक महति आवश्यकता है। हमें प्रसन्नता है कि अब यह कार्य भी संपन्न प्राय है। मेरे सहयोग से प्रवर्तिनी श्री सज्जन श्रीजी महाराज साहब व विदुषी साध्वी श्री शशिप्रभाश्रीजी म. सा. की शिष्या साध्वी श्री सौम्यगुणाश्रीजी म. इस ग्रन्थ के अनुवाद, समीक्षात्मक एवं गवेषणात्मक अध्ययन पर काम कर रही हैं। उनका यह कार्य पूर्ण होने पर इस ग्रन्थ के दूसरे भाग के रूप में प्राकृत भारती अकादमी द्वारा प्रकाशित किया जायेगा। हार्दिक प्रसन्नता है कि सज्जनमणि आर्या रत्न श्री शशिप्रभाश्रीजी म० सा. के सदुपदेश से श्री जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ संघ, सांचोर ने संयुक्त प्रकाशन हेतु अर्थ सहयोग प्रदान किया है, अतः हम इन दोनों के आभारी हैं। [ iv ] म. विनयसामर निदेशक प्राकृत भारती अकादमी जयपुर Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. प्रवर्तिनी सज्जनश्रीजी म. सा. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्रीजी महाराज : एक परिचय -सौम्यगुणाश्री प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्रीजी म. सा. समता, समन्वय व उदारता का एक अद्भुत उदाहरण थीं। क्यों न होती, उन्होंने अपने जीवन में श्वेताम्बर जैन परम्परा की तीनों मुख्य धाराओं का प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त किया था। तेरापंथी परिवार में जन्म लिया, स्थानकवासी परिवार में ब्याही गई और मूर्तिपूजक साध्वी संघ में दीक्षित विक्रम संवत् १९६५ की वैशाख पूर्णिमा के दिन जयपुर के तेरापन्थ समाज के अग्रणी श्रावक श्री गुलाबचन्दजी लूणिया व उनकी धर्मपत्नी मेहताब बाई के घर जन्म लिया सज्जन कुमारी ने। धर्मपरायण परिवार में पलती-बढती इस कन्या के पूर्व जन्म के संस्कार ही ऐसे थे कि उसे साध्वियों के आचार-व्यवहार की नकल करना भाता था। मात्र तीन वर्ष की आयु से ही वह प्रात:काल अपने माता-पिता के साथ सामायिक करने बैठ जाती थी। पाँच वर्ष की आयु में एक बार वह अपने पिताश्री के साथ योगिराज शिवजीरामजी म० के दर्शन करने गई। शिवजीरामजीम० ने बालिका के मुख मण्डल पर कुछ अद्भुत चिन्ह देखकर कहा कि यह तो कुलदीपिका विदुषी साध्वी बनेगी। माता-पिता चिन्तित तो हुए किन्तु अन्तत: सज्जन कुमारी का विवाह जयपुर के प्रसिद्ध दीवान नथमलजी गोलेछा के पौत्र कल्याणमलजी के साथ कर दिया। यह परिवार स्थानकवासी आम्नाय का था। सज्जन कुमारी का रुझान सांसारिक कृत्यों में न होकर आध्यात्म की ओर ही बना रहा। वह मीरा की भाँति ससुराल में रहकर भी अर्हत् भक्ति में निमग्न रहीं। ___संयोगवश उन्हें अपनी बुआ सास के पास कोटा जाकर रहना पडा। उस समय कोटा में महोपाध्याय श्री सुमतिसागरजी म. सा., उपाध्याय श्री मणिसागरजी म. सा., प्रवर्तिनी ज्ञानश्रीजी म. सा. आदि का बिराजना था। सज्जन कुमारी अपनी बुआ सास के साथ प्रवचनों में जाया करती थीं और अपनी धर्म-जिज्ञासा को संतुष्ट करती थीं। इसी प्रवास के समय उन्होंने तपस्याओं का क्रम आरंभ किया। अनेक कठोर तप करने के पश्चात् वर्षी तप करने हेतु अपने पति से आज्ञा ली। जयपुर में उन्होंने ही उ. श्री मणिसागरजी म. सा. की निश्रा में अपने पति के साथ उपधान तप भी किया। धर्म साधना के प्रति ऐसा अनुराग देख अन्तत: परिवार ने उन्हें दीक्षा की अनुमति दी। आषाढ शुक्ला-२ विक्रम संवत् १९९९ को जयपुर में प्रवर्तिनी ज्ञानश्रीजी म. सा. के सान्निध्य में तथा उपाध्याय श्री मणिसागरजी म. सा. के कर-कमलों से नथमलजी के कटले में दीक्षित हो सज्जन कुमारी से सज्जनश्री बन गई। नूतन साध्वी सज्जनश्रीजी म. सा. की बडी दीक्षा संवत् २००० में लोहावट में आचार्य श्री जिनहरिसागरसूरिजी म० सा. के वरदहस्त से हुई। इसके पश्चात् अपनी गुरुवर्या प्रवर्तिनी श्री ज्ञानश्रीजी म. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सा. की वृद्धावस्था के कारण तीन चातुर्मास जयपुर में किए। इस काल में गुरुसेवा के साथ-साथ अपने अध्ययन तथा लेखन को परिपक्क करने की साधना भी निरन्तर चलती रही और अपने समय की परम विदुषी साध्वी बन गई सरल स्वभावी और धर्मपरायणा सज्जनश्रीजी म. सा. को मधुर स्वर और प्रभावी व्यक्तित्व के गुण जन्मजात मिले थे। अध्ययन और चिन्तन ने इन गुणों को निरन्तर निखारा और वे एक प्रभावी व्याख्यानदात्री बन गईं। अपने विहार काल में वे जहां-जहां गईं वहीं अपना विशिष्ट प्रभाव छोड़ा। ... जयपुर से मालपुरा को किए प्रथम विहार से आरंभ हुआ उनका पदयात्रा क्रम ४८ वर्ष पश्चात जयपुर में ही समाप्त हुआ। इस बीच उन्होंने राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, बिहार और बंगाल आदि स्थानों में विशिष्ट शासन प्रभावना करते हुये अनेक तीर्थ यात्राएं की। - सज्जनश्रीजी म. ने अपनी धर्म-यात्रा में प्रवचन, तप, स्वाध्याय आदि के साथ-साथ साहित्य सृजन के महत्त्वपूर्ण कार्य भी सम्पन्न किए। प्रखर विश्लेषण क्षमता और गहन विषय को सहज शैली में प्रस्तुत करने की प्रतिभा ने उन्हें धर्म-संदेश को जनजन तक पहुँचाने की विलक्षण योग्यता प्रदान की थी। । दीक्षा की रजत जयंती के अवसर पर जयपुर में आयोजित कार्यक्रमों में अनेक स्थानीय विद्वानों ने आपके कृतित्व की भूरि-भूरि प्रशंसा की व “सिद्धान्तविशारद'' की उपाधि से विभूषित किया। आपके द्वारा रचित एवं अनुदित निम्न साहित्य प्राप्त हैं :- १. पुण्य जीवन-ज्योति, २. श्रमण सर्वस्व, ३. देशनासार, ४. द्रव्य-प्रकाश, ५. कल्पसूत्र, ६. चैत्य-वन्दन कुलक, ७. द्वादशपर्व व्याख्यान, ८. श्री देवचन्द चौबीसी स्वोपज्ञ, ९. सज्जन संगीत सुधा, १०. सज्जन भजन भारती, ११. सज्जन-जिनवन्दन विधि, १२. तत्त्व ज्ञान प्रवेशिका इत्यादि। विक्रम संवत् २०३२ में आपके गंभीर शास्त्र ज्ञान के अभिज्ञान स्वरूप प्रवर्तिनी श्री विचक्षणश्रीजी म. ने जयपुर श्रीसंघ की उपस्थिति में आपको आगम-ज्योति विरुद से अलंकृत किया। विक्रम संवत् २०३९ में जोधपुर में आचार्य श्री जिनकान्तिसागरसूरिजी म. सा. के कर कमलों से आपको प्रवर्तिनी पद प्रदान किया। १९८९ में जयपुर संघ ने राष्ट्रीय स्तर पर आपकी विशिष्ट ज्ञान गरिमा का भावभरा अभिनन्दन किया तथा इसी अवसर पर आपके अनुपम व्यक्तित्व एवं कृतित्व को उजागर करने वाले विशिष्ट विषयों से संयुक्त 'श्रमणी' नामक एक अभिनन्दन ग्रन्थ भी प्रकाशित कर आपको भेंट किया गया। इस आगम-ज्योति प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्रीजी म. सा. का अन्तिम चातुर्मास उनकी जन्मस्थली जयपुर में ही हुआ। जयपुर के जैन समाज के चारों सम्प्रदायों द्वारा अभिनन्दन के छ: माह पश्चात् मौन एकादशी के दिन ९ दिसम्बर, १९८९ को यह तपःपूत आत्मा आगम-ज्योति परम-ज्योति में विलीन हो गई। मोहमवाडी जयपुर में आपका दाह संस्कार किया गया। इसी स्थान पर जयपुर संघ ने आपकी स्मृति रूप एक भव्य स्मारक - एन्दिर का निर्माण कराया है जिसमें, ९ फरवरी, १९९८ को विराट समारोह के साथ आपकी मूर्ति प्रतिष्ठापित , की गई है। आपका शिष्या परिवार - सज्जनमणि आर्या शशिप्रभाश्रीजी म. आदि आपके द्वारा जगाई गई श्रुत साधना की अलख को निरन्तर प्रचारित व प्रसारित करती हुईं शासन सेवा में प्रयत्नशील हैं। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिमार्गप्रपागतविषयानुक्रमणिका w w १० ५८-६२ ६२-६४ संपादकीय प्रस्तावना पृ. अ-ऐ - सूयगडंगविही श्रीजिनप्रभसूरिका संक्षिप्त जीवनचरित्र १-२१ - ठाणंगविही जिनप्रभसूरिकी परम्पराके प्रशंसात्मक - समवायंगविही कुछ गीत और पद २२-२४ - निसीहाइच्छेयसुत्तविही १ सम्मत्तारोवणविही १-३ - भगवईजोगविही २ परिग्गहपरिमाणविही ४-६ - नायाधम्मकहांगविही ३ सामाइयारोवणविही - उवासगदसंगविही ४ सामाइयग्गहण-पारणविही -- अंतगडदसंगविही ५ उवहाणनिक्खिवणविही - अणुत्तरोववाइयदसंगविही - पंचमंगलउवहाण - पण्हावागरणंगविही ६ उवहाणसामायारी -विवागसुयंगविही ७ उवहाणविही १२-१४ - ओवाइयाइ-उवंगविही ८ मालारोवणविही १५-१६ - पइण्णगविही ९ उवहाणपइट्ठापंचासगपगरण १६-१९ - महानिसीहजोगविही १० पोसहविही १९-२२ - जोगविहाणपयरणं ११ देवसियपडिक्कमणविही २५ कप्पतिप्पसामायारी १२ पक्खियपडिक्कमणविही २३ | २६ वायणाविही १३ राइयपडिक्कमणविही २४ २७ वायणारियपयट्ठावणाविही १४ तवोविही २५-२९ | २८ उवज्झायपयट्ठावणाविही १५ नंदिरयणाविही २९-३३/२९ आयरियपयट्टावणाविही १६ पवजाविही ३४-३५ - पवत्तिणीपयट्ठावणाविही १७ लोयकरणविही ३० महत्तरापयट्ठावणाविही १८ उवओगविही ३१ गणाणुण्णाविही १९ आइमअडणविही ३२ अणसणविही २० उवट्ठावणाविही ३८-४० ३३ महापारिट्ठावणियाविहीं २१ अणज्झायविही ४०-४२ ३४ आ लो य ण वि ही २२ सज्झायपट्टवणविही ४२-४४ ~ णाणाइयारपच्छित्तं २३ जोगनिक्खेवणविही ४४-४६ - दसणाइयारपच्छित्तं २४ जो ग विही ४६-६२ -- मूलगुण गायच्छित्तं - दसवेयालियजोगविही -पिंडालोयणाविहाणपगरणं - उत्तरज्झयणजोगविही - उत्तरगुणाइयारपच्छित्तं - आयारंगविही - विरियाइयारपच्छित्तं ६४ ६६ ६६-७१ ७१-७४ ७७-७१ ७९-९७ ८२-८६ ५० Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९ विधिप्रपागतविषयानुक्रमणिका ३४ देसविरइपायच्छित्तं ८८-९३ ३६ ठवणायरियपइट्ठाविही ११४ - आलोयणगहणविहीपगरणं ९३-९७ ३७ मुद्राविधि ११४-११६ ३५ प इहा विही ९७-११४ ३८ चउसट्ठिजोगिणीउवसमप्पयार - प्रतिष्ठाविधिसंग्रहगाथा १०३ ३९ तित्थजत्ताविही ११८ - अधिवासनाधिकार ४० तिहिविही नन्द्यावर्तलेखनविधि ४१ अंगविजासिद्धिविही ११९ - जलानयनविधि कलशारोपणविधि - ग्रन्थप्रशस्ति १२० ध्वजारोपणविधि १०९ - ग्रन्थकारकृत देवपूजाविधि १२१-११७ - प्रतिष्ठोपकरणसंग्रह १०९ - जिनप्रभसूरिकृता प्राभातिकनामावली १२८ - कूर्मप्रतिष्ठाविधि ११० -- , स्तुतित्रोटकादिस्तोत्र १२९-१३१ -प्रतिष्ठासंग्रहकाव्यानि - विधिप्रपाग्रन्थान्तर्गत-अवतरणात्मक- प्रतिष्ठाविधिगाथा पद्यानां अकारादिक्रमेण सूचिः १३२-१३४ - कथारनकोशीय ध्वजारोपण विधि ११४ - विशेषनाम्नां सूचिः १०८ १११ ११२ १३५ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासनप्रभावक श्रीजिनप्रभसूरि । [संक्षिप्त जीवन चरित्र] लेखक - श्रीयुत अगरचन्दजी और भँवरलालजी नाहटा, बीकानेर । जैनशासनमें प्रभावक आचार्योंका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है, क्यों कि धर्म की व्यावहारिक उन्नति उन्हीं पर निर्भर है । आत्मार्थी साधु केवल स्व-कल्याण ही कर सकता है; किन्तु प्रभावक आचार्य ख-कल्याणके साथ साथ पर-कल्याण भी विशेष रूपसे करते हैं, इसी दृष्टिसे उनका महत्त्व बढ जाना खाभाविक है । प्रभावक आचार्य प्रधानतया आठ प्रकारके बतलाये हैं यथा पावयणी धम्मकही वाई नेमित्तिओ तवस्सी य। विजासिद्धा य कवी अट्टे य पभावगा भणिया ॥ अर्थात् -प्रावचनिक, धर्मकथाप्ररूपक, वादी, नैमित्तिक, तपस्वी, विद्याधारक, सिद्ध और कवि ये आठ प्रकार के प्रभावक होते हैं । समय समय पर ऐसे अनेक प्रभावकों ने जैन शासनकी सुरक्षा की है, उसे लाञ्छित और अपमानित होनेसे बचाया है, अपने असाधारण प्रभावद्वारा लोकमानस एवं राजा, बाहशाह, मंत्री, सेनापति आदि प्रधान पुरुषोंको प्रभावित किया है । उन सब आचार्योंके प्रति बहुत आदरभाव व्यक्त किया गया है और उनकी जीवनियां अनेक विद्वानोंने लिख कर उनके यशको अमर बनाया है। प्रभावक चरित्रादि ग्रन्थोंमें ऐसे ही आचार्योंका जीवन वर्णन किया गया है । प्रस्तुत ग्रन्थ इस विधिप्रपाके कर्ता श्रीजिनप्रभ सूरि अपने समयके एक बडे भारी प्रभावक आचार्य थे। उन्होंने दिल्ली के सुलतान महमद बादशाह पर जो प्रभाव डाला वह अद्वितीय और असाधारण है । उसके कारण मुसलमानोंसे होने वाले उपद्रवोंसे संघ एवं तीर्थोंकी विशेष रक्षा हुई और जैन शासनका प्रभाव बढा। उन्होंने विद्वत्तापूर्ण और विविध दृष्टियोंसे अत्यन्त उपयोगी, अनेक कृतियां रच कर साहित्य भंडारको समृद्ध बनाया । पं० लालचंद भगवानदास गांधीने उनके सम्बन्धमें "जिनप्रभसूरि अने सुलतान महमद" नामक गुजराती भाषामें एक अच्छी पुस्तक लिखी है । पर उसमें ज्यों ज्यों सामग्री उपलब्ध होती रही त्यों त्यों वे जोडते गये अतः श्रृंखला नहीं रही ? हम उस पुस्तकके मुख्य आधारसे, पर खतंत्र शैलीसे, नवीन अन्वेषणमें उपलब्ध ग्रन्थोंके साथ सूरिजीका जीवन चरित्र इस निबन्ध में संकलित करते हैं । जिनमभ सूरिकी गुरु परम्परा खरतर गच्छके सुप्रसिद्ध वादी-प्रभावक श्रीजिनपति सूरिजीके शिष्य श्रीजिनेश्वर सूरिजीके शिष्य श्रीजिनप्रबोध सूरि हुए । इनके गुरुभ्राता श्रीमालगोत्रीय श्रीजिनसिंह सूरिजीसे खरतरगच्छकी लघु शाखा प्रसिद्ध हुई । इसका मुख्य कारण प्राकृत प्रबन्धावलीमें यह बतलाया गया है कि-एक वार श्रीजिनेश्वर सूरि जी पल्हूपुर (पालणपुर ) के उपाश्रयमें विराजते थे, उस समय उनके दण्डके अकस्मात् तड़तड़ शब्द करते हुए दो टुकड़े हो गए । सूरिजीने शिष्योंसे पूछा कि-'यह तड़तड़ाट कैसे हुआ ?' शिष्योंने कहा'भगवन् ! आपके दण्डेके दो टुकड़े हो गए' ! यह सुन कर सूरिजीने उसके फलका विचार करते हुए निश्चय किया कि मेरे पश्चात् मेरी शिष्य-सन्ततिमेंसे दो शाखाएं निकलेंगी। अतः अच्छा हो, यदि मैं Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनप्रभ सूरिका खयं ही ऐसी व्यवस्था कर दूं ताकि भविष्यमें संघमें किसी प्रकारका कलह न हो और धर्म-प्रचारका कार्य सुचारु रूपसे चलता रहे। इसी अवसर पर (दिल्लीकी ओरके) श्रीमाल संघने आ कर आचार्यश्रीसे विज्ञप्ति की - 'भगवन् ! हमारी तरफ आजकल मुनियोंका विहार बहुत कम हो रहा है, अतः हमारे धर्मसाधनके लिये आप किसी योग्य मुनिको भेजें' । सूरिजीने पूर्वोक्त निमित्तका विचार कर श्रीमाल कुलोत्पन्न जिनसिंह गणिको सं० १२८० में (1) आचार्य पद और पद्मावती मंत्र दे कर कहा-'यह श्रीमाल संघ तुम्हारे सुपुर्द है; संघके साथ जाओ और उनके प्रान्तोंमें विहार कर अधिकाधिक धर्मप्रचार करो' । गुरुदेवकी आज्ञाको शिरोधार्य । कर श्रीजिनसिंह सूरि श्रावकोंके साथ श्रीमाल ज्ञातीय लोगोंके निवास स्थलोंमें विहार करने लगे। उपकारीके नाते समस्त श्रीमाल संघने श्रीजिनसिंह सूरिजीको अपने प्रमुख धर्माचार्य रूपमें माना । जिनमभ सूरिकी दीक्षा श्रीजिनसिंह सूरिजीने गुरुप्रदत्त पद्मावती मंत्रकी, छः मासके आयंबिल तप द्वारा साधना प्रारम्भ की। तत्परताके साथ नित्य ध्यान करने लगे। देवीने प्रगट हो कर कहा-'आपकी अब आयु बहुत थोड़ी रही है, अतः विशेष लाभकी संभावना कम है' । आचार्यश्रीने कहा-'अच्छा, यदि ऐसा है तो मेरे पट्टयोग्य शिष्य कौन होगा सो बतलावें, और उसे ही शासनप्रभावनामें प्रत्यक्ष व परोक्ष रूपसे सहायता दें। पद्मावती देवीने कहा-'सोहिलवाड़ी नगरीमें श्रीमाल जातिके तांबी गोत्रीय महर्द्धिक श्रावक महाधर रहता है । उसके पुत्र रत्नपालकी भार्या खेतलदेवीकी कुक्षिसे उत्पन्न सुभटपाल नामक सर्वलक्षणसम्पन्न पुत्र है, वही आपके पट्टका प्रभावक सूरि होगा'। देवीके इन वचनोंको सुन कर आचार्यश्री सोहिलवाड़ी नगरीमें पधारे । श्रावकोंने समारोह पूर्वक उनका स्वागत किया। एक वार आचार्यश्री श्रेष्ठिवर्य महाधरके यहां पधारे । श्रेष्ठिवर्य्यने भक्ति-गद्नाद् हो कर कहा-'भगवन् ! आपने मुझ पर बड़ी कृपा की, आपके शुभागमनसे मैं और मेरा गृह पावन हो गया, मेरे योग्य सेवा फरमावें!' आचार्यश्रीने कहा-'महानुभाव ! तुम्हारा धर्मप्रेम प्रशंसनीय है, भावी शासन-प्रभावनाके निमित्त तुम्हारे बालकोंमेंसे सुभटपालकी भिक्षा चाहता हूं। संसारमें अनेक प्राणी अनेक वार मनुष्य जन्म धारण करते हैं लेकिन साधनाभावसे अपनी प्रतिभाको विकशित करनेके पूर्व ही परलोकवासी हो जाते हैं । मानव जन्मकी सफलताके लिये त्याग ही सर्वोत्तम साधन है जिसके द्वारा धर्मका अधिकाधिक प्रचार और आत्माका कल्याण हो सकता है। आशा है तुम्हें मेरी याचना स्वीकृत होगी। इससे तुम्हारा यह बालक केवल तुम्हारे वंशको ही नहीं बल्कि सारे देश और धर्मको दीपाने वाला उज्वल रत्न होगा। १ इस प्रबन्धावलीकी एक पुरानी प्रति श्रीजिनविजयजीके पास है, उससे नकल करके जिनप्रभसूरि प्रबंधको हमने 'जैन सत्यप्रकाश' मासिकमें प्रकाशित किया। जिसका गुजराती अनुवाद पं० लालचंद भगवानदासने अपने 'जिनप्रभसूरि अने सुलतान महमद' नामक पुस्तकमें प्रकाशित किया है। प्रबन्धावलीकी एक और प्रति श्रीहरिसागरसूरिजीके पास भी देखी थी । वह प्रति सं० १६२२ आश्विन सुदि १५ को लिखी हुई थी। श्रीजिनविजयजी वाली प्रति भी लगभग इसके समकालीन लिखित प्रतीत होती है। २ 'खरतर गच्छ पट्टावली संग्रह में प्रकाशित १७ वीं शताब्दीकी पट्टावली नं.३ में लिखा है कि-इनका जन्म झुंझनूके तांबी श्रीमालके यहां हुआ था। ये उनके पांच पुत्रोंमेंसे तृतीय पुत्र थे। बीकानेरके जयचंदजीके भंडारकी पट्टावलीमें लिखा है कि बागढ़ देशके वड़ौदा प्रामके किसी श्रावकके छोटे पुत्र थे। इन्हें ११ वर्षकी छोटी उम्रमें आचार्य पद मिला। श्रीजिनप्रभ सूरिजीके जन्म संवत्का उल्लेख कहीं देखने में नहीं आया; पर सं० १३५२ में इन्होंने कातन्त्र विभ्रमवृत्तिकी स्चना की थी। उस समय इनकी आयु २०-२५ वर्षकी आवश्य होगी, अतः जन्म सं० १३२५ के लगभग होना संभव है। प्रबन्धावलीमें दीक्षा का समय सं० १३२६ लिखा है पर वह शंकित मालूम देता है। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय प्रस्तावना संपादकीय प्रस्तावना । पी जैन ग्रन्थ मालामें प्रकाशित श्रीजिनप्रभसूरिकृत विविधतीर्थकल्प नामक अद्वितीय अन्धका "संपादन करते समय ही हमारे मन में इनके बनाये हुए ऐसे ही महत्वके इस विधिप्रपा नामक ग्रन्थका संपादन करनेका भी संकल्प हुआ था और इसके लिये हमने इस ग्रन्थकी हस्तलिखित प्रतियां भी इकही करनेका प्रयत्न करना प्रारंभ किया था । इतने में, संवत् १९९५ में, बंबईके महावीर स्वामी मन्दिरमें चातुर्मासार्थ रहे हुए सौम्यमूर्ति उपाध्यायवर्य श्रीसुखसागरजी महाराज व उनके साहित्यप्रकाशनप्रेमी शिष्यवर श्रीमुनि मंगलसागरजीसे साक्षात्कार हुआ, और प्रासङ्गिक वार्तालाप करते हुए हमने इनके पास विधिप्रपाकी कोई अच्छी प्रतिके होनेकी पृच्छा की। इस पर उपाध्यायजी महाराजने इच्छा प्रकट की कि-"इस प्रन्धको प्रकाशित करनेकी तो हमारी भी बहुत समयसे प्रबल इच्छा हो रही है और यदि आप इस कामको हाथमें लें तो हमारे लिये बहुत ही आनन्द और अभिमानकी बात होगी; और हम श्रीजिनदत्तसूरि-प्राचीन-पुस्तकोद्धार फण्ड की ओरसे इसके प्रकाशित करनेका बडे प्रमोदसे प्रबन्ध करेंगे"-इत्यादि । चूं कि यह ग्रन्थ खरतर गच्छके एक बहुत बडे प्रभाविक आचार्यकी प्रमाणभूत कृति है और इसमें खास करके इस गच्छकी सामाचारीके सम्मत विधि-विधानोंका ही गुम्फन किया हुआ है इसलिये यदि यह श्रीजिनदत्तसूरि-प्राचीन-पुस्तकोद्धार-ग्रन्थावलिमें गुम्फित हो कर प्रकाशित हो तो और भी विशेष उचित और प्रशस्त होगा-ऐसा सोच कर हमने उपाध्यायजी महाराजकी आदरणीय इच्छाका सहर्ष स्वीकार कर लिया और इनके सौजन्यपूर्ण सौहार्दभावके वशीभूत हो कर हमने, इस ग्रन्थका यह प्रस्तुत संपादन कर, इनकी स्नेहाङ्कित आज्ञाका, इस प्रकार यथाशक्ति सादर पालन किया। उपाध्यायजीकी यह प्रबल उत्कंठा थी कि इनके बंबईके वर्षानिवास दरम्यान ही इस ग्रन्थका प्रकाशन हो जाय तो बहुत ही अच्छा हो, पर हम इसको इतना शीघ्र पूरा न कर सके । क्यों कि हमारे हाथमें सिंघी जैन ग्रन्थमालाके अनेकानेक ग्रन्थोंका समकालीन संपादनकार्य भरपूर होनेके अतिरिक्त, बम्बईमें नवीन प्रस्थापित भारतीय विद्याभवनकी ग्रन्थावलि और 'भारतीय विद्या' नामक संशोधन विषयक प्रतिष्ठित त्रैमासिक पत्रिकाका विशिष्ट संपादनकार्य भी हमारे ऊपर निर्भर है, इसलिये प्रस्तुत ग्रन्थके संपादनमें कुछ विलंब होना अनिवार्य था । ग्रन्थका नामाभिधान। इस ग्रन्थका संपूर्ण नाम, जैसा कि ग्रन्थकी सबसे अन्तकी गाथामें सूचित किया गया है, विधिमार्गप्रपा नाम सामाचारी (विहिमग्गपवा नाम सामायारी, देखो पृ० १२०, गाथा १६) ऐसा है । पर इसकी पुरानी सब प्रतियोंमें तथा अन्यान्य उल्लेखोंमें भी संक्षेपमें इसका नाम 'विधिप्रपा' ऐसा ही प्रायः लिखा हुआ मिलता है। इसलिये हमने भी मूल ग्रन्थमें इसका यही नाम सर्वत्र मुद्रित किया है; पर वास्तव में ग्रन्थकारका निजका किया हुआ पूर्ण नामाभिधान अधिक अन्वर्थक और संगत मालूम देता है, इसलिये पुस्तकके मुखपृष्ठ पर यह नाम मुद्रित करना अधिक उचित समझा है । इस विधिमार्ग' शब्दसे ग्रन्थकारका खास विशिष्ट अभिप्राय उद्दिष्ट है । सामान्य अर्थमें तो 'विधिमार्ग' का 'क्रियामार्ग' ऐसा ही अर्थ विवक्षित होता है, पर यहांपर विशेष अर्थमें खरतरगच्छीय विधि-क्रिया-मार्ग ऐसा भी अर्थ अभिप्रेत है । क्यों कि खरतर गच्छका दूसरा नाम विधिमार्ग है और इस सामाचारीमें जो विधि-विधान प्रतिपादित किये गये है वे प्रधानतया खरतर गच्छके पूर्व आचार्यों द्वारा स्वीकृत और सम्मत है। इन विधि-विधानोंकी प्रक्रियामें और और गच्छके आचार्योंका कहीं कुछ मतभेद हो सकता है ओर है भी सही । अतएव अन्धकारने स्पष्ट रूपसे इसके नाममें किसीको कुछ भ्रान्ति न हो इसलिये इसका 'विधिमार्ग प्रपा' ऐसा अन्वर्थक नामकरण किया है। तदुपरान्त, ग्रन्थकारने, ग्रन्थकी प्रशस्तिकी प्रथम गाथामें, यह भी सूचित किया है कि-'भिन्न भिन्न गच्छोंमें प्रवर्तित अनेकविध सामाचारियोंको देख कर शिष्योंको किसी प्रकारका मतिभ्रम न हो इसलिये अपने गच्छकी प्रतिबद्ध ऐसी यह सामाचारी हमने लिखी है। इसलिये इसका यह 'विधिमार्ग प्रपा' नाम सर्वथा सुन्दर, सुसंगत और वस्तुसूचक है ऐसा कहने में कोई अत्युक्ति नहीं होगी। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ विधि प्रपा इस ग्रन्थकी विशिष्टता। यों तो श्रीजिनप्रभ सूरिकी-जैसा कि इसके साथमें दिये हुए उनके चरित्रात्मक निबन्धसे ज्ञात होता हैसाहित्यिक कृतियां बहुत अधिक संख्यामें उपलब्ध होती है। पर उन सबमें, इनकी ये दो कृतियां सबसे अधिक महस्वकी और मौलिक हैं- एक तो विविध तीर्थ कल्प'; और दूसरी यह 'विधिमार्गप्रपा सामाचारी'|'विविधतीर्थ करुप' नामक अन्धके महत्वके विषयमें, संक्षेपमें पर सारभूत रूपसे, हमने अपनी संपादित आवृत्तिकी प्रस्तावनामें लिखा है, इसलिये उसकी यहांपर पुनरुक्ति करनेकी कोई आवश्यकता नहीं। यह विधिप्रपा प्रन्थ कैसा महत्वका शास्त्र है इसका परिचय तो जो इस विषयके जिज्ञासु और मर्मज्ञ हैं उनको इसका अवलोकन और अध्ययन करनेहीसे ठीक ज्ञात हो सकता है। स्व. जर्मन विद्वान् प्रो. वेबरने जो 'सेकेड बुकस् ऑफ दी जैनस्' इस नामका सुप्रसिद्ध और सुपठित ऐसा जैनागमोंका परिचायक मौलिक निबन्ध लिखा है उसमें मुख्य आधार इसी अन्यका लिया है। ग्रन्थका रचना-समय । जिनप्रभ सूरिने इस ग्रन्थकी रचना समाप्ति वि. सं. १३६३ के विजयादशमीके दिन, कोशला अर्थात् अयोध्या नगरीमें की है। इसकी प्रथम प्रति उनके प्रधान शिष्य वाचनाचार्य उदयाकर गणिने अपने हाथसे लिखी थी। यह कृति उनकी प्रौढावस्था में बनी हुई प्रतीत होती है। जैसा कि उनके जीवनचरित्रविषयक उल्लेखोंसे ज्ञात होता है, उन्होंने वि. सं. १३२६ में दीक्षा ली थी; अतः इस ग्रन्थके बनानेके समय उनका दीक्षापर्याय प्रायः ३७ वर्ष जितना हो चुका था। इस दीर्घ दीक्षाकालमें उन्होंने अनेक प्रकारके विधि-विधान स्वयं अनुष्ठित किये होंगे और सेंकडों ही साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकाओंको कराये होंगे, इसलिये उनका यह ग्रन्थसन्दर्भ, स्वयं अनुभूत एवं शास्त्र और संप्रदायगत विशिष्ट परंपरासे परिज्ञात ऐसे विधानोंका एक प्रमाणभूत प्रणयन है। इसमें उन्होंने जगह जगह पर कई पूर्वाचार्योंके कथनोंको उल्लिखित किया है और प्रसङ्गवश कुछ तो पूरे के पूरे पूर्वरचित प्रकरण ही उद्धृत कर दिये हैं। उदाहरणके लिये- उपधानविधिमें, मानदेवसूरिकृत पूरा 'उवहाणविही' नामक प्रकरण, जिसकी ५४ गाथायें है, उद्धृत किया गया है। उपधानप्रतिष्ठा प्रकरणमें, किसी पूर्वाचार्यका बनाया हुआ 'उवहाणपइट्रापंचासय' नामक प्रकरण अवतारित है, जिसकी ५१ गाथायें हैं। पौषधविधि प्रकरण में, जिनवल्लभसूरिकृत विस्तृत 'पोसहविहिपयरण'का, १५ गाथाओंमें पूरा सार दे दिया है। नन्दिरचनाविधिमें, ३६ गाथाका 'अरिहाणादिथुत्त' उद्धृत किया है। योगविधिमें, उत्तराध्ययनसूत्रका 'असंखयं' नाम १३ पथोंवाला ४ था अध्ययन उद्धृत कर दिया है । प्रतिष्ठाविधिमें, चन्द्रसूरिकृत ७ प्रतिष्ठा संग्रहकाव्य, तथा कथारत्नकोश नामक ग्रन्थ मेंसे ५. गाथावाला 'ध्वजारोपणविधि' नामक प्रकरण उद्धृत किया गया है । और ग्रन्थके अन्तमें जो अंगविद्यासिद्धिविधि नामक प्रकरण है वह सैद्धान्तिक विनयचन्द्रसूरिके उपदेशसे लिखा गया है। इस प्रकार, इस ग्रन्थमें जो विधिविधान प्रतिपादित किये गये हैं वे पूर्वाचार्योंके संप्रदायानुसार ही लिखे गये हैं, न कि केवल स्वमतिकल्पनानुसारऐसा ग्रन्थकारका इसमें स्पष्ट सूचन है। जिनको जैन संप्रदायगत गण-गच्छादिके मेदोपभेदोंके इतिहासका अच्छा ज्ञान है उनको ज्ञात है कि, जैन मतमें जो इतने गच्छ और संप्रदाय उत्पन्न हुए हैं और जिनमें परस्पर बडा तीन विरोधभाव व्याप्त हुआ ज्ञात होता है, उसमें मुख्य कारण ऐसे विधि-विधानोंकी प्रक्रियामें मतभेद का होना ही है। केवल सैद्धान्तिक या तात्त्विक मतभेदके कारण वैसा बहुत ही कम हुआ है। ग्रन्थगत विषयोंका संक्षिप्त परिचय । जैसा कि इसके नामसे ही सूचित होता है-यह ग्रन्थ, साधु और श्रावक जीवन में कर्तव्य ऐसी निस्य और नैमित्तिक दोनों ही प्रकारकी क्रिया-विधियोंके मार्ग में संचरण करनेवाले मोक्षार्थी जनोंकी जिज्ञासारूप तृष्णाकी तृप्तिके लिये एक सुन्दर 'प्रपा' समान है। इसमें सब मिला कर मुख्य द्वार यानि प्रकरण हैं । इन द्वारोंके नाम, ग्रन्थके अन्तमें, स्वयं शास्त्रकारने १ से इतककी गाथाओंमें सूचित किये हैं। इन मुख्य द्वारों में कहीं कहीं कितनेक भवान्तर हार भी सम्मिलित हैं जो यथास्थान उल्लिखित किये गये हैं। इन भवान्तर द्वारोंका नामनिर्देश, हमने विषयानुक्रमणिकामें कर दिया है । उदाहरणके तौर पर, २४ । 'जोगविही' नामक प्रकरणमें, दशवैकालिक आदि सब सूत्रोंकी योगोदहन Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय प्रस्तावना कियाका वर्णन करनेवाले भिन्न भिन्न विधान-प्रकरण हैं; और ३४ वें 'आलोयणविही' संज्ञक प्रकरणमें ज्ञानातिचार, दर्शनातिचार आदि आलोचना विषयक अनेक भिन्न भिन्न अन्तर्गत प्रकरण हैं । इसी तरह ३५ ३ 'पट्टाविही' नामक प्रकरणमें जलानयनविधि, कलशारोपणविधि, ध्वजारोपणविधि-आदि कई एक भानुषंगिक विधियोंके स्वतंत्र प्रकरण सनिविष्ट हैं। इन ११द्वारों-प्रकरणोंमेंसे प्रथमके १२ द्वारोंका विषय, मुख्य करके श्रावक जीवनके साथ संबंध रखनेवाली किया-विधियों का विधायक है। १३ वे द्वारसे ले कर २९ वे द्वार तकमें विहित क्रिया-विधियां प्रायः करके साधु जीवनके साथ संबंध रखती हैं और भागेके ३०वें द्वारसे लेकर अन्तके ४१वे द्वार तकमें वर्णित क्रिया-विधान, साप और श्रावक दोनोंके जीवनके साथ संबंध रखनेवाली कर्तव्यरूप विधियोंके संग्राहक हैं। यहां पर संक्षेपमें इन ११ ही द्वारोंका कुछ परिचय देना उपयुक्त होगा। १ पहले द्वारमें, सबसे प्रथम, श्रावकको किस तरह सम्यक्स्ववत ग्रहण करना चाहिये-इसकी विधि बतलाई गई है। इस सम्यक्स्वव्रतग्रहणके समय श्रावकके लिये जीवन में किन किन निस्य और नैमित्तिक धर्मकृत्योंका करना आवश्यक हैं और किन किन धर्मप्रतिकूल कृत्योंका निषेध करना उचित है, यह संक्षेपमें अच्छी तरह बतलाया गया है। २ दूसरे द्वार में, सम्यक्त्वव्रतका ग्रहण किये बाद, जब श्रावकको देशविरति व्रतके अर्थात् श्रावकधर्मके परिचायक ऐसे १२ व्रतोंके ग्रहण करनेकी इच्छा हो, तब उनका ग्रहण कैसे किया जाय - इसकी क्रिया-विधि बतलाई है। इसका नाम 'परिग्रहपरिमाणविधि' है-क्यौं कि इसमें मुख्य करके श्रावकको अपने परिग्रह यानि स्थावर और जंगम ऐसी संपत्तिकी मर्यादाका विशेषरूपसे नियम लेना आवश्यक होता है और इसीलिये इसका दूसरा प्रधान नाम परिग्रहपरिमाणविधि रखा गया है। इसमें यह भी कहा गया है कि इस प्रकारका परिग्रहपरिमाणवत लेनेवाले श्रावक या भाविकाको अपने नियमकी सूचिवाली एक टिप्पणी (यादी-सूचि) बना लेनी चाहिये और उसमें नियमोंकी सूचिके साथ यह लिखा रहना चाहिये कि यह व्रत मैंने अमुक आचार्य के पास अमुक संवत्के अमुक मास और तिथिक दिन ग्रहण किया है-इत्यादि। ३ तीसरे द्वारमें, इस प्रकार देशविरति यानि श्रावकधर्मवत लेनेके बाद श्रावकको कभी छ महिनेका सामायिक व्रत भी लेना चाहिये, यह कहा गया है और इसकी ग्रहणविधि बतलाई गई है। ४ चौथे द्वारमें, सामायिकवतके ग्रहण और पारणकी विधि कही गई है। यह विधि प्रायः सबको सुज्ञात ही है। ५ पांचवें द्वारमें, उपधान विषयक क्रियाका विस्तृत वर्णन और विधान है। इसके प्रारंभमें कहा गया है कि-कोई कोई प्राचार्य इस प्रसंगमें, श्रावककी जो १२ प्रतिमायें शास्त्रोंमें प्रतिपादित की हुई हैं, उनमें से प्रथमकी ४ प्रतिमाओंका ग्रहण करना भी विधान करते हैं; परंतु, वह हमारे गुरुओंको सम्मत नहीं है। क्यों कि शास्त्रकारोंने ऐसा कहा है कि वर्तमान कालमें प्रतिमाग्रहणरूप श्रावकधर्म व्युच्छिन्नप्राय हो गया है, इसलिये इसका विधान करना उचित नहीं है। ६ उक्त उपधान विधिमें, मुख्य रूपसे पंचमंगलका उपधान वर्णित किया गया है, इसलिये ६ ठेद्वार में उसकी सामाचारी बतलाई गई है। ७ उपधान तपकी समाप्तिके उद्यापनरूपमें मालारोपणकी क्रिया होनी चाहिये, इसलिये वे द्वारमें, विस्तारके साथ मालारोपणकी विधि बतलाई गई है। इस विधिमें मानदेवसूरिरचित ५५ गाथाका 'उवहाणविही' नामका पूरा प्राकृत प्रकरण, जो महानिशीथ नामक भागमभूत सिद्धान्तके आधार परसे रचा गया है, उद्धृत किया गया है। ८ इस महानिशीथ सिद्धान्तकी प्रामाणिकताके विषय में प्राचीन कालसे कुछ आचार्योंका विशिष्ट मतभेद चला भा रहा है, और वे इस उपधानविधिको अनागमिक कहा करते हैं, इसलिये ८वें द्वारमें, इस विधिके समर्थनरूप 'उवहाणपइट्टापंचासय' (उपधानप्रतिष्ठापंचाशक) नामका ५१ गाथाका एक संपूर्ण प्रकरण, जो किसी पूर्वाचार्यका बनाया हुआ है, उद्धृत कर दिया है। इस प्रकरणमें महानिशीथ सूत्रकी प्रामाणिकताका यथेष्ट प्रतिपादन किया गया है। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि पां ९ वें द्वारमें, श्रावकको पर्वादिके दिन पौषध घत लेना चाहिये, इसका विधान है और इस व्रतके ग्रहणपारणकी विधि बतलाई गई है। इसके अन्तकी गाथामें कहा है कि श्रीजिनवल्लभसूरिने जो पौषधविधिप्रकरण बनाया है उसीके आधार पर यहांपर यह विधि लिखी गई है। जिनको विशेष कुछ जाननेकी इच्छा हो वे उक्त प्रकरण देखें। १० में प्रकरण में, प्रतिक्रमणसामाचारीका वर्णन दिया गया है, जिसमें देवसिक, शत्रिक और पाक्षिक (इसी में चातुर्मासिक और सांवत्सरिक भी सम्मिलित है) इन तीनों प्रतिक्रमणोंकी विधियोंका यथाक्रम वर्णन प्रथित है। ११ वें द्वारमें, तपोविधिका विधान है। इसमें कल्याणक तप, सर्वांगसुन्दर तप, परमभूषण, भायतिजनक, सौभाग्यकल्पवृक्ष, इन्द्रियजय, कषायमथन, योगशुद्धि, अष्टकर्मसूदन, रोहिणी, अंबा, ज्ञानपंचमी, नन्दीश्वर, सत्यसुखसंपत्ति, पुण्डरीक, मातृ, समवसरण, अक्षयनिधि वर्द्धमान, दुवदन्ती, चन्द्रायण, भग, महाभद्र, भद्रोत्तर, सर्वतोभद्र, एकादशांग-द्वादशांग आराधन, अष्टापद, वीशस्थानक, सांवत्सरिक, अष्टमासिक, षाण्मासिक- इत्यादि अनेक प्रकारके तपकी विधिका विस्तृत वर्णन दिया गया है। इसके अन्तमें कहा गया है कि इन तपके अतिरिक्त कई लोक, माणिक्यप्रस्तारिका, मुकुटसप्तमी, अमृताष्टमी, अविधवादशमी, गोयमपरिग्गह, मोक्षदण्डक, अदुक्खदिक्खिया, अखण्डदशमी इत्यादि नामके वर्षोंका भी आचरण करते दिखाई देते हैं। परंतु मे तप आगमविहित न होनेसे हमने उनका यहांपर वर्णन नहीं दिया है। इसी तरह एकावली, कनकावली, रत्नावली, मुक्तावली, गुणरत्नसंवत्सर, खुट्टमहल सिंहनिकीलित आदि जो तप हैं उनका आचरण करना, अभी इस कालमें, दुष्कर होनेसे उनका भी कोई वर्णन नहीं किया गया है। - १२ तप आदिकी उक्त सब क्रियायें नन्दीरचनापूर्वक की जाती हैं, इसलिये १२ वें द्वारमें, बहुत विस्तारके साथ नन्दीरचनाविधि वर्णित की गई है। इसमें अनेक स्तुति स्तोत्र आदि भी दिये गये हैं। १३ वें द्वारमें प्रवज्याविधि अर्थात् साधुधर्मकी दीक्षाविधिका विशिष्ट विधान बताया गया है। , १४ प्रव्रज्या लिये बाद साधुको यथासमय लोच (कशोत्पाटन) करना चाहिये, इसलिये १४ वें द्वार में, लोचकरणकी विधि बतलाई गई है। १५ प्रजितको 'उपयोगविधि' पूर्वक ही शास्त्रोंमें भक्त पानका ग्रहण करना विहित है, इसलिये १५ में द्वारमें यह 'उपयोगविधि' बतलाई गई है। १६ इस तरह उपयोगविधि करनेके बाद, नवदीक्षित साधुको, सबसे प्रथम भिक्षा ग्रहण करने के लिये जाना हो, तब कैसे और किस शुभ दिनको जाना चाहिये इसकी विधिके लिये, १६ वें द्वारमें, 'आदिम अटन-विधि'का वर्णन दिया गया है। १७-१८ नवदीक्षित साधुको भावश्यक तप और दशवेकालिक तप करा कर फिर उसे उपस्थापना (बडी दीक्षा) दी जाती है, और उसे मण्डलीमें स्थान दिया जाता है, इसलिये इसके बादके दो प्रकरणोंमें, इस मंडली तप और उपस्थापना विधिका विधान बतलाया गया है। , १९ उपस्थापना होने के बाद, साधुको सूत्रोंका अध्ययन करना चाहिये; और यह सूत्राध्ययन विना योगोद्वहनके नहीं किया जाता, इसलिये १९ वें द्वारमें, योगोद्वहन विधिका सविस्तर वर्णन दिया गया है। यह योगविधि द्वार बहुत बढा है। इसमें पहले स्वाध्याय करनेकी विधि बतलाई गई है और वह स्वाध्याय कालग्रहणपूर्वक करना विहित है, अतः उसके साथ कालग्रहण करनेकी विधि भी कही गई है। इसके बाद, आवश्यकावि प्रत्येक सूत्रका पृथक् पृथक् तपोविधान बतलाया गया है। इस विधानमें प्रायः सब ही सूत्रोंका संक्षेपमें अध्ययनादिका निर्देश कर दिया गया है। इसके अन्तमें, इस समझ योगविधिका सूत्ररूपसे विवेचन करनेवाला ६८ गाथाका पूरा 'जोगविद्वाण' मामका प्रकरण दिया गया है, जो शायद अन्धकारकी निजकी ही एक स्वतंत्र रचना है। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय प्रस्तावना २० यह योगोद्वहन 'कप्पतिप्प' सामाचारीकी क्रियापूर्वक किया जाता है, इसलिये २० वे द्वारमें, यह कपतिप्प' सामाचारी बतलाई गई है। २१ इस प्रकार कप्पतिप्पविधिपूर्वक योगोद्वहन किये बाद, साधुको मूल ग्रन्थ, नन्दी, अनुयोगद्वार, उत्तराध्ययन, ऋषिभाषित, अंग, उपांग, प्रकीर्णक और छेद अन्य आदि आगम शानोंकी वाचना करनी चाहिये, इसलिये २१ द्वारमें, इस आगमवाचनाकी विधि बतलाई गई है। २२-२६ इस तरह आगमादिका पूर्ण ज्ञाता हो कर शिष्य जब यथायोग्य गुणवान् बन जाता है, तो उसे फिर वाचनाचार्य, उपाध्याय एवं आचार्य आदिकी योग्य पदवी प्रदान करनी चाहिये, और साध्वीको प्रवर्तिनी अथवा महत्तराकी पदवी देनी चाहिये । इसलिये अनन्तरके द्वारोंमेंसे क्रमशः-२२वें द्वारमें वाचनाचार्य, २३ में उपाध्याय, २४ में आचार्य, २५ में महत्तरा और २६ वेंमें प्रवर्तिनी पदके देनेकी क्रियाविधि बतलाई गई है। इस विधिके प्रारंभमें यह भी स्पष्ट रूपसे कह दिया गया है कि किस योग्यतावाले साधुको वाचनाचार्य अथवा उपाध्याय एवं आचार्य आदिका पद देना उचित है। वाचनाचार्य अथवा उपाध्याय उसीको बनाना चाहिये, जो समप्र सूत्रार्थके ग्रहण, धारण और व्याख्यान करने में समर्थ हो; सूत्रवाचनामें जो पूरा परिश्रमी हो; प्रशान्त हो और आचार्य स्थानके योग्य हो। इस पदके धारकको, एक मात्र आचार्य के सिवाय अन्य सब साधु साध्वी-चाहे वे दीक्षापर्यायमें छोटे हों या बड़े-वन्दन करें। इस भाचार्य पदके योग्य व्यक्तिका विधान करते हुए कहा है कि-जो साधु आचार, श्रुत, शरीर, वचन, वाचना, मतिप्रयोग, मतिसंग्रह और परिज्ञा रूप इन आठ गणिपदसे युक्त हो; देश, कुल, जाति और रूप आदि गुणोंसें भलंकृत हो; बारह वर्षतक जिसने सूत्रोंका अध्ययन किया हो; बारह वर्षतक जिसने शामोंके अर्थका सार प्राप्त किया हो और बारह वर्षतक अपनी शक्तिकी परीक्षाके निमित्त जिसने देशपर्यटन किया हो-वह भाचार्य बनने योग्य है और ऐसे योग्य व्यक्तिको आचार्यपद देना चाहिये । नन्दीरचना आदि विहित क्रियाविधिके साथ, निर्णीत लग्नमें, मूलाचार्य इस नव्य आचार्यको सूरिमन प्रदान करें। यह सूरिमन्न मूलमें भगवान महावीर स्वामीने २१०० अक्षरप्रमाण ऐसा गौतमस्वामीको दिया था और उन्होंने उसे ३२ श्लोकके परिमाणमें गुम्फित किया था। इसका कालक्रमके प्रभावसे हास हो रहा है और अन्तिम आचार्य दुःप्रसहके समयमें यह २॥ श्लोक परिमित रह जायगा। यह गुरुमुखसे ही पढा जाता है-पुस्तकमें नहीं लिखा जाता। प्रन्थकार कहते हैं कि इस सूरिमनकी साधना विधि देखना हो उसे हमारा बनाया हुआ 'सूरिमन्त्रकल्प' नामक प्रकरण देखना चाहिये। यह आचार्यपद-प्रदानविधि बडा भावपूर्ण है। इसमें कहा गया है, कि जब इस प्रकार शिष्यको आचार्य पद देनेकी विधि समाप्तपर होती है तब खुद मूल आचार्य अपने आसन परसे उठ कर शिष्यकी जगह बैठे और शिष्य - नवीन पद धारक आचार्य - अपने गुरुके आसन पर जा कर बैठे। फिर गुरु अपने शिष्य - आचार्यको, द्वादशावर्तविधिसे वन्दन करें-यह बतलानेके लिये कि तुम भी मेरे ही समान आचार्यपदके धारक हो गये हो और इसलिये अन्य सभीके साथ मेरे भी तुम वन्दनीय हो । ऐसा कह कर गुरु उससे कहे कि, कुछ व्याख्यान करो-जिसके उत्तरमें नवीन आचार्य परिषद्के योग्य कुछ व्याख्यान करे और उसकी समाप्तिमें फिर सब साधु उसे चन्दन करें। फिर वह शिष्य उस गुरुके आसन परसे उठ कर अपने आसन पर जा कर बैठे, और गुरु अपने मूल भासन पर। बादमें गुरु, नवीन आचार्यको शिक्षारूप कुछ उपदेशवचन सुनावे जिसको 'अनुशिष्टि' कहते हैं । इस अनुशिष्टिमें, गुरु नवीन आचार्यको किन किन बातोंकी शिक्षा देता है, इसका प्रतिपादन करनेके लिये जिनप्रभ सुरिने ५५ गाथाका एक स्वतंत्र प्रकरण दिया है जो बहुत ही भाववाही और सारगर्भित है। आचार्यको अपने समुदायके साथ कैसा व्यवहार रखना चाहिये और किस तरह गच्छकी प्रतिपालना करनी चाहिये-इसका बडा मार्मिक उपदेश इसमें दिया गया है। आचार्यको अपने चारित्रमें सदैव सावधान रहना चाहिये और अपने अनुवर्तियोंकी चारित्ररक्षाका भी पूरा खयाल रखना चाहिये। सब को समष्टि से देखना चाहिये। किसी पर किसी प्रकारका पक्षपात न करना चाहिये । अपने और दूसरेके पक्षमें किसी प्रकारका विरोधभाव पैदा करे वैसा वचन कभी न बोलना चाहिये । असमाधिकारक कोई व्यवहार नहीं करना चाहिये। स्वयं कषायोंसे मुक्त होनेके लिये सतत प्रयत्नवान् रहना चाहिये-इत्यादि प्रकारके बहुत ही सुन्दर उपदेश-वचन कहे गये हैं जो वर्तमानके नामधारी आचार्योंके मनन करने योग्य हैं। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि प्रपा इसी तरहका सुन्दर शिक्षावचनपूर्ण उपदेश महत्तरा और प्रवर्तिनी पद प्राप्त करनेवाली साध्वीके लिये भी कहा गया है। प्रवर्तिनीको अनुशिष्टि देते हुए आचार्य कहते हैं कि- तुमने जो यह महत्तर पद ग्रहण किया है इसकी सार्थकता तभी होगी जब तुम अपनी शिष्याओंको और अनुगामिनी साध्वियोंको ज्ञानादि सद्गुणोंमें प्रवर्तन करा कर, उनके कल्याण पथकी मार्गदर्शिका बनोगी। तुम्हें न केवल उन्हीं साध्वियों के हितकी प्रवृत्ति करने में प्रवर्तित होना चाहिये जो विदुषियां हैं, जिनका बडा खानदान है, जिनका बहुत बडा स्वजनवर्ग है, एवं जो सेठ, साहुकार आदि धनिकोंकी पुत्रियां हैं। पर तुम्हें उन साध्वियोंकी हित-प्रवृत्तिमें भी वैसे ही प्रवर्तित होना कर्तव्य है जो दीन और दुःस्थित दशामें हों, जो अज्ञान हों, शक्तिहीन हों, शरीरसे विकल हों, निःसहाय हों, बन्धुवर्गरहित हों, वृद्धावस्थासे जर्जरित हों और दुरवस्थामें पड जाने के कारण भ्रष्ट और पतित भी हों । इन सबकी तुम्हें गुरुकी तरह, अंगप्रतिचारिकाकी तरह, धायकी तरह, प्रियसखीकी तरह, भगिनी-जननी-मातामही एवं पितामही आदिकी तरह, वत्सलभाव हो कर प्रतिपालना करनी होगी। २७ इसके बाद, २७ वें द्वारमें, गणानुज्ञाविधि बतलाई गई है। गणानुज्ञाका अर्थ है गणको अर्थात् समुदायको अनुज्ञा यानि निजकी आज्ञामें प्रवर्तन करानेका संपूर्ण अधिकार प्राप्त करना। यह अधिकार, मुख्याचार्यके कालप्राप्त होने पर अथवा अन्य किसी तरह असमर्थ हो जाने पर प्राप्त किया जाता है। इस विधिमें भी प्रायः वैसा ही भाव और उपदेशादि गर्भित है । इस गणानुज्ञापदकी प्राप्ति होने पर, फीर वही नवीन आचार्य गच्छका संपूर्ण अधिनायक बनता है और उसीकी आज्ञामें सारे संघको विचरण करना पडता है। २८ इसके बादके २८ वे द्वारमें, वृद्ध होने पर और जीवितका अन्त समीप दिखाई देने पर, साधुको पर्यन्ताराधना कैसे करनी चाहिये और अन्तमें कैसे अनशन व्रत लेना चाहिये, इसका विधान बतलाया गया है। इसी विधिके अन्तमें, श्रावकको भी यह अन्तिम आराधना करनी बतलाई गई है। २९ इस प्रकारकी अन्तिम आराधनाके बाद, जब साधु कालधर्म प्राप्त हो जाय तब फिर उसके शरीरका अन्तिम संस्कार कैसे किया जाय, इसकी विधिका वर्णन २९ वें महापारिट्रावणिया नामक प्रकरणमें दिया गया है। ३० तदनन्तर, ३० वे द्वारमें, साधु और श्रावक दोनोंके व्रतों में लगने वाले प्रायश्चित्तोंका बहुत विस्तृत वर्णन दिया गया है। इस प्रायश्चित्तविधानमें एक तरहसे प्रायः यति और श्राद्ध दोनों प्रकारके जीतकल्प ग्रन्थोंका पूरा सार आ गया है। इसमें श्रावकके सम्यक्त्व-मूल १२ व्रतोंका प्रायश्चित्त-विधान पूर्ण रूपसे दिया गया है और इसी तरह साधुके मूल गुण और उत्तर गुण आदि आचारों में लगनेवाले छोटे बडे सभी प्रायश्चित्तोंका यथेष्ट वर्णन किया गया है। साधुके भिक्षाविषयक दोषोंका विधान करनेवाला 'पिंडालोयणविहाण' नामक ७३ गाथाका एक बड़ा स्वतंत्र प्रकरण भी, नया बना कर, ग्रन्थकारने इसमें सन्निविष्ट कर दिया है। और इसी तरह एक दूसरा ६४ गाथाका 'आलोयणविहीं' मामका भी स्वतंत्र प्रकरण इस द्वारके अन्तभागमें ग्रथित किया है। ३१-३६ इसके बाद 'प्रतिष्ठाविधि' नामक बडा प्रकरण आता है जिसमें जिनबिम्बप्रतिष्ठा, कलशप्रतिष्ठा, ध्वजारोप, कूर्मप्रतिष्ठा, यन्त्रप्रतिष्ठा और स्थापनाचार्यप्रतिष्ठा- इस प्रकार ३१ से ले कर ३६ तकके ६ द्वारोंका समावेश होता है। इसीके अन्तर्गत अधिवासना अधिकार, नन्द्यावर्तस्थापना, जलानयनविधि-आदि भी प्रसंगोषित कई विधि-विधानोंका समावेश किया गया है। इसमें प्रतिष्ठोपयोगी सामग्रीका भी प्रमाणभूत निर्देश है और मन्त्र तथा स्तुति भादि वचनोंका भी उत्तम संग्रह है। प्रतिष्ठाविधिके लिये यह प्रकरण बहुत ही आधारभूत और सुनिहित समझा जाने योग्य है। ३७ प्रतिष्ठा भौर अन्य बहुतसी क्रियाओंमें 'मुद्राकरण आवश्यक' होता है, इसलिये ३७ वे द्वारमें, मित्र मित्र प्रकारकी मुद्राओंका वर्णन लिखा गया है। ३८ मन्दीरचना और प्रतिष्ठाविषयक क्रियाभों में ६४ योगिनियोंके यत्रादिका आलेखन किया जाता है, इसडिये १८ द्वारमें, इन योगिलियों के नाम बतलाये गये हैं। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सपादकाय प्रस्तावना ३९ वें द्वारमें, 'तीर्थयात्रा करने वालेको किस तरह यात्राविधि करना चाहिये और जो यात्रानिमिच संघ बीकाकना चाहे उसे किस विधिसे प्रस्थानादि कृत्य करने चाहिये-इस विषयका उपयुक्त विधान किया गया है। इसमें संघ नीकालने वालेको किस किस प्रकारकी सामग्रीका संग्रह करना चाहिये और यात्रार्थियोंको किस किस प्रकारकी सहायता पहुंचाना चाहिये-इत्यादि बातोंका भी संक्षेपमें पर सारभूत रूपमें ज्ञातव्य उल्लेख किया गया है। ४० वें द्वारमें, पर्वादि तिथियों का पालन किस नियमसे करना चाहिये, इसका विधान, ग्रन्थकारने अपनी सामाचारीके अनुसार, प्रतिपादित किया है । इस तिथिव्यवहारके विषयमें, जुदा जुदा गच्छके अनुयायियोंकी जुदी जुदी मान्यता है। कोई उदय तिथिको प्रमाण मानता है, तो कोई बहुभुक्त तिथिको ग्राह्य कहता है। पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक पर्वके पालनके विषयमें भी इसी तरहका गच्छवासियोंका पारस्परिक बडा मतभेद है। इस मतभेदको ले कर प्राचीन कालसे जैन संप्रदायों में परस्पर कितनाक विरोधभावपूर्ण व्यवहार चला आता दिखाई देता है। श्रीजिनप्रभ सूरिने अपने इस प्रन्थमें, उसी सामाचारीका प्रतिपादन किया है जो खरतर गच्छमें सामान्यतया मान्य है। ४१ वे द्वारमें, अंगविद्यासिद्धिकी विधि कही गई है। यह 'अंगविधा' नामक एक शास्त्र है जो आगममें नहीं गिना जाता, पर इसका स्थान आगमके जितना ही प्रधान माना जाता है । इसलिये इसकी साधनाविधि यहांपर स्वतंत्र रूपसे बतलाई गई है। यह विधि प्रन्थकारने, सैद्धान्तिक विनयचन्द्रसूरिके उपदेशसे प्रथित की है, ऐसा इसके अंतिम उल्लेखमें कहा है। इस प्रकार, विधिप्रपामें प्रतिपादित मुख्य द्वारोंका, यह संक्षिप्त विषयनिर्देश है । इस निर्देशके वाचनसे, जिज्ञासु जनोंको कुछ कल्पना आ सकेगी कि यह ग्रन्थ कितने महत्वका और अलभ्य सामग्रीपूर्ण है । इस प्रकारके अन्य अन्य आचार्योंके बनाये हुए और भी कितनेक विधि-विधानके ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं, पर वे इस ग्रन्थके जैसे क्रमबद्ध और विशद रूपसे बनाये हुए नहीं ज्ञात होते । इस प्रकारके ग्रन्थों में यह 'शिरोमणि' जैसा है ऐसा कहने में कोई अत्युक्ति नहीं होती। अन्धकार जिनप्रभ सूरि कैसे बड़े भारी विद्वान् और अपने समयमें एक अद्वितीय प्रभावशाली पुरुष हो गये हैं इसका पूरा परिचय तो इसके साथ दिये हुए उनके जीवनचरित्रके पढनेसे होगा, जो हमारे नेहास्पद धर्मबन्धु बीकानेरनिवासी इतिहासप्रेमी श्रीयुत अगरचन्दजी और भंवरलालजी नाहटाका लिखा हुआ है। इसलिये इस विषयमें और कुछ अधिक लिखनेकी आवश्यकता नहीं है। संपादनमें उपयुक्त प्रतियोंका परिचय । इस ग्रन्थका संपादन करने में हमें तीन हस्तलिखित प्रतियां प्राप्त हुई थीं-जिनमें मुख्य प्रति पूनाके भाण्डरकर प्राच्यविद्यासंशोधन मन्दिरमें संरक्षित राजकीय ग्रन्थसंग्रह की थी। यह प्रति बहुत प्राचीन और शुद्धप्राय है। इसके अन्तमें लिखनेवालेका नामनिर्देश और संवतादि नहीं दिया गया, इसलिये यह ठीक ठीक तो नहीं कहा जा सकता कि यह कबकी लिखी हुई है; पर पत्रादिकी स्थिति देखते हुए प्रायः संवत् १५०० के आसपासकी यह लिखी हुई होगी ऐसा संभवित अनुमान किया जा सकता है। इस प्रतिका पीछेसे किसी तज्ज्ञ विद्वान् यतिजनने खूब अच्छी तरह संशोधन भी किया है और इसलिये यह प्रति शुद्धप्रायः है, ऐसा कहना चाहिये। दूसरी प्रति श्रीमान् उपाध्यायवयं श्रीसुखसागरजी महाराजके निजी संग्रहकी मिली थी। पर यह नई ही लिखी हुई है और शुद्धिकी दृष्टि से कुछ विशेष उल्लेखयोग्य नहीं है। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि पा तीसरी प्रति बीकानेरके भंडारकी थी जो श्रीयुत अगरचंदजी नाहटा द्वारा प्राप्त हुई थी। यह प्रति भी नई ही लिखी हुई है पर कुछ शुद्ध है* । इसके अन्त भागमें, जिनप्रभसूरिकृत 'देवपूजाविधि' नामक स्वतंत्र प्रकरण लिखा हुआ मिला, जिसे उपयोगी समझ कर हमने इस ग्रन्थके परिशिष्टके रूपमें मुद्रित कर दिया है। असल में यह पूजाविधि भी इसी ग्रन्थका एक अवान्तर प्रकरण होना चाहिये । परंतु न मालूम क्यौं प्रन्थकारने इसको इस ग्रन्थमें सन्निविष्ट न कर ख़ुदा ही प्रकरण रूपसे प्रथित किया है। संभव है कि यह देवपूजाविधि प्रत्येक गृहस्थ जैनके लिये अवश्य और नित्य कर्तव्य होनेसे इसकी रचना स्वतंत्र रूप से करना आवश्यक प्रतीत हुआ हो, ता कि सब कोई इसका अध्ययन और लेखन आदि सुलभताके साथ कर सके। इस देवपूजाविधि गृहप्रतिमापूजाविधि चैवन्दनविधि स्वपनविधि, छत्रभ्रमणविधि, पञ्चामृतस्नानविधि और शान्तिपर्यविधि आदि और भी आनुषङ्गिक कई विधियों का समावेश कर इस विषयक संपूर्णतया प्रतिपादित किया गया है। , उक्त प्रकारसे प्रस्तुत प्रन्धके संपादनकी प्रेरणा कर, उपाध्याय श्रीमुखसागरजी महाराजने इस प्रकार क्रियाविधिके अमूहद निधिरूप प्रस्तुत ग्रन्थराजके विशिष्ट स्वाध्यायका जो प्रशस्त प्रसंग हमारे लिये उपस्थित किया, तदर्थं हम, अन्तमें, आपके प्रति अपना कृतज्ञभाव प्रदर्शित कर; और जो कोई जिज्ञासु जन, इस ग्रन्थके पठन-पाठन से अपनी ज्ञानवृद्धि करके विधिमार्गक प्रवास में प्रगतिगामी बनेंगे, तो हम अपना यह परिश्रम सफल समझेंगे ऐसी शाशा प्रकट कर इस प्रस्तावनाकी यहां पर पूर्णता की जाती है। - लम् फाल्गुन पूर्णिमा विक्रम संवत् १९९७ बंबई } यह प्रति बीकानेरके श्रीपूजयजीके भंडारकी ई आर इसके अन्तमें लिपिकर्तने अपना समय और नामादि बतलानेवाली इस प्रकारकी पुष्पिका लिखी है जिन विजय " संवत् १८९२ वर्षे मिती ज्येष्ठ शुक्ल ५ तिथ्यां कुमुदबारे श्रीहमीरगढ नयरे चतुर्मासी स्थिता पं० व्धिविलास लिखितं । श्रीमद्दत् खरतर गच्छे श्रीकीर्तिरत्तसूरि संतानीया । श्रीफलवर्गीनयरे लिखितं ॥ " Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T4412 જયતીલાલ भरा DTE 900COCOC IOCLI L ocare शमीमनु सामस्मभासनप्रमगामतिः श्रीमजिनप्रभसरिमूर्तिपतिकृति Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जीवन-चरित्र । महाधर सेठने आचार्यश्रीकी आज्ञाको सहर्ष स्वीकार की और अच्छे मुहूर्तमें सुभटपालको समारोह पूर्वक सं० १३२६ (१) में दीक्षा दिलाई । आचार्यश्रीने नवदीक्षित मुनिको खूब तत्परतासे शास्त्रोंका अध्ययन कराया एवं साम्नाय पद्मावती मंत्र समर्पित किया-जिससे थोडे समयमें मुनिवर्य प्रतिभाशाली गीतार्थ हो गये। सं० १३४१ में किढिवाणा नगरमें श्रीजिनसिंह सूरिजीने उन्हें सर्वथा योग्य जान कर अपने पट्टपर स्थापित कर श्रीजिनप्रसूरि नामसे प्रसिद्ध किया। इसके कुछ समय पश्चात् श्रीजिनसिंह सूरिजी वर्गवासी हुए। ___ श्रीजिनप्रभ सूरिजीके पुण्यप्रभाव और गुरुकृपासे पद्मावती देवी प्रत्यक्ष हुई। एक बार इन्होंने देवीसे पूछा कि-'हमारी किस नगरमें उन्नति होगी?' पद्मावतीने कहा-'आप योगिनी-पीठ दिल्लीकी ओर विहार कीजिये । उधर आपको पूर्ण सफलता मिलेगी। सूरिजी देवीके सङ्केतानुसार दिल्ली प्रान्तमें विचरने लगे। ग्रन्थ रचना सं० १३५२ में योगिनीपुर (दिल्ली) में माथुरवंशीय ठकुर खेतल कायस्थकी अभ्यर्थनासे 'कातन्त्र विभ्रम' पर २६१ श्लोक प्रमाणकी वृत्ति बनाई । सूरिजी के उपलब्ध ग्रन्थोंमें यह सर्वप्रथम कृति है । ___ सं० १३५६ में श्रेणिकचरित्र-द्वयाश्रय काव्यकी रचना की । सं० १३६३ का चातुर्मास अयोध्या किया। वहां साधु और श्रावकोंके आचारोंका विशदसंग्रह रूप इसी विधिप्रपा ग्रन्थको विजयादशमीके दिन रच कर पूर्ण किया । सं० १३६४ में वैभारगिरिकी यात्रा करके वैभारगिरिकल्प निर्माण किया और कल्पसूत्र पर 'सन्देह विषौषधि' नामक वृत्ति बनाई। ___ सं० १३६५ के पौषमें अयोध्या (१) अजितशान्तिकी बोधदीपिका वृत्ति, (२) पौष कृष्णा ९ को उपसर्गहरकी अर्थकल्पलता वृत्ति, (३) पोष सुदि ९ के दिन भयहर स्तोत्रकी अभिप्रायचन्द्रिका वृत्ति बनाई। इन कुछ वर्षोंमें सूरिजीने पूर्व देशके प्रायः समस्त तीर्थोंकी यात्रा कर, कई कल्प, स्तोत्र इत्यादि रचे । संवत् १३६९ में मारवाड देशकी ओर विचरते हुए फलौधी तीर्थकी यात्रा कर वहांका स्तोत्र बनाया । कहा जाता है कि सूरिमहाराज प्रतिदिन एकाध नवीन स्तोत्रकी रचना करनेके पश्चात् आहार प्रहण करते थे। इसके फल स्वरूप आपने ७०० स्तोत्र' जितने विशाल स्तोत्र-साहित्यकी रचना कर जैन मुनियोंके सामने एक उत्तम आदर्श उपस्थित किया । आपके निर्माण किये हुए स्तात्रोंकी सूची पीछे दी गई है। इस विशाल स्तोत्र-साहित्यमेंसे अब केवल ७५ के लगभग ही उपलब्ध हैं । इनमें कई यमकमय, चित्रकाव्य, आदि अनेक वैशिष्ट्यको लिये हुए हैं, जिससे सूरिजीके असाधारण पाण्डित्यका परिचय मिलता है। सूरिजीने संस्कृत, प्राकृत और देश्य भाषामें इस प्रकार सेंकडों ही स्तोत्रोंकी रचना की, और उसके साथ फारशी भाषामें भी उन्होंने कई स्तोत्र बनाये जो जैन साहित्यमें एकदम नवीन और अपूर्व वस्तु है । १ यहां तकका यह वृत्तान्त 'प्राकृत प्रबन्धावली' अन्तर्गत श्रीजिनप्रभसूरि प्रबन्धसे लिखा गया है। २ उपदेशसप्तति (सं० १५.३ सोमधर्मगणिकृत) एवं सिद्धान्तस्तवावरि । अवचूरिकारने इन स्तोत्रोंको, तपागच्छीय सोमतिलकसूरिको, श्रीजिनप्रभसूरिने पद्मावतीके सङ्केतसे तपागच्छका भावी उदय झात कर, भेंट करना लिखा है। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनप्रभ सूरिका शायद ये ही सबसे पहले जैनाचार्य थे जिन्होंने यावनी भाषाका अध्ययन किया और उसमें स्तोत्र जैसी कृतियां मी की । दिल्लीमें अधिक रहने और मुसलमान बादशाहोंके दरबारमें आने-जानेके विशेष प्रसंगोंके कारण इनको उस भाषाके अध्ययनकी परम आवश्यकता मालूम दी होगी। शायद बादशाहको, जैन देवकी स्तुति कैसे की जाती है इसका परिचय करानेके निमित्त ही इन्होंने उस भाषामें इन स्तोत्रोंकी रचना की हो । सं० १३७६ में दिल्लीके सा० देवराजने शत्रुजय, गिरनार आदि तीर्थोंका संघ निकाला। उस संघमें सूरिजी मी साथ थे । मिती ज्येष्ठ कृष्ण १ को शत्रुजय तीर्थकी यात्रा की और मिती ज्येष्ठ शुक्ल ५ को श्री गिरनार तीर्थकी यात्रा की। देवराजके संघ एवं इन तीर्थद्वयकी यात्राका उल्लेख सूरजीने स्वयं अपने तीर्थयात्रा स्तवन एवं त्रोटकमें किया है। सं० १३८० में पादलिप्तसूरि कृत वीरस्तोत्रकी वृत्ति और सं० १३८१ में राजादिरचादिगणवृत्ति, साधुप्रतिक्रमण-वृत्ति, सूरिमंत्राम्नाय आदि ग्रन्थोंकी रचना की। सं० १३८२ के वैशाख शुद्ध १० को श्रीफलवर्द्धि तीर्थकी यात्रा कर स्तोत्र बनाया । सुलतान कुतुबुद्दीन मिलन हमारी ओरसे प्रकाशित ऐतिहासिक जैन काव्यसंग्रहके 'जिनप्रभसूरि गीत' में लिखा है कि सूरिजीने सुलतान कुतुबुद्दीनको रञ्जित किया था। अठाही, आठम, चौथको सम्राट् कुतुबुद्दीन उन्हें अपनी सभामें बुलाता था और एकान्तमें बैठ कर उनसे अपना संशय निवारण किया करता था। सुप्रसन्न हो कर सुलतानने गांव, हाथी आदि सूरिजीको लेनेके लिये कहा पर निस्पृह गुरुजीने उनमेंसे कुछ मी ग्रहण नहीं किया। सं० १३९३ में रचित 'नाभिनन्दनोद्धार प्रबन्ध में लिखा है कि-शत्रुअयोद्धारक समरसिंहने शाही फरमान ले कर संघ और श्रीजिनप्रभ सूरिजीके साथ मथुरा और हस्तिनापुरकी यात्रा की थी। महमद तुगलक प्रतिबोध । बादशाहका आमन्त्रण सूरिजीके अद्भुत पाण्डित्यकी ख्याति सर्वत्र फैल चुकी थी। एक वार सं० १३८५ में जब आप दिल्लीके शाहपुरामें विराजमान थे तब दिल्लीपति सम्राट् महमद तुगलकने अपनी सभामें विद्वद्गोष्ठी १ यह ग्रन्थ गुजराती अनुवाद सहित अहमदाबादसे छप चुका है। २ डॉ. ईश्वरीप्रसादके भारतवर्षके इतिहास (पृ. २२३-३२) में सुलतान महमद तुगलकके संबन्धमें अच्छा प्रकाश डाला गया है। उस प्रन्थसे कुछ आवश्यक अंश नीचे दिया जाता है, इससे उसके खभाव चरित्रादिके विषयमें पाठकोंको अच्छी जाकानरी हो सकेगी। "महम्मद तुगलक-(सन् १३२५-१३५१ ई.)-अपने पिता गयासुद्दीनकी मृत्युके बाद शाहजादा जूना महम्मद तुगलकके नामसे दिल्लीकी गद्दी पर बैठा । दिलीके सुलतानोंमें वह सबसे अधिक विद्वान और योग्य पुरुष था। उसकी स्मरण शक्ति और बुद्धि अलौकिक थी और मस्तिष्क बड़ा परिष्कृत था। अपने समयकी कला तथा विज्ञानका वह ज्ञाता था, और बड़ी आसानी तथा खूबीके साथ फारसी भाषा बोल और लिख सकता था। उसकी मौलिकता, वक्तृत्व और विद्वत्ता देख कर लोग दंग रह जाते थे और उसे सृष्टिकी एक अद्भुत चीज समझते थे। तर्कशास्त्रका बह बडा पंडित था और उस विषयके प्रकाण्ड विद्वान भी उससे शास्त्रार्थ करनेका साहस नहीं करते थे। वह अपने धर्मका पाबन्द था परंतु विधर्मियों पर अत्याचार नहीं करता था। वह मुल्लाओं और मौलवियोंकी रायकी परवाह नहीं करता था और प्राचीन सिद्धान्तों और परिपाटियोंको आंख बंध कर नहीं मानता था। उसने हिन्दुओंके साथ धार्मिक अत्याचार नहीं किया; और सती प्रथाको रोकनेका प्रयन किया। वह न्याय करने में किसीकी रियायत नहीं करता था और छोटे बडे सबके साथ एकसा बर्ताव करता था। विदेशियोंके प्रति वह बडा औदार्य दिखलाता था ...... उसमें ठीक निक्षय तक पहुंचनेकी शक्तिकी कमी थी। उसे क्रोध जल्दी आता था और जरासी देरमें वह आपेसे Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जीवन-चरित्र । करते हुए पण्डितोंसे पूछा कि-'इस समय सर्वोत्तम विद्वान कौन है ?' इसके उत्तरमें ज्योतिषी धाराधरने श्रीजिनप्रभ सूरिजीके गुणोंकी प्रशंसा करते हुए उन्हें सर्वश्रेष्ठ विद्वान् बतलाया। बादशाह एक विद्यान्यसनी सम्राट् था, वह विद्वानोंका खूब आदर करता था। उसकी सभा सदैव बहुतसे चुने हुए पण्डित विद्वद्गोष्ठी किया करते थे, जिसमें सम्राट् खयं रस लिया करता था । अतः पं० धाराधरसे श्रीजिनप्रभ सूरिजीका नाम श्रवण कर उन्हींके द्वारा आचार्य श्रीको अपनी राजसभामें बहुमान पूर्वक बुलाया । बादशाहसे मिलन व सत्कार सम्राट्का आमन्त्रण पा कर मिती पोषशुक्ला २ को संध्याके समय सूरिजी उससे मिले । सम्राट्ने अपने अत्यन्त निकट सूरिजीको बैठा कर भक्तिके साथ उनसे कुशलप्रश्न पूछा । सूरिजीने प्रत्युत्तर देते हुए नवीन काव्य रच कर आशीर्वाद दिया जिसे सुन कर सम्राट अत्यन्त प्रमुदित हुआ। लगभग अर्धरात्रि तक सूरिजीके साथ सम्राट्की एकान्त गोष्ठी होती रही। रात्रि अधिक हो जानेके कारण सूरिजी वहीं रहे । प्रातःकाल पुनः सम्राट्ने सूरिजीको अपने पास बुलाया और सन्तुष्ट हो कर १००० गाय, द्रव्यसमूह, श्रेष्ठ उद्यान, १०० वस्त्र, १०० कम्बल, एवं अगर, चंदन, कर्पूरादि सुगन्धित द्रव्य उन्हें अर्पण करने लगा। परन्तु-'जैन साधुओंको यह सब अकल्पनीय हैं' - इत्यादि समझाते हुए सूरिजीने उन सबका लेना अस्वीकार किया। किन्तु सम्राट्को अप्रीति न हो इसलिये राजाभियोग वश उनमेंसे केवल कम्बल वस्त्रादि अल्प वस्तुयें कुछ ग्रहण की। सम्राट्ने विविध देशान्तरोंसे आये हुए पण्डितोंके साथ सूरिजीकी वाद-गोष्ठी करवा कर दो श्रेष्ठ हाथी मंगवाये । उनमेंसे एक पर श्रीजिनप्रभ सूरिजीको और दूसरे पर उनके शिष्य श्रीजिनदेव सूरिजीको चढा' कर, अनेक प्रकारके शाही वाजित्रोंके समारोह पूर्वक, पौषध शालामें पहुंचाया । उस समय भट्टादि लोग विरुदावली गा रहे थे, राज्यधिकारी प्रधान-वर्ग भी, चारों वर्णकी प्रजाके सहित, उनके साथ थे । संघमें अपार आनंद छा रहा था; आचार्य महाराजकी जयध्वनिसे आकाश गूंज रहा था । श्रावकोंने इस सुअवसर पर आडंबरके साथ प्रवेश-महोत्सव किया और याचकोंको प्रचुर दान दे कर सन्तुष्ट किया । संघरक्षा और तीर्थरक्षाके फरमान सम्राट्का सूरिजीसे परिचय दिनों-दिन बढने लगा जिससे उनके विद्वत्तादि गुणोंकी उसके चित्त पर जबरदस्त छाप पड़ी। उस समय जैनों पर आये दिन नाना प्रकारके उपद्रव हुआ करते थे। बाहर हो जाता था । वह चाहता था कि लोग उसके सुधारोंका शीघ्र स्वीकार कर लें। जब उसकी आज्ञाके पालनमें आनाकानी होती अथवा विलम्ब होता था तो वह निर्दय हो कर कठोर-से-कठोर दण्ड देता था। विद्वान् होनेके साथ ही साथ महम्मद एक वीर सिपाही और कुशल सेनापति भी था। सुदूर प्रान्तोंमें कई वार उसने युद्धमें महत्त्वपूर्ण विजय प्राप्त की थी। ...... वह कठोर हृदय होते हुए भी उदार था। अपने धर्मका पाबन्द होते हुए भी कहरता और पक्षपातसे दूर रहता था । और अभिमानी होते हुए भी उसका विनय प्रशंसनीय था। ......... महम्मद खेच्छाचारी था-परंतु उसकी चित्तवृत्ति उदार थी। शासन-प्रबन्धके संबन्धमें वह धर्माधिकारियों को जरा मी हस्तक्षेप नहीं करने देता था और हिन्दुओं के प्रति उसका व्यवहार अन्य सुलतानोंकी अपेक्षा अधिक निष्पक्ष और सौजन्यपूर्ण था। वह बडा न्यायप्रिय था। शासनके छोटे बड़े सभी कामोंकी खयं देख भाल करता था और फकीर तथा गृहस्थ सभीको न्यायकी दृष्टि से समान समझता था।" १ यद्यपि हाथी पर आरोहण करना मुनियोंका आचार नहीं है, परन्तु शासन-प्रभावनाका महान् लाभ एवं सम्राटके विशेष आग्रहके कारण यह प्रवृत्ति अपवाद रूपसे हुई ज्ञात होती है। सं० १३३४ में रचित प्रभावकचरित्रमें मी, सूराचार्यके गाजत होनेका उल्लेख मिलता है। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राजिममम सूारका अतः समस्त श्वेताम्बर दर्शनकी उपद्रवसे रक्षा करनेके लिये सम्राट्ने एक फरमान पत्र सूरिजीको समर्पण किया । गुरुश्रीने चारों दिशाओमें उस फरमानकी नकलें भेज दी जिससे शासनकी बड़ी भारी उमति हुई । इसी प्रकार एक दिन सूरिजीने तीयोंकी रक्षाके लिये सम्राटका ध्यान आकर्षित किया । सम्राट्ने तत्काल शत्रुञ्जय, गिरनार, फलौधी आदि तीर्थोकी रक्षाके लिये फरमान पत्र लिखवा कर दे दिये । उन फरमान पत्रोंकी नकलें भी तीर्थों में भेज दी गई । अन्य समय एक वार सूरिजीके उपदेशसे सम्राट्ने बहुत बन्दियोंको कैदसे मुक्त कर दिया। सं० १३८५ की माघ शुद्धि ७ को दिल्लीमें सूरिजीने 'राजप्रासाद" नामक शत्रुजय कल्प बनाया। कन्यानयनकी चमत्कारी प्रतिमाका उद्धार - संवत् १३८५ में आसीनगर (हांसी ) के अल्लविय वंशके किसी क्रूर व्यक्तिने श्रावकों एवं साधुओंको बंदी बना कर उनकी विडम्बना की । उसने कन्यानयनके श्रीपार्थनाथ खामीकी पाषाण मय प्रतिमाको खण्डित कर दी, और सं० १२३३ आषाढ सुद्धि १० गुरुवारको, श्रीजिनपति सूरिजी द्वारा प्रतिष्ठित एवं उनके चाचा विक्रमपुर निवासी सा० मानदेव कारित, २३ अंगुल प्रमाण वाली श्रीमहावीर भगवानकी चमत्कारी प्रतिमाको अखण्डित रूपसे ही गाड़ीमें रख कर दिल्ली ले आया। सम्राट् उस समय वगिरिमें था। अतः उसके आने पर उसकी आज्ञानुसार व्यवस्था करनेके विचारसे उस जिनबिम्बको तुगुलकाबादके शाही खजानेमें रख दिया। इससे वह प्रतिमा पंद्रह मास पर्य्यन्त तुकोंके आधिकारमें रही । ___महावीर प्रभुकी इस प्रतिमाका यह वृत्तान्त ज्ञात कर सूरि महाराज सोमवारके दिन राजसभामें पधारे । उस समय वृष्टि हो रही थी जिससे उनके पैर कीचड़से भर गये थे। सम्राट्ने यह देख कर मल्लिक काफूर द्वारा अच्छे वस्त्रखंडसे उनके पैर पुंछवाये । सूरिजीने बहुत ही भाव-गर्भित काव्य द्वारा सम्राटको आशीर्वाद दिया । उस काव्यकी व्याख्या करने पर सम्राट्के हृदयमें अत्यन्त चमत्कृति पैदा हुई । अवसर जान कर सूरि महाराजने उपर्युक्त महावीर प्रतिमाका वृत्तान्त बतला कर सम्राट्से, उसे जैनसंघको समर्पण कर देनेके लिये निवेदन किया । सम्राट्ने सूरिजीकी आज्ञाको सहर्ष स्वीकार की। तुगुलकाबादके खजानेसे असूअग मल्लिकोंके कन्धे पर विराजमान करा कर प्रभुप्रतिमाको राजसभामें मंगवाई और सम्राट्ने दर्शन करके सूरि महाराजको समर्पण कर दी । उस चमत्कारी प्रतिमाकी प्राप्तिसे संघको अपार हर्ष हुआ। समस्त संघने एकत्र हो कर बडे समारोहके साथ सखासनमें विराजमान कर मलिकताजदीन सराय के जिनमन्दिरमें उसे स्थापित की । सूरिजीने वासक्षेप किया, और श्रावकलोग प्रतिदिन पूजन करने लगे। कन्यानयकी प्रतिमाका पूर्व इतिहास इस प्रतिमाके पूर्व इतिहासके विषयमें सूरिजीने 'कन्यानयन' तीर्थकल्पमें लिखा है किसं० १२४८ में पृथ्वीराज चोहानके, सहाबुद्दीन गौरी द्वारा मारे जाने पर, राज्यप्रधान परम श्रावक सेठ रामदेवने स्थानीय श्रावक संघको लिखा कि- तुकोंका राज्य हो गया है, अतः महावीर प्रभुके बिंबको कहीं प्रच्छन्नरूपसे रखना आवश्यक है । इस सूचनासे वहांके श्रावकोंने दाहिमाज्ञातीय मंडलेश्वर कैमासके नामसे वसे हुए 'कयंवास स्थल' में बालके नीचे प्रतिमाको गाड़ दी । सं० १३८६ में सूरिजीने दिपुरी तीर्थ स्तोत्रकी रचना की । , १ इस कल्प का नाम 'राजप्रासाद' होनेका कारण सूरिजीने ही बताया है कि इसके रचना-प्रारंभके समय राजाधिराज (महमद तुगुलक) संघ पर प्रसन्न हुए थे। उपर्युक्त फरमान द्वयकी प्राप्तिसे भी इसका समर्थन होता है। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साक्षप्त जाबन-चारत्र। सं० १३११ के दारुण दुर्भिक्षमें जीवन निर्वाहके लिये जाजओ नामक सूत्रधार कमाणयसे सुभिक्ष देशकी ओर चला। प्रथम प्रयाण योड़ा ही करना चाहिये यह विचार कर उसने रात्रिनिवास 'कयंबास स्थल में किया । अर्द्धरात्रिके समय उससे स्वप्नमें देवताने कहा-'तुम जहां सोये हो उसके कितनेक हाथ नीचे प्रभु महावीरकी प्रतिमा है । तुम उसे प्रकट करो ता कि तुम्हें देशान्तर न जाना पड़े और यहीं निर्वाह हो जाय !' संभ्रम पूर्वक जग कर देवकथित स्थानको अपने पुत्रादिसे खुदवाने पर प्रतिमा प्रकट हुई। यह शुभ सूचना उसने श्रावकोंको दी। उन्होंने महोत्सवके साथ मन्दिरजीमें प्रतिमाको स्थापित की और सूत्रधारकी आजीविका बांध दी। एक वार न्हवणकरानेके पश्चात् प्रभुबिंब पर पसीना आता दिखाई दिया । बार-बार पौंछने पर मी अविरल गतिसे पसीना आता रहा। इससे श्रावकोंने भावी अमंगल जाना । इतने ही में प्रभातके समय जेट्ठय लोगोंकी धाड़ आई। उन्होंने नगरको चारों तरफसे नष्ट किया। इस प्रकार प्रकट प्रभाव वाले महावीर भगवान, सं० १३८५ तक 'कयंवास स्थल' में श्रावकों द्वारा पूजे गये । इसके बादका वृत्तान्त ऊपर आ ही चुका है। कन्यानयन स्थान निर्णय पं० लालचंद भगवानदासका मत है कि उपर्युक्त कन्नाणय या कन्यानयन वर्तमान कानानूर है। पर हमारे विचारसे यह ठीक नहीं है । क्यों कि उपर्युक्त वर्णनमें, सं० १२४८ में उधर तुकोंका राज्य होना लिखा है; किन्तु उस समय दक्षिण देशके कानानूरमें तुर्कोका राज्य होना अप्रमाणित है। 'युगप्रधानाचार्यगुर्वावली' में (जो कि श्री जिनविजयजी द्वारा सम्पादित हो कर 'सिंघी जैन ग्रन्थमाला' में प्रकाशित होने वाली है) कन्यानयनका कई स्थलोंमें उल्लेख आता है । उससे भी कनाणय, आसी नगर (हांसी) के निकट, वागड़ देशमें होना सिद्ध है । जिस कन्यानयनीय महावीर प्रतिमाके सम्बन्ध में ऊपर उल्लेख आया है उसकी प्रतिष्ठाके विषयमें भी गुर्वावलीमें लिखा है कि - सं० १२३३ के ज्येष्ठ सुदि ३ को, आशिकामें बहुतसे उत्सव समारोह होनेके पश्चात् , आषाढ महीनेमें कन्यानयनके जिनालयमें श्रीजिनपति सूरिजीने अपने पितृव्य सा० मानदेव कारित महावीर बिंबकी प्रतिष्ठा की और व्याघ्रपुरमें पार्श्वदेवगणिको दीक्षा दी। कन्यानयनके सम्बन्धमें गुर्वावलीके अन्य उल्लेख इस प्रकार हैं संवत् १३३४ में श्रीजिनचन्द्र सूरिजीकी अध्यक्षतामें कन्यानयन निवासी श्रीमाल ज्ञातीय सा० कालाने नागौरसे श्रीफलौधी पार्श्वनाथजीका संघ निकाला, जिसमें कन्यानयनादि समग्र वागड़ देश व सपादलक्ष देशका संघ सम्मिलित हुआ था। संवत् १३७५ माघ सुदि १२ के दिन, नागौर में अनेक उत्सवोंके साथ श्रीजिनकुशल सूरिजीके वाचनाचार्य-पदके अवसर पर, संघके एकत्र होनेका जहां वर्णन आता है वहां 'श्रीकन्यानयन, श्रीआशिका, श्रीनरभट प्रमुख नाना नगर प्राम वास्तव्य सकल वागड़ देश समुदाय' लिखा है ।। ___ संवत् १३७५ वैशाख वदि ८ को, मन्त्रिदलीय टक्कर अचलसिंहने सुलतान कुतुबुद्दीनके फरमान से हस्तिनापुर और मथुराके लिये नागौरसे संघ निकाला। उस समय, श्रीनागपुर, रुणा, कोसवाणा, मेड़ता, कडुयारी, नवहा, झुंझणु, नरभट, कन्यानयन, आसिकाउर, रोहद, योगिनीपुर, धामइना, जमुनापार आदि नाना स्थानोंका संघ सम्मिलित हुआ लिखा है । संघने क्रमशः चलते हुए नरभटमें श्रीजिनदत्तसूरि-प्रतिष्ठित श्रीपार्श्वनाथ महातीर्थकी वन्दना की। फिर समस्त वागड़ देशके मनोरथ पूर्ण करते हुए कन्यानयनमें श्रीमहावीर भगवानकी यात्रा की । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनप्रभ सूरिका श्रीजिनचन्द्र सूरिजीने ग्वण्डासराय (दिल्ली) चातुर्मास करके मेड़ताके राणा मालदेवकी वीनतिसे विहार कर मार्ग में धामइना, रोहद आदि नाना स्थानोंसे हो कर, कन्यानयन पधार कर महावीर प्रभुको नमस्कार किया। संवत् १३८० में सुलतान गयासुद्दीनके फरमान ले कर दिल्लीसे शजयका संघ निकला । वह सर्व-प्रथम कन्यानयन आया, वहां वीर प्रभुकी यात्रा कर फिर आशिका, नरभट, खाटू, नवहा, झुंझणू आदि स्थानों में होते हुए, फलौघी पार्श्वनाथजीकी यात्रा कर, शत्रुजय गया । उपर्युक्त इन सारे अवतरणोंसे कन्यानयनका, आशिकाके निकट वागड़ देशमें होना सिद्ध होता है। श्रीजिनप्रभ सूरिजीने कन्यानयनके पास 'कर्यवासस्थल' का जो कि मंडलेश्वर कैमासके नामसे प्रसिद्ध था, उल्लेख किया है। मंडलेश्वर कैमासका संबन्ध मी कानानूरसे न हो कर हांसीके आसपासके प्रदेशसे ही हो सकता है। गुर्वावलीके अवतरणोंसे नागौरसे दिल्लीके रास्तेमें नरभट और आशिकाके बीच में कन्यानयन होना प्रामाणित है । अनुसन्धान करने पर इन स्थानोंका इस प्रकार पता लगा है - नरभट-पिलानी से ३ मील । कन्यानयन-वर्तमान कन्नाणा दादरी से ४ मील जिंद रिसायतमें है । आशिका-सुप्रसिद्ध हांसी । पं० भगवानदासजी जैनने ठ० फेरु विरचित 'वस्तुसार' प्रन्थकी प्रस्तावनामें कन्यानयनको वर्तमान करनाल बतलाया है, परन्तु हमें वह ठीक नहीं प्रतीत होता । गुर्वावलीके उल्लेखानुसार करनाल कन्यानयन नहीं हो सकता। ___ इसमें अब एक यह आपत्ति रह जाती है कि श्रीजिनप्रभ सूरिजीने स्वयं 'कन्याननीय - महावीरकल्प' में कन्यानयनको चोल देशमें लिखा है । हमारे विचारसे यह चोल देश, जिस स्थानको हम बतला रहे हैं, पूर्वकालमें उसे भी चोल देश कहते हों। इस विषयमें विशेष प्रमाण न मिलनेसे विशेष रूपसे नहीं कह सकते; पर गुर्वावलीमें महावीर प्रतिमाकी प्रतिष्ठाके संबन्धमें जब यह उल्लेख है कि-सं० १२३३ के ज्येष्ठ सुदि ३ को, आशिकामें धार्मिक उत्सव होनेके पश्चात् , आषाढमें ही कन्यानयनमें महावीर बिंबकी प्रतिष्ठा श्रीजिनपति सूरिजी द्वारा हुई; और वहांसे फिर व्याघ्रपुर आ कर पार्श्वदेवको दीक्षित किया । श्रीजिनप्रभ सूरिजीने भी प्रतिमाको 'सा० मानदेव कारित, सं० १२३३ आषाढ सुदि १० को प्रतिष्ठित, मानदेवको श्रीजिनपति सूरिजीका चाचा होना, और प्रतिष्ठा भी श्रीजिनपति सूरिजी द्वारा होना' लिखा है। उसी प्रकार ये सारी बातें प्राचीन गुर्वावलीसे भी सिद्ध और समर्थित हैं। पिछले उल्लेखोंमें मी, जो कि कन्यानयनके महावीर भगवानकी यात्राके प्रसङ्गमें हैं, कन्यानयनको वागड़ देशमें आशिकाके पास ही बतलाया है। इन सब बातों पर विचार करते हुए हमारी तो निश्चित राय है कि कन्यानयन कानानूर न हो कर वर्तमान कनाणा ही है। जिस प्रकार वागड़ देश ४ हैं, इसी प्रकार चोल देश भी दो हो सकते हैं। विक्रमपुर स्थळ निर्णय सा० मानदेव के निवास स्थान विक्रमपुरको पं० लालचंद भगवानदासने दक्षिणके कानानूर के पासका बतलाया है; पर यह विक्रमपुर तो निश्चिततया जेसलमेरके निकटवर्ती वर्तमान वीक्रमपुर है । श्रीजिनपति सूरिजीके रास में 'अत्यि मरुमंडले नयर विक्कमपुरे' शब्दोंसे विक्रमपुरको मरुस्थलमें सूचित किया है। संभव है सा० मानदेव व्यापारादिके प्रसङ्गसे वागड़ देशके कन्यानयनमें रहते हों और वहीं श्रीजिनपति सूरिजीके जाने पर महावीर भगवानकी प्रतिष्ठा कराई हो । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जीवन चरित्र । ९ 'जैन स्तोत्र संदोह ' भा० २ की प्रस्तावना, पृ० ४० में, इस विक्रमपुरको बीकानेर बतलाया है, पर वह भूल ही है। बीकानेर तो उस समय बसा मी नहीं था, उसे तो राव बीकाने, सं० १५४५ में बसाया है । पूर्वका विक्रमपुर जेसलमेर निकटवर्ती वर्तमान वीक्रमपुर ही है । afrfeat ओर विहार और प्रतिष्ठानपुर यात्रा - I श्री जिनप्रभ सूरिने दिल्ली में इस प्रकार की धर्म-प्रभावना करके महाराष्ट्र ( दक्षिण ) की ओर विहार किया । सम्राट्ने सूरिजीके विहारमें सब प्रकारकी अनुकूलतायें प्रस्तुत कर दीं। सूरिजीने सम्राट् एवं स्थानीय संघके संतोषके निमित्त श्री जिनदेव सूरिजीको १४ साधुओंके साथ, दिल्लीमें ठहरनेकी आज्ञा दी । सूरिजी विहार-मार्गके अनेक नगरोंमें धर्म-प्रभावना करते हुए देवगिरि (दौलताबाद) पहुंचे । स्थानीय संघने प्रवेशोत्सव किया। वहांसे संघपति जगसिह, साहण, मल्लदेव आदि संघ -मुख्योंके सहित प्रतिष्ठानपुर पधारे और वहां जीवंत मुनिसुव्रत स्वामीकी प्रतिमा के दर्शन किये। यात्रा करके संघ सहित सूरिमहाराज पुनः देवगिरि पधारे । सं० १३८७ भा० शु० १२ के दिन 'दीवाली ल्कप' की यहां पर रचना की । देवगिरिके जैन मन्दिरोंकी रक्षा एक वार, पेथड़, सहजा और ठ० अचलके करवाए हुए जिनमन्दिरोंको तुर्क लोग तोड़नेके लिये उद्यत हुए, तब सूरजीने शाही फरमान दिखला कर उन मन्दिरोंकी रक्षा की। इस प्रकार और भी अनेक तरहसे शासन - प्रभावना करते हुए, शिष्योंको सिद्धान्त - वाचना और तपोदूवहन कराते हुए, तीन वर्ष यहीं व्यतीत किये । इसी बीच सूरजीने उद्भट ऐसे बहुतसे वादियोंको शास्त्रार्थमें परास्त किया । अपने शिष्यों एवं अन्य गच्छके मुनियोंको काव्य, नाटक, अलङ्कार, न्याय, व्याकरण आदि शास्त्र पढाए । दिल्ली में जिनदेव सूरिद्वारा धर्म-प्रभावना - इधर दिल्लीमें विराजित श्री जिनदेव सूरिजी, विजयकटक ( शाही छावणी में ) में सम्राट्से मिले । सम्राट्ने बहुत सन्मान के साथ एक सराय ( मुहल्ला ) जैन संघके निवास करनेके लिये दी । इस सराय का नाम 'सुलतान सराय' रखा गया। वहां सम्राट्ने पौषधशाला और जैनमन्दिर बनवा दिया, एवं ४०० श्रावकोंको सकुटुम्ब निवास करनेका आदेश दिया । पूर्वोक्त कन्यानयनके महावीर बिम्बको, इस सरायमें सम्राट्के बनवाये हुए मन्दिरमें विराजमान किया गया । श्वेताम्बर, दिगम्बर एवं अन्य धर्मावलम्बी जन भी भक्तिभाव से इस प्रतिमाकी पूजा करने लगे । इस शासनोन्नतिके कायसे सम्राट् महम्मद तुगुलकका सुयश सर्वत्र फैल गया । १. 'संस्कृत जिनप्रभसूरि प्रबन्ध' और शुभशीलगणिके कथाकोशमें लिखा है कि- जिनप्रभ सूरिजी सर्वत्र चैत्य परिपाटी करते हुए सुलतान महमद शाहके साथ देवगिरि पहुंचे । तब सा० जगसिंहने ३२००० मुद्रा व्यय कर प्रवेशोत्सव किया । स्थानीय चैत्योंकी वन्दना करते हुए, जब सूरिजी जगसिंहके गृहमन्दिर पर पहुंचे तो वहां के रत्नमय जिनबिम्बों को देखकर सूरिजीने सिर धुनाया । जगसिंहके कारण पूछने पर कहा - 'हमने बहुत स्थानों में जिनमन्दिरोंका वंदन किया पर एक तो आज तुम्हारे गृहमन्दिरको स्थावर तीर्थरूप और दूसरे जंगम तीर्थरूप जंघरालपुरमें तपागच्छीय सोमतिलकसूरि को देखा । २. विशेष जानने के लिये 'जिनप्रभसूरि अने सुलतान महमद' पृ० ७९ से १०१ तक देखना चाहिए । ३. हर्षपुरीय गच्छके मलधारि श्री राजशेखरसूरिने अपने बनाये हुए न्यायकन्दली विवरणमें, सूरिजीका अपने अध्यापक रूपसे स्मरण किया है। उन्होंने सूरिजीसे न्यायकंदली. प्रन्थका अध्ययन किया था । रुद्रपल्लीय गच्छके संघतिलकसूरिने सम्यक्त्वसप्ततिकावृत्ति में सूरिजीको अपना विद्यागुरु बतलाया है। इसी तरह, सं० १३४९ में नागेन्द्र गच्छके श्री मनीषेण सूरिने अपनी स्याद्वादमञ्जरी में जिनप्रभ सूरिजी द्वारा प्राप्त सहायताका उल्लेख किया है । 2 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनप्रभ सूरिका सम्राट्का स्मरण और आमंत्रण एक बार दिल्ली में बादशाह महम्मद तुगुलक अपनी सभामें विद्वानोंके साथ विद्वगोष्ठी करता था । उसको किसी शास्त्रीय विचार में सन्देह उत्पन्न हो जाने पर उपस्थित पण्डितों द्वारा समाधान न होनेसे एकाएक श्रीजिनप्रभ सूरिजीकी स्मृति हो आई । उसने कहा- 'यदि इस समय राजसभामें वे सूरि विथमान होते तो अवश्य हमारे संशय का निराकरण हो जाता। सचमुच उनकी विद्वत्ता अगाध है।' इस प्रकार सम्राट्के मुख से सूरिजी की प्रशंसा सुन कर दौलताबाद से आए हुए ताजुलमल्लिकने शिर झुका कर निवेदन किया - 'स्वामिन् ! वे महात्मा अभी दौलताबाद में हैं, परंतु वहांका जलवायु अनुकूल न होनेसे वे बहुत कृश हो गये हैं !' यह सुन कर प्रसन्नता पूर्वक सूरिजीके गुणोंका स्मरण करते हुए उस मल्लिकको आज्ञा दी कि तुम शीघ्र दुवीरखाने जाकर फरमान लिखा कर सामग्री सहित भेजो, जिससे वे आचार्य देवगिरिसे यहां शीघ्र पहुंच सकें । सम्राट्की आज्ञासे मल्लिकने वैसा ही किया । यथा समय शाही फरमान दौलताबादके दीवान के पास पहुंचा। सूबेदार कुतुहलखानने सूरिजीको दिल्ली पधारनेके लिये रूविनय प्रार्थना करते हुए शाही फरमान बतलाया । सूरि महाराजने सप्ताह भर में ( १० दिन बाद ) तैयार होकर ज्येष्ठ सुदि १२ को राजयोग में संघ के साथ वहांसे प्रास्थान किया । अल्लापुरमें उपद्रव निवारण - स्थान स्थानमें धर्म-प्रभावना करते हुए सूरि महाराज अल्लात्रपुर दुर्ग पधारे। असहिष्णु म्लेच्छोंको एक जैनाचार्यकी इस प्रकारकी महिमा सह्य नहीं हुई । उन लोगोंने सथवाडेके लोगोंकी बहुतसी वस्तुएं छीन लीं एवं इसी प्रकार कीतने ही उपद्रव करने प्रारम्भ कर दिये । जब दिल्लीमें विराजमान श्रीजिनदेव सूरजीको यह वृत्तान्त ज्ञात हुआ तो उन्होंने तत्काल सम्राट्को सारा हाल कह सुनाया । सम्राट्ने बहुमान पूर्वक फरमान भेज कर वहांके मल्लिक द्वारा लोगोंकी सारी वस्तुएं वापिस दिला दीं। इससे सूरिजीका अद्भुत प्रभाव पड़ा, उन्होंने १॥ मास रह कर वहांसे प्रस्थान कर दिया । क्रमशः विचरते हुए जब आप सिरोह पहुंचे तो सम्राट्ने उन्हें देवदूष्यकी भाँति सुकोमल १० वस्त्र भेज कर सत्कृत किया । वहांसे विहार करके . दिल्ली पहुंचे । दिल्ली में सम्राट् से पुनर्मिलन - जैनसंघ और सम्राट् उनके दर्शनोंके लिये चिर काल से उत्कण्ठित था ही। पूज्य श्रीके शुभागमनसे उनका हृदय अत्यन्त प्रफुल्लित हो गया । मिती भादवा सुदि २ के दिन मुनिमण्डल एवं श्रावकसंघके साथ युगप्रधान गुरुजी राजसभामें पधारे। सम्राट्ने मृदु वचनोंसे वन्दन पूर्वक कुशल प्रश्न पूछा और अत्यन्त स्नेहवश सूरजीके हाथको चुम्बन कर अपने हृदय पर रखा । सूरि महाराजने तत्काल ही नवीन निर्मित पद्यों द्वारा आशीर्वाद दिया । जिसे श्रवण कर सम्राट्का चित्त अत्यन्त चमत्कृत हुआ । सूरिजी के साथ वार्तालाप होनेके अनन्तर विशाल महोत्सव पूर्वक अपने हिन्दु राजाओं और प्रधान पुरुषोंके साथ वार्जित्रादि बजते हुए सन्मान पूर्वक सम्राट्ने सुलतान सराय की पौषधशाला में उन्हें पहुंचा दिया । उनका प्रवेशोत्सव अपूर्व आनंददायक और दर्शनीय था । पर्युषण में धर्म-प्रभावना मिती भादवा शुक्ला ४ के दिन संघने महोत्सव पूर्वक पर्युषणाकल्प सूरिजी से भक्ति पूर्वक श्रवण किया । सूरिजीके आगमन और प्रभावनाके पत्र पा कर देशान्तरीय संघ हर्षित हुआ। सूरिजीने राजबन्दी श्रावकों को Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ संक्षिप्त जीवन-चरित्र । लाखों रुपयोंके दण्डसे मुक्त कराया; एवं अन्य लोगोंको मी करुणावान् पूज्यश्रीने कैदसे छुड़ाया। जो लोग अवकृपा प्राप्त हो गए थे वे मी सूरिजीके प्रभावसे पुनः प्रतिष्ठाप्राप्त हुए । सूरिजी निरन्तर राजसभामें जाते थे। उन्होंने अनेक वादियों पर विजय प्राप्त कर जिन शासनकी शोभा बढाई थी । सं० १३८९ के ज्येष्ठ सुदि ५ को 'वीरगणधर' कल्प और मिती भादवा सुदि १० को दिल्लीमें ही विविधतीर्थकल्प नामक अद्वितीय ग्रन्थरनकी पूर्णाहुती की। फाल्गुन मासमें, दौलताबादसे सम्राट्की जननी मगदूमई जहांके आने पर, चतुरङ्ग सेनाके साथ बादशाह उसकी अभ्यर्थनामें सन्मुख गया। उस समय सूरि महाराज भी साथ थे । वडथूण स्थानमें मातासे मिल कर सम्राट्ने सबको प्रचुर दान दिया । प्रधानादि अधिकारियोंको वस्त्रादि देकर सत्कृत दिया। वहांसे दिल्ली आकर सूरिजीको वस्त्रादि देकर सन्मानित किया । दीक्षा और बिम्बप्रतिष्ठादि उत्सव चैत सुदि १२ के दिन, राजयोगमें, सम्राट्की अनुमतिसे उसके दिये हुए साईबाणकी छायामें नन्दी स्थापना की । सूरिजीने वहां ५ शिष्योंको दीक्षित किया । मालारोपण, सम्यक्त्व ग्रहण आदि धर्मकृत्य हुए। स्थिरदेवके पुत्र ठ० मदनने इस प्रसङ्ग पर बहुतसा द्रव्य व्यय किया । मिती आषाढ सुदि १० को नवीन बनवाये हुए १३ अर्हत बिंबोंकी सूरिजीने महोत्सव पूर्वक प्रतिष्ठा की । बिम्बनिर्माता एवं सा० पहराजके पुत्र अजयदेवने प्रतिष्ठा महोत्सवमें पुष्कळ द्रव्य व्यय किया। सम्राट् समर्पित भद्दारक-सरायमें प्रवेश सुलतान सराय राजसभासे काफी दूर थी; अतः सूरिजीको हमेशा आनेमें कष्ट होता है ऐसा विचार कर सम्राट्ने अपने महलके निकटवर्ती सुन्दर भवनों वाली नवीन सराय समर्पण की । श्रावक संघको वहां पर रहनेकी आज्ञा देकर बादशाहने उसका नाम 'भट्टारक सराय' प्रसिद्ध किया। वहां पर वीरप्रभुका मन्दिर व पौषधशाला बनवाई । सं० १३८९ मिती आषाढ कृष्णा ७ को, उत्सव पूर्वक सूरि महाराजने पौषधशालामें प्रवेश किया। इस प्रसङ्ग पर विद्वानों एवं दीन अनाथोंको यथेष्ट दान दिया गया । मथुरा तीर्थका उद्धार___मार्गशिर महिनेमें सम्राट्ने पूर्व देशकी ओर विजय प्राप्त करनेके हेतु ससैन्य प्रस्थान किया । उस समय उन्होंने सूरिजीको भी वीनति करके अपने साथमें लिये । स्थान स्थान पर बन्दीमोचनादि द्वारा शासन-प्रभावना करते हुए सूरि महाराजने मथुरा तीर्थका उद्धार कराया । हस्तिनापुरकी यात्रा और प्रतिष्ठा __शाही सेनाके साथ पैदल विहार करते हुए सूरिजीको कष्ट होता है, यह विचार कर सम्राट्ने खोजे जहां मल्लिकके साथ उन्हें आगरेसे दिल्ली लौटा दिया। हस्तिनापुरकी यात्राका फरमान लेकर आचार्य श्री दिल्ली पहुंचे । चतुर्विध संघ हस्तिनापुरकी यात्राके निमित्त एकत्र हुआ । शुभ मुहूर्तमें बोहित्य (चाहड पुत्र ) को संघपतिका तिलक कर वहांसे प्रस्थान किया । संघपति बोहित्थने स्थान स्थान पर महोत्सव किये। तीर्थभूमि में पहुंच कर तीर्थको बधाया। नवनिर्मित शान्तिनाथ, कुंथुनाथ, अरनाथ आदि तीर्थंकरोंके बिम्बोंकी सूरिजीसे प्रतिष्ठा करवाई । अंबिकादेवीकी प्रतिमा स्थापित की । संघपतिने संघवात्सल्यादि किये । संघने वन, भोजन आदि द्वारा याचकोंको सन्तुष्ट किया। संवत् १३८९ वैशाख मुदि ६ के दिन रचित, Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनप्रभ सूरिका हस्तिनापुर तीर्थकल्पमें, संघ सहित यात्रा करनेका सूरिजीने स्वयं उल्लेख किया है। तीर्थयात्रा से लौट कर सूरिजीने वैशाख खुदि १० के दिन श्रीकन्यानयनके महावीर बिम्बको सम्राट्के बनवाये हुए जैन मन्दिर में महोत्सव पूर्वक स्थापित किया । १२ इधर सम्राट् भी दिग्विजय करके दिल्ली लौटा। जैनमन्दिर और उपाश्रयोंमें उत्सव होने लगे । सम्राट् एवं सूरिजीका सम्बन्ध उत्तरोत्तर घनिष्ठता प्राप्त करने लगा । अतः सूरिजी और सम्राट् दोनोंके द्वारा जिनशासन की बड़ी प्रभावना होने लगी । सूरिजीके प्रभावसे दिगम्बर श्वेताम्बर समस्त जैन संघ व तीर्थों का उपद्रव शाही फरमानों द्वारा सर्वथा दूर हो गया । ग्रन्थान्तरोंके चमत्कारिक उल्लेख सुलतान प्रतिबोधका उपर्युक्त वृत्तान्त, विविधतीर्थकल्प प्रन्थान्तर्गत 'श्रीकन्यानयन- महावीर प्रतिमाकल्प' और रुद्रपल्लीय गच्छके श्रीसोमतिलक सूरि कृत 'कन्यानयन - श्रीमहावीर - तीर्थकल्प परिशेष' से लिखा गया है जो कि प्रथम स्वयं सूरि महाराजकी और दूसरी समकालीन रचना है । अब प्राकृत जिनप्रभसूरिप्रबन्धादि ग्रन्थान्तरोंसे सूरिजी एवं सम्राट् सम्बन्धी विशेष बातें संक्षेपमें दी जाती हैं । पद्मावती सांनिध्य - पद्मावती देवीकी सूचनानुसार सूरिजी दिल्लीके शाहपुरामें आकर ठहरे। एक वार शौचभूमि जाते समय अनायने लेष्टु ( ढेला - पत्थर ) आदि द्वारा उन्हें अपमानित किया । पद्मावती देवीने उन अनायको उचित शिक्षा दी । इससे उन्होंने भाग कर सुलतान महमदशाहसे सारा वृतान्त कहा । उसने चमत्कृत हो कर सूरिजी को अपने यहां बुलाया। सूरिजीके कुम्भकासनादि द्वारा सम्राट्का चित्त अत्यन्त प्रभावित हुआ । व्यन्तरोपद्रव निवारण एक वार सम्राट्ने सूरिजीसे कहा - 'मेरी प्रिया बालादेको किसी व्यन्तरकी बाधा है जिससे वह वस्त्रग्रहणादि शरीर शुश्रूषा नहीं करती। आपका प्रभाव असाधारण है अतः कृपया किसी प्रकार से इस व्यन्तरोपद्रवका निवारण करें। सूरिजीने कहा, - 'अच्छा ! उसके पास जाकर कहो कि जिनप्रभ सूरि आते हैं ।' सम्राट्ने वैसा ही किया । सूरिजीके आगमनकी बात सुन कर बाला देने सहसा उठ कर दासीसे वस्त्र मंगा कर पहन लिये । सूरि महाराजके नाममें ही कैसा अद्भुत प्रभाव है इसका प्रत्यक्ष फल देख कर सम्राट् अत्यन्त प्रसन्न हुआ, और सूरिजीको महलमें पधारनेकी वीनति की । सूरिजीने आते ही बालादेके देह में प्रविष्ट व्यन्तरको कहा - 'दुष्ट ! तूं यहां कहांसे आया, चला जा'। उसने जब जानेकी आनाकानी की तो गुरुदेवने मेघनाद क्षेत्रपालके द्वारा उसे भगा दिया । रानी स्वस्थ हो गई और सूरिजीके प्रति अत्यन्त भक्तिभाव रखने लगी । इर्ष्यालु राघव चेतनको शिक्षा - एक वार सम्राट्की सेवामें काशी से चतुर्दशविद्यानिपुण मंत्र-तंत्रज्ञ राघवचेतन नामका ब्राह्मण आया। उस अपनी चातुरीसे सम्राट्को रञ्जित कर लिया । सम्राट् पर जैनाचार्य श्रीजिनप्रभ सूरिजीका प्रभाव उसे बहुत अखरता था। अतः उन्हें दोषी ठहरा कर, उनका सम्राट् पर प्रभाव कम करनेके लिये सम्राट्की मुद्रिका अपहरण कर सूरिजी रजोहरणमें प्रच्छन्न रूपसे डाल दी । पद्मावती देवीसे वृतान्त ज्ञात कर सूरिजीने धीरेसे उस मुद्रिकाको राघव चेतनकी पगडी पर लटका दी । सम्राट् मुद्रिका न पा कर इधर उधर देखने लगा राघव चेतनने कहा - 'आपकी मुद्रिका सुरिजीके पास है ।' सम्राट्ने जब सूरिजीकी ओर देखा तो उन्होंने Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जीवन-चरित्र । कहा-'उलटा चोर कोतवालको दण्डे !' वाली उक्ति चरितार्थ हो रही है। मुदिका तो इसके मस्तक पर पडी है और यह हमारे पास बतलाता है । जब सम्राट्ने उसकी तलाशी ली तो वह अपनी करणीका फल पा कर म्लानमुख हो गया -"खाड खणे जो और को ता को कूप तैयार" । कलंदर मुल्ला मानमर्दन इसी प्रकार फिर कभी राजसभामें खुरासानसे एक कलन्दर मुल्ला आया। उसने अपना प्रमाव जमाने और सूरिजीका प्रभाव घटानेके लिए अपनी टोपीको आकाशमें फैंक कर अधर रखी और गर्वपूर्वक सम्राट से कहने लगा-'क्या कोई आपकी सभामें ऐसा है जो इस टोपीको नीचे उतार सकता है ?' सम्राट्ने सूरिजीकी ओर देखा । उन्होंने तत्काल रजोहरण फैंक कर उसके द्वारा टोपीको ताडित करते हुए फकीरके मस्तक पर गिरा दी । इस कौशलसे हताश होकर कलन्दरने एक पनिहारीके मस्तक पर रहे हुए घडेको अधर स्तम्भित कर दिया । सूरिजीने कहा- 'घडेको स्तंभित करनेमें क्या है, बिना घडे पानीको स्तंभित करे वही श्रेष्ठ कला है'। सम्राट्ने मुल्लासे वैसा करनेको कहा परन्तु वह न कर सका । तब सूरिजीने तत्काल घडेको कंकरसे फोड कर पानीको अधर स्तंभित दिखला दिया। अद्भुत भविष्य-वाणी___एक समय सम्राट्ने शाही सभामें बैठे हुए समस्त पण्डितोंसे पूछा-'कहिये ! आज मैं किस मार्गसे राजवाटिकामें जाऊंगा?' सभी पण्डितोंने अपनी अपनी बुद्धिके अनुसार लिख कर सम्राट्को दे दिया । सम्राट्ने सूरिजीसे कहा तो उन्होंने भी अपना मन्तव्य लिख दिया । सब चिट्ठीयोंको अपने दुप्पट्टेमें बांध कर सम्राट्ने विचार किया, कि आज किसी ऐसे मार्गसे जाना चाहिए जिससे ये सब असत्यवादी सिद्ध हो जावें । विचारानुसार वह किलेके बुर्जको तुडवा कर नवीन मार्गसे राजवाटिकामें पहुंचा और एक वट वृक्षकी छायामें बैठ कर सब पण्डितों और सूरिजीको बुलाया । सबके लेख पढे गये और वे असत्य प्रमाणित हुए। अन्तमें सूरिजीका लेख पढा गया । उसमें लिखा था- 'किलेके बुर्जको तोड कर राजवाटिकामें जा कर सुलतान वट वृक्षके नीचे विश्राम करेंगे। इस अद्भुत निमित्तको श्रवण कर सभी विद्वान और विशेषतः सम्राट अत्यन्त विस्मित हुए और सम्राट्ने स्पष्ट रूपसे सबके समक्ष सूरिजीकी इन शब्दोंमें स्तुति की कि- 'सचमुच यह बात मनुष्यकी कल्पनासे भी अगम्य है । ये गुरु मनुष्य रूपमें साक्षात् परमेश्वर हैं। इसी प्रकार अन्यदा सम्राटके यह पूछने पर कि- 'मैं आज क्या खाऊंगा ?' सूरिजीने निमित्त बलसे एक पुर्जेमें अपना मन्तव्य लिख दिया और भोजनानन्तर खोलनेको कहा । सुलतानने "खोल" खाया और जब सूरिजीका लिखा हुआ पुर्जा देखा गया तो उसमें भी वही लिखा पाया । वट वृक्षको साथ चलाना एक वार सम्राट्ने देशान्तर जानेके लिये प्रस्थान कर एक शीतल छायावाले वृक्षके नीचे विश्राम किया । सम्राट्ने आराम पा कर उस वृक्षकी बहुत प्रशंसा की और कहा कि- 'यदि यह वृक्ष अपने साथ रहे तो क्या ही अच्छा हो !' सूरिजीने अपने लोकोत्तर विद्या-प्रभावसे वृक्षको भी सम्राट्का सहगामी बना दिया। पांच कोस तक वृक्ष साथ चला; फिर सूरिजीने सम्राटके कहनेसे उस वृक्षको वापिस खस्थान १ सम्राटके समक्ष मुल्लाकी टोपीको रजोहरण द्वारा आकाशसे गिरानेका उल्लेख युगप्रधान श्रीजिनचंद्रसूरिजीके संबन्धमें भी आता है। इसी प्रकार अमावास्याके दिन पूर्णचंद्रका उदय करनेका प्रसङ्ग भी यु० जिनचन्द्रसूरि और सम्राट अकबरके परित्रोंमें आता है। हमारे विचारसे ये दोनों बातें श्रीजिनप्रभसूरिजीके सम्बन्धकी होंगी। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ श्रीजिनप्रभ सूरिका जानेकी आज्ञा दी । तब वृक्ष भी सम्राट्को नमस्कार करके स्वस्थान चला गया। इस अनोखे चमत्कार से सूरिजी के प्रति सम्राट्की श्रद्धा अत्यधिक दृढ हो गई । बादशाह महमद तुगुलक क्रमशः प्रयाण करते हुए मारवाड़ पहुंचा। वहांके लोग सम्राट्के दर्शनार्थ आये । उन्हें उत्तम वस्त्राभरणोंसे रहित देख कर सम्राट्ने सूरिजीसे कहा-' - 'ये लोग लूटे हुएसे क्यों मालूम होते हैं ?' सूरिजीने कहा- 'राजन् ! यह मरुस्थली है; जलाभावके कारण धान्यादिकी उपज अत्यल्प होती है, अतएव निर्धनतावश इनकी ऐसी स्थिति है ।' सम्राट्ने करुणार्द्र होकर प्रत्येक मनुष्यको पाँच पाँच दिव्य वस्त्र और प्रत्येक स्त्रीको दो दो स्वर्णमुद्राएं एवं साड़ी प्रदान कीं । महावीर प्रतिमाका बोलना कन्यानयनकी श्री महावीर प्रतिमाको सूरिजीने सम्राट्से प्राप्त की थी, जिसका उल्लेख ऊपर आ ही चुका है। प्राकृत प्रबन्धमें लिखा है कि - जिस समय सम्राट्ने उस प्रतिमाका दर्शन किया और सूरिजीने प्रतिमाको जैन संघके सुपुर्द करनेका उपदेश दिया, तब सम्राट्ने कहा - 'यदि यह प्रतिमा मुंहसे बोले तो मैं आपको दे सकता हूं ।' इस पर सूरिजीने कहा - 'प्रतिमाकी विधिवत् पूजा करने से वह अवश्य बोलेगी । सम्राट्ने कौतुकसे उनके कथनानुसार पूजन किया और दोनों हाथ जोड़ कर विनीत भावसे प्रतिमाको बोलनेके लिए प्रार्थना की । तत्काल ही देवप्रभावसे अपना दाहिना हाथ लम्बा करके वह इस प्रकार बोली - विजयतां जिनशासनमुज्वलं विजयतां भूभुजाधिपवल्लभा । विजयतां भुवि साहि महम्मदो विजयतां गुरुसूरिजिनप्रभः । अपने पूछे हुए प्रश्नोंका प्रभुप्रतिमासे सन्तोषजनक उत्तर पा कर सम्राट्के चित्तमें अत्यन्त चमस्कृति उत्पन्न हुई और उस प्रतिमाकी पूजाके निमित्त खरह और मार्तंड नामक दो ग्राम दिये और मन्दिर बनवा दिया । सम्राट्की शत्रुंजय यात्रा और रायणकी दूधवर्षा - एक कार सुलतानने गुरुजीसे पूछा - "जिस प्रकार यह कान्हड़ महावीरका चमत्कारी तीर्थ है, क्या वैसा ही और कोई तीर्थ है ?" सूरिजीने तीर्याधिराज शत्रुंजयका नाम बतलाया । तब संघके साथ सम्राट् सूरिजीको लेकर शत्रुंजय गया। रायण रुखकी यात्रा करते समय सूरिजीने कहा- 'यदि इस रायणको मोतियोंसे बधाया जाय तो इसमेंसे दूधकी वर्षा होती है।' सम्राट्ने ऐसा ही किया, जिससे रायण रुंखसे दूध झरने लगा । इससे चमत्कृत हो कर सम्राट्ने वहां पर ऐसा लेख लिखवाया कि इस तीर्थकी जो अत्रज्ञा करेगा उसे सम्राट्की अवज्ञाका महान् दण्ड मिलेगा। शत्रुंजयकी तलहट्टीमें सर्व दर्शनोंके मान्य देवताओंकी मूर्तियां एकत्र कर मध्य भागमें जिनप्रतिमाको रखा और स्वयं सशस्त्र मुसाहिबोंके बीच में बैठ कर लोगोंसे पूछा - 'बड़ा कौन है ?' लोग बोले- 'आप ही बड़े हैं !' तो सुलतानने कहा जिस प्रकार हथियार वाले सब सेवक और मैं उनका मालिक हूं वैसे ही अस्त्र शस्त्र धारण करने वाले सब देवता सेवक हैं और जैन तीर्थङ्कर सब देवोंमें बड़े हैं । गिरनारकी अच्छे प्रतिमा वहांसे सूरिजी एवं संघ के साथ सम्राट्ने गिरनार पर्वतकी यात्रा की। वहांके श्रीनेमिनाथ प्रभुके बिम्बको अच्छे और अब सुन कर परीक्षाके निमित्त उस पर कई प्रहार करवाये, पर प्रहारोंसे प्रभु प्रतिमा खण्डित Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जीवन-परित्र । म हो कर उससे अग्मिकी चिनगारियां निकलने लगी । तब सम्राट्ने प्रतिमाके समक्ष क्षमा याचना कर उसे स्वर्णमुद्राओंसे बधाई। विजय-यन-महिमा एक वार मन्त्र-यन्त्रके माहात्म्यके सम्बन्धमें सूरिजी और सम्राट्में वार्तालाप हो रहा था। सम्राट्ने प्रसङ्गवश विजय-यन्त्रकी महिमा सुन कर उसके प्रभावको प्रत्यक्ष देखना चाहा । सूरिजीने विजय-यन्त्र देते हुए सम्राट्से कहा-'जिसके पास यह यंत्र होता है उसे देवताओंके अस्त्र भी नहीं लगते और कुपित शत्रु मी अनिष्ट नहीं कर सकते ।' सम्राट्ने उस यन्त्रको एक बकरेके गलेमें बांध कर उस पर खगके कई प्रहार किये परन्तु यत्रके प्रभावसे बकरेके तनिक भी धाव नहीं हुआ। तब फिर उस यंत्रको छत्रदण्ड पर बांध कर उसके नीचे एक चूहेको रखा गया और सामनेसे बिल्ली छोड़ी गई। चूहेको पकड़नेके लिए बिल्ली दौड़ी अवश्य, परन्तु यन्त्रके प्रभाक्से छत्रके नीचे न आ सकी, जिससे वह चूहा बाल बाल बच गया। यंत्रका यह अक्षुण्ण प्रभाव देख कर सम्राट्ने ताम्रमय दो यन्त्र बनवा कर एक खयं रखा और एक सूरिजीको दे दिया। ___इसी प्रकारके चमत्कारी प्रवादोंमें अमावसको पूनम बना देना, शीतज्वरको मोलीमें बांधके रख देना, भैंसेके मुखसे वाद कराना, आदि जनश्रुतियां मी पाई जाती हैं । बुद्धिशाली कथन पं० श्रीशुभशीलगणिके कथाकोशमें उपर्युक्त प्रवादोंके साथ सम्राट्के पूछे हुए दो प्रश्नोंके सूरिजी द्वारा दिये गये युक्तिपूर्ण उत्तरोंके उल्लेख इस प्रकार हैं एक वार सम्राट्ने राजसभामें पूछा, कहो-'शक्कर किस चीजमें डालनेसे मीठी लगती है!' पण्डितोंमेंसे किसीने कुछ और किसीने कुछ ही उत्तर दिया। उससे सम्राटको सन्तोष न होने पर सूरिजीसे पूछा । उन्होंने कहा-'शक्कर मुँहमें डालनेसे मीठी लगती है। इसी तरह एक वार, सम्राट् क्रीड़ाके हेतु उद्यानमें गया था, वहां जलसे भरे हुए विशाल सरोवरको देख कर सबसे पूछा-'यह सरोवर धूलि आदि द्वारा भरे बिना ही छोटा कैसे हो सकता है ? कोई भी इस प्रश्नका युक्तिपूर्ण उत्तर न दे सका; तब सूरिजीने कहा-'यदि इस सरोवरके पास अन्य कोई बड़ा सरोवर बनाया जाय तो उसके आगे यह सरोवर स्वयमेव छोटा कहलाने लग जायगा।' एक समय सुलतानने सूरिजीसे पूछा कि-'पृथ्वी पर कौनसा फल बड़ा है ?' उन्होंने कहा'मनुष्योंकी लज्जा रखने वाली वउणी (कपास)का फल बड़ा है।' सोमप्रभसूरि मिलन और अपराधी चूहेको शिक्षा सं० १५०३ में विरचित श्रीसोमधर्मकृत उपदेशसप्तति और संस्कृत जिनप्रभसूरि-प्रबन्धमें लिखा है कि-एक वार श्रीजिनप्रभ सूरिजी पाटणके निकटवर्ती जंघराल नगरमें पधारे तो वहां तपागच्छीय श्रीसोमप्रभ सूरिजीसे मिलनेके लिये गये। सोमप्रभ सूरिजीने खड़े हो कर बहुमान पूर्वक आसनादि द्वारा उनका सन्मान करते हुए कहा-'भगवन् ! आपके प्रभावसे आज जैनधर्म जयवन्त वर्त रहा है । आपकी शासनसेवा परम स्तुत्य है ।' प्रत्युत्तरमें श्रीजिनप्रभ सूरिजीने कहा-'सम्राट्की सेनाके साथ एवं सभामें रहनेके कारण हम चारित्रका ययावत् पालन नहीं कर सकते । आपका चरित्रगुण श्लाघनीय है। इस प्रकार दोनों आचार्योंका शिष्ट संभाषण हो रहा था, इतने ही में एक मुनिने प्रतिलेखन करते समय, अपनी सिलिका Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनप्रभ सूरिका (झोली )को चूहों द्वारा काटी हुई देख कर सोमप्रभ सूरिजीको दिखलाई । श्रीजिनप्रभ सूरिजी मी पासमें बैठे थे, उन्होंने आकर्षणी विद्यासे उपाश्रयके समस्त चूहोंको रजोहरण द्वारा आकर्षित कर लिया और उनसे कहा कि-'तुममेंसे जिसने इस सिक्किकाको काटी हो वह यहां ठहरे, बाकी सब चले जॉय' । तब केवल अपराधी चूहा वहां रह गया, और बाकी सब चले गये। उसे भविष्यमें ऐसा न करनेको कह कर उपाश्रयका प्रदेश छोड़ देनेकी आज्ञा दे दी। इससे श्रीसोमप्रभ सूरि और मुनिमण्डली बड़ी विस्मित हुई । योगिनी प्रतियोष प्राकृत प्रबन्धमें लिखा है कि-एक वार चौसठ योगिनी श्राविकाके रूपमें सूरिजीको छलनेके लिये आई और सामायक ले कर व्याख्यान श्रवणार्य बैठी। पभावती देवीने योगिनीयोंकी भावनाको सूरिजीसे विदित कर दी । तब सूरिजीने उन्हें व्याख्यान श्रवणमें निमग्न देख कर वहां खील करके स्तम्भित कर दी। व्याख्यान समाप्तिके अनन्तर जब वे उठनेको प्रस्तुत हुई तो अपनेको आसनों पर चिपकी हुई पाई । यह देख कर सूरिजीने मूदु हास्यपूर्वक उनसे कहा-'मुनियोंके गोचरीका समय हो गया है, अतः शीघ्र वन्दना व्यवहार करके अवसर देखो!' मन-ही-मन लज्जित होती हुई योगिनियोंने कहा-'भगवन् ! हम तो आपको छलनेके लिये आई थीं पर आपने तो हमें ही छल लिया। अब कृपा कर मुक्त करें। सूरिजीने कहा'हमारे गम्छके अधिपति जब योगिनीपीठ (उज्जैनी, दिल्ली, अजमेर, भरौंच ) में जाँय तो उन्हें किसी प्रकारका उपद्रव नहीं करनेकी प्रतिज्ञा करो तो छोड़ सकता हूं।' योगिनियां इस बातका खीकार कर खस्थान चली गई। इसके बाद खरतर गच्छके आचार्य सर्वत्र निर्विघ्नतया विहार करते रहे । शैषोंको जैन बनाना सं० १३४४ (१७४ )में खंडेलपुरमें जंगल गोत्रके बहुतसे शिवभक्तोंको प्रतिबोध दे कर जैन बनाए। देवीउपद्रव निवारण शुभशीलगणिके कथाकोशमें लिखा है कि-एक नगरमें श्रावक लोगोंको दो दुष्ट देवियां रोगोपद्रवादि किया करती थीं, सूरिजीको ज्ञात होने पर उन्होंने उन देवियोंको आकर्षित की। उसी समय उस नगरके संघने दो श्रावकोंको इसी कार्यके लिये सूरिजीके पास भेजा था। उन्होंने, उपद्रवकारी देवियोंको सूरिजी समझा रहे हैं, यह अपनी आँखोंसे देखा तो उन्हें बड़ा विस्मय हुआ। उनके प्रार्थना करनेके पूर्व ही सूरिजीने उस उपद्रवको दूर करवा दिया । श्रावकोंने लौट कर संघके समक्ष सब वृत्तान्त कह कर सूरिजीकी भूरि भूरि प्रशंसा की। श्रीजिनप्रभ सूरिजीकी साहित्य सम्पत्ति श्रीजिनप्रभ सूरिजीने साहित्यकी अनुपम सेवा की है। उनकी कृतियां जैन समाजके लिये अत्यन्त गौरवपूर्ण है। इन कृतियोंमेंसे रचना समयके उल्लेख वाली कृतियोंका निर्देश तो यथास्थान किया जा चुका है । पर बहुतसी कृतियोंमें रचना समयका उल्लेख नहीं है । अतः यहां उनकी सभी कृतियोंकी यथा ज्ञात सूची दी जाती है। १ कातन्त्र विभ्रमटीका, मं० २६१, सं० १३५२, योगिनीपुर, कायस्थ खेतलकी अभ्यर्थनासे । २ श्रेणिक चरित्र (याश्रयकाव्य ), सं० १३५६ (कुछ भाग प्रकाशित) ३ विधिप्रपा, पं० ३५७४, सं० १३६३ विजयदशमी, कोशलानयर । ४ कल्पसूत्रवृत्ति-सन्देहविषौषधि, मं० २२६९, सं० १३६४, अयोध्या, (प्रकाशित) Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जीवन चरित्र ५ अजितशान्तिवृत्ति (बोधदीपिका) सं० १३६५ पोष, प्र० ७४०, दाशरथिपुर (प्र.) ६ उपसर्गहरस्तोत्रवृत्ति (अर्थकल्पलता), ग्रं० २७१, सं० १३६४ पो० ३०९, साकेतपुर (प्र.) ७ भयहरस्तोत्रवृत्ति (अभिप्रायचन्द्रिका), सं० १३६४, पो० सु० ९, साकेतपुर । ८ पादलिप्तकृत वीरस्तोत्रवृत्ति, सं० १३८०, (चतुर्विंशतिप्रबन्ध अनुवादके परिशिष्टमें प्र०) ९ राजादि-रुचादिगणवृत्ति, सं० १३८१ । १० विविधतीर्थकल्प, सं० १३९० तकमें पूर्ण (सिंघी जैन अन्य मालामें प्रकाशित) ११ विदग्धमुखमण्डनवृत्ति (इसकी एक मात्र प्रति बीकानेरके श्रीजिनचारित्रसूरि-भंडारमें है)। १२ साधुप्रतिक्रमणवृत्ति, जैनस्तोत्रसंदोह, भा॰ २, प्रस्तावना पृ० ५१ में इसका रचना काल ___ सं० १३६४ लिखा है। १३ हैमव्याकरणानेकार्थकोष, श्लो० २००, (पुरातत्त्व, वर्ष २, पृ० १२१ में उल्लिखित) १४ प्रत्याख्यानस्थान विवरण १५ प्रव्रज्याभिधानवृत्ति १६ वन्दनस्थानविवरण इनका उल्लेख, हीरालाल कापडियाकी 'चतुर्विशति जिनानन्द१७ विषमकाव्यवृत्ति स्तुति की प्रस्तावना, पृ० ४० में है । १८ पूजाविधि १९ तपोटमतकुट्टन २० परमसुखद्वात्रिंशिका, गा० ३२ २१ सूरिमन्नाम्नाय (सूरिविद्याकल्प). २२ वर्द्धमानविद्या, प्रा० गा० १७ २३ पद्मावती चतुष्पदिका, गा० ३७ २४ अनुयोगचतुष्टयव्याख्या (प्र.) २५ रहस्यकल्पद्रुम, अलभ्य, उल्लेख मं० २०२४ में। २६ आवश्यकसूत्रावचूरि (षडावश्यक टीका) उल्लेख 'जैन साहित्यनो सं० इतिहास' तथा जैनस्तोत्र संदोह भाग २. २७ देवपूजाविधि - विधिप्रपा परिशिष्टमें प्रकाशित. जै० सा० सं० इ० ४२०, और जैनस्तोत्रसं० भा० २, प्रस्तावनामें इनके रचित ग्रन्थों में, चतुर्विधभावनाकुलक आदि कई अन्य कृतियोंका उल्लेख है पर हमें वे आगमगच्छीय जिनप्रभसूरिरचित प्रतीत होती है ( देखो, जै० गु० क. भा० १, प्रस्तावना पृ० ८०-८१) Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुति-स्तोत्रादिकी सूची विशेष श्लेषमय पारसी भाषा अष्टभाषामय महायमक समचरण-साम्य षड़भाषामय नाम पच प्रारम्भ भाषा पथसंख्या १ श्रीजिनस्तोत्र (१० दिग्पाल- अस्तु श्रीनाभिभूदेवो सं० ११ ।। स्तुतिगर्भ) श्रीऋषभजिनस्तोत्र अल्लालाहि ! तुराहं ३ श्रीषभजिनस्तोत्र निरवधिरुचिरज्ञानं ४० ४ श्रीअजितजिनस्तोत्र विश्वेश्वरं मथितमन्मथ० ५ श्रीचन्द्रप्रभजिनस्तुति देवैर्यस्तुष्टुवे तुष्टैः सं० नमो महासेननरेन्द्रतनुज! ७ श्रीशान्तिजिनस्तवन श्रीशान्तिनाथो भगवान् सं० ८ श्रीमुनिसुव्रतजिनस्तोत्र निर्माय निर्माय गुणद्धि सं० ९ श्रीनेमिजिनस्तोत्र श्रीहरिकुलहीराकर० सं० १० श्रीपार्श्वजिनस्तोत्र अधियदुपनमन्तो सं० कामे वामेय ! शक्तिर्भवतु सं० १२ , , (जीरापल्ली) जीरिकापुरपतिं सदैव तं सं० १३ , , (प्रातिहार्य) त्वां विनुत्य महिमश्रिया महं सं० ___, , (नवग्रहग०) दोसावहारदक्खो प्रा० पार्श्वनाथमनघं सं० पार्श्व प्रभु शश्वदकोपमानम् सं० श्रीपार्श्व ! पादानतनागराज सं० १८ " " श्रीपार्श्व भावतः स्तौमि सं० श्रीपार्श्वः श्रेयसे भूयात् सं० " (फलवर्द्धि) सयलाहिवाहिजलहर० २१ श्रीवीरजिनस्तोत्र असमशमनिवास श्रीवीरजिनस्तोत्र कंसारिक्रमनिर्यदापगा० सं० २५ चित्रैः स्तोष्ये जिनं वीरं सं० २७ २४ " " निस्तीर्णविस्तीर्णभवार्णवं सं० १७ २५ , (पंचकल्याणक) पराक्रमेणेव पराजितोऽयं सं० ३६ श्रीवर्द्धमानपरिपूरित० सं० १३ त्र्यक्षर यमक क्रियागुप्त सं० १३६९ 2022 20222 त्र्यक्षर यमक समचरण-साम्य प्राकृत 22-23 पादान्तयमक समचरण-साम्य प्राकृत विविधछंद जाति छंदनाममय चित्रमय लक्षणप्रयोग इनमेंसे नं०८,१५, २९, ३३ अप्रकाशित हैं, अवशेष सब प्रकरण रनाकर, जैनस्तोत्रसमुच्चय, जैनस्तोत्रसन्दोह, प्राचीनजैनस्तोत्रसंग्रह आदिमें प्रकाशित हो गये हैं। नं. २ सावरि जैन साहित्यसंशोधकमें प्रकाशित हो चुका है। नं०१४,४१ की अवचूरि, टिप्पण उपलब्ध है। पं० लालचंद भगवानदासने इस सूचीके अतिरिक्त "किं कप्पतरुरे" आदि वाले पंचपरमेष्ठिस्तवका भी नाम लिखा है। हीरालाल रसिकदास कापडिया सूरिजीके सभी स्तोत्रोंका संग्रहप्रन्ध सम्पादित करके दे. ला. पु० फंडसे प्रकाशित करने वाले हैं। वह शीघ्र ही प्रगट हो यही हमारी मनोकामना है। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमात नाम २९ , " ३५ संक्षिप्त जीवन चरित्र पत्र प्रारम्भ भाषा पसंख्या विशेष २७ श्रीवर्द्धमानः सुखवृद्धयेऽस्तु सं० ९ पथके आधान्ता क्षरोंमें नामोल्लेख २८ , (निर्वाणकल्याणक) श्रीसिद्धार्थनरेन्द्रवंश० सं० १९ सिरिवीयराय देवाहिदेव प्रा० प्राकृत खःश्रेयससरसीरुह - सं० पंचवर्गपरिहार (चतुर्विशतिजिनस्तव) आनन्दसुन्दरपुरन्दरनम्रः सं० आनम्रनाकिपति० ३३ चतुर्विशतिजिनस्तोत्र ऋषभदेवमनन्तमहोदयं सं० ध्यक्षर यमक ३४ चतुर्विशतिजिनस्तोत्र ऋषभ ! नम्रसुरासुर० सं० त्र्यक्षर यमक ऋषभनाथमनाथनिभानन! सं० कनककान्तिधनुःशत० सं० जिनर्षभ ! प्रीणितभव्यसार्थ ! सं० तत्त्वानि तत्त्वानि भृतेषु सिद्धं सं० ध्यक्षर यमक पात्वादिदेवो दशकल्पवृक्षः सं० प्रणम्यादि जिनं प्राणी सं० यं सततमक्षमालोप० सं० ३० ४२ श्रीवीतरागस्तोत्र जयन्ति पादा जिननायकस्य सं० ४३ श्रीअर्हदादिस्तोत्र मानेनोवीं व्यहृत परितो सं० ४४ श्रीपंचनमस्कृतिस्तोत्र प्रतिष्ठितं तमःपारे सं० ४५ श्रीमन्त्रस्तोत्र खःश्रियं श्रीमदर्हन्तः सं० ४६ पंचकल्याणकस्तोत्र निलिम्पलोकायितभूतलं सं० ४७ श्रीगौतमखामिस्तोत्र जम्मपवित्तियसिरिमग्गह प्रा० प्राकृत ४८ श्रीमन्तं मगधेषु गोर्वर इति सं० ॐ नमस्त्रिजगनेतु सं० महामंत्रगर्भित ५० श्रीशारदास्तोत्र वाग्देवते ! भक्तिमतां सं० चरणसमानता ५१ श्रीशारदाष्टक ॐ नमस्त्रिजगद्वन्दितक्रमे! सं० ५२ श्रीवर्द्धमानविद्या इय वद्धमाण विज्जा प्रा० ५३ सिद्धान्तागमस्तोत्र नत्वा गुरुभ्यः सं० ५४ आज्ञास्तोत्र (ऋषभ०) नयगमभंगपहाणा प्राकृत ५५ श्रीजिनसिंहसूरिस्तोत्र प्रभुः प्रदद्यान्मुनिपक्षिपङ्के सं० चरणसाम्य ५६ मङ्गलाष्टक नतसुरेन्द्र ! जिनेन्द्र सं० ९ चौवीस जिननाम गर्भित ५७ नन्दीश्वरकल्पस्तव आराध्य श्रीजिनाधीशान् सं० ४९ इनके अतिरिक्त हमारे अन्वेषणमें निम्नोक्त स्तोत्र और मिले हैं - Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० क्रमाक नाम ५८ श्रीफलवर्धिपार्श्व स्तोत्र ५९ फलवर्द्धिपार्श्वस्तोत्र ६० पार्श्वनाथस्तवन ६१ परमेष्ठिस्तव ( मंगलाष्टक ) ६२ चन्द्रप्रभचरित्रस्तोत्र ६३ मथुरायात्रास्तोत्र ६४ शत्रुञ्जययात्रा स्तोत्र ६५ मथुरास्तूप स्तुतयः ६६ पंचकल्याणकस्तुतयः ६७ त्रोटक ६८ पहाड़िया राग ६९ प्रभातिक नामावलि ७० प्राकृतसिद्धान्तस्तव ७१ उवसग्गहरपादपूर्ति पार्श्वस्तवन ७२ मायाबीजकल्प ७३ शान्तिनाथाष्टक श्रीजिनप्रभ सूरिका पच प्रारम्भ श्रीफलवर्धिपार्श्वप्रभो कारं सं० भाषा पचसंख्या ९ सं० जयामा श्रीफलवर्धिपार्श्व असमसरणीय जउ निरंतरा प्रा० जितभावद्विषं खर्विदाम् सं० चंदप्पह २ पणमिय चर० प्रा० सुराचल श्रीर्जितदेवनिर्मिता सं० श्रीशतंजय प्रा० श्री देव निर्मित स्तूप शृंगारति० सं० पद्मप्रभप्रभोर्जन्मगर्भा० सं० निय जम्मु सफल अकलु अमलुअ जोणि संभवु सौभाग्याभाजनमभंगुर सिरि वीरजिणं सुयरयण २१ ७ ८ २२ १० ९ ४ १५ ५ ४ विशेष सं० १३८२ वै० सु० १० ऋतुवर्णन सं० १३७६ यात्रा प्रा० प्रा० ( विधिप्रपाके परिशिष्टमें प्रकाशित ) ( समाचारी शतक पृ० ७६ में प्र० ) गा० २२ प्रा०गा० ३० पारशीभाषाचित्रक अजिकुह काफु जुनू० श्रीजिनप्रभसूरिकी शिष्यपरम्परा । १ श्रीजिनदेव सूरि- आप सा० कुलधरकी पत्नी वीरिणीकी कुक्षिसे उत्पन्न हुए थे। आपमे श्रीजिनसिंह सूरिजी के पास दीक्षा ग्रहण की थी। जिनप्रभ सूरिजीने इन्हें अपने पद पर स्थापित किये थे । सुलतान महमदसे जब सूरिजी मिले तब आप भी साथ ही थे । सम्राट्ने सूरिजीके साथ इनका भी बड़ा सन्मान किया था । सूरिजी के विहार करने पर आप सम्राट्के पास बहुत समय तक रहे थे और इनका सम्राट् पर अच्छा प्रभाव था । इनका उल्लेख आगे आ चुका है। आपकी रचित कालकाचार्यकथा प्रकाशित हो चुकी है । २ श्रीजिनमेरु सूरि - आप श्री जिनदेव सूरिजीके शिष्य थे । इनके गुरुभाई श्रीजिनचंद्र सूरि थे । ३ श्रीजिनहित सूरि- इनका रचा हुआ एक वीरस्तवन गा० ९ ( हमारे संग्रह के गुटके में ) है । इनके प्रतिष्ठित १ पार्श्वनाथ पंचतीर्थीका लेख सं० १४४७ फा० ब० ८ सोम श्रीमाल ढोर धिरीयाराम कर्मसिंह कारित, बुद्धिसागरसूरिके धातुप्रतिमा लेखसंग्रह, भा० २, लेखांक ६१७ में प्रकाशित हो चुका 1 ४ श्रीजिनस ५ श्रीजिनचन्द्र सूरि - इनके प्रतिष्ठित प्रतिमा लेख, सं० १४६९, १४९१, १५०६ के उपलब्ध होते हैं । ६ श्रीजिनसमुद्र सूरि - इनकी रचित कुमारसंभव टीका, डेक्कन कालेजवाले संग्रहमें उपलब्ध है । ७ श्रीजिनतिलक सूरि - इनकी प्रतिष्ठित प्रतिमाओंके लेख सं० १५०८ से १५२८ तक के उपलब्ध हैं। इनके शिष्य राजहंसकी की हुई बाग्भट्टालङ्कारवृत्ति सं० १४८६ में लिखित उपलब्ध है। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षित जीवन पत्रि ८ श्रीजिनराज सूरि-इनकी प्रतिष्ठित प्रतिमाका लेख सं० १५६२ वै० सु०१० का प्रकाशित है। ९ श्रीजिनचन्द्र सूरि - इनकी प्रतिष्ठित प्रतिमाका लेख सं० १५६६ ज्येष्ठ सुदि २ और सं० १५६७ मा० सु० ५ के उपलब्ध हैं। १०० श्रीजिनभद्र सूरि-इनकी प्रतिष्ठित प्रतिमाओंके लेख सं० १५७३ वै० म० ५ और सं० १५६८ ___मि. सु. ७ के प्रकाशित हैं। १०B श्रीजिनमेरु सूरि । ११ श्रीजिनभानु सूरि - आप श्रीजिनभद्र सूरिजीके शिष्य थे (सं० १६४१)। इसके पश्चात् आचार्य परम्पराके नाम उपलब्ध नहीं है । सं० १७२६ के नयचक्र वचनिकासे - जो कि श्रीजिनप्रभ सूरिजीकी परम्पराके पं० नारायणदासकी प्रेरणासे कवि हेमराजने बनाई थी-श्रीजिनप्रभ सूरिजीकी परम्परा १८ वीं शताब्दीतक चली आ रही थी, ऐसा प्रमाणित होता है। श्रीजिनप्रभ सूरिजीकी परम्परामें चारित्रवर्द्धन अच्छे विद्वान् हुए हैं जिनके रचित 'सिन्दर प्रकर टीका' (सं० १५०५), नैषधमहाकाव्य टीका, रघुवंश टीका-आदि ग्रन्थ उपलब्ध हैं। श्रीजिनप्रभ सूरिजीके शिष्य वाचनाचार्य उदयाकरगणि, जिन्होंने विधिप्रपाका प्रथमादर्श लिखा था, रचित श्रीपार्श्वनाथकलश, गा० २४ हमारे संग्रहके गुटंकेमें उपलब्ध है । दि० जैन विद्वान् , पं० बनारसीदासजी, जिनप्रभ सूरिजीके शाखाके विद्वान् भानुचन्द्रके पास प्रतिक्रमणादि पढे थे, ऐसा वे खयं अपनी जीवनीमें लिखते हैं । उपसंहारउपर्युक्त वृत्तान्तसे, श्रीजिनप्रभ सूरिजीका जैन साहित्यमें बहुत ऊँचा स्थान है यह खतः प्रमाणित हो जाता है। उन्होंने सुलतान महम्मदको अपने प्रभावसे प्रभावित कर जैन समाजको निरुपद्रव बनाया, जैन तीर्थों व मन्दिरोंकी सुरक्षा की । सम्राट्को समय समय पर सत्परामर्श दे कर दीन दुःखियोंका कष्ट निवारण किया। उसकी रुचिको धार्मिक बना कर जनता पर होने वाले अत्याचारोंको रोका । जैन शासनकी तो इन सब कार्योंसे शोभा बढी ही, पर साथ साथ जन साधारणका भी बहुत कुछ उपकार हुआ। सूरिजीने साहित्य की जो महान् सेवा की उससे जैनसाहित्य गौरवान्वित है। उनका विविध तीर्थकल्प अन्य भारतीय साहित्यमें अपनी सानी नहीं रखता । इस ग्रन्थसे सूरिजीका विहार कितना सार्वत्रिक था, और पुरातन स्थानोंका इतिवृत्त संचय करनेकी उनमें कितनी बड़ी लगन थी,- यह बात इस प्रन्धके पढने वालोंसे छिपी नहीं है। इसी प्रकार द्वयाश्रयकाव्यसे सूरिजीकी अप्रतिम प्रतिभाका अच्छा परिचय मिलता है । विधिप्रपा ग्रन्थ भी आपके श्रुतसाहित्यके गम्भीर अध्ययन और गुरुपरम्परासे प्राप्त ज्ञानका प्रतीक है। आपके निर्माण किये हुए स्तुतिस्तोत्र, स्तोत्रसाहित्यमें महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। एक ही व्यक्ति द्वारा इतने सुन्दर और वैशिष्ट्यपूर्ण अनेक स्तोत्रोंका निर्माण होना अन्यत्र नहीं पाया जाता । तपागच्छीय सोमतिलक सूरिसे मिलने पर सूरिजीने जो शब्द कहे, अपने रचित स्तोत्रोंको .उन्हें समर्पित किया एवं अन्य गच्छीय विद्वानोंको शास्त्रीय अध्ययन रकाया. उन्हें ग्रन्थ रचनेमें साहाय्य प्रदान किया-इन सब बातोंसे सूरिजीकी उदार प्रकृतिकी अच्छी झांकी मिलती है । इस प्रकार विविध सत्प्रवृत्तियों द्वारा श्रीजिनप्रभ सूरिने जैन शासन की महान् प्रभावना करके एक विशिष्ट आदर्श उपस्थित किया। मुसलमान बादशाहों पर इतना अधिक प्रभाव डालने वालोंमें आप सर्वप्रथम हैं। जैन धर्मकी महत्ताका और जैन विद्वानोंकी विशिष्ट प्रतिभाका सुन्दर प्रभाव डालनेका काम सबसे पहले इन्हों-ही-ने किया । सचमुच ही जैनधर्मके ये एक महाप्रभावक आचार्य हो गये। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनप्रभ सूरिका जिनप्रभ सूरिकी परम्पराके प्रशंसात्मक कुछ गीत और पद [इस शीर्षकके नीचे जो कुछ प्राचीन गीत, पद और गायादि दिये जाते हैं वे बीकानेरके भंडारकी एक प्राचीन प्रकीर्ण पोथीमें उपलब्ध हुए हैं। यह पोथी प्रायः इन्हीं जिनप्रभ सूरिकी शिष्यपरंपरामेंके किसी यतिकी हाथकी लिखी हुई प्रतीत होती है। इसमें जो 'गुर्वावलि गाथा कुलक' लिखा हुआ मिलता है उसमें जिनहित सूरि तकका नामनिर्देश है उसके बादके किसी आचार्यका नाम नहीं है । अतः यह जिनहित सूरिके समयमें - वि० सं० १४२५-५० के अरसेमें-लिखी गई होनी चाहिए। इस पोथीमें प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और तत्कालीन देश्य भाषामें बनी हुई अनेक प्रकीर्ण रचनाओंका संग्रह है । इसी संग्रहमेंसे ये निम्नोद्धृत कृतियां, जो श्रीजिनप्रभ सूरिकी परंपराके गुरु और शिष्य रूप आचार्योंके गुणगानात्मक रूप हैंउपयोगी समझ कर यहां पर प्रकाशित की जाती हैं। इनमें जिनप्रभ सूरिके गुणवर्णनपरक जो गीत हैं वे उसी समयके बने हुए होनेसे भाषा और इतिहास दोनोंकी दृष्टिसे उल्लेखनीय हैं ।-जिनविजय ] [१] जिनेश्वरसूरिवधावणा गीत जलाउर नयरि वधावणउं । चल न चलु हलि सखे देखण जाहिं । गणधर गोतमसामि समोसरिउ ॥ १॥ वीरजिणभवणि देवलोकु अवतरियले । सुगुरु जिणसरसुरि मुनिरयणु ॥ आंचली ॥ चत्रुविधि रयली समोसरणु। चतुर्विध बइठले संघसमुदाओं । जिणसरसूरि सूध देसण करए ॥२॥ दिढ पहरि ग्या[रि]सि दिण सोधियले । सुभ लगनि सुभ मुहार]ति महतरि पहु थापियलि । चउदह मुणिवर दिख दिनले ॥ ३ ॥ तवसिरि षिवंसिरि संजमसिरि।। नाणि दरिसणि दुद्धरु संजमु भरु लइयले । जिणसरसुरि फुड वचन समुधरि ॥ ४ ॥ ॥ वधावणागीतं ॥ [२] श्रीजिनसिंहसूरि गीत हियडइ लाछि परी वसए चलणइ ए आविकदेवि । उठि गोरा उठि पातलए । उठि सहिय परगलओं विहाणउ, लइ चादणु करि वादणओं ॥ १ ॥ वादणओं करि रिसभ जिणेसर, जेणइ धरमु प्रकासियओं ॥ २ ॥ वंदणडउ करि सांतिजिणेसर, जिणि सरणागत राखियओं ॥ ३ ॥ वादणडउ मुणि सुव्रतसामिय, जीणइ मीतु प्रतिबोधियओं ॥ ४ ॥ वादणडउ करि नेमिजिणेसर, जेणइ जीव रखावियए ॥ ५॥ वादणडउ. करि पासजिणेसर, जेणइ कमठु हरावियों ॥ ६॥ वांदणउ करि वीरजिणेसर, जेणइ मेरु कंपावियओं ॥ ७ ॥ वांदणडउ गुरु वडउ सोहइ, जिणसिंघसूरि चारिति नीमलओं ॥ ८॥ ॥ गीतपदानि ॥ [३] श्रीजिनप्रभसूरि गीतउदयले खरतरगच्छगयणि अभिनवउ सहसकरो। सिरि जिणप्रभसूरि गणहरओ जंगमकलपतरो॥१॥ वंदहु भविक जना जिणसासणवणनववसंतो। छतीस गुण संजूतो वाइयमयगलदलणसीहो ॥ आंचली ।। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ [४] संक्षिप्त जीवन चरित्र तेर पंचासियइ पोससुदि आठमि सणिहिं वारे । भेटिउ असपते महमदो सुगुरु ढीलियनयरे ॥२॥ आपुणु पास बइसारए नमिवि आदरि नरिंदो । अभिनव कवितु वखाणिवि राय रंजइ मुणिंदो ॥ ३॥ हरखितु देइ राय गय तुरय धण कणय देस गाम । भणइ अनेवि जे चाहहो ते तुह दिउ इमा(म?) ॥४॥ लेइ णहु किंपि जिणप्रभुसुरि मुणिवरो अति निरीहो । श्रीमुखि सलहिउ पातसाहिं विविहपरि मुणिसीहो ॥५॥ पूजिवि सुगुरु वस्त्रादिकिहिं करिवि सहिथि निसाणु । देइ फुरुमाणु अनु कारवइ नव वसति राय सुजाणु ॥६॥ पाटहथि चाडिवि जुगपवर जिणदिवसुरि समेतो । मोकलइ राउ पोसालहं वहु मलिक परिकरीतो ॥ ७॥ वाजहि पंच सबुद गहिरसरि नाचहि तरुण नारि । इंदु जम गईद सठितु गुरु आवइ वसतिहिं मझारि ॥८॥ धंमधुरधवल संघवइ सयल जाचक जन दिति दानु । संघ संजूत बहु भगति भरि नमहिं गुरु गुणनिधानु ॥९॥ सानिधि पमिणि देवि इम जगि जुग जयवंतो। नंदउ जिणप्रभसूरि गुरु संजमसिरि तणउ कंतो ॥१०॥ ॥जिनप्रभसूरीणां गीतं ॥ के सलहउ ढीली नयरु हे, के वरनउ वखाणू ए । जिणप्रभुसुरि जगि सलहीजइ, जिणि रंजिउ सुरताणू ए ॥ १ ॥ चल सखि वंदण जाह, गुण गरुवउ जिणप्रभुसुरि । रलियइ तसु गुणगाह, रायरंजणु पंडियतिलओं ॥ आंचली ॥ आगमु सिद्धंतु पुराणु वखाणिइ, पडिबोहइ सब लोई ए । जिणप्रभसुरि गुरु सारिखउ, हो विरलउ दीसइ कोई ए ॥२॥ आठाही आठमिहि चउथी, तेडावइ सुरिताणू ए। प्रहसितु मुख जिणप्रभुसुरि चलियउ, जिम ससि इंदु विमाणू ए ॥ ३ ॥ असपति कुदुबुदीनु मनि रंजिउ, दीठलि जिणप्रभसूरी ए । एकतिहि मन सासउ पूछइ, रायमणोरह पुरी ए ॥ ४ ॥ गामन्तरिय पटोला गजवल, रूढउ देइ सुरिताणू ए। जिणप्रभसुरि गुरु कंपि न न ईछइ, तिहुयणि अमलिय माणू ए ॥ ५॥ ढोल दमामा अरु नीसाणा, गहिरा वाजइ तूरा ए। इणपरि जिणप्रभसुरि गुरु आवइ, संघमणोरह पूरा ए ॥ ६ ॥ [५] मंगल सीधिहि मंगल साहू मंगलु आयरिय मंगल च[उ] विहसंघ पर देवाधिदेवा । मंगल राणिय तिसलादेविहि वीरजिणिंदहं जा जणणि । मंगल सबसिधंतपरा मंगल वहु लपमीइ मंगलु चविह संघ पर देवाधिदेवा ॥ आंचली । मंगल रायहं कुमरहपालहं जेणि पलाविय जीव दया । मंगल सूरिहि जिणप्रभसूरिहि वाव(च !)गजी भडिया ॥ ॥ मंगल गीतं ॥ [६] श्रीजिनदेवसूरि गीतनिरुपम गुणगणमणि निधानु संजमि प्रधानु, सुगुरु जिणप्रभसुरि पट उदयगिरि उदयले नवल भाणु ॥१॥ वंदहु भविय हो सुगुरु जिणदेवसुरि । ढिल्लिय वर नयरि देसण अमिय रसि वरिसए मुणिवरु जणु घणु ऊन विउ ॥ आचली ॥ जेहि कनाणापुर मंडणु सामिउं वीरजिणु । महमद राइ समप्पिउ थापिउ सुभ लगनि सुभदिवसि ॥ २ ॥ नाणि विनाणि कलाकुसले विद्यावलि अजेओं। लखण छंद नाटक प्रमाण वखाणए आगमि गुणि अमेओं ॥३॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनप्रभ सूरिका धनु कुलधरु जसु कुलि उपनु इहु मुणिरषणु । धनु वीरिणिं रमणि चूडामणि जिणि गुरु उरि धरिउ ॥४॥ धनु जिणसिंघसूरि दिखियाओं धनु चंद्रगच्छु । धनु जिणप्रभुसुरि निजगुरु जिणि निजपाटिहि थापियाओं ॥५ हलि सखे ! घणउ सोहावणिय रलियावणिय । देसण जिणदेवसुरि मुणिरायहं जाणउं नितु सुणडं ॥६॥ महिमंडलि धरमु समुधरए जिणसासणिहिं । अणुदिण प्रभावन करइ गणधरो अवयरिउ वयरसामि ॥ ७ ॥ वादिय मयगल दलणसीहो विमल सील धरु। छत्रीस गणधर गुण कलिउ चिरु जयउ जिणदेवसुरि गुरु ॥८॥ ॥श्री आचार्याणां गीतपदानि ॥ [७] सुगुरु परंपरा गीत खरतर गच्छि वर्द्धमानसुर जिणेसरसूरि गुरो। अभयदेवसूरि जिणवल्लहसुरि जिणदत्तु जुगपवरो । सुगुरु परंपर थुणहु तुम्हि भवियहु भत्तिभरि । सिद्धिरमणि जिम वरइ सयंवर नवियपरि ॥ आचली ॥ जिणचंदसूरि जिणपतिमुरि जिणेसरु गुणनिधानु । तदणुक्रमि उपनले सुगुरु जिणसिंघसूरि जुगप्रधानु ॥ २॥ तासु पटि उदयगिरि उदयले जिणप्रभसूरि भाणु । भवियकमलपडिबोहणु मिच्छततिमिरहरणु ॥ ३ ॥ राउ महंमदसाहि जिणि नियगुणिरंजियाओं। मेढमंडलि ढिल्लियपुरि जिणधरमु प्रकटु किओं ॥ ४ ॥ तसु गछ धुरधरणु भयलि जिणदेवसुरि सूरिराओं । तिणि थापिङ जिणमेरुसूरि नमहु जसु मनइ राओं ॥ ५ ॥ गीतु पवीतु जो गायए सुगुरुपरंपरह । सयल समीहि सिझहिं पुहविहिं तमु नरहं ॥ ६ ॥ ॥सुगुरु परंपरा गीतं ॥ [८] गुर्वावली गाथा कुलकवंदे सुहंमसामि जंबूसामि च पभवसूरिं च । सिजंभव-जसभई अज्जसंभूयं तहा वंदे ॥१॥ तह भद्दबाहुसामि च थूलभदं जईजि(ज)णवरिष्टुं । अज महा[गि]रिसूरिं अजसुहत्थिं च वंदामि ॥२॥ तह संतिसूरि-हरिभद्दसूरि मं(सं)डिल्लसूरिजुगपवरं । अज्जसमुई तह अजमंगु अजधम्म अहं वंदे ॥ ३ ॥ भद्दगुत्तं च वरं च अज्जरक्खियमुणिवरं । अज्जनंदिं च वंदामि अन्जनागहत्थिं तहा ॥ ४ ॥ रवेय-खंडिल्ल-हिमवंत-नाग-उज्जोयसूरिणो वंदे । गोविंद-भूइदिन्ने लोहच्चिय-दूससूरिओं ॥५॥ उमासाइवायगे वंदे वंदे जिणभद्दसूरिणो । हरिभद्दसूरिणो वंदे वंदे हं देवसूरि पि ॥ ६ ॥ तह नेमिचंदसूरि उज्जोयणसूरिपभिइणो वंदे । तह वद्धमाणसूरि सूरिसिरिजिणेसरं वंदे ॥ ७ ॥ जिणचदं अभयसूरिं सूरिजिणवल्लहं तहावंदे । जिणदत्तं जिणचंदं जिणवइ य जिणेसरं वंदे ॥ ८॥ संजमसरसइनिलयं सुमुणीण तित्थभरधरणं । सुगुरुं गणहररयणं वंदे जिणसिंहसूरिमहं ॥ ९॥ जिणपहसूरिमुणिंदो पयडियनीसेसतिहुयणाणंदो । संपइ जिणवरसिरिवद्धमाणतित्थं पभावेइ ॥ १० ॥ सिरिजिणपहसूरीणं पट्टमि पइटिओ गुणगरिट्ठो । जयइ जिणदेवसूरी नियपन्नाविजयसुरसूरी ॥ ११ ॥ जिणदेवसुरिपट्टोदयगिरिचूडाविभूसणे भाणू । जिणमेरुसूरिसुगुरू जयउ जए सयलविजनिही ॥ १२ ॥ जिणहितसूरिमुणिंदो तप्पट्टे भवियकुमुयवणचंदो। मयणकरिकुंभविहडणदुद्धरपंचाणणो जयउ ॥ १३ ॥ सुगुरुपरंपरगाहाकुलयमिणं जे पढेइ पञ्चूसे । सो लहइ मणोवंछियसिद्धिं सर्व पि भवजणे ॥ १४ ॥ ॥ इति गुर्वावलीगाथाकुलकं समाप्त ॥छ॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्हम् खरतरगच्छालङ्कारश्रीजिनप्रभसूरिकृता वि धि मा र्ग प्र पा नाम सुविहितसामाचारी। नमिय महावीरजिणं', सम्म सरिउं गुरूवएसं च। सावय-मुणिकिच्चाणं सामायारिं लिहामि अहं ॥ [१] ३१. सम्मत्तमूलतेण गिहिधम्मकप्पतरुणो पढमं सम्मत्तारोहणविही भण्णइ - तत्थ जिणभवणे समोसरणे वा सुहेसु तिहि-मुहुत्ताइएसु उवसमाइगुणगणासयस्स उवासयस्स विसिट्ठकयनेवत्थस्स चंदणरसरइयभालयलतिलयस्स जहासत्ति निबत्तियजिणनाहपूओवयारस्स अखंडअक्खयाणं वडतियाहिं तिहिं मुट्ठीहिं । गुरू अंजलिं भरेइ । सन्निहियसावओ साविया वा तदुवरि पसत्थफलं नालिकेराइ धारेइ । तओ नवकारपुवं समोसरणं तिपयाहिणी काउं सावओ इरियावहियं पडिक्कमिय खमासमणं दाउं भणइ -'इच्छाकारेण तुम्भे अहं सम्मत्तसामाइय-सुयसामाइयआरोवणत्थं चेहयाई वंदावेह ।' गुरू भणइ -'वंदावेमो ।' पुणो खमासमणं दाउं-'इच्छाकारेण तुब्भे अम्हं सम्मत्तसामाइय-सुयसामाइयआरोवणत्थं वासनिक्खेवं करेह'त्ति भणइ । तओ 'करेभी'ति भणित्ता निसिज्जासीणो कयसकलीकरणो सूरिमंतेण इयरो वद्धमाण-" विजाए वासे अभिमंतिय तस्स सिरे देइ; चंदणक्खए य रक्खं च करेइ । तओ तं वामपासे ठविचा वढंति - याहिं थुईहिं संघसहिओ गुरू देवे वंदद । चउत्थथुईअणंतरं सिरिसंतिनाह-संतिदेवया-सुयदेवया'भवणदेवया-खेत्तदेवया-अंबा-पउमावई-चक्केसरी-अच्छुत्ता-कुबेर-बंभसंति-गोत्तसुरा-सक्काइवेयावञ्चगराणं नवकारचिंतणपुष थुईओ । इत्थ य अंबाथुइं जाव थुईओ अवस्सदायबाओ। सेसाणं न नियमु त्ति गुरूवएसो। अम्हाणं पुण पउमावई गच्छदेवय ति तीसे थुई अवस्सदायद्या । तओ सासणदेवयाकाउ- 15 स्सग्गे चउरो उज्जोयगरा पणुवीसुस्सा चिंतिजंति । तओ गुरू पारित्ता थुइं देइ । सेसा काउस्सग्गट्ठिया सुणंति । तओ सधे पारिता उज्जोयगरं पठित्ता नवकारतिगं भणित्ता जाणूसु भविय सक्कत्थयं भगति । 'अरिहाणा'दि थुतं गुरू भणइ । तओ 'जयवीयराय' इच्चाइ पणिहाणगाहादुगं सवे भणंति । इच्चेसा पक्किया सवनंदीसु तुल्ला; णवरं तेण तेण अभिलावेणं । तओ खमासमणं दाउं सड्ढो भणइ -'इच्छाकारेणं तुम्भे अम्हं सम्मत्तसामाइय-सुयसामाइयआरोवणत्थं काउस्सग्गं करावेह ।' गुरू भणइ -'करावेमो' । पुणो खमांसमणं ॥ दाउं भणइ -'सम्मत्तसामाइय-सुयसामाइयआरोवणत्थं करेमि काउस्सग्गं'ति । तओ काउस्सग्गे सत्तावीसुस्सासं उज्जोयगरं चिंतिय पारित्ता मुहेण भणइ सर्व । गुरू वि काउस्सग्गं करेइ ति अन्ने । तओ खमासमणं 1B वीरजिणं । 2 B वा। 3 B°गणायरस्म । 4 B वर्वतयाहिं। 5 B भुवण°। 6Aचिंतनपुचि । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रपा। दाउं भणइ -'इच्छाकारेण तुम्मे अम्हं सम्मत्तसामाइय-सुयसामाइयसुत्तं उच्चारावेह' ति । गुरू भणह'उच्चारावेमो' । तओ नवकारतिगं भणित्तु वारतिगं दंडगं भणावेइ । जहा -'अहं णं भंते तुम्हाणं समीवे मिच्छत्ताओ पडिकमामि; सम्मत्तं उवसंपज्जामि । नो मे कप्पइ अजप्पभिइ अन्नतिथिए वा, अन्नतित्थियदेवयाणि वा, अन्नतित्थियपरिग्गहियाणि अरहंतचेइयाणि वा; वंदितए वा, नमंसित्तए वा, पुyि अणालत्तएणं आलवित्तए वा, संलवित्तए वा; तेसिं असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा, दाउं वा अणुप्पयाउं वा, तेसिं गंधमल्लाई पेसेउं वा, नन्नत्थ रायाभिओगेणं, गणाभिओगेणं, बलाभिओगेणं, देवयाभिओगेणं, गुरुनिग्गहेणं, वित्तीकंतारेणं;-तं च चउविहं, तं जहा- दबओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ । तत्थ दवओ-दसणदवाइं अहिगिच्च; खित्तओ जाव भरहम्मि मज्झिमखंडे; कालओ जाव जीवाए; भावओ जाब छलेणं न छलिज्जामि, जाव सन्निवाएणं न भुज्जामि, जाव केणइ उम्मायवसेण एसो मे दंसणपालण॥ परिणामो न परिवडइ; ताव मे एसो दंसणाभिग्गहो त्ति' ॥ तओ सीसस्स सिरे वासे खिवेइ । तओ निसिज्जोवविठ्ठो गुरू सकलीकरणरक्खामुद्दापुवयं अक्खए अभिमंतिय उवरिं पणव(ॐ)-भुवणेसर(ही)-लच्छी(श्री)-अरहंतबीयाई* हत्थेण लिहित्ता, लोगुत्तमाण पाए सुगंधे खिवित्ता, संघस्स देइ । पंचपरमिद्विमुद्दा, सुरही-सोहरग-गरुडवजा य। मुग्गरकरा य सत्तओ एया अक्खयपयाणं मि॥ [२] ॥६२. तओ खमासमणं दाउं सावओ भणइ -'इच्छाकारेण तुब्भे अम्हं सम्मत्तसामाइय-सुयसामाइयं आरोवेह' । गुरू भणइ -'आरोवेमो' । पुणो वंदिऊण सीसो भणइ -संदिसह किं भणामो ?' । गुरू भणइ 'वंदिचा पवेयह' । पुणो वंदिऊण सीसो भणडा-'इच्छाकारेण तुन्भेहिं अम्हं सम्मत्तसामाइय-सुयसामाइयं आरोवियं ?' । एवं पण्हे कए गुरू भणइ -'आरोवियं' । ३ खमासमणाणं; हत्थेणं, सुत्तणं, अत्थेणं, तदुभएणं सम्मं धारणीयं चिरं पालणीयं । सीसो भणइ -'इच्छामो अणुसलुि' । पुणो वंदिय भणइ" 'तुम्हाणं पवेइयं; संदिसह साहूणं पवेएमि' । गुरू भणइ - पवेयह' । तओ खमासमणं दाउं नमोक्कारं पढंतो पयाहिणं करेइ । 'गुरुगुणेहिं वड्डाहि; नित्थारपारगा होहि'-त्ति भणंतो गुरू संघो य वासक्खए खिवेइ । एवं जाव तिन्नि वारा। तओ वंदित्ता भणइ -'तुम्हाणं पवेइयं, साहूणं पवेइयं; संदिसह काउस्सगं करेमि' । गुरू आह-'करेह' । तओ खमासमणपुवं 'सम्मत्तसामाइय-सुयसामाइयथिरीकरणत्थं करेमि काउस्सगं'त्ति । सत्तावीसुस्सासं काउस्सग्गं काउं चउवीसत्थयं च भणिय गुरुं तिपयाहिणी करेइ । तओ गुरू लग्गवेलाए इय मिच्छाओ विरमिय सम्म उवगम्म भणइ गुरुपुरओ। अरहंतो निस्संगो मम देवो दक्षिणा साहू ॥ [३] इइ वारतियं भणावेह । विणेओ वि तत्थ दिणे एगासणगाइ जहसत्ति तवं करेइ । तओ खमासमणं दाउं भणइ -'इच्छाकारेण तुम्मे अम्हं धम्मोवएसं देह' । तओ गुरू देसणं करेइ । भूएस जंगमत्तं, तत्तो पंचिंदियत्तमुक्कोसं । तेसु विय माणुसत्तं, मणुसत्ते आरिओ देसो॥ [४] देसे कुलं पहाणं, कुले पहाणे य जाइमुक्कोसा। तीय वि स्वसमिद्धी, रूवे य बलं पहाणयरं ॥ [५] *'बीजानि पदानि ॐ ह्रीं श्रीं अहँ नमः इत्यमूनि ।' इति टिप्पणी A आदर्श। + द्वितारकान्तर्गतः पाठो नोपलभ्यते Bादशैं। 1 नास्ति B आदर्श। 2 B अरिहंतो। 'सरला निष्कपटा इत्यर्थः । इति A आदर्श टिप्पणी । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६] [८] सम्यक्त्वव्रतारोपणविधि । होइ पले विय जीयं, जीए वि पहाणयं तु विनाणं । विनाणे सम्मत्तं, सम्मत्ते सीलसंपत्ती ॥ सीले खाइयभावो, खाइयभावेण केवलं नाणं । केवलिए पडिपुन्ने, पत्ते परमक्खरे मोक्खे॥ [७] पन्नरसंगो एसो समासओ मोक्खसाहणोवाओ। इत्थं बहू पत्तं ते थेवं संपावियचं ति ॥ तो तह कायचं ते जह तं पावेसि थोवकालेणं। सीलस्स नत्थऽसज्झं जयंमि तं पावियं तुमए-त्ति ॥ [९] पुरिसो जाणुडिओ इत्थियाओ उद्घट्टियाओ सुगंति । जिणपूयणाइ अभिग्गहे य गुरू देइ । जिणपूया कायवा । दधभावभिन्ने लोइय-लोउत्तरिए अणाययणे न गंतवं । परतित्थे तव-न्हाण-होमाइ धम्मत्थं " न कायवं । लोइयपाइं गहण-संकंति-उत्तरायण-दुवट्ठमी-असोयट्ठमी-करगचउत्थी-चित्तट्ठमी-महानवमी-विहिसत्तमी-नागपंचमी-सिवरत्ति-वच्छवारसि-दुद्धबारसि-ओघबारसि-नवरत्तपूआ-होलियपयाहिणा-बुहअट्ठमी-कज्जलतइया-गोमयतइया हलिहुवचउद्दसी–अणंतचउद्दसी-सावणचंदण छट्ठी-अक्कछट्ठी-गोरीभत्त-रविरहनिक्खमणपमुहाई न कायघाई । तहा कज्जारंभे विणायगाइनामग्गहणं, ससिरोहिणिगेयं, वीवाहे विणायगठवणं, छट्ठीपूयणं, माऊणं ठावणा, बीयाचंदस्स दसियादाणं, दुग्गाईणं ।। ओवाइयं, पिंडपाडणं, थावरे पूया, माऊणं मल्लगाई, रवि-ससि-मंगलवारेसु तवो, रेवंत-पंथदेवयाणं पूया, खेत्ते सीयाइअच्चणं, सुन्निणि-रुप्पिणि-रंगिणिपूया, माहे घयकंबलदाणं तिलदभदाणेण जलंजली, गोपुच्छे करुस्सेहो, सवत्ति-पियरपडिमाओ, भूयमल्लगं, सद्ध-मासिय-वरिसिय करणं, पब दाणं, कन्नाहलग्गहो, जलघडदाणं, मिच्छदिट्ठीणं लाहणयदाणं, धम्मत्थं कुमारियाभत्तं, संडविवाहो, पियरहं नईकूवाइ-खणणपइट्ठोवएसो, वायस-विरालाइपिंडदाणं, तरुरोवण-वीवाहो, तालायरकहासवणं, गोधणाइपूया, . धम्मम्गिठयकरणं, इंदयाल नडपिच्छण-पाइक्क-महिस-मेसाइ-जुज्झ-भूयखिल्लणाइदरिसणं, मूल-असिलेसाजाए बाले बंभणाहवण-तबयणकरणं,- एमाइ मिच्छत्तठाणाई परिहरियवाई। सक्कथएण वि तिकालं चीवंदणं कायचं । छम्मासं जाव दोवाराओ संपुण्णा चीवंदणा कायवा । नवकाराणं च अट्ठत्तरं सयं गुणेयवं । बीयापंचमी-अट्ठमी-एगारसीए चउदसीए उहिट्ठपुन्निमासु दोक्कासणाइतवं । जा जीवं चउवीसं नवकारा गुणेयवा । पंचुबरी-मज्झ-मंस-महु-मक्खण-मट्टिया-हिम-करग-विस-राईभत्त-बहुबीय-अणंतकाय-अत्थाणय- * घोलवडय-वाइंगण-अमुणियनामपुप्फ-फल-तुच्छ-फल-चलियरस-दिणदुगातीयदहिमाईणिं वजेयवाई । संगरफलिया-मुग्ग-मउट्ठ-मास-मसूर-कलाय-चणय-चवलय-वल्ल-कुलत्थ-मेत्थिया-कंडुय-गोयारमाइ बिदलाई आमगोरसेण सह न जिमेयवाई। एएसिं रायत्तयं न कायदं । निसिन्हाणं, अच्छाणियजलेण य दहाइसु ण्हाणं, अंदोलणं, जीवाणं जुज्झावणं, साहम्मिएहिं सद्धिं धरणगाइविरोहो, तेसुं च सीयंतेसुं सइविरिएऽभोयणं, चेइयहरे अणुचियगीयनदृ निट्ठीवणाइआसायणाओ, देवनिमित्तं थावरपाउग्गकूवारामकर- . णाणि य वजणिज्जाइं । उस्सुत्तभासगलिंगीणं कुतित्थियाणं च वयणं न सद्दहेयवं । एमाइ अभिग्गहा गुरुणा दायथा । सो वि तम्मि दिणे साहम्मियवच्छल्लं सुविहियाणं च वत्थाइपडिलाहणं करेइ ति ॥ ॥ सम्मत्तारोवणविही समत्तो ॥१॥ 1B पूयणाय। 2 B हलिव। 8B वंदिण। 4 B°दन्भदाणं दाणे जल। 5 B °वीरसिय। 6A पवादाणं। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रपा। ६३. पडिपन्नसम्मत्तस्स य पइदिणं देव-गुरु-पूया-धम्मसवणपरायणस्स देसविरहपरिणामे जाए बारसवयाइं आरोविजंति । तत्थ इमो विही गिहिधम्मे चीवंदण, गिहिवयउस्सग्गयइवउच्चरणं । जहसत्ति वयग्गहणं, पयाहिणुस्सग्गदेसणया ॥ [१०] हत्थट्ठियपरिग्गहपरिमाणटिप्पणयस्स य । वयामिलावो जहा-'अहं णं भंते तुम्हाणं समीवे थूलगं पाणाइवायं संकप्पओ निरवराहं पञ्चक्खामि । जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए कायेणं, न करेमि न कारवेमि । तस्स भंते पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि' ति वारतिगं भणियवं । एवं, अहं णं भंते तुम्हाणं समीवे थूलगं मुसावायं जीहाच्छेयाइहेउयं कन्नालियाइपंचविहं पञ्चक्खामि । दक्खिन्नाइअविसए अहागहियभंगएणं । एवं थूलगं अदिन्नादाणं खत्तखणणाइयं चोरंकारकरं रायनिग्गह" कारयं सञ्चित्ताचित्तवत्थुविसयं पञ्चक्खामि । एवं, ओरालियवेउवियभेयं थूलगं मेहुणं पञ्चक्खामि, अहागहियभंगएणं । तत्थ दुविहतिविहेणं दिवं, तेरिच्छं एगविहतिविहेणं, माणुस्सयं एगविहएगविहेणं वोसिरामि । अहं णं भंते परिग्गहं पडुच्च अपरिमियपरिग्गहं पञ्चक्खामि । धणधन्नाइ-नवविह-वत्थुविसयं इच्छापरिमाणं उवसंपज्जामि, अहागहियभंगएणं । एवं गुणवयवए दिसिपरिमाणं पडिवज्जामि । उवभोगपरिभोगवए भोयणओ अणंतकाय-बहुबीय-राइभोयणाई परिहरामि । कम्मओ णं पन्नरसकम्मादाणाई 15 इंगालकम्माइयाइं बहुसावज्जाइं खरकम्माइयं रायनिओगं च परिहरामि । अणत्थदंडे अवझाण-पावोवएसहिंसोवकरणदाण-पमायायरियरूवं चउविहं अणत्थदंडं जहासत्तीए परिहरामि । अहं णं भंते तुम्हाणं समीवे सामाइयं पोसहोववासं देसावगासियं अतिहिसंविभागवयं च जहासत्तीए पडिवजामि । इच्चेयं सम्मत्तमूलं पंचाणुधइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं सावगधम्म उवसंपज्जित्ता णं विहरामि ।' पयाहिणा-वासदाणाइयं सेसं पुधिं व दट्टवं ॥ ६४. पुबोल्लिंगियं परिग्गहपरिमाणटिप्पणं च गाहाहिं वित्तेहिं वा अत्थओ एवं लिहिज्जइ-'वीराइअन्नयरं जिणं नमित्तु, सम्मत्तमूलं गिहत्थधम्म पडिवज्जामि । तत्थ अरहं मह देवो । तदाणाठियसाहू गुरुणो । जिणमयं पमाणं । धम्मत्थं परतित्थे तव-दाण-न्हाण-होमाइ न करेमि । सक्कथएण वि तिकालं चीवदणं काहं । पाणिवह-मुसावाए अदत्त-मेहुण-परिग्गहे चेव । दिसि-भोग-दंड-समइय-देसे तह पोसह-विभागे॥ [११] संकप्पियं निरवराहं थूलं जीवं तिषकसायवसा मण-वय-तणुहिं जावज्जीव न हणे न हणावे, सकज्जे सयणाइकज्जे वा ओसहाइसावज्जे किमि-ांडोलग-जलुगाविसए य जयणा । कन्नाइथूलगमलीयं दुविहं तिविहेण वोसिरे । देव-संघ-साहु-मित्ताइकज्जे लहणिज्ज-दिज-पडिकयववहारे य जयणा । थूलमदत्तं दुविहतिविहेण वजे । निहि-सुकाइसु जयणा । दुविहतिविहेण दिवमिच्चाइभणिय• भंगेणं मेहुणनियमो । परदारं परपुरिसं वा कारण सवहा नियमो वा । माणुस्से दुचिंतिय-दुब्भासियदुचिट्ठिय-हास-कलहवयणाई अकयाणुबंधं वज्जित्ता जहासंभवं सव्वया । धण-धन-खेत्त-वत्थू-रुप्प-सुवन्ने चउप्पए दुपए कुविए परिग्गहे नवविहे इच्छापमाणमिणं । जाइफल-पुप्फलाइगणिमं, कुंकुम-गुडाइ 1 B अरहंतो। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्रहपरिमाण-सामायिकवतारोपणविधि । धरिमं, चोप्पड-जीराइमेजं, रयण-वत्थाइपरिछिज्जं । एवं चउधिहं पि धणं गहणक्खणे सधया वा इत्तियपमाणं, इत्तिओ धण्णसंगहो, इत्तियाई हलाई खेताई चरी वा, किसिनियमो वा । इत्तियाइं हट्टराई । रुप्पकणगेसु टंकयपमाणं तोलयपमाणं गद्दियाणगपमाणं वा । चउप्पय-तिरियाणं पमाणं जहाजोग्गं नियमो वा। दुपए दासरूवाणं, सगडाईणं च पमाणं । कुवियं इत्तियमोल्लं उवक्खर-थालाइ; भणियपमाणाओ अहियं धम्मवए दाहं । एसो नियमो मह सपरिग्गहावेक्खाए । भाइ-सयणाईणं तु रक्खण-ववहरणं । मुक्कलयं अड्डाणगाइ य । तहा, अमुगनगराओ चउद्दिसिं जोयणसयाई, उर्दु जोयणदुगाइ, अहोदिसिं पुरिसपमाणं धणुहमाणं वा । दुविहतिविहेणं मंसं, एगविहं मज्ज-मक्खणं, अन्नत्थ ओसहाइकज्जेण महं च वजेमि । सामन्नणं वा मंसाइ नियमेमि । अप्पउलिय-दुप्पउलिय-तुच्छफलेसु जयणा । एवं पंचुबरिवाइंगण-पुट्टय-अन्नायफल-सगोरसविदल-पुप्फिओयणाई । वडिय-तीमणाइनिक्खित्तअद्दयाइ मुत्तुं अणंतकायं च । असण-खाइमे निसि न जिमे, पाण-साइमेसु जयणा । अत्थाणयाणं नियमो परिमाणं । वा। असणे से इया-सेराइपमाणं । भोयणे न्हाणे य नेहकरिस*दुगाइ । सच्चित्तदव-विगई-ओगाहिमपाणगभेय-सालणयउक्कडदबाणं परिमाणं । पाणे एगाइघडा, उच्छुलयाणं, चिन्भडाइ-गणियफलाणं च बोराइ-मेजफलाणं, दक्खाइ-तोलिमफलाणं संखा-मण-माणगाइपरिमाणं जहासंखं कायवं । संपत्ति गुच्छाणं पण्णाणं पुप्फ-फलाणं च संखा। कपूर-एलाइसु रूवयपरिमाणं । तियडय-तिहलाइसु पलाइपरिमाणं । धोवत्तिय-सीओढणवजं इत्तियमुल्लाओ इत्तियाओ तियलीओ । फुल्लाणं तुड्डुर-चउसराइ- 15 संखा नियमो वा । आभरणे संखा सुवण्ण-रुप्प-पलमाणं वा । कुंकुम-चंदणविलेवणे पलाइसंखा । जलघडदुगाइणा मासे इत्तिया सिरिन्हाणा, दिणे य अंगोहलीओ। आसण-सिज्जाणं संखा । ओहेण वा भोगपरिभोगाणं इंगालगाइकम्मादाणाणं नियमो, भाडगाइसु परिमाणं वा । मणुयाणं कयविक्कयनियमो । चउप्पयविक्कयसंखा । तलाराइखरकम्मनियमो। विचित्तोवरि लाहाइलोभेणं तिले न धारइस्सं । चुल्लीसंधुक्खण-जलघडाणयणसंखा, खंडण-पीसण-दलणाइसु मण-कलसियाइपरिमाणं । चउहा अणत्थदंडं, अवझाणं, वेरितप्पुरवहाई। वज्जे वद्धावणयं, मुत्तु महं गीयनहाई ॥ _[१२] जूयजलकीलणाई चएमि दक्खिन्नअवसए देमि । नो सत्थग्गिहलाई पाओवएसं च कइयावि ॥ [१३] मासे वरिसे वा सामाइयसंखा । दुव्भासियाइसु मिच्छादुक्कडदाणं । अहोरत्तंते गमणे जल-थलपहेसु जोयण- 25 संखा । पोसहे वरिसंतो संखा जहासंभवं वा । अट्ठमि-चउद्दसि-चउमासिय-पज्जुसणेसु जहासत्ति एगासणाइ तवं, बंभचेरं, अन्हाणाइयं च । काले नियगेहागयसुविहियाणं संविभागपुवं भोयणं । दिणंतो नवकारगुणणसंखा य । इत्तियं धम्मवयं वरिसंतो काहं । इत्तिओ य सज्झाओ मासे । एए य मह अभिग्गहा ओसह-परवसत्त-देहअसामत्थ-वित्तिच्छेय-रोग-मग्गकंतार-देवया-गुरु-गण-रायाभिओग-अणाभोगसहसागार-महत्तर-सव्वसमाहिवत्तियागारे मोत्तुं । मज्झिमखंडाओ बाहिं सवासवदाराणं तिविहं तिविहेण . नियमो, चिरफयसबाहिगरणाणं च । इत्थ य पमाएण नियमभंगे सज्झायसहस्सं, आंबिलं च पच्छित्तं ।" 1B दाणं। * 'पंचभिगुंजामिर्माषकः, तैः षोडशभिः कर्षः।' इति A टिप्पणी। 2 B चिभिडा। 'अंगमण्डनादिः।' इति Aटिप्पणी। 3 Bअबिसए। 4 A चउमासय । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रपा। एवं लिहिता एसा गाहा लिहिज्जइ सम्मत्तमूलमणुवयखंधं उत्तरगुणोरुसाहालं। गिहिधम्मदुमं सिंचे सद्धासलिलेण सिवफलयं ॥ [१४] तओ गुरुक्कमं लिहिता अमुगगणहरपायमूले अमुगसंवच्छर-मास-तिहीसु अमुगेण अमुगीए वा एसो । सावगधम्मो पडिवण्णो त्ति परिग्गहपमाणटिप्पणविही ।। ॥परिग्गहपरिमाणविही समत्तो ॥२॥ ६५. पडिवन्नदेसविरइयम्स विसिट्टतरसद्धस्स सङ्घम्स छम्मासियं सामाइयवयं आरोविज्जइ । तत्थ य चेइयवंदणाइविही हिठिल्लो चेव । नवरं, काउस्सग्गाणंतरं अहिणवमुहपोत्तिया वासविन्नासपुवं समप्पणीया । तीए य तेण छम्मासे जाव उभयसंझं सामाइयं गहेयचं । तओ नवकारतिगपुवं 'करेमि भंते सामाइयं " सावजं जोगं पञ्चक्खामि, जाव नियमं पञ्जुवासामि, दुविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं, न करेमि न कारवेमि, तस्स भंते पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ।' तहा 'दवओ खेत्तओ कालओ भावओ। तत्थ दवओ सामाइयदधाई अहिगिच्च; खेत्तओ णं इहेव वा अन्नत्थ वा; कालओ णं जाव छम्मास; भावओ णं जाव रोगायंकाइणा परिणामो न परिवडइ, ताव मे एसा सामाइयपडिपत्ती ।' इति दंडगो वारतिगमुच्चारणीओ । सेसं पुष्विं व दट्ठवं ।। ॥ इइ सामाइयारोवणविही ॥३॥ ६६. अंगीकयसामाइएण य उभयसंझं सामाइयं गहेयवं । तस्स एसो विही-पोसहसालाए साहुसमीवे मीहेगदेसे वा खमासमणदुगपुवं सामाइयमुहपोत्ति पडिलेहिय पढमखमासमणेण 'सामाइयं संदिसावेमि, बीयखमासमणेण सामाइए ठामि' त्ति भणिऊण पुणो वंदिय, अद्धावणओ नमोक्कारतिगपुष्वं 'करेमि भंते सामाइयं- इच्चाइदंडगं-वोसिरामि' पज्जंतं वारतिगं कड्डिय, खमासमणेण इरियावहियं पडिक्कमिय, ॥ खमासमणदुगेणं वासासु कट्ठासणं, उडुबद्धे पाउंछणं, खमासमणदुगेण सज्झायं च संदिसाविय, पुणो वंदिय नवकारऽट्टगं भणइ । तओ सीयकाले पंगुरणं संदिसावेइ । संझाए सज्झायाणंतरं कट्ठासणं संदिसावेइ ति । जइ पुण कयसामाइयं पोसहइत्तं वा, कोइ कयसामाइओ पोसहइत्तो वा वंदइ, तया 'वंदामो' त्ति वत्त, जइ इयरो वंदइ तत्थ 'सज्झायं करेह'त्ति वत्तवं । जहण्णओ वि घडियादुगं सुहज्झवसाएण चिद्वित्ता, तओ मुहपोत्तिं पडिलेहिय पढमखमासमणे 'सामाइयं पारावेह'-गुरू आह-'पुणो वि कायद्यो । ५ बीयखमासमणे 'सामाइयं पारेमि'-गुरू आह-'आयारो न मुत्तो' । तओ नवकारतिगं भणिय, 'भयवं दसमभद्दो' इच्चाइगाहाओ भूमिनिहित्तसिरो भणइ । ॥ इय सामाइयग्गहण-पारणविही ॥ ४॥ ६७. इत्थ केइ आइल्लाणं चउण्हं सावयपडिमाणं पडिवत्ति इच्छंति । तं च न सुगुरूणं समयं । जओ संपयं पडिमारूवं सावयधम्मं वोच्छिन्नं बिति गीयत्था । अओ न तस्स विही भण्णइ । ॥ ६८. इयाणि उवहाणविही-सोहणतिहि-करण-मुहुत्ताइदिणे जिणभवणाइसु नंदी कीरइ । पंचमंगलमहासुयक्खंधे हरियावहियासुयक्खंधे य; अन्नेसु उवहाणतवेसु नंदीए न नियमो। जइ कोइ समोसरणे पूयं करेइ तया कीरइ नऽनहा । दोस आइलउवहाणतवेस पुण नियमा नंदी । तत्व स्वको साविया Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपधानविधि । वा विसिट्ठकयनेवत्था महया विच्छड्डेणं गुरुसमीवमागम्म समवसरणं वत्थ-नेवेज-अक्खय-थालनालिएरविसिटुं पूयाए पूइऊण नालिकेरं अंजलीए करिता पयाहिणं करेइ, चउसु ठाणेसु पणामपुवं । तओ समवसरणपुरओ अक्खए नालिएरं च मुंचहा । तओ दुवालसावत्तवंदणं दाउं, खमासमणं दाऊण भणइ -'इच्छाकारेण तुब्मे अम्हं पंचमंगलमहासुयक्खंधाइउवहाणतवं उक्खिवह' । गुरू भणइ'उक्खिवामो'। तओ 'इच्छंति भणित्ता, वंदिय भणइ -'इच्छाकारेण तुम्भे अम्हं पंचमंगलमहासुंयक्खं-' धाइउवहाणतवउक्खिवणत्थं काउसग्गं करावेह' । गुरू भणइ -'करेह' । सीसो 'इच्छंति भणिय, खमासमणं दाउं भणइ - 'पंचमंगलमहासुयक्खंधाइउवहाणतवउक्खिवणत्थं करेमि काउस्सग्गं । अन्नत्थे ऊससिएण'मिच्चाइ । तत्थ नवकारं उज्जोयगरं वा चिंतेइ । तओ नमोकारेण पारित्ता, नमोक्कार उज्जोयगरं वा भणिय, खमासमणं दाउं, भणइ -'इच्छाकारेण तुम्भे अम्हं पंचमंगलमहासुयक्खंधाइउवहाणतवउक्खिवणत्थं चेइयाइं वंदावेह' । गुरू भणइ -'वंदोवेमो' । सीसो भणइ- 'इच्छं'ति । तओ गुरू तस्सु.॥ तमंगे वासे खिवेइ, वारतिन्नियं सत्त वा । तओ गुरू चउविहसंघसहिओ वलृतियाहिं थुईहिं चेइए वंदावेइ । संतिनाह-सुयदेवयापमुह-जाव-सासणदेवयाए काउस्सग्गे करित्ता, तासिं चेव थुईओ दाउं, सासणदेवयाए काउस्सग्गं चउरो उज्जोयगरे चिंतिय, नमोक्कारेण पारिय, थुई दाउं, चउवीसत्थयं कहिचा, नवकारतियं कहिय, बइसिऊण, सक्कत्थयं कहिय, पंचपरमेट्ठिथवं भणेइ । तओ गुरू लोगुत्तमाणं पाएसु वासे छुहिय, समवसरणंमि सचदेवयाणं सरणं करिय, वासे खिवेइ । तओ वद्धमाणविज्जाइणा अक्खए । वासे य अहिमंतिय चउविहसंघस्स दाऊण, गुरू सीसं दुवालसावत्तवंदणं दाविय, भणावेइ -'इच्छाकारेण तुन्भे अम्हं पंचमंगलमहासुयक्खंधाइउवहाणतवं उद्दिसह' । गुरू भणइ -'उद्दिसामो' । सीसो 'इच्छं' इति भणिय, वंदिय, भणइ -'संदिसह किं भणामो'। गुरू भणइ –'वंदित्ता पवेयह' । सीसो 'इच्छंति भणिय, खमासमणेणं वंदिय, भणइ -'इच्छाकारेण तुम्भेहिं अम्हं पंचमंगलमहासुयक्खंधाइउवहाणतवो उद्दिट्टो ?' । तओ गुरू वासे खिवंतो आह-'उद्दिट्टो' । ३ खमासमणाणं । हत्थेणं सुत्तेणं अत्थेणं तदुभएणं ॥ सम्म जोगो कायबो । सीसो भणइ -'इच्छामो अणुसट्टि' । तओ वंदिय भणइ -'तुम्हाणं पवेइयं; संदिसह साहूणं पवेएमि' । गुरू भणइ -पवेयह' । तओ वंदिय, नम्मोक्कारं भणंतो पयक्खिणं करेइ । अणेण विहिणा अन्ने वि दो वारे पयक्खिणं करेइ । चउविहो वि संघो तस्सुत्तमंगे वासे अक्खए य खिवह । तओ खमासमणं दाउं भणइ -'तुम्हाणं पवेइयं, साहूणं पवेइयं; संदिसह काउस्सग्गं करेमि' । गुरू भणइ-'करेह' । तओ वंदिय खमासमणेणं भणइ –'पंचमंगलमहासुयक्खंधाइउवहाणतवउद्देसनिमित्तं करेमि काउस्सगं । अन्नत्थ ऊससिएणं' इच्चाइ । उज्जोअगरं चिंतिय सागरवरगंभीरा जाव पारिय, चउविसत्थयं पढइ । तओ पंचमंगलमहासुयक्खंघाइउवहाणतवउद्देसनंदिथिरीकरणत्थं अहुस्सासं उस्सगं काउं नमोकारं भणिता, खमासमणदुगदाणपुवं पुत्तिं पहिय वंदणं दाउं भणइ -'इच्छाकारेण संदिसह, पवेयणं पवेयहं' । गुरू भणइ - पवेयह' । तओ वंदिय भणइ -'पंचमंगलमहासुयक्खंधदुवालसमपवेसनिमित्तु' तपु करहं । गुरू भणइ -'करेह' । वंदिय उववासाइतवं करेइ, वंदणं देइ । तम्मि चेव समए पोसहं करेइ सज्झाए वा. करेइ । तत्थ पोसहविही सबो वि कीरइ । - - * 'उक्खिवावणियं नंदिपवेसावणियं करेमि । इति B टिप्पणी। + 'ईयाँ प्रतिक्रम्य मुखत्रिको प्रतिलिस्य । इति B टिप्पणी। 1A अनत्थूससिएण। 2 B निमित्तं तवु । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रपा ६९. एवं सेसेसु वि दिणेसु नंदिवजं गुरुसगासे पोसहं सामाइयं च करेइ, पोसहकरणविहिणा। सो य इमो-इरियं पडिक्कमिअ आगमणमालोइय खमासमणदुगेणं पोसहमुहपोत्तिं पडिलेहित्ता, पढमखमासमणेणं 'पोसहं संदिसावेमि' । बीयखमासमणेणं 'पोसहं ठामि' । पुणो तइयखमासमणं दाउं नवकारतिगं भणिय,'करेमि भंते पोसहं । आहारपोसहं देसओ, सरीरसक्कारपोसहं सबओ, बंभचेरपोसहं सबओ, अवावारपोसहं सबओ। चउबिहे पोसहे सावजं जोगं पच्चक्खामि जाव अहोरत्तं पज्जुवासामि । दुविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए काएणं, न करेमि न कारवेमि, तस्स भंते पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि'-इइ दंडगं वारतिगं भणइ । तओ इरियावजं पुबविहिणा सामाइयं गिण्हइ। तओ मुहपोत्तिं पडिलेहिय दुवालसावत्तवंदणं दाउं भणइ -'इच्छाकारेण संदिसह पवेयणं पवेयहं'। जो पुण पुढो पडिकंतो सो दुवालसावत्तवंदणेण आलोयणं, दुवालसावत्तवंदणेण य खमासमणं काउं, दुवालसावत्तवंदणेण पवेयणं पवे. ॥ इए । तओ वंदिउं भणइ-पंचमंगलमहासुयक्खंधउवहाणदुवालसमपवेसनिमित्त तपु करहं'। तओ गुरू भणइ -'करेह' । तओ 'इच्छंति भणिय, वंदिय, पञ्चक्खाणं काउं, खमासमणदुगेण बहुवेलं संदिसाविय, खमासमणदुगेण सज्झायं, खमासमणदुगेण बइसणं च संदिसाविय, वंदणयं देइ । तओ गुरुणा सुहतवे पुच्छिए 'देवगुरुपसाएण'त्ति भणइ । एसो पभायसमये विही कीरइ । जओ पउणपहरमज्झे पवेयणं न पवेएइ, तओ सो दिवसो गलइ त्ति । उवहाणवाही पाभाइयपडिक्कमणे नवकारसहियं चेव पच्चक्खंति । Is 'उग्गए सूरे नवकारसहियं पञ्चक्खामि' इच्चाइ । तओ चरमपोरिसीए गुरुसमीवमागम्म इरियावहियं पडिक्कमिय, आगमणं आलोइय, खमासमणदुगेण पुत्ति पडिलेहिय, दुवालसावत्तवंदणं दाउं, आलोयणं खामणं च *पच्चक्खाणं च करिय, खमासमणदुगेण उवहि-थंडिल-पडिलेहूणं संदिसाविय, खमासमणदुगेण सज्झायं संदिसाविय, खमासमणदुगेण बइसणं संदिसाविय, कट्ठासणं पाउंछणं वा पडिलेहिय, दुवालसावत्तवंदणं देइ । एसो चरमपोरिसीए विही । 20 सेसविही जहा पोसहविहीए भणिओ तहा कीरइ । ६१०. तओ दुवालसमतवे पडिपुन्ने वायणा दिज्जइ । तत्थ एसो विही- पुत्ति पेहाविय, वंदणं दाविय, गुरू भणावेइ-'इच्छाकारेणं संदिसह पंचमंगलमहासुयक्खंधवायणापडिगाहणत्थं काउस्सग्गं करावेह' । गुरू भणइ-'करावेमो' । तओ 'इच्छंति भणिय, खमासमणेणं वंदिय, भणइ-पंचमंगलमहासुयक्खंधवायणापडिगाहणत्थं करेमि काउस्सग्गं । अन्नत्थ ऊससिएणं'–इच्चाइ जाव-वोसिरामि'त्ति भणिय, सागरवरगंभीरा ॐ जाव उज्जोयगरं चिंतिय, नमोक्कारेण पारिय, उज्जोयगरं भणिय, खमासमणं दाउं, भणइ –'इच्छाकारेण पंचमंगलमहासुयखंधवायणापडिगाहणत्थं चेइयाई वंदावेह' । गुरू भणइ -'वंदावेमो' । तओ सक्कत्थयं भणिय खमासमणेण वंदिय, सीसो भणइ-'इच्छाकारेण संदिसह वायणं संदिसावेमि'। बीयखमासणेण 'वायणं पडिगाहेमि' । गुरू भणइ-पडिगाहेह' । तओ 'इच्छंति भणिय, खमासमणं दाउं, उभयकरविहिगहियमुहपोत्तियाथइयमुहकमलस्स, अद्धोणयकायस्स सीसस्स तिक्खुत्तो पंचनमुक्कारं कड्डिय पंचण्हं * अज्झयणाणं पढमा वायणा दिजइ। तओ दिनाए वायणाए तस्सुत्तमंगेसु गुरू वासे खिवइ । तओ सीसो वंदिय सज्झायमाइ करेइ । तओ अट्टहिं आयंबिलेहिं तिहिं उववासेहिं कएहिं बीया वायणा तिण्हं चूलाअज्झयणाणं दिजइ । 1 B मुहपुत्ति। * A खामणं च करिय खमासमणपुर्व पञ्चक्खिय। 2 B मुहपुत्ति । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपधानसामाचारी। ६११. एयस्स चेव निक्खिवणविही वोच्चइ-सीसो गुरुसमीवमागम्म इरियावहियं पडिक्कमिय, गमणागमणं आलोइय, खमासमणदुगदाणपुवं पुत्ति पेहिय दुवालसावत्तवंदणं दाउं, भणइ -'इच्छाकारेण तुब्भे अम्हं पंचमंगलमहासुयक्खंधउवहाणतवं निक्खिवह' । गुरू भणइ - निक्खिवामो' । सीसो 'इच्छंति भणिय, खमासमणेण वंदिय, भणइ -'इच्छाकारेण संदिसह पंचमंगलमहासुयक्खंधाइउवहाणता निक्खिवणत्थं काउस्सग्गं करावेह' । गुरू भणइ -'करावेमो' । 'इच्छंति भणिय खमासमणेण वंदिय, पंचमंगल.. महासुयक्खंधाइउवहाणतवनिक्खिवणत्थं करेमि काउस्सग्गं । अन्नत्थ ऊससिएणं' इच्चाइ जाव 'वोसिरामिति । तत्थ नवकारं चिंतिय, पारिय, नमोक्कारं पढिय, खमासमणेण वंदिय, भणइ -'इच्छाकारेण संदिसह पंचमंगलमहासुयक्खंधाइउवहाणतवनिक्खिवणत्थं चेइयाई वंदावेह' । गुरू भणइ -'वंदावेमो' । तओ सक्कत्थयं भणिय, दुवालसावत्तवंदणं दाउं, 'पवेयणं पवेयह'त्ति भणिय, पडिपुण्णा विगइपारणगेणं पच्चक्खइ । तओ पोसहं सामाइयं च पारिय, खमासमणं दाउं, भणइ –'उपधाण मज्झि अविधि आसातना ॥ मनि वचनि काइ ज कोई कोई तहिं मिच्छामि दुकडं' । ॥ उवहाणनिक्खिवणविही समत्तो ॥६॥ ६१२. इयाणि उवहाणसामायारी भण्णइ । पंचमंगलमहासुयक्खंधे पढमं दुवालसमं पुश्वसेवाए । तओ पंचण्डं अज्झयणाणं वायणा दिज्जइ ॥१॥ तत्थ पुण सचे अज्झयणा अट्ट, आयंबिलढगेणं उववासतिगेणं । तओ तिण्डं चूलाअज्झयणाणं 15 वायणा दिज्जइ । इत्थ उववासतिगं उत्तरसेवाए ॥२॥ ॥ पंचमंगलउवहाणं समत्तं ॥ ६१३. एवं इरियावहियासुयक्खंधे वि अट्ट अज्झयणा । तिण्णि चरिमाणि चूला भण्णइ । सेसं जहा पंचमंगलमहासुयक्खंधे । दोसु वि दो दो वायणाओ। उत्तरिल्लेसु चउसु एगा पुवसेवा । अंते उववासाभावाओ उत्तरसेवा नत्थि ॥३॥ ___ भावारिहंतत्थए पढमं अट्ठमं, तओ तिण्हं संपयाणं वायणा दिज्जइ । १ । पुणो बत्तीस आयंबिलाणि । सोलसहिं गएहिं तिण्हं संपयाणं वायणा दिजइ । २ । अन्नेहिं सोलसहिं गएहिं तिण्हं संपयाणं वायणा दिज्जइ । चरमगाहाए वि वायणा दिज्जइ । ३ । सक्कत्थए सबाओ तिण्णि वायणाओ। नवरं सक्कत्थए 'नमोत्थुणं वियदृछ उमाणमुत्तु'मिति वयणा सेसा बत्तीसं पया बत्तीसं हुंति अज्झयणा। ठवणारिहंतत्थए आईए चउत्थं, तओ तिन्नि आयंबिलाणि, तओ अंते तिण्हवि अज्झयणाणं एगा । वायणा दिज्जइ । अज्झयणतिगं च इमं–'अरिहंतचेइयाणं...जाव...निरुवसग्गवत्तियाए' । १ । 'सद्धाए... जाव... ठामि काउम्सग्गं' । २ । 'अन्नत्थऊससिएणं...जाव...वोसिरामि' । ३ । * ॥ ४ ॥ नामाअरिहंतचउविसत्थए आईए अट्टमं । तओ चउरतिसयसिलोगस्स पढमा वायणा दिजइ । १ । पुणो पंचवीसं आयंबिलाणि । बारसहिं गएहिं अट्ठनाम गाहातिगस्स बीया वायणा दिजइ । २। पुणोवि तेरसहिं गएहिं पणिहाण-गाहातिगस्स तइया वायणा दिज्जइ । ३ । नवरं छहिं रूवगेहिं चउवीसं ॥ अम्झयणा, पंचवीसइमं सत्तम-सबगाहाए । ४ । * ॥ ५॥ 1B मुहपुत्ति। 2 B पडिलेहिय । । एतद्विदण्डान्तर्गता पंक्ति पलभ्यते A आदर्श । 3 B उवहाण मजो। 4 B °सेवाओ। विधि०२ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रपा। दवारिहंतसुयथए पढमं चउत्थं, तओ पंच आयंबिलाणि, अंते एगा वायणा दिजइ । १ । नवरं अन्झयणाई तिहिं रूवगेहिं तिन्नि, चउत्थरूवगे दोहिं पाएहिं चउत्थमज्झयणं, अन्नेहिं दोहिं पंचमं ॥६ सवत्थ जत्थ जेत्तियाणि अंबिलाणि तत्थ तेत्तियाणि अज्झयणाणि भवंति । सिद्धत्थथुईए उवहाणं विणावि मालादिणकओववासस्स तिण्डं गाहाणं वायणा दिज्जइ । न उण गाहादुगस्स । जेण बोडियपरिग्ग। हियउजिततित्थसंगहत्थं । दाहिणदारपविठ्ठ-सिरिगोयमगणहरवंदिय-अट्ठावय-सीहनिसीहिइचेइयट्ठियजिणबिंबकमउवदसणत्यं च पच्छा वुड्डेहिं कयं ति अन्ने भणंति । एयस्स वि एगा परिवाडी दिजइ । वायणा किर सम्वत्थ परिवाडीतिगेणं दिज्जइ । एयस्स पुण गाहादुगस्स एगा चेव परिवाडि ति भावत्यो । • संपयं पुण जहोत्ततवोविहाणअसामत्था एगविगइगहण-एगासण-पारणगंतरिया दस उववासा पंचमंगलमहासुयक्खंधे कीरति । जओ दुवालसमट्ठमेहिं अट्ठ उववासा, आयंबिलढगेणं चत्तारि, मिलिया ॥ बारस उववासा पंचमंगलमहासुयक्खंधे । जयावि दस एगासणा, दस उववासा, तयावि चउहिं एगासणेहिं उववासो ति दुवालसोववासा साइरेगा जायंति ति परमत्थओ सो चेव तवोवीही । एवं च वीसं पोसहदिणाई भवंति । अओ चेव 'वी स डं ति' भण्णइ । जो य असहू पारणगे दोक्कासणं करेइ तस्स इकारस उववासा । अट्ठहिं दोक्कासणेहिं च एगो उववासो । एवं दुवालस ॥ एवं चेव इरियावहियासुयक्खंधे वि ॥ भावारिहंतत्थए पणतीसं पोसहदिणाई उववासा इगुणवीसं पारणएहिं सह पूरिज्जति ।। 15 एवं ठवणारिहंतत्थए अड्डाइज्जा उववासा चत्तारि पोसहदिणाई । एयं च उवहाणदुगं एगट्ठमेव वहिज्जइ । अओ चेव एगूणत्ते वि रूढीए ‘चा ली स डंति भण्णइ । उक्खेव-निक्खेवा पुण पुढो पुढो कायवा ॥ नामारिहंतत्थए अट्ठावीसपोसहदिणा पन्नरस उववासा पारणेहिं सह पूरिजंति । अओ चेव 'अ हा वी स डंति रूढं । एवं सुयत्थए अद्भुट्ठ उववासा छप्पोसहदिणाई । अओ चेव 'छ क डं 'ति भण्णइ । ७ साहु-साहुणीओ य निविगइ-आयंबिलोववासेहिं जहुत्तोववाससंखं पूरंति । न उण तेसिं दिणसंखानियमो विगइपवेसो वा ॥ ॥ उवहाणसामायारी समत्ता ॥ ६१४. संपयं एय उज्जमणरूवो मालारोवणविही भण्णइ । तत्थ पुल्लिो चेव नंदिकमो । *नाणतं पुण एयं । मालागाही भवो मालादिणाओ पुवदिणे परमभत्तीए वत्थासणाइणा पडिलाभियसाहु-साहुणिवमो, विहियसाहम्मियवत्थतंबोलाइपवरवच्छलो, पत्ते य पसत्थतिहि-करण-मुहुत्त-नक्खत्त-जोग-लग्ग-चंदव. लोवेए मालादिणे नियविहवाणुरूवं कयजिणपूओवयारोपक्खेव-बलिनिक्खेवपुर्व विरइयविसिट्ठ-उचियणेवत्थो मेलियनीसेसमाया-पिउमाइबंधुजणो कय-साहु-साहम्मियवंदणो सन्निहीकयपउरगंध-चंदण-अक्खय-नालिकेराइपसत्यवत्थू अखंड-अक्खय-नालिकेरसणाहकरंजली तिपयाहिणीकयसमोसरणो खमासमणपुवं भणइपंचमंगलमहासुयक्खंध-पडिक्कमणसुयक्खंध-चीवंदणसुत्तअणुजाणावणियं वासनिक्खेवं करेह, देवे वंदावेह' ति । तओ गुरुणा अहिमंतियसिरोविन्नत्थगंधो जिणपडिमानिच्चलीकयदिट्ठी जिणमुद्दाइविहिणा पए पए सुतत्थं भाविंतो सद्धासंवेगपरमवेरग्गजुत्तो पवड्डमाणसुहपरिणामो भत्तिभरनिन्भरो हरिसुल्लसियरोमंचो गुरुणा चउबिहसंघेण य सद्धिं समोसरणपुरो वड्डमाणथुईहिं देवे वंदेइ । जाव परमिट्टिथुत्तभणमाणंतरं उहिता पंचमंगलमहासुयक्खंध-पडिक्कमणसुयक्खंध-भावारिहंतत्थय-ठवणारिहंतत्थय-चउवीसत्थय-नाणत्थय-सिद्धत्थय-अणुजाणावणियं नंदिकड्डावणियं सत्तावीसूस्सास काउस्सग्गं दो वि करति । पारित्ता, * एतद्विदण्डान्तर्गतः पाठः पतितः B आदर्श। * विशेषः पुनः' इति A टिप्पणी । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपधानविधि। ११ चउवीसत्थयं भणित्ता, नवकारतिगं भणितु,-'नाणं पंचविहं पण्णत्तं तं जहा-आभिणिबोहियनाणं, सुयनाणं, ओहिंनाणं, मणपज्जवनाणं, केवलनाणं,...जाव...सुयनाणस्स उद्देसो समुद्देसो अणुन्ना अणुओगो पवत्तइ'इति मंगलत्थं नंदि कट्ठिय सूरी निसिज्जाए उवविसिय 'भो भो देवाणुप्पिय' इच्चाइगाहाहिं, अह वा कल्लाणकंदकंदलकारणमइतिक्खदुक्खनिद्दलणं। सम्मइंसणरयणं सिवसुहसंसाहगं भणियं ॥१॥ तस्स य संसिद्धिविसुद्धिसाहगं बाहगं विवक्खस्स । चिइवंदणमिह वुत्तं तस्सुवहाणं अओ वुत्तं ॥२॥ लोए वि अणेगंतियपयत्थलंभे निहाणमाइम्मि । पुरिसा पवत्तमाणा उवहाणपरा पयति ॥ ३ ॥ किं पुण एगंतियमोक्खसाहगे सयलमंतमूलम्मि । पंचनमोकाराईसुयम्मि भविया पयता ॥४॥ किंच-कप्पियपयत्थकप्पणपउणा वरकप्पपायवलया वि। पाविजइ पाणीहिं ण उणो चीवंदणुवहाणं ॥५॥ लाभंमि जस्स नूणं दसणसुद्धिवसेणनिमिसेणं । करतलगय व जायइ सिद्धी धुवसिद्धिभावस्स ॥ ६ ॥ धन्ना सुणंति एवं मुणंति धन्ना कुणंति धन्नयरा। जे सद्दहंति एयं ते विहु धन्ना विणिहिट्ठा ॥७॥ कम्मक्खओवसमेणं गुरुपयपंकयपसायओ एयं । तुन्भेहिं सुयं मुणियं सहहियमणुट्टियं विहिणा ॥८॥ इच्चाइगाहाहिं देसणं करित्ता तिसंझं चेइय-साहुवंदणाभिग्गहं देइ । तओ वासक्खए अभिमतेइ | 24 तम्मि समये सुरहिगंधड्डा अमिलाणसियपुप्फमाला सत्सरिया जिणपडिमापाओवरि विण्णसणीया । तओ उट्ठाय सूरी जिणपाए सुगंधे खिविय चउविहसंघस्स वासक्खए देइ । तओ मालागाही वंदित्ता भणइ'इच्छाकारेण तुम्भे अम्हं पंचमंगलमहासुयक्खंघ अणुजाणह' । गुरू भणइ-'अणुजाणामो' । तओ सीसो वंदिय भणइ-'संदिसह किं भणामो ?' । गुरू भणइ-वंदित्ता पवेयह' । पुणो वंदिय सीसो भणइ'इच्छाकारेण तुम्भे अम्हं पंचमंगलमहासुयक्खंधो अणुन्नाओ ?' । तओ गुरू वासे खिवंतो भणइ-'अणु- 23 नाओ' ।३ खमासमणाणं । हत्थेणं सुत्तेणं, अत्थेणं, तदभएणं, 'सम्म धारणीओ, चिरं पालणीओ, साहं पइ पुणु अन्नेसि पि पवेयणीओ त्ति' । सीसो भणइ-'इच्छामो अणुसहि'। सीसो वंदिय भणइ-'तुम्हाणं पवेइयं, संदिसह साहूणं पवेएमि' । गुरू भणइ-पवेयह' । तओ वंदिय, नमोक्कारं भणंतो पयक्खिणं देइ । संघो गुरू य तस्स सिरे वासे अक्खए य खिवइ; 'नित्थारगपारगों होहि'त्ति भणिरो । एवं पढमा पयक्खिणा ॥ १ ॥ 'इरियावहियासुयक्खं, अणुजाणह'-अणेण अभिलावेण सधे आलावगा भणिज्जंति । " बीया पयक्खिणा ॥ २ ॥ भावारिहंतत्थयं अणुजाणह'-अणेण तईया पयक्खिणा ॥ ३ ॥ 'ठवणारिहंतत्थयं अणुजाणह'-अणेण चवथी पयक्खिणा ॥ ४ ॥ नामारिहंतत्थयं अणुजाणह'-अणेण पंचमी पयक्खिणा ॥ ५॥ 'सुयत्थयं अणुजाणह'-अणेण छट्ठी पयक्खिणा ॥ ६॥ 'सिद्धत्थयं अणुजाणह'-अणेण सत्तमी पयक्खिणा ॥ ७ ॥ सत्तमु य पयक्खिणासु सत्त गंधमुट्ठीओ हवंति । अन्ने अक्खयदाणाणंतरं एगहेलाए चिय सत्त गंधमुट्टीओ दिति ति ॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रपा । तओ खमासमणं दाउं सीसो भणइ-'तुम्हाणं पवेइयं, साहूणं पवेइयं, संदिसह काउस्सग्गं कारवेह' । गुरू भणइ-'करावेमो' । तओ खमासमणं दाउं–'पंचमंगलमहासुयक्खंधाइअणुन्नानिमित्त करेमि काउस्सगं' । उज्जोयं चिंतिय, तं चेव पढिय, खमासमणं दाउं भणइ-'इच्छाकारेणं तुब्मे अम्हं उवहाणविहिं सुणावेह' । तओ सूरी उद्धढिओ उवहाणविहिं वक्खाणेइ । । ६१५. सो य इमो पंच नमोकारे किल, दुवालस तवो उ होइ उवहाणं । अह य आयामाई, एग तह अट्ठमं अंते ॥१॥ एवं चिय निस्सेसं इरियावहियाइ होइ उवहाणं । सक्कथयमि अहममेगं बत्तीस आयामा ॥२॥ अरहंतचेइयथए उवहाणमिणं तु होइ कायचं । एगं चेव चउत्थं तिन्नि अ आयंबिलाणि तहा ॥३॥ एग चिय किर छटुं चउत्थमेगं च होह कायवं । पणवीसं आयामा चउवीसथयंमि उवहाणं ॥४॥ एगं चेव चउत्थं पंच य आयंबिलाणि नाणथए । चिइवंदणाइसुत्ते उवहाणमिणं विणिदिह ॥५॥ अवावारो विगहाविवजिओ रुद्दझाणपरिमुक्को। विस्सामं अकुणतो उवहाणं वहई' उवजुत्तो॥६॥ अह कहवि होज बालो वुड्डो वा सत्तिवजिओ तरुणो। सो उवहाणपमाणं पूरिजा आयसत्तीए ॥७॥ राईभोयणविरई दुविहं तिविहं चउविहं वावि । नवकारसहियमाई पचक्खाणं विहेऊण ॥८॥ एक्केण सुद्धअच्छंबिलेण इयरेहिं दोहिं उववासो। नवकारसहियएहिं पणयालीसाए उववासो॥९॥ पोरसिचउवीसाए होइ अवहेहिं दसहिं उववासो। विगईचाएहिं छहिं एगट्ठाणेहिं य चऊहिं ॥१०॥ जीएण निवियतियं पुरिमड्डा सोलसेव उववासो। एक्कासणगा चउरो अट्ठ य बिकासणा तह य ॥११॥ भयवं! पभूयकालो एव करेंतस्स पाणिणो होजा । तो कहवि होज मरणं नवकारविवजियस्सावि ॥१२॥ नवकारवजिओ सो निवाणमणुत्तरं कह लभिज्जा। तो पढम चिय गिण्हइ, उवहाणं होउ वा मा वा ॥१३॥ गोयम ! जं समयं चिय सुओवयारं करिन सो पाणी। तं समयं चिय जाणसु गहियतयटुं जिणाणाए ॥ १४ ॥ एवं कयउवहाणो भवंतरे सुलभबोहिओ होजा।। एयज्झवसाणो वि हु गोयम! आराहगो भणिओ ॥१५॥ 1B कुणइ। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ उपधानविधि । जो उ अकाऊणमिमं गोयम ! गिहिन भत्तिमंतो वि । सो मणुओ दद्ववो अगिण्हमाणेण सारिच्छो ॥१६॥ आसायइ तित्थयरं तवयणं संघ-गुरुजणं चेव । आसायणबहुलो सो गोयम ! संसारमणुगामी ॥ १७॥ पढम चिय कन्नाहेडएण जं पंचमंगलमहीयं । तस्स वि उवहाणपरस्स सुलहिया बोहि निविट्ठा ॥ १८॥ इय उवहाणपहाणं निउणं सर्व पि वंदणविहाणं । जिणपूयापुवं चिय पढिज सुयभणियनीईए ॥ १९ ॥ तं सर-वंजण-मत्ता-बिंदु-परिच्छेयठाणपरिसुद्धं । पढिऊणं चियवंदणसुत्तं अत्थं वियाणिज्जा ॥२०॥ तत्थ वि य जत्थे य सिया संदेहो सुत्त-अत्थविसयंमि । तं बहुसो वीमंसिय सयलं निस्संकियं कुणसु ॥२१॥ अह सोहणतिहि-करणे मुटुत्त-नक्वत्त-जोग-लग्गमि । अणुकूलंमि ससिबले *सस्से सस्सेयसमयंमि ॥२२॥ निययविहवाणुरूवं संपाडियभुवणनाहपूएणं । फुडभत्तीए विहिणा पडिलाहियसाहुवग्गेण ॥ २३ ॥ भत्तिभरनिन्भरेणं हरिसवसोल्लसियबहलपुलएणं । सद्धा-संवेग-विवेग-परमवेरग्गजुत्तेणं ॥ २४॥ निट्ठियघणराग-दोस-मोह-मिच्छत्त-मलकलंकेणं । अहउल्लसंतनिम्मलअज्झवसाएण अणुसमयं ॥ २५॥ तिहुयणगुरुजिणपडिमाविणिवेसियनयणमाणसेण तहा। जिणचंदवंदणाए धन्नोऽह्मी मन्नमाणेण ॥ २६ ॥ निययसिररहयकरकमलमउलिणा जंतुविरहिओगासे । निस्संकं सुत्तत्थं पयं पयं भावयतेण ॥ २७ ॥ जिणनाहदिवगंभीरसमयकुसलेण सुहचरित्तेणं । अपमायाईबहुविहगुणेण गुरुणा तहा सद्धिं ॥ २८ ॥ चउविहसंघजुएणं विसेसओ निययबंधुसहिएणं । इय विहिणा निउणेणं जिणबिंबं वंदणिज च॥२९॥ तयणंतरं गुणड्ढे साहू वंदिज परमभत्तीए। साहम्मियाण कुज्जा जहारिहं तह पणामाई ॥ ३०॥ जाव य महग्घ-माउक-चोक्ख-वत्थप्पयाणपुवेणं । पडिवत्ति विहाणेणं कायद्यो गुरुयसम्माणो ॥ ३१ ॥ एयावसरे गुरुणा सुविइयगंभीरसमयसारेण । अक्खेवणि-विक्खेवणि-संवेयणिपमुह विहिणा उ॥ ३२॥ * 'प्रशस्ये' इति A टिप्पणी। 1B तु। १ 'मृदुत्व' इति A टिप्पणी। 2A पडि वित्ति। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषिप्रपा । भवनिवेयपहाणा सद्धासंवेगसाहणे पउणा। गुरुएण पर्वघेणं धम्मकहा होइ कायदा ।। ३३ ॥ सद्धासंवेगपरं सूरी नाऊण तं तओ भई ।। चिइवंदणाइकरणे श्य 'वयणं भणइ निउणमई ॥ ३४ ॥ भो भो देवाणंपिय ! संपावियसयलजम्मसाफल ।। तुमए अन्नप्पमिई तिकालं जावजीवाए ॥ ३५॥ वंदेयवाइं चेहयाई एगग्गसुथिरचित्तेणं । खणमंमुराओं मणुयत्तणाओं इणमेव सारं ति ॥ ३६ ।। तत्थ तुमे पुवण्हे पाणं पि न चेव ताव पेयर्छ । नो जाव घेइयाई साहू विय वंदिया विहिणा ॥ ३७॥ मन्मण्हें पुणरवि वंदिऊण नियमेण कप्पए भोत्तुं ।। अवरण्हे पुणरवि वंदिऊण नियमेण सयणं ति ॥ ३८ ॥ एक्ममिग्गहषधं काउं तो वद्धमाणविजाए। अभिमंतिऊण गेण्हा सत्त गुरू गंधमुट्ठीओ ॥ ३९ ॥ तस्सोत्तमंगदेसे 'नित्थारगपारगो भविज'त्ति । उच्चारेमाणु चिय निक्खिवइ गुरू सुपणिहाणं ॥ ४०॥ एयाए विवाए पभावजोगेण जोस किर भयो। अहिगयकजाण लहुं नित्थारगपारगो होइ ॥ ४१ ॥ अह चउविहो वि संघो 'नित्थारगपारगो भविज तुमं धन्नो। सुलक्षणों जंपिरो त्ति से निक्खिवइ गंधे ॥ ४२ ॥ तत्तो जिणपडिमाए पूया देसाउ सुरहि गंधहूं । अमिलाणं सियदामं गिण्हिय विहिणा सहत्थेणं ॥४३॥ तस्सोमयखंघेसं आरोवितेण सुद्धचित्तेणं । निस्संदेहं गुरुणा वत्तवं एरिसं वयणं ॥ ४४ ॥ 'भो भो सुलद्धनियजम्म ! निचियअइगुरुअ-पुण्णपन्भार !। नारय-तिरियगईओ तुज् अवस्सं निरुद्धाओ॥ ४५ ॥ नो बंधगो य सुंदर ! तुममित्तो अयस-नीयगोत्ताणं । न य दुलहो तुह जम्मंतरे वि एसो नमोकारो॥ ४६ ॥ पंचनमोक्कारपभावओ य जम्मंतरे वि किर तुझ । जातीकुलरूवारोग्गसंपयाओ पहाणाओ॥४७॥ अन्नं च इमाउ चिय न हुंति मणुया कयावि जियलोए। दासा पेसा दुभगा नीया विगलिंदिया चेव ॥४८॥ किं बहुणा जे गोयम ! विहिणा एवं सुयं अहिजित्ता । सुयमणियविहाणेणं सुद्धे सीले अभिरमिज्जा ॥ ४९ ॥ 1 वने । 2 B °साफला। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालारोपणविधि। से जह नो तेणं चिय भवेण निशाणमुत्तमं पत्ता। ताऽणुत्तरगेविज्वाइएसु सुइरं अभिरमेडं ॥५०॥ उत्तमकुलंमि उकिट्ठलट्ठसवंगसुंदरा पयडी। सयलकलापत्तट्ठा जणमणआणंदणा होउं ॥५१॥ देविंदोवमरिद्धी दयावरा विणयदाणसंपन्ना। निविनकामभोगा धम्म सयलं अणुढेउं ॥५२॥ सुहशाणानलनिवघाइकम्भिधणा महासत्ता । उपन्नविमलनाणा विहुयमला झत्ति सिझंति ॥५३॥ इय विमलफलं सुणिउं जिणस्स मह मा ण दे व सू रि स्स । वयणा उवहाणमिणं साहेह महानिसीहाओ॥ ५४॥ ॥उवहाणविही समत्तो ॥७॥ ६१६. तओ मालोववूहणं करेह । जहा सावनकजवजणनिहुरणुट्ठाणविहिविहाणेण । दुक्करउवहाणेणं विजा इव सिज्झए माला ॥१॥ परमपयपुरीपत्थियपवयणपाहेयपाणिपहियस्स। पत्थाणपढममंगलमाला पयडा परमपसवा ॥२॥ संतोसखग्गदारियमोहरिउत्तेण रुद्ध विसयस्स । आणंदपुरपवेसे वंदणमाला जियनिवस्स ॥३॥ अहवा दुजोह-मय-मोह-जोहविजयत्थमुज्जमपरस्स । जीवनोहस्सेसा रणमाला इव सहइ माला ॥४॥ समत्त-नाण-दसण-चरित्तगुणकलियभवजीवस्स। गुणरंजियाइ एसा सिद्धिकुमारीइ वरमाला ॥५॥ माला सग्गपवग्गमग्गगमणे सोवाणवीही समा, एसा भीमभवोयहिस्स तरणे निच्छिद्दपोओवमा। एसा कप्पियवत्थुकप्पणकए संकप्परुक्खोवमा, एसा दुग्गइदुग्गवारपिणा गाढग्गला देहिणं ॥ ६॥ जह पुडपायविसुद्धं रयणं ठाणं वरं लहइ तह य । तवतवणुतवियपावो परमपयं पावए पाणी ॥ ७॥ जह सूरसमारुहणे कमेण छिजंति' सयलछायाओ। तह सुहभावारुहणे जीवाणं कम्मपयडीओ॥ ८॥ दाणं सीलं तव-भावणाओ धम्मस्स साहणं भणिया। ताओ एय विहाणे बहु पडिपुन्नाओं नायवा ॥९॥ * 'शोभते' इति A टिप्पणी। 1 B छनति । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रपा। - इच्चाइ । इत्थंतरे सुनेवले.हिं मालागाहिणो बंधवेहिं जिणनाहपूयाऽऽदेसाओ अणुजाणावित्तु माला आणेयथा । संपइ सुत्तमई रत्तवत्थुच्छया माला कीरइ । सूरी य तत्थ वासे खिवेइ । तओ तब्बंधवहत्थेण तस्स भवस्स कंठे माला पखेवणीया । इत्थ केई भणंति-'पक्खित्तमाला समोसरणे पयाहिणाचउक्कं दिति संघो य तस्सीसे वासक्खए खिवइ'त्ति । तओ पंचसद्दे वजते मालागाहिणो जिणग्गओ सपरियणा नचंति, # दाणं च दिति । आयंबिलं उपवासो वा तस्स तम्मि दिणे पच्चक्खाणं । संपयं उववासो कारविजइ ति दीसइ । तओ आरत्तियमाइ सावया कुणंति । तओ महयाविच्छड्डेणं सावय-सावियाओ मालागाहिणं गिहे नेति । सो वि गिहागयाण तेसिं ससत्तीए वत्थ-तंबोलाइ देइ । जइ पुण वसहीए नंदीरयणा कया, तओ चेहरे समुदाएण गम्मइ ति, सा य माला घरपडिमाअग्गओ ठाविया छम्मासं जाव पूइज्जइ ति ॥ ॥ मालारोवणविही समत्तो ॥८॥ ॥ ६१७. इत्थ केई उदम्गकुग्गाहगहियचित्ता महानिसीहसिद्धंतमवमन्नंता उवहाणतवं न मन्नति चेव । तओ य तेसिं जुत्तिआभासेहिं भावियमइणो* सीसा मा मिच्छत्तं गमिहिंति त्ति परिभाविय पुवायरिएहिं उवहाणपइट्टापंचासयं नाम पगरणं विरइयं तं च सीसाणमणुग्गहठ्ठाए इत्थ पत्थावे लिहिज्जइ । नमिऊण वीरनाहं, वोच्छं नवकारमाइ उवहाणे । किं पि पइट्ठाणमहं विमूढसंमोहमहणत्थं ॥१॥ जं सुत्ते निद्दि पमाणमिह तं सुओवयाराइ। आयाराईणं जह जहुत्तमुवहाणनिवहां ॥२॥ वुत्तं च सुए नवकार-इरिय-पडिक्कमण-सक्कथयविसयं । चेय-चउवीसत्थय-सुयथएखंच उवहाणं ॥३॥ किं पुण सुत्तं तं इह जत्थ नमोकारमाइउवहाणं । उवइह आह गुरू, महानिसीहक्खसुयखंधे ॥४॥ एसो वि कह पमाणं नंदीए हंदि कित्तणाओ त्ति । जं तत्थेव निसीहं महानिसीहं च संलत्तं ॥५॥ .. अह तं न होइ एयं एवं आयारमाइवि तयन्नं । तुल्ले वि नंदिपाढे को हेऊ विसरिसत्तम्मि ॥ ६ ॥ अह दुब्बलिसूरीणां, पराभवत्थं कयं सवुद्धीए। गोटेणं ति मयं नो इमं पि वयणं अविण्णूणं ॥७॥ पुट्ठमबद्धं कम्मं अप्परिमाणं च संवरणमुत्तं'। जं तेण दुगं एयं तं विय अपमाणमक्खायं ॥ ८॥ सेसं तु पमाणत्तेण कित्तियं गोट्ठमाहिलुत्तं पि। इग-दुगपभेयए चिय जं सुत्ते निण्हवा वुत्ता ॥९॥ किंच न गोहामाहिलकयमेयं नंदिसेणचरिए जं। कह भोगफलं भणिही अवधिओ बद्धपुढे सो ॥१०॥ प्रक्षेपः। * 'भव्या' इति A टिप्पणी। + 'निम्मवण' इति A आदर्श पाठमेदसूचिका टिप्पणी। 1 B°थए सुयं च । 2 B नयतं। 3 B संवरमुत्तं। 4 B°मइमेए । | Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपधानप्रतिष्ठाप्रकरण। अह भूरि मयविरोहा पमाणया नो महानिसीहस्स। लोइयसत्थाणं पिव तहाहि तम्मी अणुचियाई ॥११॥ सत्तमनरयगमाईणि इत्थियाणं पि वणियाई ति। तन्न लिहणाइदोसा संति विरोहा' सुए विजओ ॥ १२ ॥ आभिणियोहियनाणे अट्ठावीसं हवंति पयडीओ। आवस्सयम्मि वुत्तं इममन्नह कप्पभासम्मि ॥ १३॥ नाणमवायधिईओ दसणमिटं च उग्गहेहाओ। एवं कह न विरोहो विवरीयत्तेण भणणाओ॥१४॥ किंच-गइ-इंदियाइसु दारेसु न सम्मसासणं इह । एगिदीणं विगलाण मइ-सुए तं चऽणुन्नायं ॥१५॥ सयगे पुण विगलाणं एगिदीणं च सासणं इ8।। न पुणो मइ-सुयनाणे तहेवमावस्सए वुत्तं ॥ १६ ॥ सीहो तिविद्वजीओ जाओ सत्तममहीओं उबहो। जीवाभिगममएणं मीणत्तं चेव सो लहइ ॥ १७॥ नायासुं पुवण्हे दिक्खा नाणं च भणियमवरण्हे । आवस्सयम्मि नाणं बीयम्मि दिणम्मि मल्लीस्स ॥१८॥ छउमत्थप्परियाओ सड्ढछम्मास-बारससमाओ। मग्गसिर किण्हदसमी दिक्खाए वीरनाहस्स ॥ १९ ॥ वइसाहसुद्धदसमी केवललाभम्मि संभविज कहं । इय 'सत्थेसुं बहवो दीसंति परोप्परविरोहा ॥ २०॥ तस्संभवे वि आवस्सयाइँ सत्याइँ जह पमाणाई । तह किं महानिसीहं धिप्पइ न पमाणबुद्धीए ॥ २१ ॥ अह पंचनमोकाराइयाणमुवहाणमणुचियं भिन्नं । आवस्सयस्स अंतो पाढाओ तहाहि सामइयं ॥ २२॥ नवकारपुवयं चिय कारइ जं ता तयंगमेसो ति। अन्नं च इत्थ अत्थे पयडं चिय कित्तिअं एयं ॥ २३ ॥ नंदिमणुओगदारं, विहिवहुवरघाइयां च नाऊणं । काऊण पंचमंगलमारंभो होइ सुत्तस्स ॥ २४ ॥ इय सामाइयनिजुत्तिमज्झमज्झासिओ इमो ताव । पडिकमणे य पविट्ठो इरियावहियाऍ पाढो वि ॥ २५॥ अरिहंतचेइयाण य वंदणदंडो सुयत्थओ य तहा। काउसग्गज्झयणे पंचमए अणुपविट्ठो ति ॥ २६॥ 1 B विरोहो। 2 B°मितं । 3 B °कण्ह। 4 B सुत्तसुं। 1 विधिपथोद्धातिकं उपन्यास इत्यर्थः ।' इति A टिप्पणी। विधि०३ . 25 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 15 20 25 30 १८ विधिप्रपा । atest read उवीसथओ वि जं विणिद्दिट्ठो । आवस्सयाउ न पिहो जुज्जइ ता तेसिमुवहाणं ॥ २७ ॥ आवस्स ओवहाणे ताणुवहाणं कथं समवसेयं । ओवहाणे य पिहो तक्करणे होइ अणवत्था ॥ २८ ॥ roup उत्तरमिह नवकारो आइमंगलत्तेणं । बुच्चइ जया तयचिय सामइयऽणुप्पवेसो से ॥ २९ ॥ जया य सयण भोयणनिज्जरहेउ' पढिज्जए एसो । तया सतत एव हि गिज्झइ अन्नो सुयक्खंधो ॥ ३० ॥ इह-परलोयत्थीणं सामाइय विरहिओ वि वावारो । दीसह नवकारगओ तदत्थसत्थाणि य बहूणि ॥ ३१ ॥ नवकार पडल- नवकारपंजिया - सिद्धचक्क माईणि । सामाइयंगभावो इमस्स गंतिओ तम्हा ॥ ३२ ॥ पढमुच्चारणमित्ते विणुष्पवेसो हविज्ज सामइए । एयस्स सनहा जइ ता नंदणुओगदाराणं ॥ ३३ ॥ तदणुष्पवेसओ च्चिय तवचरणं नेय जुज्जइ विभिन्नं । दीसइ य कीरमाणं जोगविहीए य भन्नंतं ( भिन्नत्तं ) ॥ ३४ ॥ किं वा भिन्नते सहा वि सामाइयाउ एयस्स । arrr पंचमंगल मिचाई अणुचियं वयणं ॥ ३५ ॥ इय भेयपक्खमणुसरिय जइ तवो कीरई नमोकारे । ता को दोसो नंदणुओगद्दारेसु व हविज्ज || ३६ ॥ इरियावहियाईयं सुयं पि आवस्सयस्स करणम्मि । अणुपविसइ तम्मितयन्नया य भिन्नं हि तेणेव ॥ ३७ ॥ भत्ते पाणे सयणासणाइसुत्तं पि जायइ कयत्थं । तिन्न वि कडइ तिसिलोइयत्थुइच्चाइसुत्तं पि ॥ ३८ ॥ आवस्सए पवेसो जइ एसि सङ्घहावि य हविज्ञ । तो पिढणं एसि सबेसिं कह घडिज त्ति ॥ ३९ ॥ जं च इयरेयरासयदू सणमेवं च बुच्चर इमाण । पाढेण विणा ण तवो तवं विणा नेसिं पाढो ति ॥ ४० ॥ तं पहु असणं जह पवइउमुवट्टियस्सऽणुन्नायं । सामाइयाइयाणं आलावगदाणमतवे वि ॥ ४१ ॥ एवं जइ पढिए वि नवकाराईसु ताणमुवहाणं । सविसेस गुणनिमित्तं कारिज्जइ को णु ता दोसो ॥ ४२ ॥ foresari पि कारिजइ मुक्खदंडयाइतवं । हु सत्थुत्तं पि निसिज्झह उवहाणं ही महामोहो ॥ ४३ ॥ 1 A. निज्जराहेऊ । 2 B दारेण । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोषधविधि। मंतंमि पुत्वसेवा जइ तुच्छफले वि वुच्चइ इहं ता। मुक्खफले वि उवहाणलक्खणा किं न कीरइ सा ॥४४॥ एईइ परमसिद्धी जायइ जं ता ददं तओ अहिगा। जत्तंमि वि अहिगत्तं भवस्सेयाणुसारेण ॥ ४५ ॥ अह सक्कविरयणाओ सक्कथए नोवहाणमुववन्नं । एयं पि केण सिढे जमेस सकेण रइओ ति ॥ ४६॥ सकस्स अविरयत्ता जिणथुई जइ अणेणणुन्नाया। ता तकउ त्ति सो वुत्तुमेवमुचियं कहं तम्हा ॥ ४७ ॥ केवलिणा दिट्ठाणं उवइहाणं च विरइयाणं च । नवकारमाइयाणं महप्पभावो व वेयाणं ॥ ४८ ॥ तिकालियमहवा सत्तकालियं सुमरणे निउत्ताणं । जुत्तं चिय उवहाणं महानिसीहे निबद्धाणं ॥ ४९ ॥ उवहाणविहीणाण वि मरुदेवाईण सिवगमो दिहो। एवं च वुच्चमाणे तवदिक्खाईण वि निसेहो ॥५०॥ इय भूरिहेउजुत्तीजुयंमि बहुकुसलसलहिए मग्गे। कुग्गहविरहेणुजमह महह जइ मोक्खसुहमणहं ॥५१॥ ॥ उवहाणपइछापंचासगपगरणं समत्तं ॥९॥ aecccccecom ६१८. संपयं पुव्वुल्लिंगिओ पोसहविही संखेवेण भण्णइ । जम्मि दिणे सावओ सावया वा पोसहं गिहिही, तम्मि दिणे अप्पभाए चेव वावारंतरपरिच्चारण गहियपोसहोवगरणो पोसहसालाए साहुसमीवे वा गच्छइ । तओ इरियावहियं पडिक्कमिय गुरुसमीवे ठवणायरियसमीवे वा खमासमणदुगपुवं पोसहमुहपोत्तिं पडिलेहिय २० पढमखमासमणेण पोसहं संदिसाविय, बीयखमासमणेण पोसहे ठामि त्ति भणइ । तओ वंदिय, नमोक्कारतिगं कड्डिय, 'करेमिभंते पोसहमिच्चाइ दंडगं...वोसिरामि' पजंतं भणइ । तओ पुवुत्तविहिणा सामाइयं गेण्हइ । वासासु कट्ठासणं, सेसह्रमासेसु पाउंछणं च संदिसाविय, उवउत्तो सज्झायं करितो, पडिक्कमणवेलं जाव पडिवालिय, पाभाइयं पडिक्कमइ । तओ आयरिय-उवज्झाय-सवसाहू वंदइ । तओ जइ पडिलेहणाए सवेला, ताहे सज्झायं करेइ । जायाए य पडिलेहणाए खमासमणदुगेण अंगपडिलेहणं संदिसावेमि, पडिलेहणं 3 करेमि त्ति भणिय, मुहपोत्तिं पडिलेहेइ । एवं खमासमणदुगेण अंगपडिलेहणं करेइ । इत्थ अंगसद्देणं 'अंगट्ठियं कडिपट्टाइ णेयं' इइ गीयत्था । तओ ठवणायरियं पडिलेहित्ता नवकारतिगेणं ठविय, कडिपट्टयं पडिलेहिय, पुणो मुहपोतिं पडिलेहित्ता, खमासमणदुगेण उवहिपडिलेहणं संदिसाविय, कंबल-वत्थाइ, अवरण्हे पुण वत्थ-कंबलाइ, पडिलेहेइ। तओ पोसहसालं पमज्जिय, कजयं विहीए परिट्टविय, इरियं पडिक्कमिय, सज्झायं संदिसाविय, गुणण-पढण-पुच्छण-वायण-वक्खाणसवणाइ करेइ । तओ जायाए पउणपोरिसीए, " खमासमणदुगेण पडिलेहणं संदिसाविय, मुहपोत्तिं पडिलेहिय, भोयणभायणाई पडिलेहेइ । तओ पुणो सज्झायं करेइ, जाव कालवेला । ताहे आवस्सियापुवं चेईहरे गंतुं देवे वंदेइ । उवहाणवाही पुण पंचहिं सक्कथएहिं देवे वंदेइ । तओ जइ पारणइत्तओ तो पच्चक्खाणे पुन्ने खमासमणदुगपुवं मुहुपोति पडिलेहिय, वंदिय, भणइ -'भगवन् ! भाति पाणी पारावहं ।' उवहाणवाही भणइ –'नवकारसहिउ चउविहारु ।' इयरो Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रपा। भणइ-पोरिसि पुरिमड्डो वा, तिविहारं चउविहारं वा, एकासणउं निवी आंबिलु वा, जा काइ वेला, तीए भत्तपाणं पारावेमिति । तओ सक्कत्थयं भणिय, खणं सज्झायं च काउं, जहासंभवं अतिहिसंविभागं काउं, मुह-हत्थे पडिलेहिय, नमोक्कारपुवं, अरत्तदुट्टो असुरसुरं अचवचवं अट्ठयमविलंबियं अपरिसाडिं जेमेइ । तं पुण नियघरे अहापवत्तं फासुयं ति; पोसहसालाए वा पुवसंदिट्ठसयणोवणीयं । न य भिक्खं हिंडेइ । तओ 5 आसणाओ अचलिओ चेव दिवसचरिमं पच्चक्खइ । तओ इरियावहियं पडिक्कमिय, सक्कत्थयं भणइ । जइ पुण सरीरचिताए अट्ठो तो नियमा दुगाई आवस्सियं करिय साहु व उवउत्ता निजीवथंडिले गंतुं 'अणुजाणह जस्सावग्गहो' ति भणिऊण, दिसि-पवण-गाम-सूरियाइसमयविहिणा उच्चारपासवणे वोसिरिय, फासुयजलेणं आयमिय, पोसहसालाए आगंतूण, निसीहियापुवं पविसिय, इरियावहियं पडिक्कमिय, खमासमणपुवं भणंति-'इच्छाकारेण संदिसह गमणागमणं आलोयहं' । 'इच्छं' आवस्सियं करिय, अवर-दक्खिण10 प्पमुहदिसाए गच्छिय, दिसालोयं करिय, संडासए थंडिलं च पडिलेहिय, उच्चार-पासवणं वोसिरिय, निसीहियं करिय, पोसहसालं पविट्ठा आवतजंतेहिं जं खंडियं जं विराहियं तस्स मिच्छामि दुक्कडं । तओ सज्झायं ताव करेइ, जाव पच्छिमपहरो । जाए य तम्मि खमासमणपुवं 'पडिलेहणं करेमि, पुणो पोसहसालं पमज्जेमि'त्ति भणइ । तओ पुवं व अंगपडिलेणं काउं, पोसहसालं दंडग-पुंछणेण पमज्जिय, कज्जयं उद्धरिय, परिट्ठविय, इरियं पडिक्कमिय, ठवणायरियं पडिलेहिय ठवेइ । तओ गुरुसमीवे ठवणायरियसमीवे वा 15 खमासमणदुगेण मुहपोत्तिं पडिलेहिय, पढमखमासमणे 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सज्झायं संदिसा वेमि'; बीए खमासमणे 'सज्झायं करेमि'त्ति भणिय, काऊण य, वंदणयं दाऊण गुरुसक्खियं पच्चक्खाइ । तओ खमासमणदुगेण उवहिथंडिलपडिलेहणं संदिसाविय, खमासमणदुगेण 'बइसणं संदिसावेमि, बइसणे ठामि'त्ति भणिय वत्थकंबलाइ पडिलेहेइ । इत्थ जो अभत्तही सो सबोवहिपडिलेहणाणंतरं कडिपट्टयं पडिलेहेइ । जो पुण भत्तट्टी सो कडिपट्टयं पडिलेहिय, उवहि पडिलेहेइ त्ति विसेसो । तओ सज्झायं ताव७ करेइ, जाव कालवेला । जायाए य तीए उच्चारपासवणथंडिले चउवीसं पडिलेहिय, जइ तम्मि दिणे चउइसी तो पक्खियं चउम्मासियं वा; अह अट्ठमी उद्दिवा पुन्नमासिणी वा तो देवसियं; अह भद्दवयसुद्धचउत्थी तो संवच्छरियं, पडिक्कमणसामायारीए पडिक्कमिय साहुविस्सामणं कुणइ । तओ सज्झायं ताव करेइ जाव पोरिसी । उवरिं जइ समाही तो लहुयसरेणं कुणइ; जहा खुद्दजंतुणो न उठ्ठिति । तओ असज्झभणणपुरओ भूमिपमज्जणाइविहिविहियसरीरचिंतो खमासमणदुगेण मुहपोत्तिं पडिलेहिय, खमासमणेण राई2. संथारयं संदिसाविय, बीयखमासमणेण राईसंथारए ठामि त्ति भणिय, सक्कस्थयं भणइ । तओ संथारगं उत्तरपट्टं च जाणुगोवरि मीलित्तु पमज्जिय भूमीए पत्थरेइ । तओ सरीरं पमज्जिय, निसीही 'नमोखमासमणाणं'ति भणिय, संथारए भविय, नमोक्कारतिगं सामाइयं च उच्चारिय अणुजाणह परमगुरू गुणगणरयणेहिं भूसियसरीरा । बहुपडिपुन्ना पोरिसि राईसंथारए ठामि ॥१॥ अणुजाणह संथारं बाहुवहाणेण वामपासेण । कुक्कुडपायपसारण 'अतुरंतु पमजए भूमिं ॥२॥ संकोइयसंडासे उबत्तंते य कायपडिलेहा । दवाओ उवओगं ऊसासनिरंभणा लोए ॥३॥ जइ मे होज पमाओ इमस्स देहस्स इमाइ रयणीए । आहारमुवहिदेहं तिविहं तिविहेण वोसिरियं ॥ ४ ॥ 1B अंतरंतु। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोषधविधि । २१ 'खामेमि सवजीवे' इच्चाइगाहाओ भणिऊण वामबाहूवहाणो निद्दासोक्खं करेइ । जइ उबत्तइ तो सरीरसंथारए पमज्जिय, अह सरीरचिंताए उट्ठेइ, तो सरीरचितं काऊण, इरियावहियं पडिक्कमिय, जहन्ने वि गाहातिगं गुणिय सुयइ । सुत्तो वि जाव न निद्दा एइ ताव धम्मजागरियं जागरंतो थूलभद्दाइमहरिसिचरियाइं परिभावेइ । तओ पच्छिमरयणीए उट्टिय, इरियावहियं पडिक्कमिय, कुसुमिण- दुस्सुमिणकाउस्सगं सयउस्सासं मेहुणसुमिणे अङ्कुत्तरसय उस्सासं करिय, सक्कत्थयं भणिय, पुत्र्वत्तविहीए सामाइयं काउं, सज्झायं संदिसाविय, ताव करे जाव पडिक्कमणवेला । तओ विहिणा पडिक्कमिय, जायाए पsिहणार, पुत्रविहिणा काऊण पडिलेहणं, जहन्नओ वि मुहुत्तमेत्तं सज्झायं करिय, पोसहपारणट्टी खमासमणदुगेण मुहपोत्तिं पडिलेहिय, खमासमणपुवं भणइ - 'इच्छाकारेण संदिसह पोसहं पारावेह' । गुरू भइ - 'पुण कायो' । बीयखमासमणेण 'पोसहं पारेमि' त्ति । गुरू भणइ – 'आयारो न मोतबो'ति । तओ नमोक्कारतिगं उद्धट्ठिओ भणइ । पुणो मुहपोत्तिं पडिलेहिय, पुत्रविहिणा सामाइयं पारे । पोसहे पारिए नियमा सइ " संभवे साहू पडिलाभिय, पारियां ति । जो पुण रतिं पोसहं लेइ सो संझाए उबहिं पडिलेहिय, तो पोस ठाउं, थंडिल्लपेहणाई सबं करेइ । नवरं जाव दिवससेसं रत्तिं वा पज्जुवासामि त्ति उच्चरइ । पभाए पुण जाव अहोरतं दिवसं वा पज्जुवासामि त्ति उच्चरइ । भणियत्थ संगाहियाओ इमाओ गाहाओ' वत्थाइअ पडिलेहिय, सड्डो गोसंमि पेहिउं पोत्तिं । नवकारतिगं कड्डिउमिय पोसहसुत्तमुच्चरइ ॥ १ ॥ 'करेमि भंते पोसह मिचाइ' । 1 B संगाहिणाओ इमाइ गाहाओ । सामाइयं परिहिय कयपडिकमणो य कुणइ पडिलेहं । अंग पsिहणं पिय कडिपट्ट्य- ठावणायरिए ॥ २ ॥ उवहिमुहपोत्ति उवहीपोसहसाला इपेहसज्झाओ । पुती भंडुवगरणस्स पेहणं पउणपहरम्मि ॥ ३ ॥ चेइयचियवंदण-पुत्ति पेहणं भत्तपाणपारवणं । सक्कत्थय-भोयण- सक्कत्थयग-वंदणय-संवरणे ॥ ४ ॥ आवस्सियाइगमणं सरीरचिंताइ - आगमनिसीही । काऊं गमनागमणालोयणमह कुणइ सज्झायं ॥ ५ ॥ तह चरिमपोरिसीए विहीर पडिलेहणंग पडिलेहे । कडिपट्ट-वसहिपेहा-ठवणायरिउवहिमुहपोत्ती ॥ ६ ॥ तो उवहिथंडिले संदिसावइ कंबलाइ पडिले । पुण मुहपोत्तिय सज्झाय आसणे संदिसावेह ॥ ७ ॥ पढइ सुणेइ जाव कालवेलमह थंडिले चउवीसं । पेहिय पडिकमिउं जाममित्तमिह गुणइ विहिणाउ ॥ ८ ॥ राइयसंधारय-पुत्तिषेह-सक्कत्थएण उ सुवित्ता । ओइरियं सक्कथयं कहिय मुहपोत्तिं ॥ ९ ॥ पेहिय विहिणा सामाइयं पि काउं तओ पडिक्कमइ । पडिले हाइपुत्रं च कुणइ सर्व्वं पिकायचं ॥ १० ॥ - 13 25 30 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रपा। जो पुण रयणीपोसहमाययई सो वि संझसमयम्मि । पढम उवहियं पडिलेहिऊण तो पोसहे ठाइ ॥११॥ थंडिल्लपेहणाई सो वि विहीए करेइ सवं पि। पारितो पुण पोत्तिं पेहित्ता दो खमासमणे ॥१२॥ दाउं नवकारतिगं भणइ ठिओ एवमेव सामाइयं । पारेइ किं पुण 'भयवं दसण्ण'भणणे इह विसेसो ॥१३॥ गुरुजिणवल्लहविरइयपोसहविहिपयरणाउ संखेवा' । दंसियमेयविहाणं विसेसओ पुण तओ नेयं ॥ १४ ॥ आसाढाईपुरओ चउरंगुलवुड्डिमाहओ हाणी। पिहरो दु-ति-ति-ति-एगे सही छट्ठदसट्टछहिं पउणो॥ १५ ॥ एयाए गाहाए उवरि पोसहिएण पडिलेहणाकालो नायबो ति ॥ ॥ इति पोसहविही समत्तो ॥ १०॥ ६१९. पुरोल्लिंगिया पडिकमणसामायारी पुण एसा । सावओ गुरूहिं समं इक्को वा 'जावंति चेइयाईति गाहादुग-थुत्तिपणिहाणवजं चेययाई वंदित्तु, चउराइखमासमणेहिं आयरियाई वंदिय, भूनिहियसिरो 15 'सवस्सवि देवसिय' इच्चाइदंडगेण सयलाइयारमिच्छामिदुक्कडं दाउं, उट्ठिय सामाइयसुत्तं भणित्तु, 'इच्छामि ठाइउं काउस्सग्ग'मिच्चाइसुत्तं भणिय, पलंबियभुयकुप्परधरिय नाभिअहो जाणुढे चउरंगुलठवियकडियपट्टो संजइकविट्ठाइदोसरहियं काउस्सग्गं काउं, जहकमं दिणकए अइयारे हियए धरिय, नमोक्कारेण पारिय, चवीसत्थयं पढिय, संडासगे पमज्जिय, उवविसिय, अलग्गविययबाहुजुओ मुहणंतए पंचवीसं पडिलेहणाओ काउं, काए वि तत्तियाओ चेव कुणइ । साविया पुण पुट्टि-सिर-हिययवजं पन्नरस कुणइ । उट्ठिय ७ बत्तीसदोसरहियं पणवीसावस्सयसुद्धं किइकम्मं काउं अवणयंगो करजुयविहिधरियपुत्ती देवसियाइयाराणं गुरुपुरओ वियडणत्थं आलोयणदंडगं पढइ । तओ पुत्तीए कट्टासणं पाउंछणं वा पडिलेहिय वामं जाणुं हिट्ठा दाहिणं च उर्ल्ड काउं, करजुयगहियपुत्ती सम्म पडिकमणसुत्तं भणइ । तओ दवभावुट्टिओ 'अब्भुट्टिओमि' इच्चाइदंडगं पढित्ता, वंदणं दाउं, पणगाइसु जइसु तिन्नि खामित्ता, सामन्नसाइसु पुण ठवणायरिएण समं खामणं काउं, तओ तिन्नि साहू खामित्ता, पुणो कीइकम्मं काउं, उद्धट्टिओ सिरकयंजली 'आयरियउवज्झाए' 2. इच्चाइगाहातिगं पढित्ता, सामाइयसुत्तं उस्सग्गदंडयं च भणिय, काउस्सग्गे चारित्ताइयारसुद्धिनिमित्तं, उज्जोयदुगं चिंतेइ । तओ गुरुणा पारिए पारित्ता, सम्मत्तसुद्धिहेउं उज्जोयं पढिय, सबलोयअरिहंतचेइयाराहणुस्सग्गं काउं, उज्जोयं चिंतिय, सुयसोहिनिमित्तं 'पुक्खरवरदीवडे' कविय, पुणो पणवीसुस्सासं काउस्सग्गं काउं पारिय, सिद्धत्थवं पढित्ता, सुयदेवयाए काउस्सग्गे नमुक्कारं चिंतिय, तीसे थुइं देइ सुणेइ वा । एवं खित्त देवयाए वि काउस्सग्गे नमुक्कारं चिंतिऊण पारिय, तत्थुई दाउं सोउं वा पंचमंगलं पढिय, संडासए पमज्जिय, • उवविसिय, पुर्व व पुत्तिं पहिय, वंदणं दाउं, 'इच्छामो अणुसिडिंति भणिय, जाणूहिं ठाउँ वद्धमाणक्खरस्सरा 1B °समणा। 2 B संखेवो। + 'एवं द्वादशमासेषु'। 'यथासंख्येन षडादिभिरंगुलैः' इति A आदर्श स्थिता टिप्पणी। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ प्रतिक्रमणविधि । तिन्निथुईउ पढिय, सक्कत्थयं थुत्तं च भणिय, आयरियाई वंदिय, पायच्छित्तविसोहणत्थं काउस्सग्गं काऊं उज्जोयचउकं चिंतेइ ति। ॥ इति देवसियपडिक्कमणविही ॥ ११ ॥ ३२०. पक्खियपडिक्कमणं पुण चउद्दसीए कायश्वं । तत्थ 'अब्भुढिओमि आराहणाए' इच्चाइसुत्तंतं देवसियं पडिक्कमिय, तओ खमासमणदुगेण पक्खियमुहपोत्तिं पडिलेहिय, पक्खियाभिलावेणं वंदणं दाउं, संबुद्धाखामणं । काउं, उद्विय पक्खियालोयणसुत्तं 'सबस्स वि पक्खिय' इच्चाइपज्जतं पढिय, वंदणं दाउं भणइ-'देवसियं आलोइयं पडिकंतं, पत्तयखामणेणं अभुट्टिओऽहं अभितरपक्खियं खामेमि' त्ति भणित्ता, आहारायणियाए साहू सावए य खामेइ, मिच्छुक्कडं दाउं सुहतवं पुच्छेइ, सुहपक्खियं च साहूणमेव पुच्छेइ, न सावयाणं । तओ जहामंडलीए ठाउं वंदणं दाउं भणइ-'देवसियं आलोइयं पडिक्कतं, पक्खियं पडिकमावेह' । तओ गुरुणा-'सम्म पडिकमह'त्ति भणिए, इच्छंति भणिय, सामाइयसुत्तं उस्सग्गसुत्तं च भणिय, खमासमणेण 10 'पक्खियसुत्तं संदिसावेमि', पुणो खमासमणेण 'पक्खियसुत्तं कड्डेमि'त्ति भणित्ता, नमोकारतिगं कलिय पडि. कमणसुत्तं भणइ । जे य सुणंति ते उस्सग्गसुत्ताणंतरं 'तस्सुत्तरीकरणेणं ति तिदंडगं पढिय काउस्सग्गे ठंति । सुत्तसमत्तीए उद्धट्टिओ नवकारतिगं भणिय, उवविसिय, नमोक्कारसामाइयतिगपुवं 'इच्छामिपडिक्कमिउं जो मे पक्खिओ अइयारो कओ' इच्चाइदंडगं पढिय, सुत्तं भणित्ता, उट्ठिय 'अब्भुटिओमि आराहणाए'त्ति दंडगं पढित्ता, खमासमणं दाउं 'मूलगुण-उत्तरगुण-अइयारविसोहणत्थं करेमि काउस्सग्गंति भणिय, 15 'करेमि भंते' इच्चाइ, 'इच्छामि ठामि काउस्सग्ग'मिच्चाइदंडयं च पढित्ता, काउस्सग्गं काउं, बारसुज्जोए चिंतेइ । तओ पारित्ता, उज्जोयं भणित्ता, मुहपोत्तिं पडिलेहिय, वंदणं दाउं, समत्तिखामणं काउं, चउहिं छोभवंदणगेहिं तिन्नि तिन्नि नमोक्कारे, भूनिहियसिरो भणेइ ति। तओ देवसियसेसं पडिक्कमइ । नवरं सुयदेवयाथुइअणंतरं भवणदेवयाए काउसग्गे नमोक्कारं चिंतिय, तीसे थुइं देइ सुणेइ वा । थुत्तं च अजियसंतित्थओ । एवं चाउम्मासिय-संवच्छरिया वि पडिक्कमणा तदभिलावण नेयवा । नवरं जत्थ पक्खिए बारसुज्जोया चिंतिज्जंति, तत्थ चाउम्गासिए वीसं, संवच्छरिए चालीसं, पंचमंगलं च । तहा पक्खिए पणगाइसु जइसु तिण्हं संबुद्धखामणाणं, चाउम्मासिए सत्ताइसु पंचण्हं, संवच्छरिए नवाइसु सत्तण्हं । दुगमाईनियमा सेसे कुज ति भावत्थो । तहा संवच्छरिए भवणदेवयाकाउस्सग्गो न कीरइ न य थुई । असज्झाइयकाउस्सग्गो न कीरइ । तहा राइय-देवसिएसु 'इच्छामोऽणुसहिति भणणाणंतरं, गुरुणा पढमथुईए भणियाए मत्थए अंजलिं काउं 'नमो खमासमणाणं'ति भणिय, मत्थए अंजलिपग्गहमित्तं वा काउं इयरे तिन्नि थुईओ भणंति । पक्खिए पुण 5 नियमा गुरुणा थुइतिगे पूरिए, तओ सेसा अणुकडेति त्ति ॥ ॥पक्खियपडिकमणविही ॥ १२ ॥ २१. देवसियपडिक्कमणे पच्छित्तउस्सग्गाणंतरं खुद्दोवद्दवओहडावणियं सयउस्सासं काउस्सग्गं काउं, तओ खमासमणदुगेण सज्झायं संदिसाविय, जाणुट्टिओ नवकारतिगं कड्डिय विग्धावहरणत्थं सिरिपासनाहनमोक्कारं सक्कत्थयं 'जावंति चेइयाईति गाहं च भणित्तु, खमासमणपुवं 'जावंत केइ साहू' इति गाहं पासनाहथवं च ॥ जोगमुद्दाए पढित्ता, पणिहाणगाहादुगं च मुत्तासुत्तिमुद्दाए भणिय, खमासमणपुवं भूमिनिहित्तसिरो 'सिरिथंभणयट्ठियपाससामिणो' इच्चाइगाहादुगमुच्चरित्ता, 'वंदणवत्तियाए' इच्चाइदंडगपुवं चउ लोगुज्जोयगरियं काउम्सग्गं काउं चउवीसत्थयं पढंति त्ति पडिक्कमणविहिसेसो पुचपुरिससंताणक्कमागओ, 'आयरणा वि हु Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ विधिप्रपा। आण' त्ति वयणाओ कायबो चेव । जहा थुइतिगभणणाणंतरं सक्कथय-थुत्त-पच्छित्त-उस्सग्गा । पुर्व हि गुरुथुइगहणे थुईतिन्नि त्ति पजंतमेव पडिक्कमणमासि । अओ चेव थुइतिगे कडिए छिंदणे वि न दोसो। छिंदणं ति वा अंतरणि त्ति वा अम्गलि त्ति वा एगट्ठा । छिंदणं च दुहा-अप्पकयं, परकयं च। तत्थ अप्पकयं अप्पणो अंगपरियत्तणेण भवइ । परकयं जया परो छिंदइ । पक्खियपडिक्कमणे पत्तेयखामणं कुणंताणं पुढो। कयआलोयणं मुत्तुं नत्थि छिंदणदोसो। अओ चेव अम्ह सामायारीए मुहपोत्तिया पत्तेयखामणाणंतरं न पडिलेहिजा त्ति । जया य मज्जारिया छिंदइ तया जा सा करडी कबरी अंखिहिं ककडियारि । मंडलिमाहिं संचरीय हय पडिहय मजारि-त्ति ॥१॥ चउत्थपयं वारतिगं भणिय, खुद्दोपहवओहडावणियं काउस्सग्गो कायवो । सिरिसंतिनाहनमोक्कारो घोसेययो। " कारणंतरेण पुढोपडिक्ता पुढोकयआलोयणा वा पडिक्कमणानंतरं गुरुणो वंदणं दाउं, आलोयण-खामणपच्चक्खाणाई कुणंति । पडिक्कमणं च पुवाभिमुहेण उत्तराभिमुहेण वा। आयरिया इह पुरओ, दो पच्छा तिन्नि तयणु दो तत्तो। तेहिं पि पुणो इक्को, नवगणमाणा इमा रयणा ॥१॥ इइगाहाभणियसिरिवच्छाकारमंडलीए कायस्वं । श्रीवत्सस्थापनाचेयम्- .. ॥ तत्थ देवसियं पडिकमणं रयणिपढमपहरं जाव सुज्झइ । राइयं पुण आवस्सयचुण्णिअभिप्पाएण उग्घाडपोरिसिं जाव, ववहाराभिप्पारण पुण पुरिमडे जाव सुज्झइ । । जो वहमाणमासो तस्स य मासस्स होइ जो तइओ। तन्नामयनक्खत्ते सीसत्थे गोसपडिकमणं ॥१॥ राइयपडिक्कमणे पुण आयरियाई वंदिय भूनिहियसिरो 'सबस्स वि राइय' इच्चाइदंडगं पढिय, 20 सक्कत्थयं भणित्ता, उट्ठिय, सामाइय-उस्सग्गसुत्ताइं पढिय, उस्सग्गे उज्जोयं चिंतिय पारिय, तमेव पढित्ता, बीये उस्सग्गे तमेव चिंतित्ता, सुयत्थयं पढित्ता; तईए जहक्कम निसाइयारं चिंतित्ता, सिद्धत्थयं पढित्ता, संडासए पमज्जिय, उवविसिय, पुत्तिं पेहिय, वंदणं दाउं, पुचि व आलोयणमुत्तपढण-वंदणय-खामणयवंदणय-गाहातिगपढण-उस्सग्गसुत्तउच्चारणाई काउं, छम्मासियकाउम्सग्गं करेइ । तत्थ य इमं चिंतेइ'सिरिवद्धमाणतित्थे छम्मासिओ तवो वट्टइ । तं ताव काउं अहं न सकुणोमि । एवं एगाइएगूणतीसंतदि23 Yणं पि न सकुणोमि । एवं पंच-चउ-ति-दु-मासे वि न सकुणोमि । एवं एगमासं पि जाव तेरसदिणूणं न सकुणोमि । तओ चउतीस-बत्तीसमाइकमेण हावितो जाव चउत्थं आयंबिलं निवियं एगासणाइ पोरिसिं नमोक्कारसहियं या जं सक्केइ तेण पारेइ । तओ उज्जोयं पढिय, पुत्तिं पेहिय, वंदणं दाउं, काउस्सग्गे जं चिंतियं तं चिय गुरुवयंणमणुभणितो सयं वा पञ्चक्खाइ । तो 'इच्छामोणुसहिति भणंतो जाणूहि ठाउं तिन्नि वड्डमाणथुईओ पढित्ता, मिउसद्देणं सक्कत्थयं पढिय, उट्ठिय, 'अरहंतचेइयाणं' इच्चाइपढिय, धुइचउ0 क्केणं चेइए वंदेइ । 'जावंति चेइयाई' इच्चाइगाहादुगयुत्तं पणिहाणगाहाओ न भणेइ । तओ आयरियाई वंदेइ । तओ वेलाए पडिलेहणाइ करेइ त्ति ॥ ॥राइयपडिकमणविही ॥ ॥ पडिकमणसामायारी समत्ता ॥ १३ ॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपोविधि । ६२२. मणिओ पसंगाणुप्पसंगसहिओ उवहाणविही । उवहाणं च तवो। अओ तवोविसेसा अन्ने वि उवदंसिज्जति । तत्थ कल्लाणगतवो चवण-जम्मेसु जिणाणं तासु तासु तिहीसु उववासा कीरंति ॥ १ ॥ दिक्खा-नाणोप्पत्ति-मोक्खगमणेसु जो तवो उसभाईहिं जिणेहिं कओ सो चेव जहासत्ति कायद्यो । सो य इमोसुमइत्थ निचभत्तेण निग्गओ वासुपुज्जो जिणो चउत्थेणं । पासो मल्ली विय अट्ठमेण, सेसाउ छटेणं ॥१॥ निच्चभत्ते वि उववासो कीरइ ति सामायारी । अट्ठमतवेण नाणं पासोसभ-मल्लि-रिहनेमीणं । वसुपुज्जस्स चउत्थेण छहभत्तेण सेसाणं ॥२॥ निधाणमन्तकिरिया सा चउदसमेण पढमनाहस्स। सेसाण मासिएणं वीरजिणिंदस्स छटेणं ॥३॥ एगंतराइकरणे वि तहा कायवाई निक्खमणाइतवाई, जहा तीए कल्लाणगतिहीए उववासो एइ ति । सग तेरस दस" चोइस," पनरस" तेरस" य सत्तरस" दस छ । नव' चउ' ति' कत्तियाइसु, जिणकल्लाणाई जह संखं ॥४॥ ॥ प्रतिमासकल्याणकसंख्यासंग्रहः, सर्वाग्रेण १२१ । तहा सुक्कपक्खे अट्ठोववासा एगंतरआयंबिलपारणेण सवंगसुंदरो खमाभिग्गहजिणपूयामुणिदाणपरेण विहेओ ॥ ४ ॥ एवं चिय किण्हपक्खे गिलाणपडिजागरणाभिग्गहसारो निरुजसिंहो ॥ ५॥ तहा एगासणपारणेण बत्तीस आयंबिलाणि परमभूसणो । इत्थुज्जमणे तिलग-मउडाइ जहासत्ति . जिणभूसणदाणं ॥ ६॥ आयइजणगो वि एवं चिय । नवरं वंदणग-पडिक्कमण-सज्झायकरण-साहुसाहुणिवेयावच्चाइसवकजेसु अणिमूहियबलविरियस्स अच्चंतपरिसुद्धो हवइ ॥ ७ ॥ __एगे पुण एवमाहंसु-'अणिमूहियबलविरियस्स निरंतरबत्तीसायंबिलपमाणो एगासणंतरियबत्तीसोववासप्पमाणो वा आयइजणगो त्ति। तहा सोहकग्गप्परुक्खो चित्ते एगंतरोववासा गुरुदाणविहिपुर्व सन्धरसं पारणगं च । उज्जमणं पुण सुवण्णतंदुलाइमयस्स नाणाविहफलभरोणयस्स जिणनाहपुरओ कप्परुक्खस्स कप्पणेण चारित्तपवित्तमुणिजणदाणेण य विहेयं ॥ ८॥ ____तहा इंदियजओ जत्थ पुरिमड-इक्कासणग-निविय-आंबिल-उववासा एगेगमिदियमणुसरिय पंचहिं परिवाडीहिं कजंति इत्थ तवोदिणा पंचवीसं ॥ ९॥ कसायमहणो उण पुरिमढवजाहिं चउहिं परिवाडीहिं पइकसायं किजइ । तवो दिणा सोल्स ॥१०॥ जोगसुद्धी उण इक्केकं जोगं पहुच्च निक्मिइय-आयाम-उनवासम कीरंती ति पुरिमड-एगासणवजाहिं तिहिं परिवाडीहिं तवोदिणा नव ॥ ११ ॥ विधि०४ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ विधिप्रपा । तहा जत्थेगेगं कम्ममणुसरिय, उववास-एगासणग-एगसित्थय-एगठाणग-एगदत्तिग-निधियआयंबिल-अट्ठकवलाणि अट्टहिं परिवाडीहिं किजंति, सो अट्टकम्मसूडणो तवो दिणा चउसही । उज्जमणे सुवन्नमयकुहाडिया कायद्या ॥ १२ ॥ तहा अट्ठमतिगेण नाण-दसण-चरिताराहणातवो भवइ ॥ १३ ॥ तहा रोहिणीतवो रोहिणीनक्खत्ते वासुपुज्जजिणविसेसपूयापुरस्सरमुववासो सत्तमासाहियसत्तवरिसाणि । उज्जमणे वासुपुज्जबिंबपइट्ठा ॥ १४ ॥ तहा अंबातवो पंचसु किण्हपंचमीसु एगासणगाइ-नेमिनाह-अंबापूयापुर्व किज्जइ ॥ १५ ॥ तहा एगारससु सुक्कएगारसीसु सुयदेवयापूया मोणोपवासकरणजुत्तो सुयदेवया तवो ॥ १६ ॥ तहा नाणपंचमि छ, अकम्ममासे वजित्ता मन्गसिर-माह-फग्गुण-वइसाइ-जेट-आसाढेसु सुक्क॥ पंचमीए जिणनाहपूयापुचं तयग्गविणिवेसियमहत्थपोत्थयं विहियपंचवण्णकुसुमोवयारो अखंडक्खयाभिलिहियपसत्थसत्थिओ घयपडिपुन्नपबोहियरत्तपंचवट्टिपईवो फलबलिविहाणपुर्व पडिवज्जेइ । उववासबंभचेरविहाणेण । एवं पडिमासं पंचमासकरणे लहुई । महई उण पंचवरिसाणि । विसेसो उण पंचगुणपूयाविहाणं, पंचपोत्थयपूयणं, पंचसत्थियदाणं, पंचपईवबोहणं च त्ति । केइ पुण एवं जहन्नं पंचमासाहियपंचहिं वरिसेहि; मज्झिमं तु दसमासाहियदसवरिसेहिं; उक्टिं पुण जावजीवं ति भणंति । असहणो पुण बालाई पंचसु नाण1s पंचमीसु इक्कासणे, तओ पंचसु निबीए, तओ पंचसु आयंबिले, तओ पंचसु उववासे कुणंति ति । उज्जमणं पुण तीए आईए मज्झे अंते वा कुज्जा । तत्थ सविभवाणुसारेण जिणपूया-पुत्थयपंचयलेहण-संघदाणाइ कायवं । पंचविहबलिवित्थारो नाणग्गे, पंच ठवणियाओ, पंच मसीभायणाई, एवं लेहणीओ, पंचकवलियाओ, कट्ठगरणाइं, निक्खेवणाई, छिद्ददोरयाई, फुल्लियाओ, उत्तरियाओ। पट्टदुगुल्लाइपुत्थयवेट्टणयाइं । कुंपियाओ, पडलियाओ, जवमालियाओ, ठवणायरिया, ठवणायरियसिंहासणाई, मुहपोत्तियाओ, सिरिखंडियाओ, पिंगा"णियाओ, पट्टियाओ, वासकुंपगा; अन्नाइं वि जोडय-धूवकडुच्छय-कलस-भिंगारथाल–आरत्तियमाइ पंच पंच उवगरणाई दायबाई । सवित्थरुज्जमणे पुण सवं पंचवीसगुणं काय, । नाणपंचमीतवोदिणे पुत्थयपुरओ नाणस्स तइयधुइरूवे अन्ने वा नमोकारे पढिय, उद्वित्तु 'तमतिमिरपडल'इच्चाइदंडगं भणिय, काउस्सम्गनमोकारं चिंतिय, पारिय - देविंदवंदियपएहिं परूवियाणि नाणाणि केवलमणोहिमईसुयाणि । पंचावि पंचमगई सियपंचमीए पूया तवोगुणरयाण जियाण दितु ॥१॥ इच्चाइथुई दाऊण पुणो जाणुट्ठिओ नाणथुत्तं भणिय, 'बोधागाध'मिच्चाइनाणथुई पढइ त्ति । नाणचीवंदणविही ॥ १७ ॥ तहा अमावसाए, मयंतरेण दीवूसवामावसाए, पडिलिहियनंदीसरजिणभवणपूयापुर्व उववासाइसत्तवरिसाणि नंदीसरतवो ॥ १८ ॥ * तहा एगा पडिवया, दुन्नि दुइज्जाओ, तिन्नि तिज्जाओ, एवं जाव पंचदसीओ उववासा भवंति जत्थ सो सञ्चसुक्खसंपत्तितवो ॥ १९ ॥ ___ तहा चित्तपुन्नमासीए आरब्भ पुंडरीयगणहरपूयापुवमुववासाइणमन्नतरं तवो दुवालसपुनिमाओ पुंडरीयतवो ॥ २० ॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपोविधि। तहा सत्तसु भवएसु पइदिणं नवनवनेवज्जढोवणेण जिणजणणिपूयापुवं सुक्कसत्तमीए आरम्भ तेरसिपजंतं एगासणसत्तगं कीरइ जत्थ स मायरतवो । भद्दवयसुद्धचउद्दसीए पइवरिसं उज्जवणं कायर्छ । बलि-दुद्ध-दहि-घिय-खीर-करंबय-लप्पसिया-घेउर-पूरीओ चउवीसं खीचडीथालं, दाडिमाइफलाणि य सपुत्तसावियाणं दायवाई । पीयलीवत्यं च तंबोलाइ ऊसवो य ॥ २१ ॥ तहा भद्दवए किण्हचउत्थीए एगासण-निविगइय-आयंबिल-उववासेहिं परिवाडीचउक्केण जहासत्ति-: कएहिं समवसरणपूयाजुत्तं चउसु भद्दवएसु समवसरणदुवारचउक्कस्साराहणेण समवसरणतवो चउसट्ठिदिणमाणो होइ । उज्जमणे नेवजथालाइ चत्तारि भवयसुद्धचउत्थीए दायवाई ॥ २२ ॥ ___तहा जिणपुरओ कलसो पइढिओ मुट्ठीहिं पइदिणखिप्पमाणतंदुलेहिं जावइयदिणेहिं पूरिज्जइ, तावइयदिणाणि एगासणगाइं अक्खयनिहितवो ॥ २३ ॥ ___तहा आयंबिलवद्धमाणतवो जत्थ अलवण-कंजिय-संछन्नभत्तभोयणमित्तरूवमेगमायंबिलं, तओ उव- ॥ वासो; दुन्नि आयंबिलाणि, पुणो उववासो; तिन्नि आयंबिलाणि, उववासो; चत्तारि आयंबिलाणि, उववासो; एवं एगेगायंबिलवुड्डीए चउत्थं कुणंतस्स जाव अंबिलसयपज्जते चउत्थं । तओ पडिपुन्नो होइ । एत्थायबिलाणं पंचसहस्सा पंचासाहिया, उववासाणं सयं । एयस्स कालमाणं वरिसचउद्दसगं, मासतिगं, वीसं च दिणाणि ति ॥ २४ ॥ तहा थेराइणो वद्धमाणतवो-जत्थ आइतित्थगरस्स एगं, दुइजस्स दुन्नि, जाव वीरस्स चउवीस 15 आयंबिलनिधियाईणि तस्स विसेसपूयापुवं कीरति । पुणो वीरस्स एगं जाव उसहस्स चउवीसं, तओ पडिपुन्नो होइ ति ॥ २५ ॥ तहा एगेगतित्थगरमणुसरिय वीस-वीस-आयंबिलाणि पारणयरहियाणि । एगं चायंबिलं सासणदेवयाए । उज्जमणे विसेसपूयापुवं तित्थयराणं चउवीसतिलयदाणं च जत्थ सो दवदंतीतवो ॥ २६ ॥ नाणावरणिज्जस्स उत्तरपयडीओ पंच; दंसणावरणिजस्स नव, वेयणीयस्स दो, मोहणीयस्स । अट्ठावीसं, आउस्स चत्तारि, नामस्स तेणउई, गोयस्स दो, अंतरायस्स पंच;-एवं अडयालसएण उववासाणं अट्ठकम्मउत्तरपयडीतवो ॥ २७॥ चंदायणतवो दुहा-जवमझो, वजमज्झो य । तत्थ जवमज्झो सुक्कपडिवयाए एगदत्तियं एगकवलं वा। तओ एगोत्तरखुड्डीए जाव पुन्निमाए किण्हपडिवयाए य पंचदस | तओ एगेगहाणीए जाव अमावसाए एगदत्तियं एगकवलं वा । इय जवमझो । वज्जमझे किण्हपडिवयाए पंचदस । तओ एगेगहाणीए 25 जाव अमावसाए सुक्कपडिवयाए य एगो। तओ एगेगवुवीए जाव पुन्निमाए पंचदस । इय वजमज्झो । दोसु वि उज्जमणे रुप्पमयचंददाणं; जवमज्झे बत्तीस सुवन्नमयजवा य, वज्जमझे वजं च ॥ २८ ॥ ___तहा अट्ठ-दुवालस-सोलस-चउवीसपुरिसाण एकतीस, थीणं सत्तावीस कवला । जहक्कम्मं पंचहिं दिणेहिं अणोयरियातवो । जदाह अप्पाहार अवड्डा दुभागपत्ता तहेव किंचूणा । अह-दुवालस-सोलस-चउपीस-तहिकतीसा य ॥ इति ॥ उज्जमणे पुण मीलियं सबदिणकवलपरिमियमोया पूयापुवं तित्यनाहस्स ढोएयवा ॥ २९ ।। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SI CIFIN/ विधिप्रपा भदाइतवेसुतहा, इमालया इग दु तिन्नि चउ पंच । तह ति षउ पंच इग दो तह पण इग दो तिग चउकं ॥१॥ तह दुति घउ पण एगेगं तह चउ पणगेग दु तिन्नेव ।। पणहुत्तरि उववासा पारणयाणं तु पणवीसा ॥२॥ भद्रतपः। तपोदिन०५, पारणा २५. । पभणामि महाभाई, इग दुग तिग चउ पण च्छ सत्तेव। १२ पापा तह चउ पण छग सत्तग इग दुग तिग सत्त इवं दो ॥३॥ बनाना तिनि चउ पंच छकं तह तिग चउ पण छ सत्तगेगं दो। तह छग सत्तग इग दो तिग चउ पण तह दुग चऊ ॥४॥ सपा पण छग सत्तेकं तह, पण छग सत्तेक दोन्नि तिय चउ । ३ " सो पारणयाणुगवन्ना छन्नउयसयं चउत्थाणं ॥५॥ महाभद्रतपः । तपोदिन १९६, पारणा ४९. भदोतरपडिमाए पण छग सत्त ( नव तहा सत्त । अड नव पंच छ तहा नव पण छग सत्त अहेव ॥६॥ तह छग सत्तड नव पण तह ह नव पण छ सत्तभत्तहा। पणहत्तरसयमेवं पारणगाणं तु पणवीसं ॥७॥ भद्रोत्तरतपः। तपोदिन १७५, पारणा २५. ॥ पडिमाइ सवमहाए पण छ सत्तए नव दसेकारा । तह अड नव दस एकार पण छ सत्त य तहेक्कारा ॥८॥ पण छग सत्तग अड नव वस तह सत्त 8 नव दसेकारा। 03१०११५ पण छ तहा दस एगार पण छ सत्तट्ठ नव य तहा ॥९॥ छग सत्तड नव दसगं एकारस पंच तह य नव दसगं। " एकारस पण छकं सत्त ह य इह तवे होति ॥ १०॥ सर्वतोभद्रतपः । तपोदिन तिनिसया पाणउया इत्थुववासाण होंति संखाए। ३९२, पारणा ४९, पारणयागुणवन्ना भद्दाइतवा इमे भणिया ॥ ११ ॥ एए चत्वारि वि तवा पारणगमेया चउबिहा होति । सधकामगुणिएण वा, निबीएण वा, वल्लचणमाइअलेवाडेण वा, आयंबिलेण वा । चउविहं पारणगं ति ॥ ३०॥ - तहा एगारससु सुद्धएगारसीसु सुयदेवयापूयापुवं एगासणगाइ तवो मासे एगारस कीरइ जत्थ सो एगारसंगतवो । उज्जमणं पंचमी तुलं । नवरं सबवत्थूणि एगारसगुणाई ति ॥ ३१ ॥ एवं बारससु सुद्धवारसीसु दुवालसंगाराहणतवो । उजवणे पुण बारसगुणाणि वत्थूणि ॥ ३२ ॥ एवं चउदसम सुद्धचउद्दसीस चउद्दसपुधाराहणतवो उजवणे चउद्दसठाणाणि ॥ ३३ ॥ 1 43|1-121 ४ 1015-101316 | |3| | Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपोविधि-नन्दिरचनाविधि । तहा आसोयसियट्टमिमाइ अट्ठदिणे एगासणाइतवो त्ति पढमा पाउडी। एवं अट्ठसु वरिसेसु अट्ठपाउडिओ । उज्जवणे कणगमयअट्ठावयप्या कणगनिस्सेणी य कायचा । पक्कन्नाइ फलाइ चउवीसवत्थूणि जत्य सो भट्ठावयतवो ॥ ३४ ॥ सतरसय जिणाणं सत्तरसयं उववासाई तवो कीरइ जत्थ सो सत्तरसयजिणाराहणतवो। उज्जवणे लड्याइ वत्थूहिँ सत्तरसयसंखेहिं सत्तरसयजिणपूया ॥ ३५ ॥ पंचनमोक्कारउवहाणअसमत्थस्स नवकारतवेणावि आराहणा कारिजइ । सा य इमा-पढमपए अक्खराणि सत्त, अओ सत्त इक्कासणा । एवं पंचक्खरे बीयपए पंच इक्कासणा । तइयपए सत्त । चउत्थपए वि सत्त । पंचमपए नव । छट्ठपए चूलापयदुगरूवे सोलस, सत्तमपए चूलाअंतिमपयदुगरूवे सत्तरस्सखरे सत्तरस्स इक्कासणा । उज्जमणे रुप्पमयपट्टियाए कणयलेहणीए मयनाहिरसेण अक्खराणि लिहित्ता अट्ठसठ्ठीए मोयगेहिं पूया ॥ ३६॥ तित्थयरनामकरणाइ वीस ठाणाई पारणंतरिएहिं वीसाए उववासेहिं आराहिज्जति ति चालीसदिणमाणो वीसहाणतवो ॥ ३७॥ कीरति धम्मचके तवंमि आयंबिलाणि पणवीसं । उजमणे जिणपुरओ दाय, रुप्पमयचकं ॥१॥ अहवा-दो चेव तिरत्ताई सत्तत्तीसं तहा चउत्थाई । तं धम्मचकवालं जिणगुरुपूया समत्तीए ॥२॥ ३८॥ चित्तबहुलट्ठमीओ आरम्भ चत्तारिसया उववासा एगंतराइकमेण जहा अंगिकारं पूरिजंति । तईयवरिससंतियअक्खयतइयाए संघ-गुरु-साहम्मियपूयापुवं पारिजंति । उसमसामिचिन्नो संवच्छरियतवो ॥३९॥ एवं उसमसामितित्थसाहुचिण्णो बारसमासियतवो छटेहिं तिहिं तिहिं सएण उववासाणं । बावीसतित्थयरसाहुचिण्णो अट्ठमासियतवो चालीसाहियदुसयउववासेहिं । वद्धमाणसामितित्थसाहुचिण्णो असिय- 20 सरण उववासाणं छम्मासियतवो ॥ ४० ॥ अन्ने य माणिकपत्थारिया-मउडसत्तमी-अमियट्टमी-अविह्वदसमी-गोयमपडिग्गह-मोक्खदंडयअदुक्खदिक्खिया-अखंडदसमीमाइतवविसेसा आगमगीयत्थायरणबज्झ त्ति न परूविया । जे य एगारसंगतवाइणो अट्ठावयाइणो य तवविसेसा ते तहाविहथेरेहिं अपवत्तिया वि आराहणापगारो त्ति पयंसिया । जे पुण एगावली-कणगावली-रयणावली-मुत्तावली-गुणरयणसंवच्छर-खुड्डमहल्ल-सिंहनिक्कीलियाइयो । तवमेया ते संपयं दुक्कर ति न दंसिया । सुयसागराओ चेव नेय त्ति ॥ ॥ ततोविही समत्तो ॥१४॥ ६२३. संपयं पुण सम्मत्तारोवणासावयकिञ्चाणि वित्थरनंदीए भवंति, दबत्थयप्पहाणचेण तेसि; साहणं पुण भावत्थयप्पहाणत्तेण संखेवनंदीए वि कीरति त्ति-सावयकिच्चाहिगारे नंदिरयणाविही भण्णइ । अहवा सावय-साहुकिचाणमंतरे भणिओ नंदिरयणाविही, डमरुगमणिनाएण उभयत्थ वि संबज्झइ ति इहेव - भण्णइ । तत्थ पसत्थखित्ते सूरिणा मुत्तासुत्तिमुद्दाए 'ॐ हाँ वायुकुमारेभ्यः खाहा' इइमंतेण वायुकुमारा आहविजंति । तओ सावएहिं अवणीए' सुपरिमज्जणं तेसिं कम्मं कीरइ । एवं मेहकुमाराहवणे गंधोदगदाणं । तओ देवीणं आहवणे सुगंधपंचवण्णकुसुमवुट्टी। अमिगकुमाराहवणे धूवक्खेवो । वेमाणिय-जोइस 1 'अवन्या' इति B टिप्पणी । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० विधिप्रपा। मवणवासिआहवणे रयण-कंचण-रुप्पवण्णएहिं पगारतिगन्नासो । वैतराहवणे तोरण-चेइय-तरु-सिंहांसण-छत्त-ज्झाणाइणं विनासो । तओ उकिट्ठवण्णगोवरि समोसरणे बिंबरूवेण भुवणगुरुठवणा । एयस्स पुखदक्षिणभागे गणहरमम्गओ मुणीणं वेमाणियत्थीसाहुणीणं च ठावणा । एवं नियगवण्णेहिं अवरदक्खिणे भवणइ-वाणवंतर-जोइसदेवाणं । पुधोत्तरेण वेमाणियदेवाणं नराणं नारीणं च । बीयपायारंतरे अहि। नउल-मय-मयाहिवाइतिरियाणं । तईयपायारंतरे दिवजाणाईणं ठावणा । एवं विरइए, आलिक्खसमोसरणे जिणभवणागिइकट्ठाइनंदिआलगट्ठिय'पडिमासु वा थालाइपइट्ठियपडिमाचउक्के वा, वासक्खेवं चउदिसिं काऊणं, तओ धूववासाइदाणपुवं दिसिपाला नियनियमंतेहिं आहविजंति । तं जहा-'ॐ ही इन्द्राय सायुधाय सवाहनाय सपरिजनाय इह नन्द्यां आगच्छ आगच्छ स्वाहा ।' एवं अमये, यमाय, नैर्ऋताय, वरुणाय, वायवे, सौम्याय, कुबेराय वा ईशानाय, नागराजाय, ब्रह्मणे । दससु वि दिसासु वास॥ क्खेवो । तओ समोसरणस्स पुप्फवत्थाइएहिं पूया । एवं नंदिरयणा सबकिच्चेसु सामन्ना । नंदिसमत्तीए तेणेव कमेण आहूय देवे विसज्जेइ । जाव 'ॐ हाँ इन्द्राय सायुधाय सवाहनाय सपरिजनाय पुनरागमाय खस्थानं गच्छ गच्छ यः।' इच्चाइमंतेहिं दिसिपाले विसज्जिय, समोसरणमणुजाणाविय, खमावेइ । जं च इत्थ पुवायरिएहिं भणियं जहा–'अक्खएहिं पुप्फेहिं वा अंजलिं भरित्ता सियवत्थच्छाइयनयणो पराहुत्तो वा काऊण, दिक्खट्ठमुवट्ठिओ संतोऽणंतरोत्तविहिरइयसमोसरणे अक्खयंजलिं पुप्फंजलिं वा खेवाविज्जइ । 15 जइ तस्स मज्झदेसे सिहरे वा पडइ तया जोग्गो; बाहिरे पडइ अजोम्गो । इइ परिक्खं काऊणं सावयत्तदिक्खा दिज्जइ ति।' तं मिच्छद्दिट्टीहोंतो जो सम्मत्तं पडिवज्जइ तं पडुच्च बोधवं । जे पुण परंपरागयसावयकुलप्पसूया तेसिं परिक्खाकरणे न नियमो। अओ चेव सावयधम्मकहा पीइमाइपंचलिंगगम्मस्स अस्थिणो चेव गुरुविणयाइपंचलक्खणलक्खियवस्स समत्थस्सेव सबजणवल्लहत्ताइलिंगपंचगसज्झस्स सुत्तापडिकुट्ठस्सेव य सावयधम्माहिगारिते पुवायरियभणिए वि संपयं परिक्खाए अभावे वि पवाहओ सावयधम्मारोवणं पसिद्धं ति । ॥ ६२४. देववंदणावसरे वढतियाओ य थुईओ इमाओ यदजिनमनादेव देहिनः सन्ति सुस्थिताः। तस्मै नमोस्तु वीराय सर्वविघ्नविघातिने ॥१॥ सुरपतिमतचरणयुगान् नाभेयजिनादिजिनपतीन् नौमि । यदूचनपालनपरा जलाञ्जलिं ददन्ति दुःखेभ्यः ॥२॥ वदन्ति वन्दारुगणाग्रतो जिनाः, सदर्थतो यद् रचयन्ति सूत्रतः। गणाधिपास्तीर्थसमर्थनक्षणे, तदङ्गिनामस्तु मतं तु मुक्तये ॥ ३ ॥ शक्रः सुरासुरवरैः सह देवताभिः, सर्वज्ञशासनसुखाय समुद्यताभिः । श्रीवर्द्धमानजिनदत्तमतप्रवृत्तान्, भव्यान् जनानवतु नित्यममंगलेभ्यः॥४॥ ६२५. संतिनाहाइथुईओ पुण इमाओ रोगशोकादिभिर्दोषैरजिताय जितारये । नमः श्रीशान्तये तस्मै, विहितानतशान्तये ॥५॥ श्रीशान्तिजिनभक्ताय भव्याय सुखसंपदम् । श्रीशान्तिदेवता देयादशान्तिमपनीय मे ॥६॥ सुवर्णशालिनी देयाद् द्वादशाङ्गी जिनोद्भवा । श्रुतदेवी सदा मह्यमशेषश्रुतसंपदम् ॥७॥ 1B पागल। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नन्दिरचनाविधि। . चतुर्वर्णाय संघाय देवी भवनवासिनी। निहत्य दुरितान्येषा करोतु मुखमक्षतम् ॥ ८॥ यासां क्षेत्रगताः सन्ति साधवः श्रावकादयः। जिनाज्ञां साधयन्तस्ता रक्षन्तु क्षेत्रदेवताः॥९॥ अंया निहतडिया मे सिद्ध-बुद्धसुताश्रिता । सिते सिंहे स्थिता गौरी वितनोतु समीहितम् ॥ १० ॥ धराधिपतिपत्नी या देवी पद्मावती सदा। क्षुद्रोपद्रवतः सा मां पातु फुल्लत्फणावली ॥ ११ ॥ चश्चच्चक्रकरा चार प्रवालदलसन्निभा। चिरं चक्रेश्वरी देवी नन्दतादवताच माम् ॥ १२ ॥ खगखेटककोदंडबाणपाणिस्तडिद्युतिः। तुरङ्गगमनाऽच्छुप्ता कल्याणानि करोतु मे ॥ १३ ॥ मथुरापुरिसुपार्श्व-श्रीपार्श्वस्तूपरक्षिका । श्रीकुबेरा नरारूढा सुताङ्का ऽवतु वो भवान् ॥ १४ ॥ ब्रह्मशान्तिः स मां पायादपायादू वीरसेवकः । श्रीमत्सत्यपुरे सत्या येन कीर्तिः कृता निजा ॥ १५ ॥ या गोत्रं पालयत्येव सकलापायतः सदा। श्रीगोत्रदेवता रक्षां सा करोतु नताङ्गिनाम् ॥१६॥ श्रीशक्रप्रमुखा यक्षा जिनशासनसंश्रिताः।। देवा देव्यस्तदन्येऽपि संघ रक्षं त्वपायतः॥१७॥ श्रीमद्विमानमारूढा यक्षमातङ्गसङ्गता। सा मां सिद्धायका पातु चक्रचापेषुधारिणी ॥१८॥ ६२६. अरहाणादि थुत्तं च इमं अरिहाण नमो पूयं अरहंताणं रहस्सरहियाणं । पयओ परमेट्ठीणं अरहंताणं धुयरयाणं ॥१॥ निद्दड्डअट्टकम्मिधणाण वरणाणदंसणधराणं । मुत्ताण नमो सिद्धाणं परमपरमेट्ठिभूयाणं ॥२॥ आयारधराण नमो पंचविहायारसुट्टियाणं च । नाणीणायरियाणं आयारुवएसयाण सया ॥ ३ ॥ यारसविहंगपुवं दिताण सुयं नमो सुयहराणं । सययमुवझायाणं सज्झायज्झाणजुत्ताणं ॥४॥ सवेसिं साहूणं नमो तिगुत्ताण सबलोए वि। तह नियमनाणसणजुत्ताणं घंभयारीणं ॥५॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रपा एसो परमेहीणं पंचण्ह वि भावओ नमोकारो। सबस्स कीरमाणो पावस्स पणासणो होइ ॥ ६॥ भुवणे वि मंगलाणं मणुयासुरअमरखयरमहियाणं । सवेसिमिमो पढमो होइ महामंगलं पढमं ॥७॥ चत्तारिमंगलं मे हुतु रहंता तहेव सिद्धा य । साहू अ सबकालं धम्मो य तिलोअमंगल्लो ॥८॥ चत्तारि चेव ससुरासुरस्स लोगस्स उत्तमा हुति । अरहंत-सिद्ध-साहू धम्मो जिणदेसियमुयारो॥९॥ चत्तारि वि अरहंते सिद्ध साहू तहेव धम्मं च । संसारघोररक्खसभएण सरणं पवनामि ॥१०॥ अह अरहओ भगवओ महह महावीरवद्धमाणस्स । पणयसुरेसरसेहरवियलियकुसुमचियकमस्स ॥११॥ जस्स वरधम्मचकं दिणयरबिंब व भासुरच्छायं । तेएण पजलंतं गच्छइ पुरओ जिणिंदस्स ॥ १२ ॥ आयासं पायालं सयलं महिमंडलं पयासंतं । मिच्छत्तमोहतिमिरं हरेइ तिण्हं पि लोयाणं ॥१३॥ सयलम्मि वि जीयलो' चिंतियमेत्तो करेह सत्ताणं । रक्खं रक्खस-डाइणि-पिसाय-गह-जक्ख-भूयाणं ॥ १४ ॥ लहइ विवाए वाए ववहारे भावओ सरंतो य । जूए रणे य रायंगणे य विजयं विसुद्धप्पा ॥१५॥ पचूस-पओसेसुं सययं भवो जणो सुहज्झाणो। एवं झाएमाणो मुक्खं पइ साहगो होइ ॥ १६ ॥ वेयाल-रुद्द-दाणव-नरिंद-कोहंडि-रेवईणं च ।। सवेसि सत्ताणं पुरिसो अपराजिओ होइ ॥१७॥ विजु व पजलंती सवेसु वि अक्खरेसु मत्ताओ। पंच नमोक्कारपए इविक्के उवरिमा जाव ॥ १८ ॥ ससिधवलसलिलनिम्मलआयारसहं च वणियं बिंदुं । जोयणसयप्पमाणं जालासयसहसदिप्पंतं ॥ १९॥ सोलससु अक्खरेसुं इकिक अक्खरं जगुज्जोयं । भवसयसहस्समहणो जंमि ठिओ पंच नवकारो ॥ २०॥ जो थुणति हु इकमणो भविओ भावेण पंचनवकारं । सो गच्छह सिवलोयं उज्जोयंतो दसदिसाओ ॥२१॥ तव-नियम-संजमरहो पंचनमोकारसारहिनिउत्तो। नाणतुरंगमजुत्तो नेइ फुडं परमनिवाणं ॥२२॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नन्दिरचनाविधि। सुद्धप्पा सुद्धमणा पंचसु समिईसु संजय तिगुत्ता। जे तम्मि रहे लग्गा सिग्धं गच्छंति सिवलोयं ॥ २३ ॥ थंभेइ जलं जलणं चिंतियमत्तो वि पंचनवकारो। अरि-मारि-चोर-राउल-घोरुवसग्गं पणासेइ ॥ २४ ॥ अटेव य अट्ठसया अट्ठसहस्सं च अट्ठकोडीओ। रक्खं तु मे सरीरं देवासुरपणमिया सिद्धा ॥ २५ ॥ नमो अरहंताणं तिलोयपुज्जो य संठिओं भयवं । अमरनररायमहिओ अणाइनिहणो सिवं दिसउ ॥२६॥ सवे पओसमच्छरआहियहियया पणासमुवयंति। दुगुणीकयधणुसदं सोउं पि महाधणुं सहसा ॥ २७ ॥ इय तिहुयणप्पमाणं सोलसपत्तं जलंतदित्तसरं । अट्ठारअट्ठवलयं पंचनमोकारचक्कमिणं ॥ २८ ॥ सयलुज्जोइयभुवणं विद्दावियसेससत्तुसंघायं । नासियमिच्छत्सतमं वियलियमोहं हयतमोहं ॥ २९ ॥ एयरस य मज्झत्थो सम्मदिही विसुद्धचारित्तो। नाणी पवयणभत्तो गुरुजणसुस्सूसणापरमो ॥ ३० ॥ जो पंच नमोकारं परमो पुरिसो पराइ भत्तीए । परियत्तेइ पइदिणं पयओ सुद्धप्पओ अप्पा ॥ ३१ ॥ अट्ठेव य अट्ठसयं अट्ठसहस्सं च उभयकालं पि। अहेव य कोडिओ सो तइयभवे लहइ सिद्धिं ॥ ३२॥ एसो परमो मंतो परमरहस्सं परंपरं तत्तं । नाणं परमं नेयं सुद्धं झाणं परं झेयं ॥ ३३ ॥ एयं कवयमभेयं खाइयमत्थं परा भुवणरक्खा । जोईसुन्नं बिंदुं नाओ'तारालवो मत्तो ॥ ३४ ॥ सोलसपरमक्खरबीयबिंदुगम्भो जगोत्तमो जोओं। सुयबारसंगसायरमहत्थपुत्वत्थपरमत्थो ॥ ३५॥ नासेइ चोर-सावय-विसहर-जल-जलण-बंधणसयाई । चिंतिजंतो रक्खस-रण-रायभयाई भावेण ॥ ३६ ॥ ॥ अरिहाणादिथुत्तं समत्तं ॥ अन्नं पि वा परमिट्ठियवणं भणिज्जइ त्ति । ॥ नंदिरयणाविही समत्तो ॥ १५॥ 1A °मित्थं । 2 C रक्खो। SA तारो। 4 A मित्तो। विधि.५ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ विधिप्रपा। ६२७. सावओ कयाइ चारित्तम.हणीयकम्मक्खओवसमेणं पवजापरिणामे जाए दिक्ख पडिवज्जइ ति, तीए विही भण्णइ -- पवज्जादिणस्स पुवदिणम्मि संझासमये वयग्गाही सत्तो जहाविभूईए मंगलतूरसहिओ रयहरणाइवेससंगयछब्बएणं अविहवसुइनारीसिरम्मि दिनेणं समागम्म गुरुवसहीए, समोसरणाइ-पूयसकारं अक्खयवत्तनालिएरसहियं करेता गुरूणं पाए वंदइ । तओ गुरू वासचंदणअक्खए अहिमंतिऊण सीसस्स • सिरम्मि वासे खिवंतो वद्धमाणविज्जाईहिं अट्टाओ अहिवासिय कुसुभरत्तदसियाए उग्गाहेइ, चंदणं अक्खए य सिरे देइ । तओ रयहरणाइवेसमहिवासिय तस्स मज्झे पूगीफलानि पंच सत्त नव पणवीसं वा पक्खिवावेइ । भूइपोट्टलियं च वेसछब्बएणं अविहवनारीसिरदिन्नएणं उभओ पासट्टिएसु निक्कोसखग्गहत्थेसु दोसु पञ्चइयनरेसु गिहं गंतूण जिणबिंबे पूइत्ता, तेसिं पुरओ सासणदेवयापुरो वा छब्बयं ठवित्ता, रयणि जग्गति । सावया सावियाओ य देव-गुरूणं चउबिहसंघस्स य गीयाणि गायमाणीओ चिट्ठति, जाव पभायवेला । तओ ॥ पभाए गुरूणं चउविहसंघसहियाणं गिहमागयाणं पूर्व काऊण अमारिघोसणापुवयं दाणं दावितो जहोचियं सयणाइवग्गं सम्माणेइ । तओ तस्स माइपिइबंधुवग्गो गुरूणं पाए वंदिय भणइ -'इच्छाकारेण सच्चित्तभिक्खं पडिग्गाहेह ।' गुरू भणइ -'इच्छामो, वट्टमाणजोगेण ।' तओ गुरुसहिओ जाणाइसु आरूढो मंगलतूररवेणं सयमेव दाणं दितो जिणभवणे समागच्छइ । लागाइकारणे पच्छा वा । तओ जिणाणं पूर्व करेइ । तओ अक्खयाणं अंजलिं नालिएरसहियं भरिऊणं पयाहिणत्तयं नमोक्कारपुवयं देइ । तओ पुवोत्तविहिणा 15 पुप्फे अक्खए वा खेवाविज्जइ, परिक्खानिमित्तं । तओ पच्छा इरियावाहियं पडिक्कमिऊण खमासमणपुवयं पुचिं पडिवन्नसम्मत्ताइगुणो सीसो भणइ – 'इच्छाकारेण तुब्भे अम्हं सवविरइसामाइयआरोवणत्थं चेइयाई वंदावेह' । जो पुण अपडिवन्नसम्मत्ताइगुणो सो 'सम्मत्तसामाइय-सबविरइसामाइयआरोवणत्थं' ति भणइ । गुरू आह-'वंदावेमो' । पुणरवि खमासमणं दाउं, गुरुपुरओ जाणूहि ठाइ । गुरू वि तस्स सीसे वासे खिवेइ । तओ गुरुणा सह चेइयाइं वंदेइ । गुरू वि सयमेव संतिनाह-संतिदेवयाइथुईओ देइ । सासण॥ देवयाकाउस्सग्गे उज्जोयगरचउक्कं चंदेसुनिम्मलयरापज्जतं चिंतंति । गुरू वि पारित्ता थुई देइ, सेसा काउस्सग्गठिया सुगंति । पच्छा सो वि य उज्जोयगरं पढंति । तओ नमोकारतयं कडेति । तओ जाणूहिं ठाऊण सकत्थयं पंचपरमेट्टित्थवं च भणिति । तओ गुरू वेसमभिमंतेइ । पच्छा खमासमणं दाउं सीसो भणइ -'इच्छाकारेण संदिसह तुब्भे अम्हं रयहरणाइवेसं समप्पेह' । तओ नमोक्कारपुवं 'सुगृहीतं कारेह' त्ति भणंतो सीसदक्खिणबाहासंमुहं रओहरणदसियाओ करितो पुवाभिमुहो उत्तराभिमहो वा वेसं समप्पेड । - पुणो खमासमणं दाउं, रयहरणाइवेसं गहाय, ईसाणदिसाए गंतूण आभरणाइअलंकारं ओमुयइ । वेसं परिहरेइ । पयाहिणावत्तं । चउरंगुलोवरि कप्पियकेसो गुरुपासमागम्म खमासमणं दाउं भणइ 'इच्छाकारेण तुब्भे अम्हं अड्डे गिण्हह' । पुणो खमासमणं दाउं उद्घट्टियस्स ईसिमोणयकायस्स नमोक्कारतिगमुच्चरित्तु उद्धढिओ गुरू पत्ताए लग्गवेलाए समकालनाडीदुगपवाहवजं अभितरपविसमाणसासं अक्खलियं अट्टातिगं गिण्हइ । तस्समीवढिओ साहू सदसवत्थेणं अट्टाओ पडिच्छइ । तओ खमासमणं दाउं सीसो भणइ - " 'इच्छाकारेण तुब्भे अम्हं सवविरइसामाइयआरोवणत्थं काउस्सग्गं करावेह । खमासमणपुवयं 'सबविरइसामाइयआरोवणत्थं करेमि काउस्सग्गं अन्नत्थूससिएण' मिच्चाइ पढिय, उज्जोयगरं सागरवरगंभीरापजंतं सीसो गुरू य दो वि चितंति । पारित्ता उज्जोयगरं भणति । तओ खमासमणं दाऊं सीसो भणइ -'इच्छाकारेण तुब्भे अम्हं सबविरइसामाइयसुत्तं उच्चारावेह' । गुरू आह–'उच्चारावेमो' । पुणो खमासमणं दाऊण ईसिमोणयकाओ गुरुवयणमणुभणतो, नमोक्कारतिगपुवं सवविरइसामाइयसुत्तं वारतिगमुच्चरइ । गुरू मंतो t'शिखा' इति Aटि ब ध्नाति' इति B टि। 1 B सयणवरगं । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव्रज्याविधि-लोचकरणविधि । चारणपुर्व पणामं काउं लोगुत्तमाणं पाएसु वासे खिवेइ । अक्खए अभिमंतिऊण संघस्स देइ । तओ खमासमणं दाउं सीसो भणइ -'इच्छाकारेण तुब्भे अम्हं सबविरइसामाइयं आरोवेह' । गुरु भणइ -'आरोवेमो'। खमासमणं दाउं सीसो भणइ -'संदिसह किं भणामो'। गुरू भणइ-वंदित्ता पवेयह' । पुणो खमासमणं दाउं भणइ –'इच्छाकारेण तुम्भे अम्हं सधविरइसामाइयं आरोवियं ?' गुरू वासक्खेवपुवयं भणइ –'आरो. वियं'। ३ खमासमणाणं, 'हत्थेणं सुत्तेणं, अत्थेणं, तदुभएणं, सम्मं धारणीयं, चीरं पालणीयं, नित्थारग- 5 पारगो होहि, गुरुगुणेहिं वड्डाहि' । सीसो-'इच्छामो अणुसटिं'ति भणित्ता खमासमणं दाऊण भगइ'तुम्हाणं पवेइयं, संदिसह साहूणं पवेएमि' । तओ खमासमणं दाउं नमोकारमुच्चरंतो पयाहिणं देइ, वाराओ तिन्नि । संघो य तस्सिरे अक्खयनिक्खेवं करेइ । तओ खमासमणं दाउं भणइ -'तुम्हाणं पवेइयं, संदिसह काउस्सग्गं करेमि' । गुरू भणइ –'करेह' । खमासमणं दाउं 'सबविरइसामाइयआरोवणत्थं करेमि काउसम्ग, अन्नत्थूससिएण'मिच्चाइ पढिय, सागरवरगंभीरापजंत उज्जोयगरं चिंतिय, पारिता उज्जोयगरं पढइ ।। तओ खमासमणपुवं भणइ -'इच्छाकारेण तुम्हे अम्हं सबविरइसामाइयथिरीकरणत्थं काउस्सगं करावेह' । 'सवविरइसामाइयथिरीकरणत्थं करेमि काउस्सग्गं' । तत्थ सागरवरगंमीरापज्जतं उज्जोयगरं चिंतिय पारिता उज्जोयगरं पढइ । तओ खमासमणं दाउं–'इच्छाकारेण तुब्भे अम्हं नामठवणं करेह' । गुरू भणइ-- 'करेमो' । तओ वासे खिवंतो रवि-ससि-गुरुगोयरसुद्धीए जहोचियं नामं करेइ । तओ कयनामो सेहो सबसाहूणं वंदेइ । अज्जिया सावया सावियाओ वि तं वंदति । तओ खमासमणपुवयं सेहो गुरुं भणइ - 15 तुब्भे अम्हं धम्मोवएसं देह' । पुणो खमासमणं दाउं जाणूहि ठिओ सीसो सुणइ । गुरू चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणीह देहिणो। माणुसत्तं सुई सद्धा, संजमंमि य वीरियं ॥ इच्चाइ उत्तरज्झयणाणं तइयज्झयणं चाउरंगिज्जं वक्खाणइ । पञ्चज्जाविहाणं वा । “जयं चरे जयं चि?" इच्चाइयं वा । सो वि संवेगाइसयओ तहा सुणेइ, जहा अन्नो वि को वि पश्चयइ । इत्थ संगहो- . चिइवंदण बेसऽप्पण समइय' उस्सग्ग लग्ग अगहो । सामाइय तिय कड्डण तिपयाहिण वास उस्सग्गो॥ ॥ पवज्जाविही समत्तो ॥ १६ ॥ ६२८. पवइएण य लोओ कायो । अओ तबिही भण्णइ - गुरुसमीवे खमासमणदुगेण मुहपोत्ति पडिलेहिय दुवालसावत्तवंदणं दाउं, पढमखमासमणेण 'इच्छाकारेण संदिसह लोयं संदिसावेमि'; बीए 'लोयं 25 कारेमि'; तइए 'उच्चासणं संदिसावेमि'; चउत्थए 'उच्चासणे ठामि' । तओ लोयगारं खमासमणपुत्र भणइ'इच्छाकारि लोयं करेह' । मत्थयरक्खधारिणो य इच्छाकारं देइ । तओ पुर्वि पडिवय नवमी तइया इक्कारसी य अग्गीए । दाहिणि पंचमि तेरसि, बारसि चउत्थि नेरहए ॥१॥ पच्छिम छट्टि चउद्दसि सत्तमि पडिपुन्न वायव दिसाए । दसमि दुइजा उत्तर, अहमि अमावसा य ईसाणे ॥२॥ इइ गाहक्कमेण जोगिणीओ वामे पिट्टओ वा काउं, बुह-सोमवारेसु चंदबलाइभावे सुक्क-गुरुसुवि, पुस्स-पुणवसु-रेवइ-चित्ता-सवण-धणिट्ठा-मियसिर-ऽस्सिणि-हत्थेसु कित्तिया-विसाहा-महा 1 'सामायिक । सर्वविरतिसामायिकोत्सर्गः।' इति A टिप्पणी । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ विधिप्रपा । 1 भरणीवज्जे अन्नेसु वा रिक्खेसु उवविसिय सम्ममहियासंतो लोयं कारिय, लोयगारबाहुं विस्सामिय, इरियाबहियं पडिक्कमिय, सक्कत्थयं भणिय, गुरुसमीवमागम्म, खमासमणदुगेण मुहपोत्ति पडिलेहिय, दुवाल - सावत्तवंदणं दाउ, खमासमणं दाउं, पढमखमासमणे भणइ - 'इच्छाकारेण संदिसह लोयं पवेएमि' । गुरू भणइ – 'पवेयह'; बीए 'संदिसह किं भणामो' । गुरू भणइ - ' वंदित्ता पवेयह ' ; तइए 'केसा मे पज्जुवा - ' सिया' । तओ ‘दुक्करं कथं, इंगिणी साहिय'त्ति गुरुणा वुत्ते 'इच्छामो अणुसट्ठि 'ति भइ । चत्थे 'तुम्हा पवेयं, संदिसह साहूणं पवेएमि'; पंचमे नमोक्कारं भणइ । छट्ठेणं 'तुम्हाणं पवेइयं, साहूणं पवेइयं, संदिसह काउस्सम्गं करेमि' । सत्तमे केसेसु पज्जुवासिज्जमाणेसु सम्मं जन्न अहियासियं, कुइयं कक्कराइयं छीयं जंभाइयं तस्स ओहडावणियं करेमि काउस्सग्गं अन्नत्थूससिएण मिच्चाइणा सत्तावीसुस्तासं काउस्सग्गं करेइ । चवीसत्यं भणिता जहारायणियं साहू वंदह, पाए य विस्सामेइ । जो उण सयं चिय लोयं करेइ सो " संदिसावणपवेयणाइ न करेइ । ॥ इइ लोयकरणविही ॥ १७ ॥ § २९. पबइएण य उभयकालं पडिक्कमणं विहेयं । तविही य सावयकिञ्चाहिगारे वृत्तो । जओ साहूणं सावयाण पडिक्कमणविही तुल्लो चेव । नाणत्तं पुण इमं - साहुणो ससूरिए चेव चउबिहाहारं पच्चक्खिय, जलाइ उज्झिय, जलभंडाइ संठविय, सम्मं इरियं पडिक्कमिय, चउवीसं थंडिले जहन्नओ बिहत्थमित्ते बाहिं अंतो य " अहियासि-अणहियासिजुग्गे आसन्ने मज्झिमे दूरे य दंडाउंछणेणं पेहिय गुरुपुरओ खमासमणेण 'गोयरचरियं पडिक्कमेमो'; बीयखमासमणेणं 'गोयरचरियपडिक्कमणत्थं काउस्सग्गं करेमो' त्ति भणित्ता, अन्नत्थूससिएणमिच्चाइ भणित्ता, नवकारं चिंतिय पढित्ता य इमं गाहं घोसंति - 20 तओ अहारायणियाए साहू वंदित्ता, तहा देवसियपडिक्कमणमारभंति, जहा चेइयवंदणाणतरं अद्धनिवुडे सूरिए सामाइयसुत्तं कğति । सावया पुण वावारबाहुल्लेण अत्थमिए वि पडिक्कमति । तहा साहुणो रयणीचरमजामे जागरिय, सत्तट्ठ नवकारे भणिय, इरियं पडिक्कमिय, कुसुमिण - दुस्सिमिणुस्सग्गे उज्जोयचउक्कं चिंतिय, सक्कत्थएण चेहए वंदिय, मुहपोतिं पडिलेहिय, खमासमणदुगेण सज्झायं संदिसाविय, नवकारं सामाइयं च तिक्खुत्तो कड्डिय, अहारायणियाए साहू वंदिय, सज्झायं काउं, पडिक्कमणाणंतरं मुह० पोती - रयहरण-निसिज्जा - दुगचोलपट्ट - कप्पतिग- संथारुत्तरपट्टेसु पडिलेहिएसु जहा सूरो उट्ठेइ तहा वेलं तुला इयं पडिकiति । तहा चेइयवंदणाणंतरं साहुणो खमासमणदुगेण 'बहुवेलं संदिसावेमि, बहुवेलं करेमि' त्ति भणित्ता, आयरियाई वंदति । सावया पुण बहुवेलं न संदिसावेयंति अपोसहिया । तहा साहुणो 'आयरियउवज्झाए' इच्चाइगाहातिगं न भणति । पडिक्कमणसुत्तं च साहूणं 'चचारिमंगल' मिच्चाइ । सावयाणं तु 'वंदित्तु सबसिद्धे' इच्चाइ । तहा पक्खिए पज्जेतियखामणाणंतरं चउसु छोभवंदणएस साहुणो " भूनिहितसिरा 'पियं च मे जं भे' इच्चाइदंडगे भणति । सावया पुण तिन्नि तिन्नि नवकारे पढंति । पढमे छोभवंदणए 'साहूहिं समं'; बीए 'अहमवि चेइयाइं वंदे'; तइए 'गच्छस्स संतियं'; चउत्थे 'नित्थारपारगा होह 'त्ति जहक्कमं गुरुवयणाई । पक्खियसुत्तं च साहूणं 'तित्थं करेइ तित्थे' इच्चाइ | सावयाणं पुण पडिकमणसुतमेव । तहा साहुणो खुद्द वद्दवकाउस्सग्गाणंतरं पक्खिए चाउम्मासिए वा 'असज्झाइय अणाउत्तओहडावणियं करेमि काउस्सगं अन्नत्थूससिएण' मिच्चाइ भणिय, चउगुणं पंचवीसुस्तासं काउस्सग्गं कुणति । " सावया न कुणंति । कालो गोयरचरिया थंडिल्ला वत्थपत्तपडिलेहा । भर सो साहू जस्सवि जं किंचि अणुवउत्तं ॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपयोगविधि-आदिमअटनविधि । ६३०. संपयं उवओगं विणा न भत्तपाणविहरणं ति उवओगविही भण्णइ - तत्थ सूरिए उग्गए पमज्जियाए वसहीए गुरुणो पुरओ आयरिय-उवज्झाय-वायणायरिया पंगुरिया, सेसा कडिपट्टमित्तावरणा पढमे खमासमणे 'सज्झायं संदिसावेमि' त्ति; बीए 'सज्झायं करेमि' त्ति भणिय, जाणूवरि धरियरयहरणा मुहपोत्तियाथइयवयणा 'धम्मो मंगलाइ' सत्तरससिलोगे थेरावलियं वा सज्झायं सुत्तपोरिसि-आयारसच्चवणत्थं करित्ता, खमासमणं दाउं 'उवओगं संदिसावेमि'त्ति; बीए 'उवओगं करेमि'त्ति भणिय, उठ्ठित्तु 'उवओगस्स कारा-1 वणियं करेमि काउस्सग्गं'ति दंडगं भणिय, काउस्सग्गं करिय, नवकारं चिंतेति । गुरुणो पुण नवकारं चिंतित्ता वारतिगं मंतं सुमरिति । सो य इमो अउम् अ म्ओ भ्अ ग्अ अ त्इ कआ म्ए शवअ इ अनन्अम् पऊ अम् भ्अ अ त्उ सूआ हुआ। तओ नमोक्कारेण गुरुणा पारिए काउस्सग्गे, साहणो पारिता पंचमंगलं भणति । तओ जिट्टो । ओणयकाओ भणइ -'इच्छाकारेण संदिसह' । इत्थंतरे गुरुनिमित्तोवउत्तो भणइ 'लाभु' त्ति पुणो जिट्ठो ओणयतरकाओ भणइ - 'कह लेसहं' । गुरू भणइ 'तह'त्ति । जहा पुवसाहूहिं गहियं तहा चित्तवमित्यर्थः । तओ इत्थं आवसियाए जस्स वि जोगो त्ति भणिऊण जहारायणियाए साहुणो वंदति । ॥ उवओगविही समत्तो ॥१८॥ $३१. कए य उवओगे सो नवदिक्खिओ भोम-सणिवज्जिय पसत्थदिणे, चित्ता-अणुराहा-रेवई-मियसिर- 11 रोहिणि-तिउत्तरा-साइ-पुणवसु-स्सवण-धणिट्ठा-सयभिस-हत्य-स्सिणि-पुस्स-अभीइरिक्खेसु अहिणवपत्ताबंध उग्गाहिय कयवासक्खेवपत्तो महसवपुर्व गोयरचरियाए गीअत्थसाहुसहिओ भिक्खालाभं जाव भूमिअट्ठवियदंडगो वच्चइ । तओ उच्च-नीय-मज्झिमकुलेसु एसियं वेसियं गवेसियं' फासुयं घयाइभिक्खमादाय पडिनियत्तो-'निसीही ३, नमो खमासमणाणं गोयमाईणं महामुणीणं' ति भणिय उवस्सए पविसइ । तओ गुरुपुरओ खमासमणपुवं इरियं पडिक्कमिय, काउस्सग्गे जं जहा गहियं तं तहा चिंतिय, ॥ नमोक्कारेण पारिता, गमणागमणं आलोइत्ता, कविया-करोडिया-चट्ठयाइणा इत्थीओ पुरिसाओ वा जं जहा गहियं भत्तपाणं तं तहा आलोइज्जा । तओ 'दुरालोइय-दुपडिकंतस्स इच्छामि पडिक्कमिउं गोयरचरियाए मिक्खायरियाए'...इच्चाइ जाव... उग्गमेण उप्पायणेसणाए अपरिसुद्धं पडिग्गाहियं परिभुत्तं वा जं न परिट्ठवियं तस्स मिच्छामि दुक्कडं । तस्सुत्तरीकरणेणमिच्चाइ...जाव...वोसिरामि ति पढिय, काउस्सग्गे य अहो जिणेहिसावज्जा, वित्ती साहूण देसिया। मोक्खसाहणहेउस्स साहुदेहस्स धारणा ॥१॥ इइ चिंतेइ । तओ नमोक्कारेण पारिता, चउविसत्थयं भणिता, भत्तपाणं पाराविय, उवरिं अहे य पमज्जियाए भूमीए दंडगं ठाविय, देवे वंदित्ता जहन्नओ वि 'धम्मो मंगलमुक्किट्ट'मिच्चाइ सत्तरससिलोगे सज्झायं करित्ता, जहारायणियं जहारिहं दवाइ जेसि न अट्ठो ते अणुन्नवित्ता, मुहपोत्तियाए मुहं पडिलेहिता, रयहरणेण पायभाणट्ठाणं च पमज्जिय, असुरसुरमिच्चाइविहिणा अरत्तदुट्टो जेमेइ । ॥ आइमअडणविही ॥ १९ ॥ १ एषणादोषपरिशुद्ध एसियं। २ वेषमात्रेण लब्धं तत्त्वमुकोऽहं अमुकशिष्य एवंगुण इत्यादि कथनत इति वेसियं । ३खंयं गत्वा अवलोकितं गवेसियं। ४ एतेनादौ घृतं विहर्तव्यमित्युक्तम् । इति A आदर्श टिप्पणी । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रपा। ३२. तत्तो य आवस्सगतवं कारिजइ । मंडलिसत्तगायंबिलाणि य । मंडलिसत्तगं च इमं मुत्ते' अत्थे भोयण' काले आवस्सए य' सज्झाए। संथारए विय तहा सत्तेया मंडली होती ॥१॥ अन्ने पुणुवट्ठावियं चेव कारियायंबिलं मंडलीए पवेसंति, तं च जुत्तयरं । जओ भणियं अणुवट्ठावियासहं अकयविहाणं च मंडलीए उ। जो परिभुजइ सहसा सो गुत्तिविराहगो भणिओ ॥२॥ तओ दसवेयालियतवं कारित्ता उट्ठावणा कीरइ । आवस्सय-दसवेयालियजोगविही उवरि भण्णिही। तीए विही पुण इमो पढिए य कहिय अहिगय परिहर उवठावणाए सो कप्पो। छक्कं तेहिं विसुद्धं परिहरनवएण भेएण ॥३॥ 'धम्मो मंगलाइ-छज्जीवणियामुत्तं' पाढित्ता, तस्सेव अत्थं कहित्ता, पुढविकायाइजीवरक्खणविहिं जाणावित्ता, पाणाइवायविरमणाईणि वयाणि सभावणाई साइयाराणि कहिय, पसत्थे तिहि-करणजोगे ओसरणे गुरू अप्पणो वामपासे सीसं ठावेऊण मुहपोत्तिं पडिलेहाविय, दुवालसावत्तवंदणयं दाविय भणेइ - 'इच्छाकारेण तुन्भे अम्हं पंचमहत्बयाणं राईभोयणवेरमणछट्ठाणमारोवणत्थं चेइयाइं वंदावेह' । गुरू भणइ -'वंदा॥ वेमो' । तओ सेहस्स वासक्खेवं काउं ववमाणथुई हिं चेइए वंदिय, जाव थोत्तभणणं पणिहाणपज्जतं । तओ सेहं खमासमणं दावित्ता, पंचमहावयसुत्तउच्चारावणत्थं सत्तावीसुम्सासं काउस्सग्गं कराविय, चउवीसत्थय भाणिवा, लोगुत्तमाण पाएसु वासे छुहित्ता, पंचमंगलं तिक्खुत्तो कवित्ता, गुरुकुप्परेहिं पढें धरिय, वामहत्यअणामियाए मुहपोत्तिं लंबंति धरित्ता, गयग्गदंतोन्नएहिं करेहिं रयहरणं धारिय, तिक्खुत्तो पंचमहत्वयाई राईभोयणवेरमणछट्ठाई उच्चारावेइ । जाव लग्गवेलाए 'इच्चयाइं पंचमहत्बयाई' इति आलावगं तिन्निवारे ॥ कवेइ । गुरू वासक्खए अभिमंतेइ । तओ गुरू लोगुत्तमाण पाएसु वासे खिवइ । वासक्खए अभिमंतिए संघस्स देइ । तओ खमासमणं दाउं सीसो भणइ-'इच्छाकारेण तुब्भे अम्हं पंचमहत्वयाइं राईभोयणवेरमणछट्ठाई आरोवेह' । गुरू भणइ -'आरोवेमि' । सीसो खमासमणं दाउं भणइ -'संदिसह किं भणामो' । गुरू भणइ -'वंदित्ता पवेयह' । पुणो खमासमणं दाउं भणइ -'इच्छाकारेण तुब्भेहिं अम्हं पंचमहब्धयाइं राईभोयणवेरमणछट्ठाइं आरोवियाई ?' । गुरू वासक्खेवपुवयं भणइ -'आरोवियाइं ।' ३ खमासमणाणं, हत्थेणं, " सुत्तेणं, अत्थेणं, तदुभएणं, सम्मं धारणीयाणि, चिरंपालणीयाणि, नित्थारगपारगो होहि, गुरुगुरुणेहिं वड्ढाहिइ ।' सीसो 'इच्छामो अणुसटिं'ति भणित्ता, खमासमणं दाऊण भणइ -'तुम्हाणं पवेइयं, संदिसह साहूणं पवेएमि' । तओ खमासमणं दाउं नमोक्कारमुच्चरंतो पयाहिणं देइ वाराओ तिन्नि । संघो य तम्स सिरे वासअक्खयनिक्खेवं करेह । तओ खमासमणं दाऊण भणइ -'तुम्हाणं पवेइयं, साहूणं पवेइयं, संदिसह काउस्सग्गं करेमि' । गुरू भणइ -'करेह' । खमासमणं दाऊग पंचमह खयाणं राईभोयणवेरमणछट्ठाणं आरोवणत्थं • करेमि काउस्सम्ग, अन्नत्थूससिएण'-मिच्चाइ पढिय, सागरवरगंभीरापजंतं उज्जोयगरं चिंतिय, पारिता उज्जोयगरं पढइ । तओ खमासमणपुवयं भणइ -'इच्छाकारेण तुम्मे अम्हं पंचमहत्वयाणं राईभोयणवेरमणछट्ठाणं थिरीकरणत्यं काउस्सम्ग करावेह' । गुरू मणइ -'करावेमो' । 'पंचमहबयाणं राईभोयणवेरमणछट्ठाणं थिरीकरणत्यं करेमि काउस्सम्म' इच्चाइ भणिय, काउम्सम्यं करेइ । तत्थ सागरवरगंमीरापज्जतं उज्जोयगरं चिंतिय, पारिता उज्जोयगरं पढइ । तओ खमासमणं दाउं भणइ -'इच्छाकारेण तुम्भे अम्हं नामठवणं ॥ करेह' । गुरू भणइ -'करेमो' । तओ वासे खिवंतो जहोचियं नामं करेइ । तओ कयनामो सीसो सो Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपस्थापनाविधि। २९ साहुणो वंदइ । अजिया सावया सावियाओ वि तं वंदति । पुणो खमासमणं दाउं भणइ -'इच्छाकारेण तुम्हे अम्हं दिसिबंध करेह' । गुरू भणइ -'करेमो' । तओ सीसस्स आयरिओवज्झायरूवो दुविहो दिसिबंधो कीरए । जहा-चंदाइयं कुलं, कोडियाइओ गणो, वइराइया साहा, अप्पणिञ्चया गुरुणो आयरिया उवज्झाया य । गच्छे य उवज्झायाभावे आयरिया चेव उवज्झाया । साहुणीए अमुगा पवत्तिणीय ति तिविहो । तम्मि दिणे जहासत्तीए आयामनिधियाइ तवो कारिजइ । तओ खमासमणपुष्वयं सीसो गुरुं भणइ-। 'तुन्भे अम्हं धम्मोवएस देह' । पुणो खमासपणं दाउं जाणूहिं ठिओ सीसो सुणइ । गुरू य नायाधम्मकहाअंग-पढमसुयक्खंध-सत्तमज्झयणस्स रोहिणीनायस्स अत्थओ वक्खाणं करेइ । सो वि संवेगाइसयओ तहा सुणेइ, जहा अन्नो वि को वि पञ्चयइ । रोहिणीनायं पुण सुपसिद्धं । तस्स य अत्थोवणओ एवं६३३. जह सिट्ठी तह गुरुणो जह नाइजणो तहा समणसंघो। जह वहुया तह भवा जह सालिकणा तह वयाइं ॥१॥ जह सा उज्झियनामा उज्झियसाली जहत्थमभिहाणा। पेसणगारित्तेणं असंखदुक्खक्खणी जाया ॥२॥ तह भषो जो कोई संघसमक्खं गुरुविइन्नाई। पडिवजिउं समुज्झइ महत्वयाइं महामोहो ॥ ३ ॥ सो इह चेव भवंमी जणाण धिक्कारभायणं होइ । परलोए उ दुहत्तो नाणाजोणीसु संचरइ ॥४॥ उक्तं च-धम्माउ भट्ट सिरिओववेयं जन्नग्गिविज्झायमिवप्पतेयं । हीलंति णं दुविहियं कुसीला दाढोद्वियं घोरविसं व नागं ॥५॥ इहेव धम्मो अयसो अ कित्ती दुन्नामधिज्मं च पिहुजणंमि। चुअस्स धम्माउ अहम्मसेविणो संभिन्नचित्तस्स उ हिडओ गई॥६॥ ॥ जहवा सा भोगवई जहत्थनामोवभुत्तसालिकणा। पेसणविसेसकारित्तणेण पत्ता दुहं चेव ॥७॥ तह जो महत्वयाइं उवभुंजइ जीविय त्ति पालिंतो। आहाराइसु सत्तो चत्तो सिवसाहणिच्छाए ॥८॥ सो इत्थ जहिच्छाए पावइ आहारमाइ लिंगि त्ति । विउसाण नाइपुजो परलोगम्मी दुही चेव ॥९॥ जहवा रक्खियवहुया रक्खियसालीकणा जहत्थक्खा । परिजणमन्ना जाया भोगसुहाई च संपत्ता ॥१०॥ तह जो जीवो सम्म पडिवजित्ता महत्वए पंच । पालेइ निरइयारे पमायलेसं पि वजंतो॥११॥ सो अप्पहिइकरुई इहलोयंमि वि विऊहिं पणयपओ। एगंतसुही जायइ परंमि मोक्खं पि पावेइ ॥१२॥ जह रोहिणी उ सुण्हा रोवियसाली जहत्थमभिहाणा। वड्डित्ता सालिकणे पत्ता सबस्स सामित्तं ॥ १३ ॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . विधिप्रपा। तह जो भवो पाविय वयाई पालेइ अप्पणा सम्म । अन्नेसि वि भवाणं देइ अणेगेसि हियहे ॥१४॥ सो इह संघपहाणो जुगप्पहाणो त्ति लहइ संसदं । अप्पपरेसिं कल्लाणकारओ गोयमपहु च ॥१५॥ तित्थस्स बुड्डिकारी अक्खेवणओ कुतित्थियाईण । विउसनरसेवियकमो कमेण सिद्धिं पि पावेइ ॥१६॥ उट्ठावणा जहन्नओ सत्तराईदिएहिं, सा पुण पुधोवट्ठावियपुराणस्स कीरइ । मज्झिमओ चउहिं मासेहिं, सा य अणहिजओ मंदसद्धस्स य । उक्कोसओ छम्मासेहिं, सा य दुम्मेहस्स । असद्भहओ य लग्गाइकारणे य अइरिनेणावि कालेण कीरइ ति ॥ ॥ उट्ठावणाविही समत्तो ॥२०॥ ६३४. उट्ठाविएण य सुयमहिज्झियवं । सुयाहिज्झणं च न जोगवहणमंतरेण त्ति संपयं जोगविही भण्णइ-तत्थ पढमं ताव जोगवाहीहिं एवं भूएहिं होय।। पियधम्मा मुविणीया लज्जालुइया तहा महासत्ता। उज्जुत्ता य विरत्ता दढधम्मा सुट्टियचरित्ता ॥१॥ जियकोह-माण-माया जियलोहा जियपरीसहा निरुया। मण-वयण-कायगुत्ता एरिसया जोगवाहीओ ॥२॥ थोवोवहिओवगरणा निद्दजयाहारजयपहाणा य । आलोयणसलिलेणं पक्खालियपावमलपडला ॥३॥ कयकप्पतिप्पकिरिया सन्निहिचाई गुरूण आणरया। अणगाढजोगिणो विहु अगाढजोगी विसेसेण ॥४॥ तत्थ पसत्थे दिणे अमियजोग-सिद्धिजोग -रविजोगाइगुणगणोवेए मिगसिराइनाणनक्खत्तजुत्ते मचुजोगवज्जपायाइदोसलेसादूसिए संझागय - रविगय–विड्डेर- सग्गहविलंबि – राहुय- गहभिन्ननक्सतचत्ते सुमेसु सुमिणसउणनिमित्तेसु दिणपढमपोरिसीए चेव अंगसुयक्खंधाणं उद्देस-समुद्देसाणुन्नाओ कीरति । नो पच्छिमपोरिसीए राईए वा । अज्झयणुद्देसाइयं राईए वि कीरइ । ॥ ३५. तहा जोगा दुविहा- गणिजोगा, बाहिरजोगा य । तत्थ गणिजोगा आगाढा चेव । आगाढा नाम जेसु सबसमत्तीए उत्तरीज्जइ । इयरे आगाढा अणागाढा य । तत्थ उत्तरज्झयणसत्तिक्कय पण्हावागरणमहानिसीहाणि आगाढा । आवस्सगाई अणागाढा असमत्तीए वि उत्तरिज्जइ ति काउं । अन्ने दिणचउक्काणंतरमुत्तरिज्जइ ति भणंति । तहा उकालिया कालिया य । तत्थुक्कालिएसु जोगुक्खेवो कीरइ न संघट्ट । केसिंचि मएण न जोगुक्खेवो न संघट्ट । कालिएसु जोगुक्खेवो संघटुं च । केसु वि आउत्तवाणयं च । " एयविहाणं पत्थावे भण्णिही। ६३६. तहा कालिएसु कालग्गहणाइयं च होइ । कालग्गहणं च अणज्झाए न विहेयचं ति पुषमणायणविही भण्णइ । तत्थ गब्भमासेसु कत्तिय-मग्गसिराइसु महियाए पडतीए रए वा जाव पडइ ताव असज्झाओ। जो महिया पडणसमकालमेव सर्व आउक्कायभावियं करेइ । अओ तकालसममेव सबचिहाओ निरुभति पाणिदयट्ठा । सचित्तो आरण्णो उद्धुओ आगओ रओ भण्णइ । वण्णओ ईसि आयंवो दियंतेसु 1B सुयमहिमणं। १'आताम्रो दिगन्तेषु' इति A टिप्पणी। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनभ्यायविधि । दीसह । जइ आगासे गंधवनगरं विजु उक्का दिसदाहो वा तो असज्झाओ। जाव एयाणि वटृति । यक्केस वि एगा पोरुसी हवइ । उक्कालक्खणं पडियाए वि पच्छओ रेहा, अहवा उज्जोओ हवइ । कणगो पुण तविरहिओ। तहिं वरिसाले सत्तहिं, सीयाले पंचहिं, उण्हयाले तिहिं पहरमित्तमसज्झाओ हवइ । गज्जिए पुण पहरदुगं । तहा आसाढचाउम्मासियपडिक्कमणानंतरं पडिवया जाव असज्झाओ । बीयाए सुज्झइ । एवं कत्तियचाउम्मासिए वि । आसोयसुक्कपक्खपंचमीपहरदुगाओ आरब्भ बारसदिणाणि, जाव पडिवया ताव असज्झाओ,. बीयाए सुज्झइ । एवं चित्तमाससुक्कपक्खे वि; नवरमेगारसीए आरब्भ जाव पुन्निमा दिणतिगं अचित्तरजओहडावणियं काउस्सग्गो कीरइ । लोगस्सुज्जोयगरचउक्कं चिंतिजइ । अह न सुमरियं तो बारसी-तेरसीओ वि आरब्भ कीरइ । अह तेरसीए वि न सुमरियं तो संवच्छरं जाव धूलीए पडतीए असज्झाओ होइ । दोण्हं राईणं कलहे, मेच्छाइभए, आलयासन्ने, इत्थीणं पुरिसाणं वा जुज्झे, फग्गुणे धूलिकीलाए य जाव एयाणि वटुंति, ताव असज्झाओ। दंडिए पंचत्तं गए जाव अन्नो न हवइ ताव असज्झाओ। ठविए वि . जाव न समंजसं ति । नयरपहाणपुरिसे अहोरत्तमसज्झाओ। आलयाओ सत्तघरमज्झे पसिद्धे पंचत्तं गए अहोरत्तमसज्झाओ । अणाहपुरिसे पुण जत्तियावेला मडयं चिट्ठइ । एवं तिरिए वि नीणिए सुज्झइ । तिरियाणं रुहिरे पडिए, अंडए फुट्टिए, गोणीए य पसूयाए, जराउपडणे, पहरतियं असज्झाओ हवइ । माणुसरुहिरे पडिए, उद्धरिए वि अहोरत्तं । जइ महईए वुट्ठीए धोयं तो तबेलाए वि सुज्झइ । अह रयणीए घडियामेत्ताए वि चिटुंतीए पडियं उद्धरियं च तो अहोरत्तछेओ त्ति सूरुग्गमे सुज्झइ । माणुसहहे बारस ॥ संवच्छराणि असज्झाओ । अह दंता वा दाढा वा पडिया, पयत्तेण पलोइया वि न लद्धा, तो ओहडावणिज्जकाउस्सग्गो कीरइ । नवकारो चिंतिज्जइ भणिज्जइ य । जइ मूसगं बिराली गहिऊण जीवंतं नेइ तो न असज्झाओ; अह विणासिऊण नेइ तो अहोरत्तमसज्झाओ। तिरियाणमवयवा रुहिरं च सहिहत्थमज्झे असज्झायं कुणंति । माणुस्साणं पुण हत्थसयमज्झे, जइ न अंतरे सगडस्स उभयदिसिगामिणी वत्तणी । हत्थसयमज्झे इत्थीए पसूयाए जइ कप्पट्ठगो' तो सत्तदिणाणि असज्झाओ, अह कप्पट्ठिया' तो अट्टदिणाणि । रत्तुक्कडा इत्थिय । त्ति- इत्थीए मासे मासे रिउरुहिरं पडइ, जइ जाणिजइ तो तिन्नि दिणाणि असज्झाओ कीरइ । अह पवाहियारोगाओ उवरिं पि पवहइ, ता असज्झायओहडावणत्थं काउसग्गो कीरइ । अद्दाइनक्खत्तदसगे आइच्चेण संगए विज्ज-गजियं पि सज्झायं न उवहणड । तारगादसणमवि जाव साइनक्खत्ते आइच्चगमणं होइ । सेसकाले उण अवस्सं तारगतिगदंसणे सुज्झइ । अह केसि पि साहूणं तहाविहं नक्खत्तपरिणाणं न हवइ, तओ आसाढचउम्मासाओ कत्तियचउम्मासं जाव विज्जु-गज्जिएसु वि न असज्झाओ होइ । उक्का सयावि उवहणइ । तहा । धडहडे भूमिकंपे य संजाए अट्ठपहरा असज्झाओ होइ । जत्तियावेलाए संजाओ बीयदिणे तत्तियाए वेलाए परओ सुज्झइ । ससद्दो धडहडो, सहरहिओ भूमिकंपो । पलीवणे य संजाए जाव तं वट्टइ ताव असज्झाओ। संपयं चंदसूरगहणअसज्झाओ भण्णइ - चंदे गहिए उक्कोसेण बारस पहरा असज्झाओ । कहं ! - उप्पायगहणे चंदो उम्गमंतो चेव गहिओ, गहिओ चेव सवराई पज्जंते अत्थमिओ। एए रयणीए चचारि पहरा, अन्नं च अहोरत्तं, एवं दुवालस पहरा असज्झाओ । अहवा अन्नहा दुवालस पहरा । को वि. साहू अयाणओ न जाणइ कित्तियाए वेलाए गहणं, इत्तियं पुण जाणइ जहा अज्ज पुण्णिमाराईए गहणं भविस्सइ । अब्भच्छन्नतेण य गहणदसणाभावाओ चत्तारि वि पहरा परिहरिया। पभायसमये अन्भविगमे सगहो अस्थमंतो दिट्ठो तओ एए रयणितणया चत्तारि पहरा अन्नं च अहोरतं । एवं दुवालस । जहन्नेणं पुण अट्ठ। पुण्णिमारयणीपज्जंते चंदो गहिओ, तहडिओ चेव अथमिओ; तओ अहोरत्तं परिहरिजइ । एवं अट्ठ । एयाणं मज्झे मज्झिमो । सम्गहनिबुड्डे एवं । जइ पुण राईए गहिओ, राईए चेव घडियाए सेसाए विमुक्को तो तीए . १ 'पुत्रः' इति A टिप्पणी। २ 'पुत्री' इति A टिप्पणी। विधि०६ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ विधिप्रपा । 1 चेव राईए सेसं परिहरिज्जइ । सूरे उग्गए सज्झाओ हवइ । आइञ्चगहणे पुण उक्कोसेण सोलसपहरा असज्झाओ । कहं ? - उप्पायगहणे उग्गमंतो चेव गहिओ, संबं दिणं ठाऊण गहिओ चेव अत्थमिओ । तओ एए चचारि दिणपहरा, चचारि राईपहरा, अन्नं च अहोरत्तं - एवं सोलस । अह्वा अब्भच्छन्ने साहू न याणइ harवेलाए गहणं भविस्सह; तहाविहपरिण्णाणाभावाओ । तओ तं दिवसं सूरुग्गमाओ आरम्भ परिहरियं । • अत्थमणसमए गहिओ अत्थमंतो दिट्ठो, तओ सा राई य परिहरिया; अन्नं व अहोरत्तं - एवं सोलस । जनेणं पुण बारस | कहं ? - अत्थमंतो आइचो गहिओ, तह चेव अत्थमिओ, तओ आगामिराइतणया चचारि पहरा अन्नं च अहोरत्तं - एवं बारस । सोलस - बारसहमंतराले मज्झिमो असज्झाओ । सग्गहनिबुड्डे एवं । जइ पुण दिणमज्झे गहिओ मुक्को य, तो गहणाओ आरम्भ अहोरतं परिहरिज्जइ । जदाह - उक्कोसेण दुवालस चंदो जहन्त्रेण पोरिसी अट्ठ । सूरो जहन्नबारस पोरसि उक्कोस दो अट्ठ ॥ १ ॥ सग्गहनिबुडु एवं सुराई जेण होंत ऽहोरत्ता । आइनं दिणमुको सो चिय दिवसो य राई य ॥ २ ॥ संपयं वुट्टी असज्झाओ - बारससु वि मासेसु बुधुयवरिसे अहोरता उपि जइ वरिसइ तो असज्झाओ, जाव वरिसइ । बुब्बुयवज्जवरिसे दोण्हमहोरत्ताणमुवरि जाव पडइ, ताव असज्झाओ । फुसिय" वरिसे सत्तण्हमहोरत्ताणमुवरि संतयं । पडते जाव पडइ, ताव असज्झाओ, न परओ । अणुदिए सूरे, मज्झने अत्थमणे अड्डूरत्ते यत्ति चउसु संझासु असज्झाओ । सुक्कपक्खस्स पडिवयं बीयं वा आरम्भ दिणतिगं ओ तत्थ वाघाइयकालो न घिप्पइ । एवं पक्खियदिणे वि । ॥ अणज्झायविही समत्तो ॥ २१ ॥ ६ ३७. अह कालग्गहणविही - तत्थ सामनेण कालो दुविहो - वाघाइओ अवाघाइओ य । तत्थ जो 20 वाघाइओ सो घंघसालाए घेप्पइ, जो उण अबाघाइओ सो मज्झे बाहिरे वा । जइ मज्झे धिप्पर तो नियमा सोहगो ठावेयो । अह बाहिरे, तो ठाविज्जइ वा नवा । दंडधरो चैव सोहइ । विसेसो, जहा - चत्तारि काला । तं जहा - पाओसिओ वाघाइओ वा १. अङ्कुरत्तिओ २. वेरत्तिओ ३. पाभाइओ ४ । तत्थ पाओसिओ पओसवेलाए घेप्पइ । तीए य वेलाए छीयकलयलाइ अणेगे वाधाया होंति । अओ घंघसालाए 1 1 प्प | अओ चेव पाओसिओ वाघाइओ भण्णइ १ । अङ्कुरत्तिओ अरत्तुवरिं घेप्पइ २ । वेरत्तिय - पाभा25 इया चउत्थपहरे धिप्पंति । पाओसिय अङ्कुरत्तिएसु नियमा उत्तरदिसाए कालग्गहणं पुढं कायवं । वेरत्तिए भयणा उत्तरा वा पुवा वा । पाभाइए पुषा चैव । कालं गेण्हमाणस्स वाणारियम्स दंडधरस्स वा वश्चंतस्स कालउस्सग्गे वा वंदणाणंतरं संदिसावण पवेयणसमए वा जइ छीय-खलिय - जोइ - निग्धाय - विज्ज़ुकगज्जियाईणि भवंति तओ चउरो वि हम्मेति । पाओसिय- अङ्कुरत्तिय - वेरत्तिया जइ उवहया तो उवहया चेव । पाओसिओ एगं वारं धिप्पइ न सुद्धो तो उवहम्मइ । अङ्कुरत्तिओ दो तिन्नि वारा, वेरत्तिओ चचारि 30 पंच वा, पाभाइओ नव वारेत्ति । अओ चेव पाभाइए असुद्धे योगवाहीणं जाव काला न पुज्वंति ताव दि गलइ ति । एवं पि पवाओ सुबह त्ति - पाभाइओ उण पुणो पुणो नियत्तिय घेप्पइ नववेला जाव । इमिणा विहिणा जइ संदिसावणापुर्वि भज्जइ तो मूलाओ घेप्पर; अह संदिसावणाणंतरं वच्चतस्स कालमंडलस्स पडिलेहणाए पुषं वा भज्जह, तो एवमेव नियत्तिऊण कालगेण्हगो ठवणायरियसमीवे खमासमणपुढं संदिसाविऊण विहिणा कालमंडले आगच्छइ । अह कालपडिलेहणाणंतरं कालकाउस्सग्गो, कालकाउस्सग्गाणंतरं कालमंडले ठियस्स, तो तत्थेव ठिओ ठवणायरियसंमुहं ठाऊण खमासमणपुषं संदिसाविऊण पुणो मूलाओ 1 B सव्व । 2 A राईए तणया । + सन्ततं । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सज्झायपट्ठवणविधि । काउस्सग्गं करेइ । अह कालकाउस्सग्गाणंतरं गच्छंतस्स पवेयणसमए वा भज्जइ तो मूलओ गच्छेइ । एगम्मि कालमंडले जइ तिन्नि वेला भज्जइ तो तम्मि गहणं न कप्पद । अओ दुइए कालमंडले इमाए विहीए मूलाओ घेप्पइ । तम्मि वि तिन्नि वेला; एवं तइए वि । अहवा अन्नम्मि कालमंडले जइ गेण्हिउं न जाइ तो एगंमि चेव नववेला घेप्पइ । तदुवरि न कप्पइ ।। ६३८. अहुणा विसेसेण कालम्गहणविही भण्णइ - तत्थ पाभाइयस्स ताव जहा पच्छिमदिसि ठवणायरियं । ठविता, दंडगं च तस्स समीवे धरिय कालग्गाही वामपासहियदंडधरसमेओ कालमंडले ठाउं नमोक्कार भणइ । तओ दोवि आवस्सियं काऊण, असज्ज ३. निसीही ३. नमो खमासमणाणं ति भणंता ठवणायरियमंडले गंतूण खमासमणं दाउं भणंति – 'इच्छाकारेण संदिसह पाभाइउ कालु पडियरहं; इच्छं मत्थएण वंदामि' आवस्सी असज्ज ३. निसीही ३. नमो खमासमणाणं ति भणिय कालमंडलसगासे दोवि ठंति । तओ दंडधरो दिसालोयं करिय, आवस्सियाइ पुरोत्तं भणंतो ठवणायरियमंडलमागम्म, इरियं पडिक्कमिय, अट्टम्सासं काउस्सग्गं ।। करित्ता, नमोक्कारं भणइ । तओ मुहपोत्तिं पडिलेहिय, दुवालसावत्तवंदणं दाऊण, खमासमणपुवं 'इच्छाकारेण पाभाइयकालवेला वट्टइ, साहुणो उवउत्ता होह त्ति' भणिय, दंडं गिव्हिय, आवस्सियाई कुणंतो कालग्गाहिसमीवमागम्म पच्छिमामुहो चिट्ठइ । तओ कालग्गाही आवस्सिई असज्ज ३. निसीही ३. नमो खमासमणाणं ति भणंतो ठवणायरियमंडले गंतूण, इरियं पडिक्कमिय, अट्ठसासुस्सग्गं करिय, पारिय, पंचमंगलं भणिय, मुहपोत्ति पडिलेहिय, दुवालसावत्तवंदणं दाऊण, खमासमणदुगेण भणइ – 'पाभाइउ कालु संदिसावहं, पाभाइउ कालु 15 लेहं ।' जउ सुद्ध, तउ मोणेणं आवस्सी असज्ज ३. निसीही ३. नमो खमासमणाणं ति भणंतो कालमंडले जाइ । तदागमणे दंडधरो हत्थसंठियं दंडं तस्संमुहं ठवेइ । तओ कालग्गही तयग्गे उद्धढिओ इरियं पडिक्कमिय, अट्ठस्सासमुस्सग्गं करिय पारिय, नमोक्कारं भणिय, संडासगे पडिलेहिय, उवविसिय, पुत्तितिगपडिलेहणेण अक्खलियाइविहिणा रयहरणेण वारतिगं कालमंडलं पडिलेहेइ । इत्थ कालमंडलकरणे उव ओगहत्थपरावत्ताइविही गुरुमुहाओ सिक्खियो । न लिहिउं पारिजइ । तओ दंडयं नमोक्कारपुवं दंडधर- ॥ करे समप्पेइ । अणंतरं पाए हत्थेसु लाएयंतो निसीही नमोखमासमणाणं ति भणंतो, कालमंडले पविसिय, चोलपढें वेइयाअंतो पडिलेहिय, उद्धो होऊण भणइ – 'उवउत्ता होह । पाभाइयकाललियावणियं करेमिकाउस्सग्गं, अन्नत्थूससिएणमिच्चाइ' जावअगुस्सासं काउस्सग्गं उद्धट्ठिय दंडधरधरिय दंडअग्गे करिय पारित्ता सणियं बाहाओ समाहटु रयहरणसणाहं मुहपोत्तियं मुहे दाउं, जोडियकरसंपुडो चउवीसत्थयं भणिय, दुमपुफिय सामन्नपुवियअज्झयणे तइयअज्झयणसिलोगं च चिंतेइ । णवरं अज्झयणसमत्तिआलावगे न । उच्चारेइ । उच्चारणे कालवहो । एवं पुवाए चिंतिय, दाहिणाए पच्छिमाए उत्तराए य सिलोग १७ चिंतेइ । दंडधरो वि जत्थ जत्थ सो पडिदिसं पाए ठाविस्सइ, तत्थ तत्थ रयहरणेण अग्गं पडिलेहेइ । पुणो पुश्वदिसाए बाहाओ अवलंबिय, नमुक्कारं चिंतिय, पारित्ता नमोक्कारं कड्डित्ता, 'मत्थएण वंदामि आवस्सिई असज्ज ३. निसीही ३. नमो खमासमणाणं' ति भणंतो, ठवणायरियमंडलसमीवे पविसिय, खमासमणपुवं इरियं पडिकमइ । काउस्सग्गे नमुक्कारं चिंतिय पारिता भणित्ता य, खमासमणमुहपोत्तिपुवं वंदणं दाऊण-'इच्छाकारेण " संदिसह पाभाइउ काल पवेयहं । इच्छाकारि तपसियहु पाभाइउ कालु सूझइ' । सधे भणंति सूझति ति । तओ दोवि जाणुट्टिया दुमपुफियज्झयणेण सज्झायं करेंति । तओ कालुग्गाही दुवालसावत्तवंदणं दाउं भणइ 'इच्छकारि तपसियह दिळं सुयं?' । सो भणंति न किंचि । एवं वाघाइय-अवरत्तिय-वेरत्तिया वि तबयणाभिलावेण धिप्पंति । नवरं पाभाइयकालो पभाए वसहिपवेयणाणंतरं पवेइज्जइ । सेसा गहाणंतरं चेव पवेइज्जति । तहा पाभाइयकालो अवरहे पडिलेहणाए कयाए सज्झायं पट्ठविय, कालमंडलाई दुक्खुत्तो से काउं, पञ्चक्खाणं वंदणं दाऊण, सज्झायपडिकमणाणंतरं च पडिकमिज्जइ । अन्भसंघडाइसु उदुबळे गजि | Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रपा । माइभया कयाइ उद्देसाइकिरियाए आतिरं सज्झायं पट्टाविय, कालमंडलाइं दुक्खुत्तो काऊण, सज्झायं पडिकमिय, पउणपहरमज्झे वि पडिक्कमिज्जइ । सेसा पुण उद्देसाइ किरियाणंतरं चेव पडिक्कमिजंति । जाव कालो न पडिकतो ताव गज्जिमाईहिं उवघाओ । उद्देसाइसु कएसु खमासमणदुगेण 'सज्झाउ पडिक्कमहं, सज्झायपडिक्कमणत्यु काउसग्गु करेह' इति भणिय, मोणेण अन्नत्थूससिएणमिच्चाइ पढित्ता, अदुस्सासं काउस्सग्गं 'करिय, पारित्ता, नमोकार भणंति । एवं कालो वि पाभाइयाइअभिलावेण पडिक्कमियो। एयं पसंगओ भणियं । ६३९. एवं सुद्धे पाभाइए काले पडिक्कमणं काउं, पडिलेहणं अंगपडिलेहणं च काउं, वसहिं पमज्जिय, सोहित्ता य हड्डाई परिट्ठविय, वायणायरियअग्गओ इरियं पडिक्कमिय, पुत्तिं पडिलेहित्ता, वसहिं पवेयंति । 'इच्छकारि तपसियहु वसति सूझइ' । जो वसहिं सोहिउं सह गओ सो भणइ सुज्झइ त्ति । तओ कालग्गाही एवं चेव कालं पवेएइ । नवरं इत्थ दंडधरो सूझइ ति भणइ । तओ वायणायरिओ वामपासहिओ सीसो य ठवणायरि" अग्गओ सज्झायं पट्टवेति । जहा मुहपोत्तिं पडिलेहिय बारसावत्तवंदणं दाउं, खमासमणदुगेण भणंति'इच्छाकारेण संदिसह सज्झाउ संदिसावहं, सज्झाउ पाठविसहं' । जउ सुद्ध तउ मोणेण - 'सज्झाय पट्ठवणत्थं करेमि काउस्सग्गं, अन्नत्थूससिएण'मिच्चाइ भणिय, अट्ठस्सासं काउस्सग्गं वेइयामझे काउं पारिय, चउवीसत्ययं सत्तरससिलोगे य पढित्ता, पुणो ओलंबियबाहू नवकारं चिंतिय, भणिय, उवविसिय, वेइयामज्झे दाहिणपासट्ठियरयहरणे वंदणयं दाउं, खमासमणेण भणंति- 'इच्छाकारेण संदिसह सज्झाउ पवेयहं । ॥ पुणो खमासमणं 'इच्छाकारि तपसियह सज्झाउ सूझइ ?' । सवे भणंति सूझइ । तओ खमासमणदुगेण सज्झायं संदिसाविति, कुणंति य 'धम्मोमंगलाइ'सिलोग ५ । पुणो वायणारिओ निसिज्जाए सीसो पाउंछणे वासासु कट्ठासणे रयहरणं ठाविय, वंदणं दाउं भणंति- 'इच्छाकारि तपसियह दिळं सुर्य ?' । सवे भणंति न. किंचि । इत्यवि छीय-खलियाईयं कालगमणेण नेयवं । ॥ सज्झायपट्ठवणविही ॥ २२ ॥ . ६४०. एवं सुद्धे सज्झाए जोगवाहिणो वंदणं दाउं भणंति-'इच्छाकारेण तुन्भे अम्हं जोगे उक्खिवेह ।' गुरू भणइ 'उक्खेवामो' । पुणो वंदिय भणंति - 'तुन्भे अम्हं जोगोक्खेवावणियं काउस्सम्गं करावेह' । गुरू भणइ 'करावेमो' । तओ जोगोक्खेवावणियं पणवीसुस्सासं अट्ठोस्सासं वा, मयंतरे सत्तावीसुस्सासं वा, काउस्सम्मं करेंति । पारिता चउवीसत्ययं भणंति । तओ सावयकयपूयाचेइयहरे वसहीए वा समोसरणे सुयक्खंधस्स अंगस्स वा उद्देसनिमित्तं अणुन्नानिमित्तं वा वासे सिरसि खिवावेंति । पुणो वंदिय भणंति'तुम्मे अहं अमुगसुयक्खंधाइ - उद्देसाइनिमित्तं चेइयाई वंदावेह' । गुरू भणइ 'वंदावेमो' । तओ ते वामपासे काऊण वध्रुतियाहिं थुईहिं गुरू चेइए वंदइ पुवविहीए, जाव धुत्तपणिहाणपज्जतं । तो पुत्तिं पडिलेहिय बारसावत्तवंदणं दाऊं नंदिकडावणियं अहुस्सासं काउस्सगं करेंति । पारित्ता नमोक्कारं पदंति । अन्नसिं पुण सत्तावीसुस्सासं काउस्सग्गं काउं चउवीसत्थयं भणंति । तओ तेहिं खमासमणपुवं 'इच्छाकारेण तुम्मे अम्हं नंदिं सुणावेह'त्ति वुत्ते गुरू नमोक्कारतिगपुवं उद्देसत्थं अणुन्नत्थं वा नंदि कह। - जहा - नाणं पंचविहं पण्णत्तं । तं जहा- आभिणिबोहियनाणं, सुयनाणं, ओहिनाणं, मणपजवमाणं, केवलनाणं । तत्थ चत्तारि नाणाइं ठप्पाइं ठवणिज्जाइं, नो उद्दिसिज्जंति, नो समुद्दिसिज्जंति, नो अणुनविजंति । सुयनाणस्स उद्देसो समुद्देसो अणुष्णा अणुओगो पवत्तइ । जइ सुयनाणस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो पवत्तइ, किं अंगपविट्ठस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो पवत्तइ ! अंगबाहिरस्स उसो समुहेसो अणुण्णा अणुओगो पवत्तइ ! । अंगपविट्ठस्स वि उद्देसो समुहेसो अणुण्णा अणुओगो पवसइ, ४.अंगवाहिस्स वि उद्देसो समुद्देसो अणुष्णा अणुओगो पक्तह । जइ अंगबाहिरस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोगनिक्खेवणविधि। ४५ www अणुओगो पवत्तह, किं आवस्सम्गस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो पवत्तइ !; आवस्सगवइरित्तस्स उद्देसो समुहेसो अणुण्णा अणुओगो पवत्तइ ! । आवस्सगस्स वि उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो पवनइ आवस्सगवइरित्तस्स वि उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो पवत्तइ । जइ आवस्सगस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो पवत्तइ; किं सामाइयस्स, चउवीसत्ययस्स, वंदणस्स, पडिक्कमणस्स, काउस्सगस्स, पञ्चक्खाणस्स सबेसि पि एएसिं उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो पवत्तइ ? । जइ आवस्सगवइरित्तस्स उद्देसो समुद्देसो । अणुण्णा अणुओगो पवचइ, किं कालियस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो पवत्तइ ?; उक्कालियस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो पवत्तइ ? । कालियस्स वि उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो पवत्तइ; उक्कालियस्स वि उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो पवत्तइ । जइ उक्कालियस्स उद्देसो सुमुद्देसो अणुष्णा अणुओगो पवत्तइ, किं दसबेयालियस्स, कप्पियाकप्पियस्स, चुल्लकप्पसुयस्स, महाकप्पसुयस्स, पमायप्पमायस्स, ओवाइयस्स, रायपसेणईयस्स, जीवाभिगमस्स, पण्णवणाए, महापण्णवणाए, नंदीए, अणुओगदाराणं देविंदत्थ- ।। यस्स, तंदुलवेयालियस्स, चंदाविज्झयस्स, पोरिसीमंडलस्स, मंडलिपवेसस्स, गणिविजाए, विजाचरणविणिच्छियस्स, झाणविभत्तीए, मरणविभत्तीए, आयविसोहीए, मरणविसोहीए, । 'संलेहणासुयस्स, वीयरायसुयस्स, विहारकप्पस्स, चरणविहीए, आउरपञ्चक्खाणस्स, महापच्चक्खाणस्स, सबेसि पि एएसिं उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो पवत्तइ । जइ कालियस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो पवत्तइ; किं उत्तरज्झयणाणं, दसाणं, कप्पस्स, ववहारस्स, इसिभासियाणं, निसीहस्स, जंबुद्दीवपन्नत्तीए, चंदपन्नत्तीए, । सूरपन्नत्तीए, दीवसागरपन्नत्तीए, खुड्डियाविमाणपविभत्तीए, महल्लियाविमाणपविभत्तीए, अंगचूलियाए, वग्गचूलियाए, विवाहचूलियाए, अरुणोववायस्स, गुरुलोववायस्स, धरणोषवायस्स, वेलंधरोववायस्स, वेसमणोववायस्स, देविंदोववायस्स, उट्ठाणसुयस्स, समुट्ठाणसुयस्स, नागपरियावलियाणं, निरयावलियाणं, कप्पियाणं, कप्पवडिंसियाणं, पुफियाणं, पुप्फचूलियाणं, वण्हीदसाणं, आसीविसंभावणाणं, दिट्ठिविसमावणाणं, चारणभावणाणं, महासुमिणगभावणाणं, तेयग्गनिसग्गाणं, सधेसि पि एएसि उद्देसो समु.. हेसो अणुण्णा अणुओगो पवत्तइ । जइ अंगपविट्ठस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो पवत्तइ, किं आयारस्स, सूयगडस्स, ठाणस्स, समवायस्स, विवाहपण्णत्तीए, नायाधम्मकहाणं, उवासगदसाणं, अंतगडदसाणं, अणुत्तरोववाइदसाणं, पण्हावागरणाणं, विवागसुयस्स दिट्ठिवायस्स। सबेसि पि एएसिं उद्देसो समुद्देसो अणुष्णा अणुओगो पवत्तइ । इमं पुण पट्ठवणं पडुच्च- इमस्स साहुस्स इमाइ साहुणीए वा अमुगस्स अंगस्स, सुयक्खंधस्स 2 वा उद्देसनंदी अणुण्णानंदी वा पयट्टइ। तओ गंधाभिमंतणं तित्थयरपाएसु गंधक्खेवो अहासन्निहियाणं वासदाणं । तओ बारसावत्तवंदणयपुवं खमासमाणं दाउं भणंति-'इच्छाकारेण तुम्मे अहं अंगं सुयक्खंधं वा उद्दिसह' । गुरू भणइ -'उद्दिसामो' । १ । पुणो वंदित्ता भणइ -'संदिसह किं भणामो' । गुरू मणइ -'वंदित्ता पवेयह' । २ । इच्छं भणिता; पुणो वंदित्ता भणइ –'इच्छाकारेण तुम्मेहिं अम्हं सुयक्खंधाइ उदिहें!' । गुरू आह 'उद्दिढे' । ३. खमासमणाणं । हत्थेणं, सुत्तेणं, अत्थेणं, तदुभयेणं ।। सम्म जोगो कायघो'। सीसो भणइ -'इच्छामो अणुसहि' । ३ । पुणो वंदिता भणइ-'तुम्हाणं पवेइयं, संदिसह साइणं पवेएमि' । गुरू आह-'पवेयह' । ४ । इच्छं ति भणिऊण वंविधा नमोकार फडितो पयाहिणं देइ । ५ । पुणो वि, एवं दुन्निवारे । तओ वंदित्ता-'तुम्हाणं पवेइयं, साइर्ण 1A संदेहणा। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रपा। पवेइयं, संदिसह काउस्सग्गं करावेह' । गुरू आह -'करावेमो'। ६ । इच्छं भणिता, वंदित्ता, 'सुयक्खंधाइउद्दिसावणियं करेमि काउस्सग्गं...जाव...वोसिरामि' । सत्तावीसुस्सासं काउस्सग्गं काऊण पारिता, पुणो चउवीसत्थयं भणइ । एवं सवत्थ सत्त छोभा वंदणा भवंति । तओ उद्देस- अणुण्णानंदिथिरीकरणत्थं अदुस्सासं काउस्सग्गं करिय नवकारं भणति । सुयक्खंधस्स अंगस्स य उद्देसाणुन्नासु नंदी । । एवं उद्देसे सम्म जोगो कायबो । समुद्देसे थिरपरिचियं कायछ । अणुण्णाए सम्मं धारणीयं, चिरं पाल णीयं, अन्नेसि पि पवेणीयं । साहुणीणं तु अन्नेसि पि पवेयणीयं ति न वत्तवं । उद्देसाणंतरं खमासमणदुगेण वायणं संदिसाविय तहेव बइसणं संदिसाविज्जइ । अणुण्णानंतरं वंदणयपुवं पवेयणे पवेइए । पढमदिणे असहस्स आयंबिलं निरुद्धं ति वुच्चइ, सहस्स अब्भत्तटुं। बीयदिणे पारणयं निवीयं । तओ दोहिं दोहिं खमासमणेहिं बहुवेलं सज्झायं बइसणं च संदिसाविय, खमासमणदुगेण 'सज्झाउ पाठविसहं, सज्झाय" पाठवणत्यु काउस्सग्गु करिसहं । तहेव कालमंडला संदिसाविसहं, कालमंडला करिसहं'। तओ खमासमणतिगेण 'संघट्टउ संदिसाविसहं संघट्टउ पडिगाहिसहं, संघट्टपडिगाहणत्थु काउस्सग्गु करिसहं'। केसु वि आउत्तवाणयं च एमेव संदिसावेंति। तओ खमासमणदुगेण 'सज्झाउ पडिक्कमिसहं, सज्झायपडिकमणत्थु काउस्सग्गु करिसहं । तहेव पाभाइकालु पडिक्कमिसहं, पाभाइयकालपडिक्कमणत्यु काउस्सरगु करिसहं' । ततो तववंदणयं दिति । गुरुणा सुहतवो पुच्छियो । तओ मुहपोत्तिं पडिलेहिय, खमासमण॥ तिगेण 'संघट्टउ संदिसावउं, संघट्टउ पडिगाहउं, संघट्टापडिगाहणत्यु काउस्सग्गु करउं । संघट्टापडिगाह णत्यं करेमि काउस्सग्गं अन्नत्थूससिएण'मिच्चाइ । नमोक्कारचिंतणं भणणं च । एवं आउत्तवाणयं पि घेप्पह । पुणो खमासमणं दाउं 'त्रांबा त्रउया सीसा कांसा सूना रूपा हाड चाम रुहिर लोह नह दंत वाल 'सूकीसान लादि इचाइ ओहडावणियं करेमि काउत्सग्गं' । नवकारचिंतणं भणणं च । ६४१. जोगसमत्तीए जया उत्तरंति तया सिरसि गंधक्खेवपुवं वायणायरिओ योगनिक्खेवावणियं देवे ॥ वंदाविय, पुत्तिं पडिलेहाविय, वंदणं दाविय, पच्चक्खाणं कारिय, विगइलियावणियं अट्ठस्सासं काउस्सग्गं कारेइ । अन्ने भणंति दुवालसावत्तवंदणं दाउं, खमासमणेण 'इच्छाकारेण तुम्भे अम्हं जोगे निक्खिवहं; बीए जोगनिक्खेवावणियं काउस्सग करावेह'त्ति भणित्ता, जोगनिक्खेवावणियं करेमि काउस्सग्गं । नवकारचिंतणं भणणं च । तओ 'जोगनिक्खेवावणियं चेइयाइं वंदावेह'त्ति खमासमणेण भणित्ता, सक्कत्थयं कहिंति । पुणो वंदणं दाउं, भणंति-पवेयणं पवेयहं । पडिपुण्णा विगइ, पारणउं करहं । गुरू भणह-करेह'त्ति । तओ विगईपच्चक्खाणं काउं, वंदिय गरुणो पाए संवाहिय, जोगे वहंतेहिं अविही आसायणं च मण - वयण - काएहिं मिच्छादुक्कडेण खमाविय आहारायणियाए सो वंदति । ॥ जोगनिक्खेवणविही ॥२३॥ ६४२. राइयपडिक्कमणे जोगवाहिणो पइदिणं नवकारसहियं पच्चखंति । जोगारंभदिणादारब्भ छम्मासं जाव काला न उवहम्मंति, तत्तियाणि दिणाणि जाव संघट्टा कीरंति; उवरि न सुझंति । एस पगारो अणा* गाढेसु आयाराइसु नेओ । चित्तासोयसुद्धपक्खे वि आगाढा गणिजोगा न निक्खिप्पंति। कप्पतिप्पकिरिया य कीरइ । सज्झाओ पुण निक्खिप्पइ । छम्मासियकप्पो य वइसाह-कत्तियबहुलपाडिवयाउ8 उत्तारिज्जइ । अन्नं च रयणीए पढम-चरमजामेसु जागरणं बालवुड्डाईणं सामन्नं । जोगिणा उण सबवेलं अप्पणिद्देण होयवं । विसेसओ दिवा हास-कंदप्प-विगहा-कलहरहिएण य होयचं । एगागिणा सया वि हत्थसया बाहिं न गंतषं; किमुय जोगवाहिणा । अह जाइ अणाभोगेणं आयाम से पच्छित्तं । जं च हत्थे भत्तं पाणं वा 1 विष्टा' टि°। 2 A 'लाद । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगविधि । ४७ तं उवहम्मइ । आगाढजोगवाही सीवण-तुन्नण-पीसण-लेवणाई न करेइ । उभयपोरिसीसु सुत्तत्थाई परियट्टेइ । वहिज्जमाणसुयं मुत्तूण अपुधपढणं न करेइ । पुषपढियं न वीसारेइ । पत्ताइउवगरणं सया उववत्तो नियनियकाले पडिलेहेइ । अप्पसहेण वयइ न ढवरेण । कामकोहाइनिग्गहो कायघो। तहा कप्पइ भत्तं वा पाणं वा अभितरं संघट्ट, वेइबाहिं गयं न कप्पइ । 'उग्गुडिओ तुयट्टो विगहाओ वा असंखडं व करेमाणो संघट्टेइ उस्संघट्ट, उग्गुडिओ भूमीए मेल्लइ । परिसाडि वा भत्तपाणे छुहेइ । तिनि भायणाई । उवरिं ठवेइ । उवविट्ठस्स उन्मो भत्तपाणं अप्पेइ । संघट्टे वा पयलाइ, उस्संघट्ट वल्लीसंघट्ट भत्तं पाणं च न कप्पइ । भत्तं पाणं वा मज्झपविट्ठकरंगुलिचउक्कगहियं तिप्पणय-तुंबगाइयं, मज्झपविट्ठकरंगुट्ठगहियं तुंबगाइपत्तं च न उस्संघट्टइ । एयविवरीयं उस्संघट्टइ । उग्गुडिओ भूमिट्टियं संघट्टइ उस्संघट्ट । ४३. संपयं गणिजोगविहाणे कप्पाकप्पविही भण्णइ - सा य जोगिपरिण्णेया जोगि-सावयपरिण्णेया य । तत्थ जोगिपरिण्णेया जहा - पिंडवायहिंडयसंघाडयछित्ते परोप्परं न उवहम्मइ । सीवण-तुन्नणाइयं ॥ वाणायरियाणुन्नाए करेइ । जोगवाहिणो सण्णा असज्झाइयं च रुहिराइ न उवहणइ । ओल्ली सण्णा' मणुय-साण-मज्जाराईणं, आमिसासीणं पक्खीणं च । अतिणभक्खिणो *तन्नयस्स य गय-हय-सराण य छिक्कासमाणी* उवणइ, न सुक्का । उल्लं चम्म हड्डं च । गोसाले अणुण्णाए वालसुक्कचम्मट्ठिसुक्कसन्नाओ वि न उवहणंति । तेसिं अणुवघायट्ठा पवेयणासमए काउस्सग्गो कीरइ । अहँगुलाहियप्पमाणो दिट्ठो भोयणाइसु वालो उवहणइ । तहा गिहत्थीए बालए थणं पियंते सुक्के जइ थणे दुद्धं न दीसइ, तो। कप्पियं होइ । एवं गोपमुहेसु वि । सन्निहि-आहाकम्म-मणुय-तिरियपंचिदियसंघट्टे उवहम्मइ । लेवाडयपरिवासे पत्ते पत्ताबंधे वा भत्तं पाणं च उवहम्मइ । आहाकम्मिओवहए पत्तगाइं चउकप्पाइं अन्नत्थ तिकप्पाई। जइ कप्पिएणं भाणं हत्थाइकप्पिया तो उल्लेणावि हत्थमत्तएणं धिप्पइ । अह पुण "मूलमंडलियाणं पाणएणं ताहे सुक्केसु काउस्सग्गे कए घिप्पइ । 'वायणारियाणुण्णाए पढण-सुणण-वक्खाण-धम्मकहाओ कीरति न समईए । परियट्टणं अणप्पेहा य जहाजोगं कीरइ । पढमपोरिसिमज्झे पवेयणे । पवेइए संघट्टाइए य संदिसाविए कप्पइ असणाइपडिगाहित्तए; न उण उवरिं । कप्पइ निविगइयघयतिल्लेहिं कारणे पायगायाइ अब्भंगित्तए वायणायरियसंसट्टेण य ॥ इयाणिं जोगिसावयपरिण्णेया जहा - आ छट्टजोगाओ दससु विगईसु, छट्ठजोगे पुण लग्गे पक्कनवजासु नवसु विगईसु, छिवणदाणलिवणाइवाबडहत्थो उवहम्मइ । तेसिं जइ अवयवं पि छिवइ तो भत्तं पाणं वा जं हत्थे तं उवहम्मइ । विगइसंसर्ट ति परंपरं न उवहणइ । मयगभत्तं न कप्पइ । तिल्लघ-: याइअभंगिया इत्थी पुरिसो वा जं संघट्टेइ सो उवहम्मइ । तद्दिणनवणीयमोइयकज्जलं छिवंती तेणंजियनयणा वा दिती उवहम्मइ न सेसदिवसेसु । अन्नं पि अकप्पिएणं दवेणं मीसियं छिकं वा बीयदिणे न उवहणइ । ण्हाया जइ केसेसु असुक्केसु असणाइ देइ तो उवहम्मइ । तहिणतिल्लाइमोइयकुंकुमपिंजरियसरीरा य उवहणइ । दीवओ वि जं पुण थिरं कट्ठकवाडाइयं अकप्पिएणं दवेणं छिकं तं न उवहणइ । जह तं दधं न छिवइ थिरकट्ठकवाडाई जोगवाहिणा छिक्काई न उवहणंति । उत्तिविडिठियअकप्पवत्यु-। भायणछिक्कं सत्तपरंपरमवि अणायरियं । एगे तिपरंपरं गिण्हंति, अन्ने दुपरंपरं पि । एवं तिरिच्छथलीठिएसु वि परोप्परसंबद्धेसु दायगेसु वि तहा कप्पइ । कक्कव-इक्खुरस-गुडपाय-गुलवाणीय-खंड-सक्करवाट-खीरिदुद्धकंजिय-दुद्धसाडिया-कक्करियग-मोरिंडग-गुलहाणा । दुद्धसाडिया नाम दक्खदुद्धरद्धा । मोरिंडगाणि 1A उपगुडओ। 20 भूमिद्वियं संघट्ट। 3C उल्ला सण्णा । *C स्तन्यपायिनः। 4A 'स्पृष्टासती'। 5 B मूलि । 6 B वाणायरि। 7A लियणाई लिंवणाई। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रपा। ककरियविसेसा । तहा मोइय कुल्लर' चुप्पडिय मंडग मोइय सत्तुय दहिकरवय घोल सिहरणि तिलवट्टिय पगरणसंसट्ठ माइसराव एयाणि वासियाणि कप्पंति । वीसंदण भरोलग नंदिहलि नालिएर तिल्लमाइ गिहत्थेहिं अप्पणो कए कयं कप्पह । वीसंदणं तावियघयहंडियाए वेसणाइकयं । भरोलगाणि घयलोट्टकयमुट्ठियाणि । अन्नं पि 'खुडहडियदक्खा, दक्खावाणयं, अंबिलियावाणय-नालिएरवाणय-सुंठिमिरियमाइयं कप्पइ । तहा । 'दहिकयआसुरी, धूविय इडुरी 'मोक्कलिपमुहं तद्दिणे उवहणइ; बीयदिणे कप्पइ । छट्ठजोगे लग्गे संधूइय तक्तीमणं भजियाइयं च कप्पइ; न आरओ कप्पइ । अववाएणं असहुस्स तिण्ह घाणाणोवरि जं निमंजणं चंउत्थघाणो गाहिम, अन्नघयाइअपक्खेवे पुखिल्लघयभरियतावियाए बीयघाणपक्कं पि ओगाहिम कप्पइ । जइ एगेण चेव पूएण ताविया पूरिज्जइ । उद्देसाइ, जइ साहुणीहिं सह तो चोलपट्टसंजुयाणं; अह अनहा, तो अम्गोयरेणावि कप्पइ । कप्पइ साहुणीणं उद्देसाइ पडिक्कमणं वा काउं सया ओढियपरिहियाणं । " कप्पइ दुगाउयद्धाणं भिक्खायरियाए अडित्तए । कप्पइ बत्तीसं कवला आहारं आहारित्तए । कप्पंति तिन्नि पाउरणा पाउरित्तए । असहुस्स चत्वारि पंच जाव. समाही । कप्पइ दिया वा राओ वा आयावेउं । एवं सबो वि जो जंमि कप्पे विही उवहयाणुवहय-कप्पा-कप्पाइ जहा दिट्ठो गीयत्थेहिं, सो तहेव संकारहिएहिं वायणायरियाणुन्नाए कायद्यो; न समईए । अन्नहाकरणे बहुदोसप्पसंगाओ । तथाहि - उम्मायं व लभिज्जा रोगायंकं व पाउणइ दीहं । केवलिपन्नत्ताओ धम्माओ वा वि भंसिज्जा ॥१॥ इह लोए फलमेयं परलोए फलं न दिति विजाओ। आसायणा सुयस्स य कुवइ दीहं च संसारं ॥२॥ जं जह जिणेहिं भणियं केवलनाणेण तत्तओ नाउं। तस्सन्नहाविहाणे अणाभंगो महापावो ॥३॥ एसो य उवहयाणुवहयविही भत्तपाणनिमित्तं आउत्तवाणयकाउस्सग्गे कए दद्वधो, न सामनेण । विगइवावडहत्थाइसणेण, तहा अंजियनयणाए पुछिए धोयलहिए वि जेहिं सा दिट्ठा तेसिं तीए हत्थेण न कप्पइ । जेसिं पुण न दिट्ठा ते धूयलहिए गेहंति, जइ दिट्ठपुव्वजोगीहिं न साहियं । अओ चेव परोप्परं अमुगा उवहय ति न साहियवं । एवं भत्तं पाणं च इमाए विहीए अडित्ता, इरियं पडिक्कमिय, गमणागमणमालोइत्ता, भत्तपाणं च जहागहियविहिणा तओ पारावित्ता, सन्निहियसाहुणो अणुण्णवित्ता, मुहपोत्तियाए " मुहं पडिलेहिता, उवउत्ता असुरसुरं अचवचवं अड्डेयमविलंबियं अपरिसाडिं अकसरकं अकुरुडुक्कभुरुडुक्कं इचाहविहिणा अरत्तदुट्ठा जेमंति । इत्थ य पमाय-अन्नाणाइणा अन्नहाणुट्ठाणे जोगवाहिणो पच्छित्तं, उवरिं तवाइयारपच्छित्ते भणीहामो। एवं जोगविहाणं संखेवेणं तु तुम्हमक्खायं । जं च न इत्थ उ भणियं गीयायरणाइ तं नेयं ॥ .६४४. संपयं जो जत्थ तवोविही सो भण्णइ आवस्सयंमि एगो सुयक्खंधो छच्च होति अज्झयणा। दोण्णि दिणा सुयक्खंधे सवे वि य होति अट्ठदिणा ॥१॥ सवंगसुयक्खंधोद्देसाणुन्नासु नंदी हवइ । पढमदिणे सुयक्खंधस्स उद्देसो पढमज्झयणस्स यं उद्देससमुद्देसाणुण्णाओ। बीयाइदिणेसु बीयाइअज्झयणा । सत्तमदिणे सुयक्खंधस्स समुद्देसो, अट्ठमदिणे 1BO कुखुरि। 2 A खुडहडिय। 8A दहिकय°। 4 'पूरण'। 5 A भरडकं । " Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगविधि । तस्सेव अणुण्णा । सुयक्खंधस्स अंगस्स य उद्देसे समुद्देसे अणुण्णाए य आयंबिलं । अन्नदिणेसु निधीयं । एवं सबजोगेसु नेयं, भगवई - पहावागरण - महानिसीहवजं । अन्नसामायारीसु पुण निश्वियंतरियाणि आयंबिलाणि चेव कीरति । जहा निसीहे असहू बालाई निबीयदिणे पणगेणावि णिवाहिजंति; एवं दसकालिए वि। छच्च अज्झयणा पुण - सामाइयं १, चउवीसत्थओ २, वंदणं ३, पडिक्कमणं ४, काउस्सग्गो ५, । पञ्चक्खाणं ६ ति । ओहनिजुत्ती आवस्सयं चेव अणुप्पविट्टा अओ न तीए पुढो उवहाणं । ४५. दसयालियम्मि एगो सुयक्खंधो बारसेव अज्झयणा । पंचम-नवमे दो-चउउद्देसा दिवसपन्नरस ॥१॥ ऐगेगमज्झयणमेगेगदिणेण वच्चइ । नवरं पंचमं अज्झयणमुद्दिसिय पढम-बीयउदेसया उदिस्सति । तओ ते अज्झयणं च समुदिसइ । तओ ते अज्झयणं च अणुण्णवइ । एवं नवमं दोहिं दिणेहिं दो दो उदेसा दिणे जंति त्ति काउं दो दिणा सुयक्खंधे । एवं पन्नरस । बारस अज्झयणाई इमाई, जहा - दुमपुस्फिया १, सामन्नपुचिया २, खुड्डियायारकहा ३, छज्जीवणिय धम्मपन्नत्ती वा ४, पिंडेसणा ५, इत्थ पिंडनिजुत्ती ओयरइ । धम्मत्थकामज्झयणं - महल्लियायारकहा वा ६, वकसुद्धी ७, आयारप्पणिही ८, विणयसमाही ९, सभिक्खु अज्झयणं १०, रइवक्का ११, चूलिया १२ । -दसवेयालियजोगविही। ४६. उत्तरज्झयणाणं एगो सुयक्खंधो, छत्तीसं अज्झयणाणि, एगेगदिणेण एगेगं जाइ । नवरं चउत्थमज्झ- 11 यणमसंखयं पउणपहरमज्झे जइ उट्टवेइ, तओ तम्मि चेव दिवसे निविएण अणुण्णवइ । अह न उट्ठवेइ, तओ तम्मि दिणे अंबिलं काउं, बीयदिणे अंबिलेण अणुण्णवइ । एवं दोहिं दिणेहिं आयंबिलेहि य असंखयं जाइ । केई भणंति जइ पढमपोरिसीए उट्टवेइ तो निविएण अणुजाणिजइ; अह न, तो आयंबिलं कारिजइ । तओ जइ पच्छिमपोरिसीए उट्ठावेइ, तो वि तम्मि चेव दिणे अणुजाणिज्जइ । जइ पुण बीयदिणे पढमपोरिसीमज्झे तो वि तम्मि दिणे निविएण अणुजाणिज्जइ ! अह न, तो आयंबिलदुगेणं । तं चेमं- ० असंखयं जीविय मा पमायए जरोवणीयस्स हु नत्थि ताणं । एवं वियाणाहि जणे पमत्ते कन्नु विहिंसा अजया गहिति ॥१॥ जे पावकम्मेहिं धणं मणूसा समाययंती अमई गहाय । पहाय ते पासपयटिए नरे वेराणुबद्धा नरयं उर्वति ॥२॥ तेणे जहा संधिमुहे गहीए सकम्मुणा किचइ पावकारी । एवं पया पिच इहं च लोए कडाण कम्माण न मोक्खु अस्थि ॥३॥ संसारमावन्नपरस्स अट्ठा साहारणं जं च करेइ कम्मं । कम्मरस ते तस्स उ वेयकाले न बंधवा बंधवयं उवेति ॥ ४॥ वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते इमंमि लोए अदुवा परत्था । दीवप्पणट्टे व अणंतमोहे नेयाउयं दटुमदहमेव ॥५॥ सत्तेस आवी पडिबुद्धजीवी न वीससे पंडिय आसुपन्ने । घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं भारंडपक्खीव चरऽप्पमत्तो॥६॥ विधि. ७ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रपा। परे पयाई परिसंकमाणो जं किंचि पासं इह मन्नमाणो। लाभंतरे जीविय वूहइत्ता पच्छा परिन्नाय मलावधंसी ॥७॥ छंदं निरोहेण उवेइ मुक्खं आसे जहा सिक्खियवम्मधारी। पुषाई वासाइं चरऽप्पमत्तो तम्हा मुणी खिप्पमुवेइ मुक्खं ॥८॥ स पुवमेवं न लभेज पच्छा एसोवमा सासयवाइयाणं । विसीयई सिढिले आउयंमि कालोवणीए सरीरस्स भेए॥९॥ खिप्पं न सकेइ विवेगमे तम्हा समुट्ठाय पहाय कामे । समिच लोगं समया महेसी आयाणरक्खी चरअप्पमत्तो ॥१०॥ मुहं मुहं मोहगुणा जयंतं अणेगरूवा समणं चरंतं । फासा फुसंती असमंजसं च न तेसु भिक्खू मणसा पऊसे ॥ ११ ॥ मंदा य फासा बहुलोभणिज्जा तहप्पगारेसु मणं न कुजा । रक्खिन्न कोहं विणइज माणं मायं न सेवे पयहिज लोहं ॥ १२॥ जे संखया तुच्छपरप्पवाई ते पिज दोसाणुगया परज्झा। एए अहम्मुत्ति दुगुंछमाणो कंखे गुणे जाव सरीरभेउ ॥१३॥-त्तिबेमि॥ समत्तेसु अज्झयणेसु छत्तीसाए सत्तत्तीसाए वा दिणेहिं एगायंबिलेण सुयक्खधो समुद्दिसइ । बीएणं नंदीए अणुजाणिज्जइ । एवं अट्ठत्तीसा एगूणचत्ता वा दिणाइं हवंति । अहवा जाव चोद्दस ताव एगसराणि, सेसाणि २२ एगेगदिणे दो दो उदिसिजंति, समुद्दिसिजंति, अणुजाणिज्जति । दो दिणा सुयक्खंघे । एवं सत्तावीसं अट्ठावीसं वा दिणाणि होति । आगाढजोगा एए । एएसु संधूविय-मोइय-बोट्ठियाइं च तद्दिवसियं न कप्पइ । तेसिं नामाणि जहा-विणयसुयं १, परीसहा २, चाउरंगिजं ३, असंखयं पमायप्पमायं ० वा ४, अकाममरणिज्जं ५, खुड्डागणियंठिजं ६, एलइजं ७, काविलिज ८, नमिपञ्चज्जा ९, दुमपत्तयं १०, बहुस्सुयपुजं ११, हरिएसिज्जं १२, चित्तसंभूइज्जं १३, उसुयारिजं १४, सभिक्खु अज्झयणं १५, बंभचेरसमाहिट्ठाणं १६, पावसमणिशं १७, संजइज़ १८, मियापुत्तिजं १९, महानियंठिजं २०, समुद्दपालिजं २१, रहनेमिजं २२, केसिगोयमिजं २३, समिईओ २४, जन्नइज्जं २५, सामायारी... २६, खुलंकिज्जं २७, मोक्खमग्गगई २८, सम्मत्तपरक्कम २९, तवमम्गइज ३०, चरणविही ३१, " पमायठाणं ३२, कम्मपयडी ३३, लेसज्झयणं २४, अणगारमग्गो ३५, जीवाजीवविभत्ती ३६ । छत्तीसं उत्तरज्झयणाणि । - उत्तरज्झयणजोगविही। ६४७. संपयं पढममायारंग नंदीए उद्दिसिय अणंतरं पढमसुयक्खंधो उद्दिसिज्जइ । पढमं अंगउद्देसकाउसग्गं काऊण तओ सुयक्खंधउद्देसकाउस्सग्गो काययो । तओ तस्स पढममज्झयणं, पच्छा तस्स पदमबीयउद्देसया उद्दिसिज्जंति समुद्दिसिज्जंति अणुजाणिजति य । एवं एगदिणेण एगकालेण दो उद्देसगा जंति । " एवं तइय-चतुत्था वि पंचम-छटा वि, सत्तमउद्देसओ एगकालेण उदिसिज्जइ समुद्दिसिज्जड वा। तो अज्झयणं समुद्दिसिज्जइ, तओ उद्देसओ अज्झयणं च अणुजाणिज्जइ । एवं पढमजायणे दिण ४, काल ४ । एवं जत्य अजमायणे समा उदेसया तत्येगेगदिणेण एगेगकालेण य दो दो वर्षति । विसमुद्देस Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगविधि। एसु चरिमो उद्देसओ अज्झयणेण सह एगदिणेण एगकालेण य वञ्चह । एवं सवंगसुयक्संधज्मयणेसु दहवं । बीए उद्देसा ६, दिणा ३। तइए उद्देसा ४, दिणा २। चउत्थए उद्देसा ४, दिणा २॥ पंचमे उद्देसा ६, दिणा ३। छटे उद्देसा ५, दिणा ३। सत्तमे उद्देसा ८, दिणा ४। अट्ठमे उद्देसा ४, दिणा २। नवमज्झयणं वोच्छिन्नं । तं च महापरिणा-इत्तो किर आगासगामिणी विजा वइरसामिणा उद्धरिया आसि ति साइसयत्तणेण वोच्छिन्नं । निजत्तिमित्तं चिट्ठइ । सीलंकायरियमएण पुण एवं अट्ठमं, विमुक्खज्झयणं' सत्तमं, उवहाणसुयं नवमं ति । एएसिं नामाणि जहा - सत्थपरिण्णा १, लोगविजओ २, सीओसणिजं ३, सम्मत्तं ४, आवंती, लोगसारं वा ५, धूयं ६, विमोहो ७, उवहाणसुयं ८, महापरिण्णा ९। सुयक्खंघो एगकालेण एगायंबिलेण वञ्चइ । तम्मि चेव दिणे समुद्दिसिय नंदीए अणुजाणिज्जइ । एवं बंभचेरसुयक्खंघे दिणा २४। एवं अन्नत्य वि जत्थ दो सुयक्खंधा तत्थेगकालेण एगायंबिलेण य समुद्दिसिज्जइ, नंदीए अणुजाणिज्जइ य । जत्थ पुण एगो सुयक्खंधो सो एगकालेण एगायंबिलेण समुद्दिसिज्जइ, बीयदिणे बीय- ॥ कालेण आयंबिलेण य नंदीए अणुजाणिज्जइ ।। इयाणिं आयारंगबीयसुयक्खंध नंदीए उद्दिसिय पढमज्झयणमुद्दिसिज्जइ । तम्मि उद्देसगा ११॥ एगेगदिणेण एगेगकालेण य दो दो जंति । चरिमुद्देसओ पुर्व व अज्झयणेण समं दिणा ६। बीए उद्देसा ३, दिणा २। तइए उद्देसा ३, दिणा २। चउत्थे उद्देसा २, दिण १। पंचमे उद्देसा २, दिण १। छटे उद्देसा २, दिण १। सत्तमे उद्देसा २, दिण १। अणंतरं सत्तसत्तिक्कया नामज्झयणा एगसरा आउत्तवाणएणं । पुषुत्तभगवईविहाणछट्ठजोगा लग्गविहीए एक्कक्केण दिणेण वच्चंति । एवं चोद्दस-पनरसमे दिणमेगं, सोलसमे दिणमेगं । एएसिं नामाणि जहा- पिंडेसणा १, सेज्जा २, इरिया ३, भासाजायं ४, वत्थेसणा ५, पाएसणा ६, उग्गहपडिमा ७, एएहिं सत्तहिं अज्झयणेहिं पढमा चूला । तओ सत्तसत्तिक्कएहिं बीया चूला । तत्थ पढमं ठाणसत्तिक्कयं १, बीयं निसीहियासत्तिक्कयं २, तइयं उच्चारपासवणसत्तिक्कयं ३, चउत्थं सहसत्तिकयं ४, पंचमं स्वसत्तिक्कयं ५, छटुं परकिरियासत्तिक्कियं ६, सत्तमं अन्नोन्नकिरियासत्तिकयं । एएसं च उद्देसगाभावाओ इक्कगववएसो।। ठाण-निसीहिय-उच्चारपासवण-सह-रूव-परकिरिया। अन्नोन्नकिरिया वि य सत्तिकयसत्तगं कमेण* ॥ तओ भावणज्झयणं तइया चूला । तओ विमुत्तिअज्झयणं चउत्थी चूला । एवं बीयसुयक्खंधे आयारग्गे अज्झयणा १६, उद्देसा २५। पंचमचूला निसीह ज्झयणं सुयक्खंघसमुद्देसाणुण्णाए दिणमेगं । एवं बीय- ४ सुयक्खंधे दिणा २४। अंगसमुद्देसे दिण १। अंगाणुण्णाए दिण १। एवमायारंगे दिणा ५०। सबोदेसगपरिमाणमिणं सत्तय १, छ २, चउ ३, चउरो ४, छ५, पंच ६, अद्वेव ७ होंति चउरो य ८॥ ___-इति पढमसुयक्खंधस्स । एकारस १, दोसु तिगं ३, चउसुं दो दो ७, नविकसरा १६ ॥१॥ - इति बीयसुयक्खंधस्स । आयारंगविही । ६४८. बीयं सूयगडंग नंदीए उदिसिय पढमसुयक्खंधो उद्दिसिजइ, तओ पढमज्झयणं । तम्मि उद्देसा ४, दिणा २। बीए उद्देसा ३, दिणा २। तइए उद्देसा ४, दिणा २। चउत्थे उद्देसा २, दिण १। पंचमे *इयं गाथा माति मादयों. - - Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रपा उद्देसा २, दिण १। इओणंतरमेगारसज्झयणाणि एगसराणि एगेगदिणेण एगकालेण जंति । पढमसुयक्खंघज्झयणनामाणि जहा - समओ १, वेयालीयं २, उवसग्गपरिण्णा ३, थीपरिण्णा ४, निरयविभत्ती ५, वीरस्थओ ६, कुसीलपरिभासा ७, वीरियं ८, धम्मो ९, समाही १०, मग्गो ११, समोसरणं १२, अहतहं १३, गंधो १४, जमईयं १५, गाहा १६। सुयक्खंधसमुद्देसाणुण्णाए दिणमेगं । सधे दिणा २० । पढमसुयक्खंधो गाहासोलसगो नाम गओ । बीयसुयक्खंधे नंदीए उहिसिए तम्स सत्त महज्झयणाणि, एगसराणि, एगेगविगेण एगेगकालेण य वच्चंति । तेसिं नामाणि जहा-पुंडरीयं १, किरियाठाणं २, आहारपरिणा ३, पञ्चक्खाणकिरिया ४, अणगारं ५, अद्दइज्जं ६, नालंदा ७। सुयक्खंधसमुद्देसाणुण्णाए दिणमेगं । उद्देसगमाणमिणं - सूयगडे सुयखंधा दोन्निउ पढमम्मि सोलसज्झयणा । चउ १, तिय २, चउ ३, दो ४, दो ५, एकारस ६, पढमसुयखंधस्स ॥१॥ सत्त इकसरा बीयसुयक्खंधस्स । अंगसमुद्देसे दिण १, अंगाणुण्णाए दिण १। सधे दिणा ३० । -सूयगडंगविही। ६४९. तइयं ठाणंगं नंदीए उद्दिसिज्जइ । तओ सुयक्खंधो, तओ पढमज्झयणं, एगसरं एगदिणेण एगकालेण वच्चइ । बीए उद्देसा ४, दिणा २। तइए उद्देसा ४, दिणा २। चउत्थे उद्देसा ४, दिणा २॥ पंचमे ॥ उद्देसा ३, दिणा २। सेसाणि पंचठणाणि एगसराणि पंचहिं दिणेहिं वचंति । एयउद्देसगमाणमिणं पढमं एगसरं चिय? चउर चउ३ चउरो४ ति५पंच१० एगसरा । ठाणंगे सुयखंधो एगो दस होति अज्झयणा ॥१॥ तेसिं नामाणि जहा- एगठाणं दुठाणमिच्चाइ...जाव...दसठाणं ७। सुयक्खंधसमुद्देसाणुण्णाए दिणा २, अंगसमुद्देसाणुण्णाए दिणा २, सधे दिणा १८ ।- ठाणंगविही । ॥ ६५०. चउत्थं समवायंगं एगदिणे नंदीए उद्दिसिज्जइ, बीयदिणे समुद्दिसिज्जइ, तइयदिणे नंदीए अणुजाणिज्जइ । एवं तिहिं कालेहिं तिहिं आयंबिलेहिं वच्चइ । सुयक्खंधज्झयणुद्देसा इत्थ नत्थि । -समवायंगविही । ६५१. इत्थंतरे इमे जोगा-निसीहे एगमज्झयणं वीसं उद्देसगा एगेगदिणेण एगेगकालेण य दो दो वञ्चति । दसहिं दिवसेहिं एगंतरायामेहिं समप्पइ । इत्थ अज्झयमत्तेण नंदी नत्थि । अणागाढजोगो । 23 निसीहे दिणा १०॥ ६५२. दसा-कप्प-यवहाराणं एगो सुयक्खंधो सो नंदीए उहिस्सइ । तत्थ दस दसाअझयणा एगसरा, दसहिं दिवसेहिं वच्चंति । तेसिं नामाणि जहा- असमाहिठाणाइं १, सबला २, आसायणाओ ३, गणिसंपया ४, अत्तसोही ५, उवासगपडिमा ६, भिक्खुपडिमा ७, पज्जोसवणाकप्पो ८, मोहणीयठाणाई ९, आयाइ ठाणं १० ति। कप्पज्झयणे उद्देसा ६, दिणा ३। ववहारज्झयणे उद्देसा १०, दिणा ५। एगदिणे * सुयक्खंधसमुद्देसो, बीयदिणे नंदीए सुयक्खंधाणुण्णा, सबे दिणा २०। केइ कप्प-ववहाराणं भिन्नं सुयक्खंधमिच्छंति । एवं च दिणा २२। तहा पंचकप्पो आयंबिलेण मंडलीए वहिज्जइ । जीयकप्पो निबीएणं ति । निसीह-वसा-कप-ववहारसुयक्खंघ-पंचकप्प-जीयकापविही । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगविधि । ६५३. इयाणि भगवईए विवाहपन्नत्तीए पंचमंगस्स जोगविहाणं-गणिजोगा छहिं मासेहिं छहिं दिवसेहिं आउत्तवाणएणं वच्चंति । तत्थ सुयक्खंघो नत्थि । अज्झयणाणि य सयनामाणि एकतालीसं । अंगं नंदीए उद्दिसिय पढमसयं उद्दिसिज्जइ । तत्थ उद्देसा १०; कालेण दो दो वचंति । एगंतरायामेणं दिणेहिं ५, कालेहिं ५ पढमसयं जाइ । एगंतरायाम जाव चमरो। बीयसए उद्देसा १०, नवरं पढमुद्देसओ खंदओ । तस्स अंबिलेण उद्देसो समुद्देसो य कीरइ । तओ जब उट्ठवेइ तो तंमि चेव दिणे तेण चेव कालेण । अणुजाणिय आयामं कारिजइ । अह न उडिओ, तो बीयदिणे बीयकालेण बीयअंबिलेण अणुजाणिजह । उट्टिओ त्ति पाढेणागओ। अणुण्णाए य तंमि अंबिले पविढे अग्गओ काउस्सग्गाइअणुट्ठाणं कीरइ । एत्य पंच दत्तीओ सपाणभोयणाओ भवंति । सेसा दो दो उद्देसा दिणे दिणे जंति। जाव नवमुद्देसो। एगंमि पंचमे दिणे दसमो सयं च । सवे दिणा ७, काला ७ । तइयसए वि उद्देसा १०; नवरं पढमदिवसे पढमकालेण पढमुद्देसयं मोयानामगमणुजाणिय, बीयकालेण चमरस्स उद्देसो समुद्देसो य कीरइ । सेर्स ।। तओ जइ उट्ठवेइ इच्चाइ जहा खंदए । दत्तीओ वि सपाणभोयणाओ पंच। केई चत्तारि भणंति । एवं चमरे अणुण्णाए पनरसहिं कालेहिं पनरसहिं दिणेहिं य गएहिं छट्ठजोगो लग्गइ । छट्ठजोगअणुजाणावणत्यं ओगाहिमविगइविसज्जणत्थं काउस्सग्गो कीरइ; नमोक्कारचिंतणं भणणं च । पंचनिधियाणि छटं निरुद्धं ४ । अन्ने छन्निधियाणि सतमं निरुद्धं ति भणति । तम्मि लग्गे संधूइयतक-तीमण-वंजणाइ तद्दिणकयं पि कप्पइ। तओ पुर्व एयमकप्पमासि । ओगाहिमविगई वि न उवहणइ । जहा दिट्ठिवाए मोयगो गुरुमाइकए आणेउं । पि कप्पइ । सेसा अट्ठ उद्देसा चउहि दिवसेहिं सएणसमं वच्चंति । सधे दिणा ७, काला ७ । चउत्थसए वि उद्देसा १०, दोहिं दिणेहिं वचंति । पढमदिणे ८, चत्तारि चत्तारि आइल्ला अंतिल्ल त्ति काऊण उद्दिसिजति, समुद्दिसिज्जंति, अणुन्नविजंति । बीयदिणे दो सएण समं वचंति । दिणा २, काला २ । पंचम-छट्ठसत्तम-अट्ठमसएसु दस दस उद्देसया दो दो दिणे दिणे जंति । चत्तारि वि वीसाए दिणेहिं कालेहिं य वच्चंति । अट्टसु सएसु काला ४१। नवमं दसमं एगारसं बारसं तेरसं चउदसमं च एयाइं 'छस्सयाई एकेककालेण ॥ बच्चंति । नवरं नवमसयमुद्दिसिय तस्सुद्देसा ३४ दुहाकाउं (१७+१७) पदममाइल्ला उद्दिसिज्जंति, तओ अंतिल्ला सयं च समुद्दिसिज्जंति। तो आइल्ला अंतिल्ला सयं च अणुन्नविज्जति । एवं सए सए नव नव काउस्सग्गा कीरति । एवं दसमसए वि उद्देसा ३४ दुहा (१७+१७); एक्कारसमे उद्देसा १२ दुहा (६+६); बारसमे तेरसमे चउदसमे य दस दस पत्तेयं पंच पंच दुहा कजंति। पनरसमं गोसालसयमेगसरं पढमदिणे उद्दिसिज्जइ । तओ जइ उट्ठिओ तो तम्मि चेव दिणे तेणेव कालेण आयंबिलेण य अणुजाणिज्जइ । अह न उडिओ, तो 'बीयदिणे बीयकालेण बीयअंबिलेण अणुजाणिज्जइ । 'इत्थ दत्तीओ तिन्नि तिन्नि सपाणभोयणाओ भवंति । गोसाले अणुनाए अट्ठमजोगो लग्गइ । तस्स अणुजाणावणत्थं काउस्सग्गो कीरइ । सत्त निबियाणि अट्ठमं निरुद्धं । अण्णे अट्ठ निधियाणि नवमं निरुद्धं । सेसाणि निधियाणि ति । गोसालयसए तेयनिसग्गावरनामगे अणुण्णाए निषियदिणे नंदिमाईणं वंदणय-खमासमण-काउस्सग्गपुवं उद्देसाई कीरंति । ते य इमे-नंदि १, अणुओग २, देविंद ३, तंदुलं ४, चंदवेज्झ ५, गणिविज्जा ६, मरण ७, ज्झाणविभत्ती ८, आउर ९, महा-" पञ्चक्खाणं च १० । गोसालो जो' जइ दत्तीहिं अलद्धियाहिं उवहओ ताहे उवहओ चेव । अह बहवे जोगवाहिणो ताहे ताण संबंधिणीओ घेप्पंति । गोसालाणुण्णं जाव एगूणवन्नासं काला ४९ हवंति । तदुवरि सेसाणि छवीससयाणि एक्वेक्केण कालेण वञ्चति । एएहिं २६ सह ७५ भवंति । एगेणंगं समुद्दिसिज्जइ । बीएण नंदीए अणुजाणिज्जइ । गणिसद्दपज्जंतं नामं च ठाविजइ । अंगस्स समुद्देसे अणुण्णाए य अंबिलं । 1B विहीणं । 2 B इत्य। 3 चाति AI 4 BC .मयाइ। 5 नास्तिपदमेत A1 6B नास्ति 'इत्य'। 7 मास्ति'को A.ON Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रपा । ५४ एवं सतहत्तर ७७ कालेहिं भगवईपंचमंगं समप्पइ । नवरं सोलसमे सए उद्देसा चउद्दस ७+७। सत्तरसमे सतरस ९+८ । अट्ठारसमे दस ५+५ । एवं एगूणविसहमे वि ५+५ । वीसइमे वि ५+५ । इकवीसइमे असीई ४० + ४० । बावीसइमे सट्टी ३० + ३० । तेवीसइमे पण्णासा २५+२५ । इत्थं इक्वीसमे अट्ठवग्गा, बावीसइमे छवग्गा, तेवीसइमे पंचवग्गा । वग्गे वग्गे दस उद्देसा । अओ असी-सह-पण्णासा • उद्देसा कमेण । चउवीसइमे चउवीस १२ + १२ | पंचवीसइमे बारस ६+६ । बंधिसए २६ । करिंसुगसर २७ । कम्मसमज्जिणणसए २८ । कम्मपट्टवणसए २९ । समोसरणसए ३० । एएस पंचसु वि सएसु एक्कारस-एक्कारस उद्देसा दुहा ६+५ कज्जंति । उववायसए अट्ठावीसं १४+१४; ३१ । उबट्टणासए अट्टावीसं १४+१४; ३२ । एगिंदियजुम्मसयाणि बारस, तेसु उद्देसा १२४, दुहा ६२+६२; ३३ । सेढीसयाणि बारस तेसु वि उद्देसा १२४, दुहा ६२+६२; ३४ । एगिंदियमहाजुम्मसयाणि बारस, तेसु उद्देसा " १३२, दुहा ६६+६६; ३५ । बेइंदियमहाजुम्मसयाणि बारस, तेसु वि उद्देसा १३२; दुहा ६६+६६, ३६ । तेइंदियमहाजुम्मसयाणि बारस, तेसु वि उद्देसा १३२, ६६+६६; ३७ । चउरिंदियमहाजुम्मसयाणि तेसु वि उद्देसा १३२, ६६+६६, ३८ । असन्निपचिंदियमहाजुम्मसयाणि बारस, तेसु वि उद्देसा १३२, दुहा ६६+६६; ३९ । सन्निपंचिंदियमहाजुम्मसयाणि इक्कवीसं, तेसु उद्देसगा २३१, दुहा ११६+११५; ४० । रासीजुम्मसए उद्देसा १९६, दुहा ९८ + ९८; ४१ । इत्थ य तेत्तीस मे "सए अवंतरसया १२, तत्थ अट्टसु पत्तेयं उद्देसा ११, चउसु ९, सवग्गेणं १३४ । एवं चउतीसइमे वि १२४ । पणतीस माइसु पंचसु ससु अवंतरसया १२, तेसु पत्तेयं उद्देसा ११, सबग्गेणं १३२ । चालीसइमे अवंतरसया २१, तेसु पत्तेयं उद्देसा ११, सबग्गेणं २३१ । एवं महाजुम्मसयाणि ८१, एवं सवग्गेणं सया १३८ । सवग्गेणं उद्देसा १९२३ । बारस, 20 25 20 इत्थ संगहगाहाओ उवरिं जोगविहाणे भण्णिहिंति । भगवईए जोगविही । गणिजोगेसु वूढेसु संघट्टओ थिरो भवइ । नय धिप्पह नय विसज्जिज्जह चि समायारी । आउत - वाणयं तु धिप्प विसज्जिज्जइ यत्ति । शत १ उद्देस १० दिन ५ शत २ उद्देस १० दिन ५ । अथ यद्मकम् । इदं सकलं शतक उद्देशादि यतोऽवसेयम् । शत ४ शत ७ शत १० उद्देश १०। उद्देश १०। उद्देश ३४ । दिन ५ । दिन १ | प्र० दि० ८| 7 द्वि०दि० २15 शत ३ उस १० । दिन ७ । 1 नाति पवमिदम् A शत ५ उद्देश १०। दिन ५ । शत ६ उद्देश १० । दिन ५ । शत ८ उद्देश १० दिन ५ । शत ९ उद्देश ३४| दिन २ | शत ११ उद्देश १२। दिन १ । शत १२ उद्देश १०। दिन ११ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोगविधि। ५५ शत २१ उद्देश ८० दिनानि । शत २८ उद्देश ११॥ दिन । शत ३६ उद्देश १३२॥ दिन १॥ शत ३७ उद्देश १३२॥ दिन १। शत २९ उद्देश ११॥ दिन १॥ शत २२ उद्देश ६०॥ दिन । शत २३ उद्देश ५० दिन । शत ३० उद्देश ११॥ दिन ११ शत ३८ उद्देश १३२। दिन ११ शत ३१ उद्देश २८॥ दिन १ उद्देश १० दिन । शत १४ उद्देश १०॥ दिन १॥ गोशालशत १५ उद्देश दिन । शत १६ उद्देश १४॥ दिन । शत १७ उद्देश १७॥ दिन । शत १८ उद्देश १०॥ दिन ११ शत १९ उद्देश १०॥ दिन ११ शत २० उद्देश १० दिन १॥ शत २४ उद्देश २४। दिन १॥ शत ३९ उद्देश १३२। दिन १ शत २५ उद्देश १२॥ दिन । शत ४० उद्देश १३१॥ दिन । शत २६ उद्देश १११ दिन १। शत ३२ उद्देश २८॥ दिन १॥ शत ३३ उद्देश १२४॥ दिन । शत ३४ उद्देश १२४। दिन । शत ३५ उद्देश १३२॥ दिन १। शत ४१ उद्देश १९६॥ दिन । शत २७ उद्देश ११॥ दिन १। शत स० ४१ उद्देश सर्वाग्र १९३२॥ ६५४. अणंतरं कयपंचमंगजोगविहाणस्स तस्सामग्गिविरहे अन्नहावि अणुण्णवियगुरुयणस्स छट्ठमंगं नायाधम्मकहा नंदीए उद्दिसिज्जइ । तम्मि दो सुयक्खंधा नायाई धम्मकहाओ य । तत्थ नायाणं एगूणवीस अज्झयणाणि । एगूणवीसाए दिणेहिं वञ्चति । तेसिं नामाणि जहा- उक्खित्तनाए १, संघाडनाए २, अंडनाए ३, कुम्मनाए ४, सेलयनाए ५, तुंबयनाए, ६, रोहिणीनाए ७, मल्लीनाए ८, मायंदीनाए ९, चंदिमानाए १०, दावद्दवनाए ११, उद्दगनाए १२, मंडुक्कनाए १३, तेतलीनाए १४, नंदिफलनाए १५, अवरकंकानाए १६, आइण्णनाए १७, सुसुमोनाए १८, पुंडरीयनाए १९। एगं दिणं सुयक्खंघसमद्देसाणुनाए । सधे दिणा २० धम्मकहाणं दस वग्गा दसहिं दिवसेहिं जंति । तत्थ नंदीए सुयक्खंघमुहिसिय पढमवग्गो उदिसिज्जइ । तम्मि दस अज्झयणा । पंच पंच आइल्ला अंतिल त्ति काऊण उद्दिसिज्जंति, समुहिसिज्जंति य । तओ वम्गो समुहिसिज्जइ । तओ आइल्ला अंतिल्ला वग्गा य अणुण्णविनंति । एवं वग्गो । एगकालेण एगदिणेण नवहिं काउस्सग्गेहिं वचइ । एवं सेसावि नव वग्गा । नवरं अज्झयणेसु नाण। बीए दस अज्झयणा, तइय-वउत्थेस चउप्पण्णं चउप्पण्णं । पंचम-छडेसु बचीसं बत्तीस । सचम-अहमेश Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रपा। चत्वारि चत्तारि । नवम-दसमेसु अट्ट अट्ठ अज्झयणा । दुहा काऊण सवत्य आइल्ला अंतिल ति वरचा । एवं दससु वागेसु दिणा १० सुयक्खंधसमुद्देसाणुण्णाए दिण १। अंगसमुद्देसे दिण १। अंगाणुण्णाए दिण १। एवं सवे दिणा ३३।-नायाधम्मकहांगविही। ६५५. उवासगदसासत्तमंगं नंदीए उद्दिसिज्जइ । तम्मि एगो सुयक्खंधो, तस्स दस अज्झयणा, एगसरा • दसहिं कालेहिं दसहिं दिणेहिं वच्चंति । तेसिं नामाणि जहा-आणंदे १, कामदेवे २, चूलणीपिया ३, सुरादेवे ४, चुल्लसयगे ५, कुंडकोलिए ६, सद्दालपुत्ते ७, महासयगे ८, नंदिणीपिया ९, लेतियापिया १०। दो दिणा सुयक्खंघे, दो अंगे, सधे दिणा १४।- उवासगदसंगविही। ६५६. अंतगडदसाअद्रमंगे एगो सयक्खंधो अट्रवगा। तत्थ पढमे वग्गे दस अज्झयणा । बीयवम्गे अट्ठ। तइए तेरस । चउत्थ-पंचमेसु दस दस । छटे सोलस । सत्तमे तेरस । अट्ठमवग्गे दस अज्झयणा । ॥ आइल्ला अंतिल्ला भणिय जहा धम्मकहाए तहा। अट्टहिं कालेहिं अट्टहिं दिणेहिं वच्चंति । इत्थ अज्झयणाणि गोयममाईणि दो दिणा सुयक्खंधे, दो अंगे, सबे बारस १२।-अंतगडदसाअंगविही। ६५७. अणुत्तरोववाइयदसानवमंगे एगो सुयक्खंधो, तिन्नि वग्गा, तिहिं दिणेहिं तिहिं कालेहिं वचंति। इत्थ अज्झयणाणि जालिमाईणि । तत्थ पढमे वग्गे दस । बीए तेरस । तइए दस अज्झयणा। सेसं जहा धम्मकहाणं । वग्गेसु दिणा तिन्नि, सुयक्खंधे दिणा दोन्नि, दो दिणा अंगे, सधे दिणा ७, काल ७/ "-अणुत्तरोववाइयदसंगविही। ६५८. पण्हावागरणदसमंगे एगो सुयक्खंधो, दस अज्झयणा, दसहिं कालेहिं, दसहिं दिवसेहिं वच्चंति । तेसिं नामाणि जहा- हिंसादारं १, मुसावायदारं २, तेणियदारं ३, मेहुणदारं ४, परिग्गहदारं ५, 'अहिंसादारं ६, सञ्चदारं ७, अतेणियदारं ८, बंभचेरदारं ९, अपरिग्गहदारं १० । सुयक्खंधसमुद्देसा गुणाए दिणा दो, अंगे दिणा दो, सधे दिणा चोहस १४। आगाढजोगा आउत्तवाणएणं जइ भगवईए " अबूढाए गुरुमणुण्णविय वहइ तो भगवईए छट्ठजोगाऽलग्गकप्पाकप्पविहीए; अह वूढाए तो छट्ठजोगलग्गकप्पाकप्पविहीए एगंतरायंबिलेहिं वचंति । महासत्तिक्कय ति भण्णंति । इत्थ केई पंचहिं पंचहिं अज्झयणेहिं दो सुयक्खंधा इच्छंति । -पण्हावागरणंगविही। ६५९. विवागसुयइक्कारसमंगे दो सुयक्खंधा । तत्थ पढमे दुहविवागसुयक्खंधे दस अज्झयणा, दसहिं कालेहिं, दसहिं दिवसेहिं वच्चंति । तेसिं. नामाणि जहा-मियापुत्ते १, उज्झियए २, अभग्गसेणे ३, " सगडे ४, बहस्सइदचे ५, नंदिवद्धणे ६, उंबरिदत्ते ७, सोरियदत्ते ८, देवदत्ता ९, अंजू १०। एगं दिणं सुयक्खंघे, एवं सवे दिणा ११ । एवं सुहविवागबीयसुयक्खंधे अज्झयणा १० । तेसिं नामाणि जहा-सुबाहु १, भहनंदी २, सुजाय ३, सुवासव ४, जिणदास ५, धणवइ ६, महब्बल ७, भद्दनंदी ८, महचंद ९, वरदत्त १० । सुयक्खंधे दिण १, अंगे दिण २, सधे दिणा २४, काला २४ । विवागसुयंगविही। - दिहिवाओ दुवालसमंगं तं च वोच्छिन्नं । ६६०. इत्थ य दिक्खापरियारण तिवासो आयारपकप्पं वहिज्जा वाइज्जा य । एवं चउवासो सूयगडं । पंचवासो दसा-कप्पववहारे । अट्ठवासो ठाण-समवाए । दसवासो भगवई । इक्कारसवासो खुड्डियाविमाणाइपंचज्झयणे । बारसवासो अरुणोक्वायाइपंचज्झयणे । तेरसवासो उठाणसुयाइचउरज्झयणे। चउदसाइ अट्ठारसंतवासो कमेण आसीविसभावणा-दिद्विविसभावणा-चारणभावणा-महासुमिणभावणा-तेयनिसग्गे । एगू" णवीसवासो दिहिवायं । संपुनवीसबासो सबसुत्तजोगो ति । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगविधि। ६.६१. इयाणि उवंगा-आयारे उवंगं ओवाइयं १, सूयगडे रायपसेणइयं २, ठाणे जीवाभिगमो ३, समवाए पण्णवणा ४, एए चत्तारि उक्कालिया तिहिं तिहिं आयंबिलेहिं मंडलीए वहिजंति । अहवा आयारे अंगाणुण्णाणंतरं संघट्टयमज्झे चेव उद्देससमुद्देसाणुण्णासु आयंबिलतिगेण ओवाइयं गच्छइ । जोगमज्झे चेव निधीयदिणे आयंबिलेण अंबिलतिगपूरणाओ वच्चइ त्ति अन्ने । एवं सूयगडे रायपसेणइयं पि वोढपं । एवं चेव जीवामिगमो ठाणंगे । एवं समवाए बूढे दसा-कप्प-ववहारसुयक्खंधे अणुण्णाए । य संघट्टयमज्झे अंबिलतिगेण, मयंतरेण अंबिलेण, पण्णवणा वोढवा । एएसु तिन्नि इक्कसरा । नवरं जीवाभिगमे दुविहाइ-दसविहंतजीवभणणाओ नव पडिवत्तीओ। पण्णवणाए छत्तीसं पयाई । तेसिं नामाणि जहा- पण्णवणापयं १, ठाणपयं २, बहुवत्तवपयं ३, ठिईपयं ४, विसेसपयं ५, वुकंतीपयं ६, ऊसासपयं ७, आहाराइदससण्णापयं ८, जोणिपयं ९, चरमपयं १०, भासापयं ११, सरीरपयं १२, परिणामपयं १३, कसायपयं १४, इंदियपयं १५, पओगपयं १६, लेसापयं १७, कायट्ठिइपयं १८, " सम्मत्तपयं १९, अंतकिरियापयं २०, ओगाहणापयं २१, किरियापयं २२, कम्मपयं २३, कम्मबंधगपयं २४, कम्मवेयगपयं २५, वेयगबंधपयं २६, वेयगपयं २७, आहारपयं २८, उवओगपयं २९, पासणापयं ३०, मणोविन्नाणसन्नापयं ३१, संजमपयं ३२, ओहीपयं ३३, पवियारणापयं ३४, वेयणापयं ३५, समुग्धायपयं ति ३६।। भगवईए सूरपण्णत्तीउवंगं आउत्तवाणएणं तिहिं कालेहिं अंबिलतिगेणं वोढवा । अहवा भगवई- ॥ अंगाणुण्णाणंतरे एयं संघट्टयमज्झे तिहिं कालेहिं अंबिलेहिं च वच्चइ । नायाणं जंबुद्दीवपण्णत्ती, उवासगदसाणं चंदपण्णत्ती; एयाओ दोवि पत्तेयं तिहिं तिहिं कालेहिं, तिहिं तिहिं अंबिलेहिं वहिजंति संघट्टएणं । अहवा निय-नियअंगेऽणुण्णाए तस्संघट्टयमज्झे चेव तिहिं तिहिं कालेहिं अंबिलेहिं च वच्चंति । सूरपण्णत्तीए चंदपण्णत्तीए य वीसं पाहुडाई । तत्थ पढमे पाहुडे अट्ठ पाहुड-पाहुडाइं, बिए तिन्नि, दसमे बावीसं, सेसाई एगसराणि । जंबुद्दीवपण्णत्ती एगसरा। अंतगडदसाइपंचण्हमंगाणं दिट्ठिवायंताणं एगमुवंगं निरया- " पलियासुयक्खंघो। तम्मि पंच वग्गा कप्पियाओ, कप्पवडिसियाओ, पुफियाओ, पुप्फिचूलियाओ, वहिदसाओ । तत्थ पढम-बीय-तईय-चउत्थवग्गेसु दस दस अज्झयणा, पंचमे बारस । तत्थ पढमे वग्गे अज्झयणा कालाई, बीए पउमाई, तईए चंदाई, चउत्थे सिरिमाई, पंचमे निसढाई। सुयक्खधं नंदीए उद्दिसिय पढमवग्गं च । तओ अज्झयणाणि दुहा काऊण आइल्ला अंतिल्ल त्ति भणिय, वग्गे वग्गे नव नव काउस्सग्गा कीरति । वग्गेसु दिणा ५, सुयक्खंधे दिणा २, सो दिणा ७; काला ७ । केई सत्त अंबिले । करेंति । अन्ने सुयक्खंध-उद्देस-समुद्देसाणुण्णासु अंबिलं करेंति । अन्नदिणेसु निधीयं । निरयावलियासुयक्खंधो गओ। ___ अण्णे पुण चंदपण्णत्तिं सूरपण्णत्तिं च भगवईउवंगे भणंति । तेसिं मएण उवासगदसाईण पंचण्हमंगाणमुवंगं निरयावलियासुयक्खंधो । ओ०रा०जी०पण्णवणा सूजं००नि०क०क०पुप्पु०वण्हिदसा। आयाराइउवंगा नायबा आणुपुवीए ॥ -उवंगविही । ६२. संपयं पइण्णगा, नंदी-अणुओगदाराइं च इक्विक्केण निधीएण मंडलीए वहिज्जंति । केई तिहिं दिणेहिं निधीएहिं य उद्देसाइकमेण इच्छंति । देवंदत्थर्य-तंदुलवेयालिय-मरणसमाहि-महापच्चखाणआउरपचेक्वाण-संथार्रय-चंदाविज्झय-भत्तपरिणा-चउसरण-चीरत्थय-गणिविजा-दीवसागरपण 1 A विरइपयं। 2 A. इकिकनिन्वीएण । विधि.८ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ विधिप्रपा । ति-संगैहणी-गच्छायार- इच्चाइपइण्णगाणि इकिक्केण निधीएण वञ्चति । जइ पुण भगवईजोगमज्झे केसिंचि पुवुत्तविहिए खमासमण-वंदण-काउस्सग्गा कया ते पुढो न वोढवा । दीवसागरपण्णची तिहिं कालेहिं तिहिं अंबिलेहिं जाइ । इसिभासियाई पणयालीसं अज्झयणाइं कालियाई, तेसु दिण ४५ निषिएहिं अणागाढजोगो । अण्णे भणंति - उत्तरज्झयणेसु चेव एयाइं अंतब्भवंति । पुज्जा पुण एवमाइ। संति-तिहिं कालेहिं आयंबिलेहिं य उद्देस-समुद्देसाणुण्णाओ एएसि कीरंति ।-पइण्णगविही । ६६३. संपयं महानिसीहजोगविही - आउत्तवाणएणं गणिजोगविहाणेण निरंतरायंबिलपणयालीसाए भवइ । तत्थ महानिसीहसुयक्खंध नंदीए उद्दिसिय पढमज्झयणं उदिसिज्जइ, समुद्दिसिज्जइ, अणुणविज्जह य । तओ बीयज्झयणं, तत्थ नव उद्देसा दो दो दिणे दिणे जंति । नवमुद्देसो अज्झयणेण सह वञ्चइ । एवं तइए उद्देसा १६, चउत्थे १६, पंचमे १२, छटे ४, सत्तमे ६, अट्ठमे २० । जओ आह अझयणं नवं सोलस, सोलस बारसे चउर्फ छ-चीसा। अट्ठज्झयणुदेसा ४५, तेसीइ महानिसीहम्मि ॥ इत्य सत्तट्ठमाई चूलारूवाई तेयालीसाए दिणेहिं अज्झयणसमत्ती। एगं दिणं सुयक्खंधस्स समुद्देसे, एगमणुण्णाए, सधे दिणा ४५, काला ४५ । आगाढजोगा।-महानिसीहजोगगविही। ॥जोगविहाणपयरणं ॥ ॥ ६६४. संपयं भणियत्थसंगहरूवं जोगविहाणं नाम पयरणं भण्णइ नमिऊण जिणे पयओ जोगविहाणं समासओ वोच्छं। पहअंगसुयक्खधं अज्झयणुदेसपविभत्तं ॥१॥ जंमि उ अंगमि भवे दो सुयखंधा तहिं तु कीरंति । सुयखंधस्स दिणेणं दोवि समुद्देसणुण्णाओ॥२॥ अह एगो सुयखंधो अंगे तो दिणदुगेण सुयखंधो। अणुपणवह अंगं पुण सवत्थ वि दोहिं दिवसेहिं ॥३॥ आवस्सयसुयखंधो तहियं छ चेव हुंति अज्झयणा । अट्टहिं दिणेहिं वच्चइ आयामदुगं च अंतम्मि ॥४॥ दसयालियसुयखंधो दस अज्झयणाई दो य चूलाओ। पिंडेसणअज्झयणे भवंति उद्देसगा दुन्नि ॥५॥ विणयसमाहीए पुण चउरो तं जाइ दोहिं दिवसेहि। इक्केकवासरेणं सेसा पक्खेण सुयखंधो ॥६॥ आवस्सय-दसकालियमोइण्णा ओह-पिंडनिनुत्ती । एगेण तिहिं च निविएहिं गंदि-अणुओगदाराइं ॥७॥ एगो य सुयक्खंधो छत्तीस भवंति उत्तरज्मयणा । तत्येकेकज्झयणं वच्चइ दिवसेण एगेण ॥८॥ नवरि चउत्थमसंखयमायणं जाइ अंबिलदुगेणं । अह पढह तद्दिणि चिय अणुण्णवह निविगइएणं ॥९॥ सघोवि य सुयखंधो वच्च मासेण नवहि य दिणेहिं । केसिं च मरण पुणो अट्ठावीसाइ दिवसेहिं ॥१०॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगविधानप्रकरण । जा अ-चउत्थ' चउस इगेगकालेण जाइ इकियो । दो दो इगेगकालेण जंति पुण सेस बावीसं ॥११॥ आयारो पढमंगं सुयखंधा तेसु दोण्णि जहसंखं । अड-सोलस अज्झयणा इत्तो उद्देसए वोच्छं ॥ १२॥ सत्तय छ चउँ चउरो छ पंच अटेवं होति चउरो यं । इकारसं ति तिय दो दो दो दो नवं हुंति इकसरा ॥१३॥ बीयम्मि सुयक्खंधे उग्गहपडिमाणमुवरि सत्तिका । आउत्तवाणएणं सुयाणुसारेण वहियवा ॥ १४ ॥ आयारो य समप्पइ पन्नासदिणेहिं तत्थ पढमम्मि । सुयखंधे चउवीसं बीए छवीसई दिवसा ॥ १५॥ बीयंगं सूयगडं तत्थवि दो चेव होंति सुयखंधा । सोलस-सत्तज्झयणा कमेण उद्देसए सुणसु ॥ १६ ॥ घउ तियं चउरो दो दो इकारस पढमयंमि इक्कसरा । सत्तेव महज्झयणा इकसरा बीय सुयखंधे ॥ १७ ॥ सूयगडो य समप्पह तीसाए वासरेहिं सयलो वि । पढमो वीसाए तहिं दिणेहिं बीओ तह दसेहिं ॥ १८॥ ठाणंगे सुयखंधो एगो दस चेव होति अज्झयणा।। पढमं एगसरं चउंचउँ चउँ तिगे सेस एगसरा ॥ १९ ॥ समवाओ पुण नियमा सुयखंधविवजिओ चउत्थंगं । तिहि वासरेहिं गच्छह ठाणं अट्ठारसदिणेहिं ॥ २०॥ होति दसा-कप्पाईसुयखंधे दस दसा उ एगसरा । कप्पम्मि छ उद्देसा ववहारे दस विणिहिट्ठा ॥ २१ ॥ अज्झयणमि निसीहे वीसं उद्देसगा मुणेयथा । तीसेहिँ दिणेहिँ जति हु सवाणि वि छेयसुत्ताणि ॥ २२ ॥ निविएण जीयकप्पो आयामेणं तु जाइ पणकप्पो। तिहिं अंबिलेहिं उक्कालियाई ओवाइयाइं चऊ ॥ २३ ॥ आउत्तवाणएणं विवाहपण्णत्ति पंचमं अंगं । छम्मासा छदिवसा निरंतरं होंति वोढवा ॥ २४ ॥ इत्थ य नय सुयखंधो नय अज्झयणा जिणेहिं परिकहिया । इगचत्तालसयाइं ताई तु कमेण वोच्छामि ॥ २५ ॥ अट्ट दसुइसाई ८, दो चउ तीसाई १०, बारसहिं एगे ११। तिणि दसुद्देसाई १४, गोसालसयं तु एगसरं १५ ॥ २६ ॥ 1 'चतुर्वमसंखयाभ्ययनं वर्जयित्वा' इति टिप्पणी। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 15 20 25 ६० विधिप्रपा । बीए पढमुद्देसो खंदो तइयम्मि चमरओ बीओ । गोसालो पनरसमो पण पण तिग हुंति दत्तीओ ॥ २७ ॥ एया सभत्तपाणा पारणगदुगेण होयणुण्णवणा । खंदाईण कमेणं वोच्छामि विहिं अणुण्णाए ॥ २८ ॥ चमरंमि छट्टजोगो विगईए विसजणत्थमुस्सग्गा । अट्ठमजोगो लग्गह गोसालसए अणुष्णाए ॥ २९ ॥ पनरसहिं कालेहिं पनरसदियहेहिं चमरणुण्णाए । लग्गह य छट्ठजोगो पणनित्रिय अंबिलं छटुं ॥ ३० ॥ अउणावण्णदिणेहिं अउणावण्णा वावि कालेहिं । अहमजोगो लग्गइ अट्ठमदियहे निरुद्धं च ॥ ३१ ॥ चोद्दस १६ सत्तरस १७ तिण्णि उ दस उद्देसाइ २० तह असी २१ सट्ठी २२ । पन्नासा २३ चवीसा २४ बारस २५ पंचसु य इक्कारा ३० ॥ ३२ ॥ अट्ठावीसा दोसुं ३२ चउवीससयं च ३४ पणसु बत्तीसं ३९ । दोणि सया इगतीसा ४० चरिमसए चेव छन्नउयं ४१ ॥ ३३ ॥ बंधी २६ करिसुगनामं २७ कम्मसमजिणण २८ कम्मपवणं २९ । ओसरणं समपुत्रं ३० उववा- ३१ उवहणसयं च ३२ ॥ ३४ ॥ एगिंदि ३३ तह सेढी ३४ एगिंदिय ३५ बेइंदियाण समहाणं ३६ । तेइंदिय ३७ चउरिंदि ३८ असण्णिपणिमिह सहिया ३९ ॥ ३५ ॥ एएस सतहं जुम्मसयदुवालसाणि नेयाणि । आइदुगजम्मवज्जं सन्निमहाजुम्मि य सयाणि ॥ ३६ ॥ एयाई इकतीसं ४० चरमं पुण होइ रासिजुम्मसयं ४१ । पणवीसइमा आरा अभिहाणारं वियाणाहिं ॥ ३७ ॥ इत्थ उत्थम्मि सए अहुद्देसा दुहा उ कायचा । अट्ठमसयवोलीणे सो वि हु विसमयाई वि ॥ ३८ ॥ दोमास अद्धमासे विहिणा अंगे इमम्मिऽणुण्णाए । नामवणं कीरह पुणरवि तह कालसज्झायं ॥ ३९ ॥ असुहभवक्खयहेऊ अचंतं अप्पमत्तपियधम्मा । पुरंति परियायं जावसमप्पंति कहवि' दिणा ॥ ४० ॥ सहा वो होइ इमं तह सुयानुसारेणं । आयारेऽणुण्णा केई आलंबणारया ॥ ४१ ॥ सोहणतिहि-रिक्खाइसु विउलेसण-निरुवसग्गि खित्तम्मि । उक्विणमाइजोगाण काहि किचं निरवसेसं ॥ ४२ ॥ 1 'कहिय' A टिप्पणी । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगविधानप्रकरण । ६१ नायाधम्मकहाओ छटुंगं तत्थ दो सुयक्खंधा। पढमे इकसराइं अज्झयणाई अउणवीसं ॥ ४३ ॥ बीए दसवग्गा तहिं उद्देसा दस दसेर्व चउवन्नौ । चउपन्नों बत्तीसा बत्तीस चउँ चउँ अडं ॥४४॥ नायाधम्मकहाओ तेत्तीसाए दिणेहिं वचंति। पढमे वीसं दिवसा सुयखंधे तेरस उ बीए ॥४५॥ सत्तमयं पुण अंगं उवासगदस त्ति नाम तत्थेगो। सुयखंधो इकसरा इत्थऽज्झयणा हवंति दस ॥ ४६ ॥ अंतगडदसाओ पुण अट्ठममंगं जिणेहिं पन्नत्तं । तत्थेगो सुयखंधो वग्गा पुण अट्ट विण्णेया ॥४७॥ अंतगडदसाअंगे वग्गे वग्गे कमेण जाणाहिं । दस दसे तेरस दर्स दसे सोलर्स तेरस दसुंदेसा ॥४८॥ अहऽणुत्तरोववाइयदसा उ नामेण नवमयं अंगं । एगो य सुयक्खंधो तिनि उ वग्गा मुणेयवा ॥४९॥ उद्देसगाण संखं वग्गे वग्गे य एत्थ वोच्छामि । दस तेरस दस चेव य कमसो तीसुं पि वग्गेसुं ॥५०॥ चोइस उवासगदसा अंतगडदसा दुवालसेहिं तु। सत्तहिं दिणेहिं जंति उ अणुत्तरोववाइयदसाओ ॥५१॥ वग्गस्साइल्लाणं उद्देसाणं तहिं तिमिल्लाणं । उद्देस-समुद्देसे तहा अणुण्णं करिजासु ॥५२॥ दिवसेण जाइ वग्गो उस्सग्गा तत्थ होंति नव चेव । छप्पुवण्हे भणिया अवरण्हे नियमओ तिन्नि ॥५३॥ पण्हावागरणंगं दसमं एगो य होइ सुयखंधो। तहियं दस अज्झयणा एगसरा जंति पइदिवसं ॥ ५४॥ चोदसहिं वासरेहिं पण्हावागरणमंगमिह जाइ । आउत्तवाणएणं तं वहियवं पयत्तेणं ॥५५॥ एकारसमं अंगं विवागसुयमित्थ दो सुयक्खंधा । दोसुपि य एगसरा अज्झयणा दस दस हवंति ॥५६॥ कालियचउपण्णत्ती आउत्ताणेण सूरपण्णत्ती। सेसा संघट्टेणं ति-तिआयामेहिं चउरो वि ॥ ५७ ॥ निरयावलियभिहाणो सुयखंधो तत्थ पंचवग्गाओ। इकिकमि य वग्गे उद्देसा दसदसंतिमे दु जुया ॥५८॥ 1A समुदेसा। 2 "जपू०, चंद्र०, पूर०, दीव०'-इति B टिप्पणी । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रपा । चउवीसाइ दिणेहिं इक्कारसमं विवागसुयमंग। वचइ सत्तदिणेहिं निरयावलियासुयक्खंधो ॥ ५९॥ ओराजी पण्णवणा सूजच निष्कक पुप्फवण्हिदसा। आयाराइउवंगा नेयवा आणुपुबीए ॥ ६॥ देविदत्थयमाई पइण्णगा होति इगिगनिविएण। इसिभासियअज्झयणा आयंबिलकालतिगसमा ॥ ६१ ॥ केसिं चि मए अंतम्भवंति एयाई उत्तरज्झयणे। पणयालीस दिणेहिं केसि वि जोगो अणागाढो ॥१२॥ आउत्तवाणएणं गणिजोगविहीइ निसीहं तु। अच्छिन्नं कालंषिलपणयालीसाइ वोढवं ॥ ६३॥ एगसरं नवं सोलस सोलर्स बारसे चउँ छ वीस तहिं । तेसीइं उद्देसा छज्झयणा दोन्नि चूलाओ॥ ६४ ॥ कालग्गहसज्झायं संघहाईविहिं निरवसेसं। सामायारिं च तहा विसेससुत्ताओ जाणिज्जा ॥ ६५ ॥ नियसंताणवसेणं सामायारीओ इत्थ भिन्नाओ। पिच्छंता इह संकं माहु गमिच्छा सया कालं ॥६६॥ सामायारीकुसलो वाणायरिओ विणीयजोगीण । भवभीयाण य कुजा सकजसिद्धिं न इहराओ॥ ६७ ॥ जं इत्थ अहं चुक्को मंदमइत्तेण किंपि होजाहिं । तं आगमविहिकुसला सोहिंतु अणुग्गहं काउं ॥ ६८ ॥ ॥ जोगविहाणपगरणं समत्तं ॥ ॥समत्तो जोगविही ॥२४॥ ६६५. जोगा य कम्पतिप्प' विणा न वहिजंति -'कयकप्पतिप्पैकिरिय'त्ति वयणाओ। अओ संपयं कप्पतिप्पविही भण्णइ - तत्थ वइसाह-कत्तियबहुलपडिवयाणंतरं पसत्थदिणे चउवाइयरिक्खे गुरु-सोमवारे सुनिमित्तोवउत्तेहिं सदसवत्थवेढियगिहत्थभायणेणं कप्पवाणियमाणित्ता, जोईणीओ पिट्ठओ वामओ वा काउं मुह-हत्थ-पाए ऑल्ले काऊण अहारायणियाए छम्मासियकप्पो उचारिजइ । पविसमाणस्सासं दसियाइ कयआउत्तजलेणं पढमं चउरो तिप्पाओ मुहे घेप्पंति, तओ पाएसु । इत्थ हत्थविण्णासो संपदाया नेययो । छम्मासियकप्पे परदिण्णाओ चेव तिप्पाओ घेप्पंति । इयरकप्पे दसियापुत्तंचलकोप्परेहिं परदिण्णाओ वा । तहा छम्मासियकप्पुत्तारणे उद्घट्ठियस्स उद्धढिओ तिप्पाओ दिज्जा, उवविट्ठस्स उवविट्ठो । सामन्नकप्पे नत्थि नियमो । तओ वसही भंडुवगरणं च नाणोवगरणवजं सर्व पि तिप्पिजई। नवरं मंडलिट्ठाणं गोमय• लेवे कए तिप्पिजइ । कप्पमझे वावरियं पत्त-भंड-मल्लग-उद्धरणी-पमज्जणिया-तलिया-लोहरच्छाइ जलेण कप्पिडं तिप्पिज्जइ । एवं कप्पे उत्तारिए वसहि सोहित्तु हहु-केसाइ परिद्वविय, इरियं पडिक्कमिय, पढमं 1 A. तेप्पं । 2 A जोयिणीओ। 8A वेपिबइ । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कप्पतिप्पविधि । गुरुणा सज्झाए उक्खिविए मुहपोत्ति पडिलेहिय, दुवालसावत्तवंदणं दाउं, खमासमणेण भणंति-सज्झायं उक्खिवामो, बीयखमासमणेण सज्झायउक्खिवणत्थं काउस्सग्गं करेमो' । तओ अन्नत्थूससिएणमिचाइ पढिय, नवकारं चउवीसत्थयं चिंतिय, मुहेण तं भणिय, काउस्सग्गतियं कुणंति । पढमं असज्झाइय-अणाउत्तओहडावणियं, बीयं खुद्दोवद्दवओहडावणियं, तइयं सक्काइवेयावच्चगरआराहणत्थं । तिसु वि चउ उज्जोयचिंतणं, उज्जोयभणणं च । तओ खमासमणदुगेण सज्झायं संदिसावेमि, सज्झायं करेमि ति भणिय, जाणुट्ठिएहिं पंचमंगलपुवं 'धम्मो मंगलाइ' अज्झयणतियसज्झाओ कीरइ ति ।। ६६६. सज्झायउक्खिवणविही- जया य चित्तासोयसुद्धपक्खे सज्झाओ निक्खिविज्जइ, तया दुवालसावत्तवंदणं दाउं सज्झायनिक्खिवणत्थं अट्ठस्सासं काउस्सग्गं काउं पारित्ता, मंगलपाढो कायवो ति । राओ' सन्नाए कयाए वमणे सित्थ-रुहिराइनिस्सरणे य पभाए कप्पो उत्तारिजइ । बाहिरभूमीए आगया पिंडियाओ पाए य तिप्पंति । जत्थ पाया मंडोवगरणं वा तिप्पिज्जइ सा भूमी अणाउत्ता होइ । सा य आउ- ॥ तजलउल्लियग्गदंडपुंछणेण सिद्धीए तिप्पिज्जइ । तं च दंडपुंछणं अणाउत्तट्ठाणे नेऊण तिप्पिज्जइ । अणाउत्तट्ठाणं नाम नीसरंताणं वामबाहाए दुवारपासे भूमिखंडलं इट्टिगाइपरिहिजुत्तं अणाउत्तडं ति रूढं । उच्चारे वोसिरिए वामकरेण तिहिं नावापूरेहिं आयमिय, आउत्तेण दाहिणहत्थेण दवं मत्थए छोण कोप्परेण वा दवं चित्तूणं अहिट्ठाणलिंगेसु जंघासु कलाइयासु चउरो चउरो तिप्पाओ घेप्पंति । पुरीसपवित्तीए जायाए जइ मुहे अणाउत्तो हत्थो लग्गइ तया कप्पुत्तारणेण सुज्झइ । तहा जइ आयामंतस्स तिप्पणयं दोरओ वा ॥ वामहत्थे पाए वा लग्गइ तया अणाउत्ती हवइ । दवं उज्झित्ता दोरयं मझे खिवित्ता तं भायणं तिप्पिज्जह । बाहिं कंटयाइंमि भग्गे जेण हत्थेण तं उद्धरेइ सो हत्थो तिप्पियवो । जइ दंडओ हड्डे लग्गइ तया तिप्पियो । जेण अंगेण उवंगेण वा अणाउत्तं भंडोवगरणं साहं वा छिवइ, जंमि य रुहिरं नीहरइ तं अणाउत्तं होइ । कजयं भंडाइसु पाणियं तिप्पणयाइ कंठट्ठियं दोरयं च राओ जइ वीसरइ सबमणाउत्तं होइ । जाणतेण विहाराइकारणे तुंबयकंठदिन्नं दोरयमणाउत्तं न होइ। गुड-घय-तिल्ल-खीराई भोयणवइरित्तकज्जे ॥ आणीयमवस्सं तिप्पित्तु वावरिजइ । नालिएराइसु घसणत्थं तिल्लं निक्खित्तं परिवसियं अणाउत्तं होइ, जइ लवणं मज्झे न निक्खिप्पइ । भुत्तूण उठ्ठिएहिं दसाइणा कप्पवाणियं घेत्तुं पढमं एगं हत्थं मत्थए, एगं च मुहे काउं चउरो तिप्पाओ घेप्पन्ति । जइ पुण कारणजाए मुहसुद्धिमाइ मुहे चिट्ठइ, तया पढमं मत्थयं तिप्पित्ता, तओ मुहं पुढो तिप्पियत्वं । तओ मत्थए आउत्तदवं छोढुं कण्ण-खंध-पैगंड-कोप्पर-पउट्ठ-हियएसु चत्वारि चत्वारि तिप्पाओ। तओ पिट्ट-पुट्टीओ समगं तिप्पित्ता चोलपट्टय-ऊरु-जाणु-पिडिया-पाएसु चउरो 2 चउरो तिप्पाओ। तओ भायणाई बइसणं च तिप्पिडं निउत्तो साहू ओमरायणिओ वा मंडलिं गिहिय, तक-तीमणाइखरडियं च भूमि जलेण सोहिय, दंडउंछणं पमज्जणिं वा जेण मंडली गहिया तं मंडलीए तिप्पिय, तेणेव आउत्तजलउल्लियग्गेण मंडलीठाणं बाहिं नीसरंतेणं तिप्पियदेसं अच्छिवंतेणं अविच्छिन्नं तिप्पियवं । तं च दरतिप्पियं जइ केणवि अणाउत्तेहिं पाएहिं अक्तं पुणो अणाउत्तं होइ, तओ दंडाउंछणं उद्धरणियाए उवरि तिप्पित्ता मंडलिं परिठ्ठाविय उद्धरणियं अणाउत्तट्ठाणे तिप्पिय खीलए धारितु अन्मु-॥ क्खणं निक्खिविजइ । जो य सेहो गिलाणो सामायारी अकुसलो वा सो दंडाउंछणेण तिप्पिज्जह । अववारण राओ विहारत्यं नगराईहिंतो नीसरंताणं जइ पाएसु तलियाओ तो अणाउत्ता न होंति पाया, अन्नहा होति । दिया वा राओ वा अणाउत्ते हत्थपायाई अंगे जइ पयलाइ तो कप्पुत्तारणेण सुज्झइ । भुजंतस्स 1 'रात्रौ' इति B टिप्पणी । 2 A पाणयं। 3 'कूर्परस्कन्धयोर्मध्ये प्रगंडः। 4 भुजामध्यं कर्परः । 5 आमणिबन्धातू कूपरस्याधः प्रकोष्टः कलाचिका स्यात् ।' इति टिप्पणी A आदर्श । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रपा । सित्यं पियंतस्स वा दवं जइ चोलपट्ट पमज्झे गयं तो वि कप्पुत्तारणेण सुज्झइ । कारणपरिवासियजलेण तिप्पाओ न सुज्झति । अणुग्गए य जइ तिप्पाओ गेण्हंतो एगं दो तिन्नि वा गिण्हेइ अपडते वा दवे गिण्हइ सधमणाउत्तं होइ । नहा लोयकेसा य वसहीए वीसरिया तइए दिणे अणाउत्ता होति । खइरकक्क समाणं पूइत्तावण्णं वा रुहिरमणाउत्तं न होइ । लद्दीए मज्जार-सुणग-माणुसाइपुरीसे वा छिक्के अणाउत्तो । होइ । तेप्पणयाइसु दवं अणाउत्तं जायं अइरित्ते वा मा उज्झियवं होहिइ त्ति । तओ आकंठं जलेण भरित्ता तिप्पियं आउत्तं होइ ति । ॥ कप्पतिप्पसामायारी समत्ता ॥ २५॥ ६६७. एवं कप्पतिप्पाइविहिपुरस्सरं साहू समाणियसयलजोगविही मूलग्गंथ-नंदि-अणुओगदार-उत्तरज्झयण-इसिभासिय-अंग-उवंग-पइन्नय-छेयग्गंथआगमे वाइज्जा । अतो वायणाविही भणइ - " तत्थ अणुओगमंडलिं पमज्जिय गुरुणो निसिजं रइत्ता, दाहिणपासे य निसिज्जाए अक्खे ठाइत्ता, गुरूणं पाएसु मुहपोत्तियापडिलेहणपुर्व दुवालसावत्तवंदणं दाउं, पढमे खमासमणे अणुओगं आढवेमो त्ति, बीए अणुओगआढवणत्थं काउस्सग्गं करेमो त्ति भणिय, अणुओगआढवणत्थं करेमि काउस्सग्गं अन्नत्थ ऊससिएणमिच्चाइ पढिय, अट्ठस्सासं काउस्सग्गं करिय, पारित्ता पंचमंगलं भणित्ता, पढमे खमासमणे वायणं संदिसावेमि, बीए वायणं पडिगाहेमि, तइए बइसणं संदिसावेमि, चउत्थे बइसणं ठामि त्ति भणिऊण, " नीयासणत्यो मुहपोत्तियाठइयवयणो उवउत्तो उचियसरेणं वाइज्जा । जे के वि अणुओगं आढविय उवउत्ता सुणन्ति तेसिं सबेसिं वायणा लग्गइ । अणुओगे आढत्ते निद्दा-विगहा-वत्ता-हास-पच्चक्खाणदाणाइ न कीरइ । जस्स सगासे तं सुयमहिजियं तमेगं मुत्तुं अन्नस्स गुरुणो वि न अब्भुट्ठिजइ । उद्देसगसमतीए छोभवंदणं भणंति । अज्झयणाइसु वंदणगमेव । अणुओगसमत्तीए पढमखमासणे अणुओगपडिक्कमहं, बीए अणुओगपडिक्कमणत्थ काउस्सग्गु करहं । अणुओगपडिक्कमणत्थं करेमि काउस्सग्गमिच्चाइ पढिय, ॥ अदुस्सांसं उस्सग्गं काउं पारित्ता, पंचमंगलं भणित्ता, गुरुणो वंदति त्ति । ॥ वायणाविही समत्तो ॥ २६ ॥ ६६८. एवं विहिगहियागमं सीसं अणुवत्तगत्ताइगुणन्नियं नाउं वायणायरियपए उवज्झायपए आयरियपए वा गुरुणो ठावेंति । सिस्सिणिं च पवत्तिणीपए महत्तरापए वा । तत्थ वायणायरियपयठावणाविही भण्णइ - एगकंबलं निसिज्जं उत्तरच्छयसहियं रइत्ता पक्खालियंगं सीसं वामपासे ठाविय दुवालसावत्तवंदणं दवाविय, खमासमणपुवं गुरू भणावेइ -'इच्छाकारेण तुन्भे अम्हं वायणायरियपयअणुजाणावणियं वासनिक्खेवं करेह' । गुरू भणइ-'करेमो' । पुणो खमासमणेणं सीसो भणइ -'तुब्भे अम्हं वायणायरियपयअणुजाणावणियं चेइयाइं वंदावेह' । तओ गुरू 'वंदावेमो'त्ति भणित्ता, तस्स सिरे वासे खिविय वढतियाहिं थुईहिं तेण सहिओ देवे वंदइ । जाव पंचपरमिट्टित्थवभणणं पणिहाणगाहाओ य। तओ गुरू ० सीसो य वायणायरियपयअणुजाणावणियं सत्तावीसुस्सासं काउस्सग्गं दो वि करित्ता उज्जोयगरं भणंति । तओ सूरी उद्घटिओ नंदिकड्डावणियं काउस्सग्गं अट्टस्सासं कारवित्ता करित्ता य नवकारतिगं भणित्ता 1 'पूतित्वापन' इति A टिप्पणी। 2 'स्पृष्टे' इति A टिप्पणी। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचनाचार्य पदस्थापनाविधि । ६५ " नाणं पंचविहं पण्णसं, तं जहा - आभिणिबोहियनाणं, सुथनाणं, ओहिनाणं, मणपज्जवनाणं, केवलनाणं ति" पंचमंगलत्थं नंदि कडिय इमं पुण पटुवणं पहुच - 'एयस्स साहुस्स वायणायरियपय अणुष्णा नंदी पवत्तइ' त्ति भणिम सिरसि वासे खिवेइ । तओ निसिज्जाए उवविसिय गंधे अक्खए य अभिमंतिय संघस्स देइ । तओ जिणचलणेसु गन्धे खिवेइ । तओ सीसो वंदिउं भणइ - 'तुब्मे अम्हं वायणायरियपयं अणुजाणह' । गुरू भइ - 'अणुजाणेमो' । सीसो भणइ - 'संदिसह किं भणामो ?' गुरू भणइ - 'वंदिता पवेयह' । पुणो वंदिय सीसो भणइ -' इच्छाकारेण तुब्भेहिं अम्हं वायणायरियपयमणुन्नायं' ३ स्वमासमणाणं, हत्थेणं सुत्तेणं अत्थेणं तदुभएणं, सम्मं धारणीयं चिरं पालणीयं अन्नेसिं पि पवेयणीयं । सीसो वंदिय भइ - 'इच्छामो अणुसट्ठि'; पुणो वंदिय सीसो भणइ - 'तुम्हाणं पवेइयं, संदिसह साहूणं पवेएमि' । तओ नमोकारमुच्चरंतो सगुरुं समवसरणं पयक्खिणी करेइ तिन्नि वाराओ । गुरू संघो य 'नित्थारगपारगो हो, गुरुगुणेहिं वाहिति भणिरो तस्स सिरे वासक्खए खिवेइ । तओ वंदिय सीसो भणइ - ' तुम्हाणं 10 पवेइयं, साहूणं पवेइयं, संदिसह काउस्सगं करेमि त्ति भणित्ता अणुण्णाय 'वायणायरियपयथिरीकरणत्थं करेमि काउस्सग्गं अन्नत्थूससिएणमिच्चाइ' भणिय काउसग्गे उज्जोयं चिंतिय, पारिता चउवीसत्थयं भणित्ता, गुरुं वंदित्ता भणइ -' इच्छाकारेण तुठभे अम्हं निसिज्जं समप्पेह' । तओ गुरू निसिज्जं अभिमंतिय, उवरि चंदणसत्थियं काऊण, तस्स देइ । सो य निसिज्जं मत्थएण वंदित्ता सनिसिज्जो गुरुं तिपयाहिणी करेइ । तओ पत्ताए लग्गवेलाए चंदणचच्चियदाहिणकन्ने तिन्नि वारे गुरू मंतं सुणावेइ - 'अ-उ-म्-न्- 1s अ-म्-ओ-भ्-अ-ग्-अ-व्-अ-अ-उ-अ-र्-अ-ह्-अ-अ-उ-म्-अ-ह्-अ-इ-म्-अ-ह्-आ-व्-ई-र्-अ-व्-अ-डू-अ-म्आ--अ-स्-आ-म्-इ-स्-अ-स्-इ-म्-अ-उ-म्-ए-भू-अ-ग्-अ-व्-अ-ई-म्-अ-ह्-अ-इ-म्-अ-हू-आ-व्-इ-ज्ञ् आ-अ-उ-म्-व्-ई-र्-ए-व-ई-इ-ए-म्-अ-ह्-आ-व्-ई-इ-ए-ज्-अ-य्-अ-व्-ई-र-ए-स्-ए-य्-अ-व्-ई-र्-ए-व्-अ-तू अ-म्-आ-य्-अ-व्-ई-र्-ए-ज़्-अ-य्-ए-व-इ-ज्-अ-य्-ए-ज़्-अ-य्-अं-त्-ए-अ-प्-अ-र्-आ-ज्-इ-ए-अ-ण्-इ-हू अ-ए-अ-उ-म्-ह्-र्-ई-म्-स्-व्-आ-हु-आ । उवेयारो चउत्थेण साहिज्जइ । पवज्जोवठावणा-गणिजोग-पट्ठा - 20 उत्तम पडिवत्तिमाइए कज्जेसु सत्तवारा जवियाए गंधक्खेवे नित्थारगपारगो होइ, पूयासक्कारारिहो य । तओ वद्धमाणविज्जामंडलपडो तस्स दिज्जइ । तओ नामट्ठवणं करिय, गुरुणा अणुष्णाए ओमरायणिया साहू साहुणीओ य सावया साविआओ य तस्स पाएसु दुवालसावत्तवंदणं दिति । सो य सयं जिज्जे वंदइ । तओ तस्स कंबलवत्थखंडरहियस्स पुट्ठिपट्टस्स अणुष्णं दाऊणं साहु साहुणीणं अणुवत्तणे गंभीरयाए विणीययाए इंदियजए य अणुसट्ठी दायवा । तओ वंदणं दाविऊण पच्चक्खाणं निरुद्धं कारिज्ज चि । ॥ वायणायरियपयट्ठावणाविही समत्तो ॥ २७ ॥ ६ ६९. संपयं उवज्झायपयट्ठावणाविही । सो वि एवं चेव उवज्झायपयाभिलावेण भाणियो । नवरं उवज्झायपयं आसन्नद्धपइभत्तादिगुणरहियस्स वि समग्गसुतत्थगहणधारणवक्खाणणगुणवंतस्स सुखबायणे अपरिस्संतस्स पसंतस्से आयरियद्वाणजोग्गस्सेव दिज्जद । निसिज्जा य दुकंबला; आयरियवज्जं जेटुकणिट्ठा सबै बंदणं दिति । मंतो य तस्स सो चेव; नवरं आइए नंदिपयाणि अहिज्जन्ति । अ-उ-म्-न्-अ-म्-ओ-अन्-अ-तू-अ-म्-त-आ-य्-अ-म् । अ-उ-म्-न्-अ-म्-ओ- स्-इ-स्-आ--अम्। अ-उ-म्-न्-अ-म्-ओ-आ-य्-अ-इ-इ-आ-य्-अ-म् । अ-उ-म्-न्-अ-म्-मो-उ-य्-अ-ज्मू-आ-य्-आ- 1 C आदर्श अत्र - 'उवयारो चउत्येण तम्मि चैव दिणे सहस्सजावेण - सौभाग्यमुद्रा १, परमेष्ठिमुद्रा २, प्रवचनमुद्रा ३, सुरभिमुद्रा ४, एतन्मुद्राचतुष्टयं कृत्वा मंत्रः स्मरणीयः - साहिब' - एतादृशः पाठो विद्यते । 24 नास्ति पदमिदम् । विधि० ९ 25 24 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ विधिप्रपा। अ-म् । अ-उ-म्-न-अ-म्-ओ-स्-अ-अ-स्-आ-हु-ऊण्-अ-म् । अ-उ-म्-न्-अ-म्-ओ-अ-उ-ह-इ-ज्-इ-ण्अ-अ-ण्-अ-म् । अ-उ-म्-न्-अ-म्-ओ-प-अ-र-अ-म्-ओ-ह-इ-ज्-इ-ण्-अ-अ-ण-अ-म् । अ-उ-म्-न्-अम्-ओ-म्-अ-व्-ओ-ह-इ-ज्-इ-ण्-अ-अ-ण्-अ-म् । अ-उ-म्-न्-अ-म्-ओ-म्-अ-ण्-अ-म्-त्-ओ-ह-इ-ज्-इण्-अ-अ-ण्-अ-म् । उवयारो सो चेव । संघपूयाइमहूसवाहिगारो एत्थ सावयाणं ति । ॥ उवज्झायपयट्ठावणाविही समत्तो ॥ २८ ॥ ६७०. इयाणि आयरियपयट्ठावणाविही भण्णइ । आयार-सुय-सरीर-वयण-वायणा-मइपओग-मइसंगहपरिण्णारूवअट्ठविहगणिसंपओववन्नस्स देस-कुल-जाइ-रूवी-इच्चाइगुणगणालंकियस्स बारसवरिसे अहिन्जिय सुत्तम्स बारसंवरिसे गहियत्थसारस्स बारसवरिसे लद्धिपरिक्खानिमित्तं कयदेसदसणस्स सीसस्स लोयं काउं पाभाइयकालं गिण्हिय, पडिक्कमणाणंतरं वसहीए सुद्धाए कालग्गाहीहिं काले पवेइए अंगपक्खालणं काउं, दाहि॥णकरे कणयकंकणमुद्दाओ पहिरावित्तु, चोक्खनेवत्थं पंगुराविज्जइ । पसत्थतिहि-करण-मुहुत्त-नक्खत्त-जोगलग्गजुत्ते दिवसे अक्ख-गुरुजोगाओ दुन्नि निसिज्जाओ पडिलेहिज्जन्ति । सीसो गुरू य दुन्नि वि सज्झायं पट्टविंति। पट्टविए सज्झाए जिणाययणे गन्तूण समवसरणसमीवे दुन्नि वि निसिज्जाओ भूमि पमजित्तु संघट्टियाओ धरिज्जन्ति । तओ गुरू सूरिमन्तेण चंदणघणसारचच्चियअक्खाभिमंतणे कए निसिज्जाओ उट्टित्ता, सूरिपयजोगं सीसं वामपासे ठवित्ता, खमासमणपुवं भणावेइ -'इच्छाकारेण तुब्भे अम्हं दव-गुण-पज्जवेहिं अणुओगअणु15 जाणावणत्थं वासे खिवेह' । तओ गुरू सीसस्स वासे खिवेइ, मुद्दाओ सरीररक्खं च करेइ । तओ सीसो खमासमणं दाउं भणइ -'इच्छाकारेण तुब्भे अम्हं दव-गुण-पज्जवेहिं चउबिहअणुओगअणुजाणावणत्थं चेइआई वंदावेह' । तओ गुरू सीसं वामपासे ठवित्ता वध्रुतियाहिं थुईहिं संघसहिओ देवे वंदइ । संतिनाह-संतिदेवयाइ आराहणत्थं काउस्सग्गं करेइ । तेसिं थुईओ देइ । सासणदेवयाकाउस्सग्गे य उज्जोयगरं चउक्वं चिन्तई । तीसे चेव थुइं देइ । तओ उज्जोयगरं भणिय, नवकारतिगं कड्डिय, सक्कत्थयं भणित्ता, पंचपर20 मेट्टित्थवं पणिहाणदंडगं च भणति । तओ सीसो पुतिं पडिलेहित्ता दुवालसावत्तवंदणं दाउं भणइ -'इच्छा कारेण तुब्मे अहं दव-गुण-पज्जवेहिं अणुओगअणुजाणावणत्थं सत्तसइय नंदिकड्डावणत्थं काउस्सग्गं करावेह । तओ दुवे वि काउस्सगं करेंति सत्तावीसुस्सासं, पारिचा चउवीसत्ययं भणंति । तओ सीसो खमासमणं दाउं भणइ -'इच्छाकारेण तुब्भे अहं सत्तसइयं नंदि सुणावेह । तओ सूरी नमोक्कारतिगपुवं उद्घट्टिओ नंदिपुत्थियाए वासे खिवित्ता, सयमेव नंदि अणुकड्लेइ । अन्नो वा सीसो उद्धढिओ मुहपोत्तियाठइयमुहकमलो " उवउत्तो नंदि सुणावेइ । सीसो य मुहपोत्तियाए ठइयमुहकमलो जोडियकरसंपुडो एगग्गमणो उद्घट्ठिओ नंदि सुणेइ । नंदिसमत्तीए सूरी सूरिमंतेण मुद्दापुवं गंधक्खए अभिमंतेइ । तओ मूलपडिमासमीवं गुरू गंतूण पडिमाए वासक्खेवं काऊण, सूरिमंतं उद्धट्ठिओ जवइ । ततो समवसरणसमीवमागम्म नंदिपडिमाचउक्कस्स वासे खिवेइ । तओ अभिमंतिय वासक्खए चउविहसिरिसमणसंघस्स देइ । तओ सीसो खमासमणं दाउं भणइ -'इच्छाकारेण तुब्मे अम्हं दव-गुण-पज्जवेहिं अणुओगं अणुजाणेह' । गुरू भणइ --'अहं एयस्स " दध-गुण-पज्जवेहिं खमासमणाणं हत्थेणं अणुओगं अणुजाणामि' । सीसो खमासमणं दाउं भणइ -'इच्छाकारेण तुम्भेहिं अम्हं दध-गुण-पज्जवेहिं अणुओगो अणुण्णाओ'- एवं सीसेण पण्हे कए गुरू भणइ -'खमासमणाणं हत्थेणं सुत्थेणं अत्थेणं तदुभयेणं अणुओगो अणुण्णाओ ३ । सम्मं धारणीओ, चिरं पालणीओ, अन्नसिं च पवेयणिओ'- इति भणंतो वासे खिवेइ । तओ सीसो-खमासमणं दाउं भणइ -'तुम्हाणं पवेइयं, संदिसह . 1A बारिस। 2 B गेण्डिय। 3 चिंतति। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यपदस्थापनाविधि । साहूणं पवेएमि ?' । गुरू भणइ -'पवेयह' । तओ नमोक्कारमुच्चरंतो चउद्दिसिं सगुरुं समवसरणं पणमंतो पाउंछणं गहिय, रयहरणेण भूमिं पमज्जितो पयक्खिणं देइ । संघो य तस्स सिरे अक्खए खिवइ । एवं तिन्नि वाराओ देइ । तओ खमासमणं दाउं भणइ -'तुम्हाणं पवेइयं, संदिसह काउस्सग्गं करेमि ?' । गुरू भणइ -'करेह' । खमासमणं दाउं-दव-गुण-पज्जवेहिं अणुओगअणुण्णानिमित्तं करेमि काउस्सग्गं-उज्जोयं चिंतिय तं चेव भणइ । तओ गुरू सूरिमंतेण निसिजं अभिमंतेइ । तओ सीसो खमासमणं दाउं भणइ -: 'इच्छाकारेण तुम्भे अम्हं निसिजं समप्पेह' । तओ गुरू वासे मत्थए खिविय तिकंबलं निसिजं समप्पेइ । ततो निसिज्जासहिओ समवसरणं गुरुं च तिन्नि वाराओ पयक्खिणी करेइ । तओ गुरुस्स दाहिणभुयासन्ने स निसिज्जाए निसीयइ । तओ पत्ताए लग्गवेलाए चंदणचच्चियदाहिणकन्नस्स गुरुपरंपरागए मंतपए कहेइ, तिन्नि वाराओ। एसो य सूरिमंतो भगवया वद्धमाणसामिणा सिरिगोयमसामिणो एगवीससयअक्खरप्पमाणो दिन्नो, तेण य बत्तीससिलोगप्पमाणो कओ। कालेण परिहायंतो परिहायंतो जाव दुप्पसहस्स अद्भुट्ठसिलोग- ॥ प्पमाणो भविस्सइ । नय पुत्थए लिहिज्जा आणाभंगप्पसंगाओ। जित्तियमित्तो य संपयं वट्टइ तित्तियस्स सयलस्स वि लग्गवेलाए दाणे इठ्ठलग्गंसो न फबइ । अतो लग्गस्स आरेणावि पीढचउकं दायचं। इठ्ठलग्गंसे पुण चउपीढसामिणो मंतरायस्स पंच सत्त वा जहा संपदायं पयाई दायबाई ति गुरु आएसो । उवयारो एयस्स कोडिअंसतवेण साहिज्जइ । तविही इमो उ०नि०आ०नि०आ०नि०आ०नि००ग पणिग पणेग पणिग इगमेगं। ॥ चिंतण-पढणं विकहाचाओ ऽहोरत्तणुट्ठाणं ॥१॥ उ०नि०आ०नि०आ०नि०उ०इगेग ति चउ इग दुग इंग पुत्ववावारो। सविसेसो जिणथप चत्तमंतडसयं च उस्सग्गे ॥२॥ उ०नि०आ०नि०आ०नि०उ०इगह पंच सत्तेग दु इग तइयपए। उ०नि०आन्दु हग पणेगिग तुरिए पुवो विही दुसुवि ॥ ३ ॥ मोणेण सुरहिदबच्चिय गोयमतप्परेण निस्संकं । झाणं इत्थियदसणमंतपए सोलसायामा ॥ ४ ॥ साहणाविही य अम्हच्चिय सूरिमंतकप्पे दट्ठयो । जओ चेव एस महप्पभावो एत्तोच्चिय एयस्साराहगो सूयगभत्तं मयगभत्तं रयस्सलाछुत्तभत्तं मज्जमसासिभत्तं च परिहरइ । अन्नेसिं साहूणं उचिट्ठजलकणेणावि लागेण एयस्स न भोयणं कप्पइ त्ति । तओ सीसो खमासमणं दाउं भणइ -'इच्छाकारेण तुब्भे अम्हं । अक्खे समप्पेह' । तओ गुरू तिन्नि अक्खमुट्टीओ वखंतियाओ गंधकप्पूरसहियाओ देह । सीसो वि उवउत्तो करयलसंपुडेण गिण्हइ । जोगपट्टयं खडियं च गुरू समप्पेइ त्ति पालित्तयसूरी । तओ सीसो खमासमणं दाउं भणइ -'इच्छाकारेण तुब्भे अम्हं नामट्ठवणं करेह' । तओ गुरू वासे खिवन्तो जहोचियं सूरिसद्दपज्जंतं नामं तस्स करेइ । ___ तओ गुरू निसिज्जाए उठेइ, सीसो तत्थ निसीयइ । तओ नियनिसिज्जानिसन्नस्स सीसस । मुहपोत्तिं पडिलेहिऊण तुलगुणक्खावणत्थं जीयं ति काउं गुरू दुवालसावत्तवंदणं दाउं भणइ -'वक्खाणं करेह' । तओ सीसो जहासत्तीए परिसाणुरूवं वा नंदिमाइयं वक्खाणं करेइ । कए वक्खाणे साहवो वंदणं दिति । ताहे सो निसिज्जाओ उट्टेइ, गुरू निसिज्जाए उवविसइ । सीसो य जाणू ठिओ सुणेइ । - 1Cइग। 2 पदमिदं नास्ति AI Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ विधिप्रपा । गुरू वि तस्स उववूहणं काउं सूरिपयठवियसीसम्स साहुवग्गस्स साहुणीवग्गस्स य अणुसहिं देह । अणुओगविसज्जावणत्थं काउस्सग्गं दुवे वि करेंति । कालस्स पडिकमंति । तओ अविहवसावियाओ आरचियाइअवतारणं कुर्वति । तओ संघसहिओ छत्तेणं धरिजमाणेणं महूसवेणं वसहीए जाइ । अणुण्णाया णुओगो सूरी निरुद्धं उववासं वा करेइ । जहासत्तीए संघदाणं करेइ । इत्थ संघपूया-जिणभवणट्ठा• हियाइकरणं च सावयाहियारो । भोयणे पुरओ चउक्कियाइधारणं, आसणे य कंबलवत्थखंडपडिच्छन्नो पुट्ठिपट्टो य तस्स अणुष्णाओ। ६७१. उववूहणा पुण एवं निजामओ भवण्णवतारणसद्धम्मजाणवत्तंमि । मोक्खपहसत्थवाहो अन्नाणंधाण चक्खू य ॥१॥ अत्ताणाणताणं नाहोनाहाण भवसत्ताणं । तेण तुमं सुपुरिस ! गरुयगच्छभारे निउत्तोऽसि ॥२॥ अह अणुसट्ठीछत्तीसगुणधुराधरणधीरधवलेहिं पुरिससीहेहिं । गोयमपामुक्खेहिं जं अक्खयसोक्षमोक्खकए ॥३॥ सवोत्तमफलजणयं सवोत्तमपयमिमं समुढं । तुमए वि तयं दढमसढबुद्धिणा धीर! धरणीयं ॥४॥ न इओ वि परं परमं पयमत्थि जए वि कालदोसाओ। वोलीणेसु जिणेसुं जमिणं पवयणपयासकरं ॥५॥ अओ-नाणाविणेयवग्गाणुसारिसिरिजिणवरागमाणुगयं । अगिलाणीएऽणुवजीवणाए विहिणा पइदिणं पि ॥ ६ ॥ कायचं वक्खाणं जेण परत्थोजएहिं धीरेहिं। आरोवियं तुममिमं नित्थरसि पयं गणहराणं ॥७॥ सपरोवयारगरुयं पसत्थतित्थयरनामनिम्मवणं । जिणभणियागमवक्खाणकरणमिव अनणुगुणजणगं ॥ ८॥ अगणियपरिस्समो तो परेसिमुवयारकरणदुल्ललिओ। सुंदर ! दरिसिज तुमं सम्मं रम्मं अरिहधम्मं ॥९॥ तहा-निचं पि अप्पमाओ कायबो सबहा वि धीर! तुमे । उनमपरे पहुंमि सीसा वि समुज्जमंति जओ॥१०॥ वहंतओ विहारो कायषो सबहा तहा तुमए । हे सुंदर ! दरिसण-नाण-चरणगुणपयरिसनिमित्तं ॥११॥ संखित्ता वि हु मूले जह वहह वित्थरेण वचंती। उदहिं तेण वरनई तह सीलगुणेहिं वहाहि ॥ १२॥ 1A गुरुय । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पदस्थापन विधि | सीयावेह विहारं गिद्धो सुहसीलयाह जो मूढो । सो नवरि लिंगधारी संजमसारेण निस्सारो ॥ १३ ॥ वज्जेसु वज्जणिज्जं निय-परपक्खे तहा विरोहं च । वायं असमाहिकरं विसग्गिभूए कसाए य ॥ १४ ॥ नाणंमि दंसणंमि य चरणंमि य तीसु समयसारेसु । बोए जो ठवेउं गणमप्पाणं गणहरो सो ॥ १५ ॥ एसा गणहरमेरा आयारत्थाण वण्णिया सुत्ते । आयारविरहिया जे ते तमवस्सं विराहिंति ॥ १६ ॥ अपरिस्सावी सम्मं समदंसी होज्ज सङ्घकज्जेसु । संरक्खसु चक्खुं पिव सबालवुड्डाउलं गच्छं ॥ १७ ॥ कणगला सममज्झे धरिया भरमविसमं जहा धरह । तुल्लगुणपुत्तजुगलगमाया वि समं जहा हवइ ॥ १८ ॥ नियनयणं जुयलियं वा अविसेसियमेव जह तुमं वहसि । तह हो तुल्लदिट्ठी विचित्तचित्ते वि सीसगणे ॥ १९ ॥ अन्नं च मोक्खफलकंखि भवियसउणाण सेवणिजो तं । होहिसि लद्धच्छाओ तरु व मुणिपत्तजोगेण ॥ २० ॥ ता एए वरमुणिणो मणयं पि हु नावमाणणीया ते । उक्त्त भरुवहणे परमसहाया तुह इमे जं ॥ २१ ॥ जहा विंझगिरी आसन्न दूरवणवत्तिहत्थिजूहाणं । आधार भावमविसेसमेव उवहइ सवाणं ॥ २२ ॥ एवं तुमं पि सुंदर ! दूरं सयणेयराइसंकष्पं । मुत्तुमिमाण मुणीणं सवाण वि हुज्ज आहारो ॥ २३ ॥ सयणाणमसयणाणं भ्रूणप्पायाण सयणरहियाण । रोगनिरक्खरकुक्खीण बालजरजजराईणं ॥ २४ ॥ पेमपिया व पियामहो ऽहवाऽणाहमंडवो वावि । परमोवद्वंभकरो सवेसि मुणीण होज्ज तुमं ॥ २५ ॥ तह इह दुसमागम्हे साहूणं' धम्ममहपिवासाणं । परमपयपुर पहाणुगसुविहियचरियापवाद ठिओ ।। २६ ।। संपाणि वि किचजलं देसणापणालीए । वज्जियसंसग्गीण वि तुममंतेवासिणीउ ति ॥ २७ ॥ तह दुविहो आयरिओ इहलोए तह य होह परलोए । इहलोए असारणिओ परलोए फुडं भणंतो य ॥ २८ ॥ ता भो देवाणुप्पिया परलोए हुज्ज सम्ममायरिओ । मा हो' स परनासी होउं इहलोयआयरिओ ।। २९ ।। 1 BC साहूण बि । 2 B असारणिओ; C सारणिओ। 3 A होइ । .६९ 10 15 20 25 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रपा। तह मण-वइ-काएहिं करितु विप्पियसयाई तुह समणा । तेसु तुमं तु पियं चिय करिज मा विप्पियलवं ति ॥ ३०॥ निग्गहिऊण अणक्खे अकुंणतो तह य एगपक्खित्तं । साहम्मिएसु समचित्तयाइ सवेसु वहिजा ॥ ३१ ॥ सवजणबंधुभावारिहं पि इकस्स चेव पडिबद्धं । जो अप्पाणं कुणई तओ विमूढो हु को अन्नो ॥ ३२॥ एवं च कीरमाणे होही तुह भुवणभूसणा कित्ती। एत्तो चेव य चंदं पडुच्च केणावि जं भणियं ॥ ३३ ॥ 'गयणंगणपरिसक्कणखंडणदुक्खाई सहसु अणवरयं । न सुहेण हरिणलंछण ! कीरइ जयपायडो अप्पा' ॥ ३४ ॥ अविणीए सासिंतो कारिमकोवे वि मा हु मुंचिजा। भद्द ! परिणामसुद्धिं रहस्समेसा हि सवत्थ ॥ ३५ ॥ उप्पाइयपीडाण वि परिणामवसेण गइविसेसो जं। जह गोव-खरय-सिद्धत्थयाण वीरं समासज्ज ॥ ३६॥ अइतिक्खो खेयकरो होहिसि परिभवपयं अइमिऊ य । परिवारंमि सुंदर ! मज्झत्थो तेण होज तुमं ॥ ३७॥ स-परावायनिमित्तं संभवइ जहा असीअ परिवारो। एवं पहू वि ता तयणुवत्तणाए जएज्ज तुमं ॥ ३८॥ अणुवत्तणाइ सेहा पायं पावंति जोग्गयं परमं । रयणं पि गुणोकरिसं पावइ परिकम्मणगुणेण ॥ ३९ ॥ इत्थ उपमायखलिया पुत्वम्भासेण कस्स व न होति। जो तेऽवणेइ सम्मं गुरुत्तणं तस्स सहलं ति ॥४०॥ को नाम सारही णं स होज जो भद्दवाइणो दमए । दुढे वि हु जो आसे दमेइ तं सारहिं विंति ॥४१॥ को नाम भणिइकुसलो वि इत्थ अच्चन्भुयप्पभावम्मि । गणहरपए पइपयं सखुवएसे खमो वुत्तुं ॥ ४२ ॥ परमित्तियं भणामो जायइ जेणुण्णई पवयणस्स । तं तं विचिंतिऊणं तुमए सयमेव कायचं ॥४३॥ सीसाणुसासणे वि हु पारद्धे अह इमं तुम पि खणं । वणिज्जंतं जइपहु ! पहिचित्तो निसामेहि ॥ ४४ ॥ बजेह अप्पमत्ता अज्जासंसग्गिमग्गिविससरिसं। अजाणुचरों साहू पावह वयणिजमचिरेण ॥ ४५ ॥ 1 BC गोचरचरय। 2 BC जाते। 3 'भद्रवाजिनः' इति A टिप्पणी। 4 B °संसरगमगि । 5A अजाणुवरिं; B अब्बाणुवसे। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवर्तिनी-महत्तरा-पदस्थापनाविधि । थेरस्स तवस्सिस्स वि सुबहुसुयस्स वि पमाणभूयस्स । अज्जासंसग्गीए निवडइ वयणिज्जदढवजं ॥ ४६॥ किं पुण तरुणो अबहुस्सुओ य अविगिहतवपसत्तो य । सद्दाइगुणपसत्तो न लहइ जणजपणं लोए ॥४७॥ एसो य मए तुम्हें मग्गमजाणाण मग्गदेसयरो। चक्खू व अचक्खूणं सुवाहि विहुराण विजो व ॥४८॥ असहायाण सहाओ भवगत्तगयाण हत्थदाया य । दिन्नो गुरू गुणगुरू अहं च परिमुक्कलो इण्हि ॥ ४९ ॥ एयम्मि सारणावारणाइदाणे वि नेव कवियत्वं । को हि सकण्णो कोवं करिज हियकारिणि जणम्मि ॥ ५० ॥ एसो तुम्हाण पहू पभूयगुणरयणसायरो धीरो। नेया एस महप्पा तुम्ह भवाडविनिवडियाणं ॥५१॥ ओमो समरायणिओ अप्पयरसुओ हव त्ति धीरमिमं । परिभविहिह मा तुन्भे गणि त्ति एहि दढं पुज्जो ॥५२॥ मोक्खत्थिणो हु तुब्भे नय तदुवाओ गुरुं विणा अनो। ता गुणनिही इमो बिय सेवेयचो हु तुम्हाणं ॥५३॥ ता कुलवहुनाएणं कज्जे निभच्छिएहि वि कहिं पि। एयस्स पायमूलं आमरणंतं न मोत्तवं ॥ ५४॥ किं बहुणा भणियचे जिमियाचे सबचिट्ठियावे य। होजह अईव निहुया एसो उवएससारो त्ति ॥ ५५॥ ॥ आयरियपयट्ठावणाविही समत्तो ॥ २९ ॥ ७२. संपयं पवत्तिणीपयट्ठावणा । सा य पवत्तिणीपयाभिलावेण वायणायरियपयट्ठवणातुल्ला, मंतो सो चेव; नवरं खंधकरणी लग्गवेलाए दिज्जइ । सेसं सर्व निसिज्जाइ तहे व ।। ७३. अह महत्तरापयट्ठावणाविही भण्णइ । जहासत्तीए संघपूयापुरस्सरं पसस्थतिहि-करण-मुहुत्तनक्खत्त-जोगलग्गजुत्ते दिवसे महत्तराजोग्गा निसिज्जा कीरइ । तओ सिस्सिणीए कयलोयाए सरीरपक्खालणं ४ काउं जिणाययणनिवेसियसमोसरणसमीवे गुरू अहीयसुयं सिस्सिणिं वामपासे ठुविचा-'तुब्भे अहं पुषअज्जाचंदणाइनिवेसियमहयर-पवत्तिणीपयस्स अणुजाणावणियं नंदिकट्ठावणियं वासनिक्खेवं करेह ति-' भणाविंतो सिस्सिणीए सिरसि वासे खिवइ । वड्डेतियाहिं थुईहिं चेइआई वंदइ, जाव अरिहाणादिषुत्तभणणं । तओ 'महत्तरापयअणुजाणावणियं काउस्सग्गं करेह' त्ति भणंती सत्तावीसोस्सासं काउस्सग्गं गुरुणा सह करेइ । पारिवा चउवीसत्थयं भणिता उद्धढिओ सूरी नमोक्कारतिगं भणिता, 'नाणं पंचविहं पन्नत्तं तं " जहा-आभिणिबोहियनाणं, सुयनाणं, ओहिनाणं, मणपज्जवनाणं, केवलनाणं' ति मंगलत्थं भणिय, इमं पुण पट्ठवणं पडुच्च-इमीसे साहुणीए महत्तरापयस्स अणुण्णानंदी पयट्टइ-ति सिरसि वासे खिवेइ । तओ उववि 1A कहं पि। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ विधिप्रपा। सिय गंधाभिमंतणं संघवासदाणं जिणचलणेसु गंधक्खेवो । तओ पढमखमासमणे -'इच्छाकरेण तुम्भे अम्हं महत्तरापयं अणुजाणह -' ति भणिए, गुरू भणइ–'अणुजाणामि' । बीए -'संदिसह किं भणामि ?' गुरू आह -'वंदित्ता पवेयह' । तइए-'तुब्भेहिं अम्हं महत्तरापयमणुण्णायं ?' गुरू आह–'अणुण्णायं' । ३ खमासमणाणं हत्थेणं०, 'इच्छामि अणुसहि' ति; गुरू भणइ -नित्थारगपारगा होहि, गुरुगुणेहिं वड्डाहि । चउत्थे-'तुम्हाणं पवेइयं संदिसह साहूणं पवेएमि' । पंचमं खमासमणं देइ । तओ नमोक्कारमुच्चरन्ती सगुरुं समवसरणं पयक्खिणी करेइ वारतिगं । छट्टे-'तुम्हाणं पवेइयं, साहूणं पवेइयं, संदिसह करेमि' त्ति भणिता, सत्तमे अणुण्णायमहत्तरापयथिरीकरणत्थं करेमि काउस्सग्गमिति काउस्सग्गो कीरइ । उज्जोयचिंतणपुवयं काउस्सग्गं पारिचा, चउवीसस्थयं भणित्ता, वंदित्ता उवविसइ । तओ पत्ताए लग्गवेलाए खंधकरणीखंधे निसिज्जह । दुकंबला निसिज्जा य हत्थे दिज्जइ । तदुत्तरं चंदणचचियदाहिणकण्णाए 10 उवज्झायमंतो दिज्जइ वारतिगं, नामट्ठवणं च कीरइ । तदुत्तरं अज्जचंदणा-मिगावईण परमगुणे साहितो महत्तराए वइणीणं च गुरू अणुसटिं देइ । जहा उत्तममिमं पयं जिणवरेहिं लोगोत्तमेहिं पण्णत्तं । उत्तमफलसंजणयं उत्तमजणसेवियं लोए ॥१॥ धण्णाण निवेसिज्जइ धण्णा गच्छन्ति पारमेयस्स । गंतुं इमस्स पारं पारं वचंति दुक्खाणं ॥२॥ जइ वि तुमं कुसल चिय सवत्थ वि तहवि अम्ह अहिगारो। सिक्खादाणे तेणं देवाणुपिए! पियं भणिमो ॥३॥ संपत्ता इय पयविं समत्थगुणसाहणंमि गुरुययरिं । ता तीए उत्तरोत्तरवुहिकए कीरउ पयत्तो॥४॥ सुत्तत्थोभयरूवे नाणे नाणोत्तकिचवग्गे य । सत्तिं अइकमित्ता वि उजमो किर तुमे किच्चो ॥५॥ सुचिरं पि तवो तवियं चिन्नं चरणं सुयं च बहुपढियं । संवेगरसेण विणा विहलं जं ता तदुवएसो ॥६॥ तहा-सन्नाणाइगुणेसुं पवत्तणेणं इमाण समणीणं । सचं पवित्तिणि चिय जह होसि तहा जइज तुमं ॥७॥ निययगुणेहिं महग्धं सियबीयाससिकलं जह कलाओ। कमसो समल्लियंती पयई हिमहारधवलाओ॥८॥ तह तुह वि तहाविहनियगुणेहिं अग्धारिहाए लोगम्मि । एयाउ समल्लीणा पयासु धवलोजलगुणाओं ॥९॥ तम्हा निवाणपसाहगाण जोगाण साहणविहीए। सम्मं सहायिणीए होयचं सइ इमाण तए ॥१०॥ तह ववसिंखला इव मंजूसा इव सुनिविडवाडी व । पायारु व हविजसु तुममजाणं पयत्तेणं ॥११॥ 1A मयहरापय। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महत्तरापदस्थापनाविधि । अनं च विडुमलया मुत्तासुत्तीओं रयणरासीओं । अहमणहराउ धारइ न केअलाओं जलहिवेला ॥ १२ ॥ किं तु जह सिप्पिणीओ भेरीओ तहा वराडियाओ बि । जलजोणि त्ति समत्ता असुंदराओ वि धारेह ॥ १३ ॥ एवं राईसरसिद्विपमुहपुत्तीओं परसयणाओ । बहुपढियपंडियाओ सवग्ग-सयणीओं जाओ य ॥ १४ ॥ माताओ चैव तुमं धारिजसु किं तु तदियराओ वि । संजम भरवहणगुणेण जेण सङ्घाओं तुलाओ ॥ १५ ॥ अवि नाम जलहिवेला ताओ धरिडं कयाइ उज्झइ वि । निचं पि तुमं तु धरिज्ज चेव एयाओ धन्नाओ ॥ १६ ॥ अन्नं च दुत्थियाणं दणाणमणक्खराण विगलाणं । हियाण निबंधवाण तह लद्धिरहियाणं ॥ १७ ॥ पयइनिरादेयाणं विन्नाणविवज्जियाण असुहाणं । असहायाण जरापरिगयाण निबुद्धियाणं च ॥ १८ ॥ भग्गविलुग्गंगीण व विसमावत्थगयखंडखरडाणं । इयरूवाण वि संजमगुणिक्करसियाण समणीणं ॥ १९ ॥ गुरुणीव अंगपडिचारिग व धावीव पियवयंसि व । हुज भगिणीव जणणीव अहव पियमाहमाया' व ॥ २० ॥ तह दढफलियमहादुमसाह व तुमं पि उचियगुणसहला । समणिजणसउणिसाहारणा दढं हुज्ज किं बहुना ॥ २१ ॥ एवमणुसासिकणं पवत्तिणिं; अज्जियाओं अणुसासे । जह एसो तुम्ह गुरू बन्धू व पिया व माया व ॥ २२ ॥ एए वि महामुणिणो सहोयरा जेहभायरो व सया । तुम्हं देवाणुपियाण परमवच्छल्लतलिच्छा ॥ २३ ॥ ता गुरुणो मुणिणो वि य मणसा वयसा तहेव कारणं । नय पडिकलेयवा अवि य सुबहुमन्नियवाओ ॥ २४ ॥ एवं पवत्तिणी विहु अखलियतवयणकरणओ चेव । सम्ममणुयत्तणिज्जा न कोवणिज्जा मणागं पि ॥ २५ ॥ कुविया वि कहवि तुम्हें सदोसपडिवत्तिपुवमणुवेलं । खामेवा एसा मिगावई इव नियगुरुणी ॥ २६ ॥ एसा सिवपुरगमणे सुपसत्था सत्थवाहिणी जं भे । एसा पमायपरचकपिल्लणे पडुयपडिसेणा ॥ २७ ॥ 1A पवर° । 2 AC पिइमायमाया व । विधि० १० 40 18 20 25 20 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 ७४ 25 विधिप्रपा । तह निहुयं चंक्रमणं निहुयं हसणं पयंपियं निहुयं । स पि चिट्ठियं नियमहव तुभेहिं कायां ॥ २८ ॥ बाहि उवस्सयाओ पयं पि नेगागिणीहिं दायवं । वुडज्जियाजयाहि य जिण - जइगेहेसु गंतवं ॥ २९ ॥ तओ अणुण्णायमहत्तरापया वंदणं दाऊण पञ्चक्खाणं निरुद्धाइ करेइ । सबलोगो वंदइ, थीजणो बंदणयं च देइ तीए । जिंणहरे गुरूणं समोसरणे य पूया कायबा । पवत्तिणीपए महत्तरापए य अणुष्णाए वत्थपत्ताइगहणं सयं पि तीसे काउं कप्पइ । ॥ महत्तरापयट्ठावणाविही ॥ ३० ॥ ६ ७४. एवं मूलगुरू सम्मत्तारोवणदिक्खाइकज्जाई वक्खमाणाई च पइट्टाईणि काऊण कयाइ आउपज्जन्तं " जाणिय, तस्सेव कयअणुजोगाणुण्णस्स अन्नस्स वा अहियगुणस्स गणाणुष्णं करेइ । जदाह - सुत्थे निम्माओ पियदढधम्मोऽणुवत्तणाकुसलो । जाईकुलसंपन्नो गंभीरो लद्धिमंतो य ॥ १ ॥ संगहुवग्गहनिरओ कयकरणो पवयणाणुरागी य । एवं विहो उ भणिओ गणसामी' जिणवरिंदेहिं ॥ २ ॥ तहा - गीयत्था कयकरणा कुलजा परिणामिया य गंभीरा । चिरदिक्खिया य बुडा अज्जा य 'पवत्तिणी भणिया ॥ ३ ॥ एयगुणविषयमुक्के जो देह गणं 'पवत्तिणिपयं वा । जो वि' पडिच्छर नवरं सो पावह आणमाईणि ॥ ४ ॥ अओ - बूढो गणहरसद्दो गोयममाईहिं धीरपुरिसेहिं । जो तं ठवह अपत्ते जाणंतो सो महापावो ॥ ५॥ एव पवत्तिणिसो वूढो जो अज्जचंदणाईहिं । जो तं वह अपत्ते जाणतो सो महापावो ॥ ६ ॥ लोगम्मि उड्डाहो जत्थ गुरू एरिसा तहिं सीसा । लट्ठयरा अन्नेसिं अणायरो होइ अगुणेसु ॥ ७ ॥ तम्हा तित्थयराणं आराहंतो जहोइयगुणेसु । दिन गणं गीयत्थो नाऊण पवित्तिणिपयं च ॥ ८ ॥ * * ६ ७५. गणाणुष्णाविही य इमो - सुहतिहि करणाइएस गुरू खमासमणपुखं - 'इच्छाकारेण तुब्भे अम्हं दिगाइश्रणुजाणावणत्थं वासनिक्खेवं करेह' - त्ति सीसं भाणिय, काऊण य वासक्खेवं पुणो खमासमणपुखं - 'इच्छाकारेण तुब्भे अम्हं दिगाइअणुजाणावणियं नंदिकावणियं देवे वंदावेह' - ति भाणिय वाम" पासे तं करिय, वğतियाहिं थुईहिं देवे बंदह । तओ सीसो वंदित्ता भणइ - 'इच्छाकारेण तुब्भे अम्हं दिगाइअणुजाणावणियं नंदिकड्डावणियं काउस्सग्गं कारेह' । तओ दोवि दिगाइअणुजाणणत्थं काउस्समां करिति । तत्थ चउवीसत्थयं चिंतित्ता, नमोक्कारेण पारित्ता, चउवीसत्थयं भणित्ता, नमोक्कारतिगपुवं गुरू 1 A गणिसामी । 2 A पवित्तिणी । 3 A जोव । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणानुज्ञाविधि। तदणुण्णाओ अन्नो वा तहाविहो अणुण्णत्थं नंदि कड्डइ । सीसो उवउत्तो भावियप्पा तयत्थपरिभावणापरो सुणेइ । तयंते गुरू उवविसिय, गंधे अभिमंतिय, जिणपाए पूइय साहुमाईणं देइ । तओ वंदिता सीसो भणइ -'इच्छाकारेण तुब्मे अम्हं दिगाइ अणुजाणह' । गुरू आह -'खमासमणाणं हत्थेणं इमस्स साहुस्स दिगाइ अणुन्नायं ३' । पुणो वंदित्ता भणइ -'संदिसह किं भणामो?' गुरू आह -'वंदित्ता पवेयह' । तओ वंदित्ता भणइ -'इच्छाकारेण तुब्भेहि अम्हं दिगाइ अणुन्नायं । इच्छामो अणुसर्टि' । गुरू आह -'गुरू- । गुणेहिं वडाहि' । पुणो वंदित्ता भणइ -'तुम्हाणं पवेइयं, संदिसह साहूणं पवेएमि' । गुरू आह - पवेएहि'। तओ खमासमणपुधं नमोक्कारमुच्चरंतो गुरुं पयक्खिणीकरेइ । गुरू सीसे वासे खिवंतो-'गुरुगुणेहि वड्डाहि'त्ति भणइ । एवं तिन्नि वेला । तओ-'तुम्हाणं पवेइयं, साहूणं पवेइयं, संदिसह काउस्सगं करेमि'-त्ति भणिय दिगाइअणुण्णत्थं करेमि काउस्सग्गं, अन्नत्थूससिएणमिच्चाइ काउस्सग्गं करिय सूरिसमीवे उवविसह । सीसाइया तस्स बंदणं दिति । तओ मूलगुरू गणहरगच्छाणुसद्धिं देइ । जहा धन्नोऽसि तुमं नायं जिणवयणं जेण सयलदुक्खहरं । तो सम्ममिमं भवया पउंजियवं सयाकालं ॥१॥ इहरा उ रिणं परमं असम्मजोगो अजोगओ अवरो । तो तह इह जइयवं जह इत्तो केवलं होइ ॥२॥ परमो य एस हेऊ केवलनाणस्स अन्नपाणीणं । मोहावणयणओ तह संवेगाइ सयभावेण ॥ ३ ॥ उत्तममिमं०......गाहा ॥ ४॥धण्णाण.......गाहा ॥५॥ संपाविऊण परमे नाणाई दुहियतायणसमत्थे। भवभयभीयाण दढं ताणं जो कुणइ सो धन्नो ॥६॥ अन्नाणवाहिगहिया जइवि न सम्म इहाउरा होति। तहवि पुण भावविजा तेसिं अवणिति तं वाहिं ॥७॥ ता तंसि भावविजो भवदुक्खनिवीडिया तुहं एए। हंदि सरणं पवना मोएयवा पयत्तेणं ॥८॥ . तं पुण एरिसओं चिय तहवि हु भणिओसि समयनीईए । निययावत्थासरिसं भवया निचं पि कायचं ॥९॥ तुम्भेहिं पि न एसो संसाराडविमहाकुडिल्लम्मि। . सिद्धिपुरसत्थवाहो जत्तेण खणं पि मोत्तवो ॥१०॥ नय पडिकूलेयचं वयणं एयस्स णाणरासिस्स । एव गिहवासचाओ जं सफल होइ तुम्हाणं ॥११॥ इहरा परमगुरूणं आणाभंगो निसेविओ होइ । विहला य होंति तम्मी नियमा इहलोग-परलोगा ॥१२॥ ता कुलवहुनाएणं कज्जे निभच्छिएहिं वि कहिंपि । एयरस पायमूलं आमरणन्तं न मोत्तवं ॥ १३ ॥ नाणस्स होइ भागी थिरयरओ दंसणे चरित्ते य । धमा आवकहाए गुरुकुलवासं न मुंचंति ॥१४॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रपा। पुर्य बत्थ-पत्त-सीसाइया लद्धी गुरुआयत्ता आसि, संपयं तुज्झ वि सधं अणुण्णायमिति गुरू भणह । तको अहिणवसूरी उहितु सपरिवारो मूलायरियं तिपयाहिणी काऊण वंदेइ । पवेयणे य जहा सामायारीआगयं तवं कारिजइ । तओ सो वि अन्ने सीसे निप्फाएइ त्ति । जस्स गणाणुण्णा तस्संतिओ चेव दिसिबंधो कीरइ । सो चेव गच्छनायगो भणइ । तस्सेव भट्टारगस्स गच्छे आणा पवत्तइ ति।। ॥ गणाणुण्णाविही समत्तो ॥३१॥ ६७६. एवं मूलगुरू कयकिञ्चो हरिसभरनिब्भरो पज्जंताराहणं करेइ, अन्नस्स वा कारेइ । अओ तबिही मण्णइ - पढमं च विहियपूयाविसेसस्स जिणबिंबस्स दरिसणं गिलाणो कारविज्जइ । चउबिहसंघ मीलिय गिलाणेण समं संघसहिओ गुरू अहिगयजिणथुईए देवे वंदेइ । तओ सिरिसंतिनाह-संतिदेवया-खेतदेवया भवणदेवया-समत्तवेयावच्चगराणं काउस्सग्गा थुईओ य । तओ सक्कत्थय-संतित्थयभणणाणतरं आराहणादेव" याए काउस्सम्गो, उज्जोयचउक्कचिंतणं, पारिय उज्जोयभणणं तीसे वा थुइदाणं । सा य इमा यस्याः सान्निध्यतो भव्या वाञ्छितार्थप्रसाधकाः। श्रीमदाराधनादेवी विघ्नतातापहाऽस्तु वः ॥१॥ तओ सूरि निसिज्जाए उवविसिय गंधे अभिमंतिय 'उत्तमट्ठआराहणत्थं वासनिक्खेवं करेह' ति भणिय, आराहयसिरसि वासचंदणक्खए खिवइ । तओ बालकालाओ आरब्भ आलोयणदावणं । जे मे जाणंति जिणा अवराहे जेसु जेसु ठाणेसु । तेऽहं आलोएमी उवडिओ सबभावेण ॥१॥ छउमत्थो मूढमणो कित्तियमित्तं च संभरह जीवो। जं च न सुमरामि अहं मिच्छा मे दुक्कडं तस्स ॥२॥ जंज मणेण षद्धं असुहं वायाइ भासियं जं जं । जं जं कारण कयं मिच्छा मे दुक्कडं तस्स ॥३॥ हा दुडु कयं हा दुहु कारियं अणुमयं पि हा दुदु । अंतोअंतो डझइ हिययं पच्छाणुतावेणं ॥४॥ जं पि सरीरं इ8 कुटुंब-उवगरण-रूव-विन्नाणं । जीयोवधायजणयं संजायं तं पि निंदामि ॥५॥ गहिऊण य मोकाई जमण-मरणेसु जाई देहाई । पावेसु पवत्ताई वोसिरियाई मए ताई ॥६॥ इह गाहाओ भाणिज्जइ । तओ संघखामणा साहू य साहुणीओ सावय-सावीओ चउविहो संघो। जे मण-बह-काएहिं आसाईओ तं पि खामेमि ॥७॥ आयरिय उबझाए सीसे साहम्मिए कुलगणे य । जे मे कया कसाया सबे तिविहेण खामेमि ॥८॥ खामेमि सबजीवे सबे जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सबभूएसपेरं मजसं न केणइ ॥९॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनशनविधि। तओ-अरिहं देवो गुरुणो सुसाहुणो जिणमयं मह पमाणं । जिणपन्नत्तं तत्तं इय सम्मत्तं मए गहियं ॥१०॥ इइ सम्मत्तपुरस्सरं नमोक्कारतिगपुवं 'करेमि भंते सामाइयं' ति वेलातिगमुच्चाराविजइ । 'पढमे भंते महबए' इच्चाइवयाणि य एगेगं तिन्नि तिन्नि वेलाओ भणाविजइ । जाव इच्छेइयाई गाहा । 'चत्तारि मंगलं....जाव....केवलिपन्नत्तं धम्म सरणं पवज्जामि'- इति चउसरणगमनं दुक्कडगरिहा सुक्कडाणुमोयणा य । कारिजइ । नमो समणस्स भगवओ महइ महावीरवद्धमाणसामिस्स उत्तमढे ठायमाणो पच्चक्खाइ सवं पाणाइवायं १, सवं मुसावायं २, सवं अदिन्नादाणं ३, सवं मेहुणं ४, सवं परिग्गहं ५, सर्व कोहं ६, माणं ७, मायं ८, लोभं ९, पिज्जं १०, दोसं ११, कलहं १२, अब्भक्खाणं १३, अरइरई १४, पेसुन्नं १५, परपरिवायं १६, मायामोसं १७, मिच्छादसणसलं १८ - इच्चेइयाइं अट्ठारसपावट्टाणाइं जावजीवाए तिविहं तिविहेणं वोसिरइ । तहा तदिवसं सउणसयणाइसंमएणं वंदणं दाऊण नमुक्कारपुवं गिलाणो अणसणं समु.॥ चरइ, भवचरिमं पच्चक्खाइ, तिविहं पि आहारं असणं खाइमं साइमं अन्नत्थणाभोगेणं ४ वोसिरामि । अणागारे पुण आइमआगारदुगस्स उच्चारणं, तं जहा- भवचरिमं निरागारं पच्चक्खामि, सवं असणं सवं खाइमं सवं साइमं अन्नत्थणाभोगेणं सहस्सागारेणं अईयं निंदामि पडुप्पन्नं संवरेमि अणागयं पञ्चक्खामि, अरिहंतसक्खियं सिद्धसक्खियं साहुसक्खियं [सम्यग्दृष्टि ] देवसक्खियं अप्पसक्खियं वोसिरामि त्ति । जइ मे होज पमाओ इमस्स देहस्सिमाइ वेलाए । आहारउवहिदेहं तिविहं तिविहेण वोसिरियं ॥ तओ संघो संतिनिमित्तं नित्थारगपारगा होहि त्ति भणंतो अक्खए तस्संमुहं खिवइ । 'अट्ठावयंमि उसभो' इच्चाइतित्थथुई वत्तवा । 'चवणं च जम्मभूमी' इच्चाइ 'पंचानुत्तरसरणा' इच्चाइ वा थुत्तं भाणियत्वं । देसणा तदुववूहणा य विहेया। तहा तस्स समीवे निरंतरं 'जम्मजरामरणजले' इच्चाइ उत्तरज्झयणाणि वा मरणसमाहि-आउरपच्चक्खाण-महापच्चक्खाण-संथारय-चंदाविज्झय-भत्तपरिण्णा-चउसरणाइपइण्णगाणि वा ॥ इसिभासियाणि सुहन्झवसाणत्थं परावत्तिज्जंति । इत्य संगहगाहाओ संघजिणपूयवंदणउस्सग्गवयसोहितयणुखमगंधा । नवकार-सम्मसमइयवयसरणाणसणतित्थथुई ॥१॥ इय पडिपुन्नसुविहिणा अंते जो कुणइ अणसणं धीरो । सो कल्लाणकलावं लटुं सिद्धिं पि पाउणइ ॥२॥ सावगस्सवि एवमेव । विसेसो उण सम्मत्तगाहाठाणे - अहण्णं भंते तुम्हाणं समीवे मिच्छत्ताओ पडिकमामि - इच्चाइ सम्मत्तदंडओ पंचाणुबयाणि य भाणिज्जंति । सत्तखित्तेसु संघ-चेइय-जिणबिंब-पोत्थयलक्लणेस वविणिओगं च कारिजइ । तओ सामग्गीसम्भावे संथारयदिक्खं पडिवज्जइ ति । ॥अणसणविही समत्तो ॥ ३२॥ ६७७. एवं विहिविहियपजंताराहणस्स लोगंतरियस्स इड्डीए देहनीहरणं कीरइ । अओ अचित्तसंजयपारिट्ठावणियाविही भण्णइ । तत्थ गामे वा नगरे वा अवर-दक्खिणदिसाए दूरमज्झासन्ने थंडिलतिगं पेहिज्जइ । सेयसुगंधिचोक्खवत्थतिगं च धारिजह । तत्थेगं पत्थरिजइ, एगं पंगुराविजइ, एग उवरि आच्छायणे Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रपा। किजइ । दिया वा राओ वा परोक्खीभूयस्स मुहं मुहपोत्तियाए बज्झइ पाणिपायंगुटुंगुलिमज्झेसु ईसि फालिज्जइ । पायंगुट्ठा परोप्परं बझंति हत्थंगुट्टा य । मयगदेहं ण्हवित्ता अबंगचोलपट्टे संथारकिडीए कीरइ, दोरेहिं बज्झइ । मुहपोति-चिलिमिलियाओ चिंधटुं पासे ठविजंति । जया राईए परलोगो हवइ तया अच्छीनिमीलणं किज्जइ, अंगोवंगा समा धरिजंति, मुहं झड त्ति ढक्विजइ होट्ठमीलणेणं । नवकारो सुणाविजइ । 5 हत्थपायंगुटुंतरेसु छेदो किज्जा । पंचंगमवि निब्भयपासाओ कारिविज्जइ । उवउत्तेहिं पहरओ दाययो । तत्थ जे सेहा बाला अपरिणया य ते ओसारेयवा । जे पुण गीयत्था अभिरू जियनिद्दा उवायकुसला आसुकारिणो महाबल-परकमा महासत्ता दुद्धरिसा कयकरणा अपमाइणो य ते जागरंति । काइयमत्तयमपरिद्रवियं पासे ठविंति। जइ उठेइ अट्टहासं वा मुंचइ तो मत्ताओ काइयं वामहत्थेण गहाय 'मा उट्टे, बज्झ बज्झ गुज्झगा, मा मुज्झ' इइ भणंतेहिं सिंचेयश्वं । तहा कलेवरं निजमाणं जइ वसहीए उट्टेइ वसही मोत्तथा । "निवेसणे पलहीए निवेसणं. साहीए घरपंतीए साही. गाममज्झे गामद्धं, गामदारे गामो, गामस्स उज्जाणस्स य अंतरा मंडलं विसयखंडं, उज्जाणे कंडं, महल्लयरं विंसयखंडं, उज्जाणनिसीहियंतरे देसो, निसीहियाए थंडिले रज्जं मोत्तवं । तत्थ एगपासे मुहुत्तं संचिक्खंति । तो जइ निसीहियाए उट्टेइ तत्थेव पडइ य, तो वसही मोत्तथा । निसीहियाए उज्जाणस्स य अन्तरा निवेसणं, उज्जाणे साही, उज्जाणस्स गामस्स य अन्तरे गामद्धं, गामदारे गामो, गाममज्झे मंडलं, साहीए कंडं, निवेसणे देसो, वसहीए पविसिय जइ पडइ रज्जं मोत्तवं । ॥ पुणो निजूढो जइ बीयवेलं एइ, तो दो रज्जाणि, तइयाए तिन्नि, तेण परं बहुसो वि इंतो तिन्नि चेव । तहा पणयालीसमुहुत्तिएसु नक्खत्तेसु मयस्स पदिकिदी दो दब्भमया, दसियामया वा पोत्तला कायवा । एए ते बिइज्जया इति । जइ न कीरंति तो अन्ने दो कड्लेइ । संथारगे करिसगावारो कीरइ । तत्थ उत्तरातिगं पुणवसु-रोहिणी-विसाह त्ति छ नक्खत्ता पणयालीसमुहुत्ता । पुत्तलगाणं च समीवे रओहरणं मुहपोती य ठविजइ । तहा तीसमुहुत्तिएसु इक्को काययो । एस ते बिइज्ज त्ति । तदकरणे एगं कड्डइ । ताणि य अस्सिणि-कित्तिय-मिगसिर-पुस्सा मह-फग्गु-हत्य-चित्ता य। अणुराह-मूलसाढा सवण-धणिहा य भद्दवया ॥ तह रेवह त्ति एए पन्नरस हवंति तीसइमुहुत्ता'। तहा पन्नरसमुहुत्तिएसु अभिइंमि य न कायद्यो॥ सयभिसया भरणीओ अहा-अस्सेस-साइ-जिट्ठा य । एए छनक्खत्ता पन्नरसमुहुत्तसंजोगा। खंधियगचउक्कस्स छगणभूइ-कुमारीसुत्ततंतूण य उत्तरासंगेण तिवयणेण रक्खाकरणं । तं च अपयाहिणावत्तेणं वामभुयाहिटेणं दक्खिणखंधस्सोवरिं च काय । दंडधरो वाणायरिओ सरावसंपुडे केसराइ गेण्हइ, छगणचुण्णं वा । दोण्हं साहूणं कप्पतिप्पत्थमसंसह पाणगं गहाय अमुगपएसे आगंतवं ति संकेयदाणं । जो उण वसहीए ठाइ तस्स मयगसंतियउच्चारपासवणखेलमत्तविगिचण-वसहिपमज्जण-तहाविह• पएसोल्लिंपण-निरोवदाणं, पच्छा सवं सो करेइ । पडिस्सयाओ नीणंतेहिं पुवं पाया पच्छा सीसं नीणेयकं । थंडिले वि जत्तो गामो तत्तो सीसं काय । तहा उस्सग्गओ दिगंतरपरिहारेण अवर-दक्खिणदिसाए ठियं परिट्ठवणथंडिलं पमज्जिय तत्थ केसरहिं अबोच्छिन्नधाराए विवरिओ तो (क)कायवो वाणायरिएण । एयस्स अईय अमुगआयरिओ अमुगउवज्झाओ । संजईए उण अमुगा अईया पवत्तिणी ति दिसिबंध करिय, तिविहं तिविहेणं वोसिरियमेयं ति भणइ । परिद्ववियस्स वि नियत्तंतेहिं पयाहिणा न काया। 1A इति। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापारिष्ठापनिकाविधि । सट्टाणाओ चेव नियत्तियचं । जेणेव पहेण गया तेणेव य न नियत्तियई । तहा चिरतणकाले अवरोप्परमसंबद्धा हत्थचउरंगुलप्पमाणा समच्छेया दब्भकुसा गीयत्थो विकिरइ ति आसि । गहियसंकेयट्ठाणे कप्पमु. चारित्ता कप्पवाणियभायणं दोरयं च तत्थेव परिट्टाविय, पच्छा नवकारतिगं भणिऊण दंडयं ठविय इरियं पडिक्कंता सक्कत्थवं भणंति, उवसग्गहरं ति थुत्तं । तओ महापारिट्टावणिया परिट्ठवावणियं काउस्सग्गं करेंति । उज्जोयचउक्कं नवकारं वा चिंतित्ता पारित्ता उज्जोयगरं नवकारं वा भणति । तिविहं तिविहेणं वोसिरिओ ३ . इति भणंति । तओ खुद्दोवद्दवओहडावणियं काउस्सग्गं करिति । उज्जोयचउक्कं चिंतिय पारिय चउवीसत्ययं भणंति । पच्छा बीयं कप्पं गामस्स समीवे आगंतुमुत्तारिति, कप्पवाणियं मत्तगं च परिट्ठवेति । तओ पराहुत्तं पंगुरित्ता अहारायणियकमं परिहरित्ता सम्मुहचेईहरे गंतुं उम्मत्थगसंकेल्लियरयहरण-मुहपोत्तीहिं गमणागमण. मालोइय इरियं पडिक्कमिय उप्पराहुत्तं चेइयवंदणं काउं संतिनिमित्तं अजियसंतित्थयं भगति । तओ उम्मस्थगवेसपरिहारेण पंगुरिय, जहाविहि चेइयाई वंदिय, वसहीए आगम्म, खंधिया तईयं कप्पं उत्पारिति । तओ ॥ आयरियसगासे अविहिपारिट्ठावणियाए ओहडावणियं काउस्सग्गं करेंति, उज्जोयचउक्कं नवकारं वा चिंतिय पारित्ता उज्जोयं नवकारं वा भणंति । जं तालयमज्झे निक्खित्तं भंडोवगरणं तं अणाउत्तं न भवइ, सेसं सर्व तिप्पिज्जइ । आयरिय-भत्तपच्चक्खाय-खवगाइए बहजणसंमए मए असज्झाओ खमणं च कीरड, न सवत्थ । एस सिवविही । असिवे खमणं असज्झाओ अविहिविगिंचणकाउस्सग्गो य न कीरइ। तओ गिहत्थेहिं आयरणावसाओ अग्गिसक्कारे कए जं तस्स भोयणं रोयंतगं तं तस्सेव पत्तियाए छोढुं तहिं दिणे तत्थेव धारि-॥ जइ । काग-चडय-कवोडाइयं खणं तत्थेव चिंतिज्जइ । सेयजीवे देवगई, कसिणजीवे कुगई, अन्नेसु मज्झिमगई तुमं अम्हक्केरपरिग्गहाओ उत्तिण्णो, वड्डाणं परिग्गहे संवुत्तो- इति भाणिऊण अणुजाणाविज्जइ ति । ॥ महापारिठावणियाविही समत्तो ॥ ३३ ॥ ६७८. अणसणं च पायच्छित्तदाणपुत्वयं दिजइ त्ति संपयं पच्छित्तदाणविही भण्णइ । तं च दसविहंआलोयणारिहं १, पडिक्कमणारिहं २, तदुभयारिहं ३, विवेगारिहं ४, उस्सग्गारिहं ५, तवारिहं ॥ ६, छेदारिहं ७, मूलारिहं ८, अणवट्टप्पारिहं ९, पारंचियारिहं १०॥ ___तत्थ आहाराइग्गहणे तहा उच्चार-सज्झायभूमि-चेइय-जइवंदणत्थं पीढ-फलगपञ्चप्पणत्थं कुलगणसंघाइकज्जत्थं वा हत्थसया बाहिं निग्गमे आलोयणा गुरुपुरओ वियडणं तेणेव सुद्धो ॥ १ ॥ पडिक्कमणं मिच्छाउक्कडदाणं । तं च गुत्तिसमिइपमाए, गुरुआसायणाए, विणयभंगे, इच्छाकाराइ सामाचारीअकरणे, लहुसमुसावाय-अदिन्नादाण-मुच्छासु, अविहीए खास-खुय-जिंभियवाएसु, कंदप्प-हास-वि- 21 कहा-कसाय-विसयाणुसंगेसु, सहसा अणाभोगेण वा दंसणनाणाइकप्पियसेवाए' चउवीसविहाए अविराहियजीवस्स, तहा आभोएण वि अप्पेसु नेह-भय-सोग-वाओसाईसु य कीरइ । तत्थ लहुसमुसावाया पयला उल्ले मरुए इच्चाइ पनरसपया', लहुसअदिन्नं अणणुन्नविय तण-डगल-छार-लेवाइगहणं, लहुसमुच्छा सिजायरकप्पट्ठगाईसु वसहि-संथारयठाणाइसु वा ममत्तं ॥२॥ 1 "दसणनाणचरितं, तवपवयणसमिइगुत्तिहे वा। साहम्मियाण वच्छलतणेण कुलगणस्सापि ॥१॥ संघस्सोयरियस्स य, असहुस्स गिलाणबालवुड्डस्स । उदयग्गिचोरसावयभयकंतारावई वसणे ॥२॥" 2 "पयलाउ हेमकए, पञ्चक्खाणे य गमणपरियाए । समदेससंखडीओ,खुड्गपरिहारी मुहीओ ॥१॥ अवसगमणे दिसासु, एगकुले चेव एगदव्वे य। एए सम्वे वि पया, लहुसमुसा भासणे हुंति ॥२॥" इति B भादर्श टिप्पणी। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रपा। सहसाणाभोगेण वा संभमभय, ईहिं वा सधवयाइयारेसु उत्तरगुणाइयारेसु वा दुश्चितियांइसु वां कएसु मीसं पच्छित्तं ॥ ३॥ ___पिंडोवसहिसेज्जाई गीएण उवउत्तण गहियं पच्छा असुद्धं ति नाय, अहवा कालद्धाईयं अणुग्गयत्थमियगहियं कारणगहिओवरियं वा भत्ताइ विगिंचिंतो सुद्धो ॥ ४ ॥ काउस्सग्गो नावा-नइसंतार-सावजसुमिणाईसु ॥ ५॥ तवपच्छित्तं तु बहुवत्तवयं ति पच्छा भण्णिही ॥ ६ ॥ तवगविय-तवअसमत्थ-तवदुद्दमाइसु पंचरायाइ पज्जायच्छेदणं छेदो ॥ ७॥ आउट्टियाए पंचिदियवहो दप्पेण मेहुणे अदिण्णमुसापरिग्गहाणं उक्कोसा भिक्खसेवणे ओसन्नया विहारे इच्चाइसु मूलं; भिक्खुस्स नवमदसमावत्तीए वि मूलं चेव दिजइ ॥ ८ ॥ सपक्खे परपक्खे वा निरवेक्खपहारे अस्थायाण-हत्थालंबदाणाईसु य अणवठ्ठप्पो कीरइ । तत्थ 10 अस्थायाणं दबोवजणकारणं अटुंगनिमित्तं, तस्स पउंजणं । हत्थालंबदाणं पुण पुररोहाइअसिवे तप्पसमणत्थमभिचारमंतादिप्पओगो । एयं पुण पच्छित्तं उवज्झायस्सेव दिज्जह ॥९॥ तित्थयराईणं बहुसो आसायगो रायवहगो रायग्गमहिसिपडिसेवओ सपक्ख-परपक्खकसायविसयप्पदुट्ठो अन्नोन्नंकारी थीणद्धीनिद्दावंतो य पारंचियमावजइ । एयं च पच्छित्तं आयरियस्सेव दिज्जइ । तवअणवटुप्पो तवपारंचिओ य पढमसंघयणो चउदसपुश्वधरम्मि वोच्छिन्ना । सेसा पुण लिंग-खेत्त-काल-अणवठ्ठप्पIs पारंचिया जाव तित्थं वट्टिहिं ति ॥ १०॥ ६७९. संपयं तवारिहं पायच्छित्तं भण्णइ । तत्थ तवा लहुपणगाओ आरम्भ गुरुछम्मासं जाव बावीसं भवंति । संपयं पुण सत्त वदिति । ते य इमे - पणगं १ मासलहुं २, मासगुरुं ३, चउलहुं ४, चउगुरुं ५, छल्लहुं ६, छग्गुरुं ७ । एएसिं च आवत्तीए संपइकाले जीएण निविगइय-पुरिमड-एकासण-आयंबिल-चउत्थ-छट्टट्ठमाइं जहासंखं दिजंति । लिवी पुण इमा-५।1०1०::::::::::। पणगाई पंचमिलिया " कल्लाणं । तत्थ चउत्थदुगं लब्भइ । ते चेव पंचगुणा पंचकल्लाणं तत्थ दसोववासा लब्भन्ति । इयाणिं नाणाइपंचायारविसयं कमेण पच्छित्तं भण्णइ-नाणायाराइयारेसु अकालपाढाइसु अट्टसु उद्देसए पणगं, अज्झयणे मासलहुं, सुयक्खंधे मासगुरुं, अंगे चउलहुं । एवं ताव अणागाढे दसवेयालिय-आयारंगाईए, आगाढे पुण उत्तरज्झयण-भगवइमाईए उद्देसगाइसु जहसंखं लहुमास-मासगुरू, चउलहु-चउगुरुगा, अकओवहाण-अपत्तअवत्ताईणं उद्देसादिकरणे वायणादाणे य चउगुरू । तत्थ अपत्तो तितिणियाई, सुयज्झयणपज्जायं " असंपत्तो य । तत्थ आइमो इमो तितिणिए चलचित्ते गाणंगणिए य दुबलचरित्ते। आयरियपारिभासी वामावढे य पिसुणे य ॥ सुयज्झयणपज्जाओ य-तिवरिसपरियायस्स आयारंग, चउवासपरियायस्स सुयगडं, पंचवासपरियायस्स दसा-कप्प-ववहारा, अट्ठवासपरियायस्स ठाण-समवाया, दसवासपरियायम्स भगवई - इच्चाइ तं असं. 30 पत्तो-आरओ वत्ती । कालअणुओगाणमपडिक्कमणे पणगं; सुतत्थभोयणमंडलीणमप्पमजणे पणगं । अणुओगे अक्खाणं गुरु-अक्खनिसेज्जाणं च अट्टावणे, वंदण-काउस्सग्गाकरणे य चउगुरू । आगाढाणागाढजोगाणं सब. भंगे छल्लहु-बउगुरुगा जहसंखं । देसभंगे चउगुरु-चउलहुगा । तत्थ विगइभोगे सबभंगो। एगभाणे विगइं आयंबिलपाउग्गं च गिव्हइ । जोगसमत्तीए गुरुं विणा वि सयमेव विगइगहणकाउस्सग्गं करेइ । उस्संघट्ट वा भुंजइ ति । देसभंगो नाणनाणीणं पचणीययाए निंदाए पओसे पाढाइअंतरायकरणे य मास* 'गुरू । पुत्थय-पट्टिया-ट्टिप्पणगाईणं पडणे कक्खाकरणे दुग्गंधहत्थग्गहणे थुक्कभरणे थुक्काइअक्खरमजणे पाय Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तविधि । ८१ लगणे चउलहू । मयंतरे जहण्णाए नाणासायणाए मासलहुँ, मज्झिमाए मासगुरुं, उक्कोसाए चउलहुं चउगुरुं वा । विसेसओ उण सुतासायणाए चउलहु, अत्थासायणाए चउगुरु, विणयवंजणभंगेसु पणगं । गयं नाणाइयारपच्छितं । ९८०. संकादिसु अट्ठसुदंसणाइयारेसु देसओ चउगुरु, पुरिसाविक्खाए पुण भिक्खुवसहोवज्झायायरिमाणं मासलहु-मासगुरु-चउलहु-चउगुरुगा, सबओ मूलं । गयं दंसणाइयारपच्छित्तं । ८१. इओ परं आवत्तिं मुत्तूण सुहबोहत्थं दाणमेव लिहिज्जइ - पुढविआउतेउवाऊपत्तेयवणस्सईणं संघट्टणे नि०, अगाढपरितावणे पु०, गाढपरितावणे ए०, उद्दवणे आं०, विगलिंदियाणंतकाइयाणं संघट्टणादिसु जहासंखं पु०ए०आं०उ० । पंचिंदियाणं पुण ए०आं० उ० । कल्लाणगाणि - इत्थ संघट्टणं तदहजायथिरोलगाईणं,' दप्पओ पंचिदियउद्दवणे पंचकलाणं । दप्पो धावणवग्गणाई । आउट्टियाए मूलं । बीयसंघट्टे ससिणिद्धे य नि० । उदयउल्लसंघट्टे ए० । सच्चित्ते मुहपोत्तियाए गहिए पु० । अद्दामलगमित्तसचित्तपुढवीए, अंजलिमित्तोदगे सच्चित्ते मीसे य उद्दविए आं० । मयंतरे नि० । नाभिप्पमाण उदगप्पवेसे वत्थिमाइणा कोसं जाव नदीगमणे य आं० । दुक्कोसं जाव नावा उडवाइणा नदीगमणे आं० । कोर्स जाव हरियाणं भूदगअगणिवाऊणं विगलिंदियाणं पंचिदियाणं मद्दणे कमेण उ०, आं०, उ०, पंचकलाणाणि । कोसं ओसाए मीसोदगे य गमणे पु०, कोसदुगे ए०, जोयणे आं० । सजीवदगपागे छट्ठ, जलूगामोयणे गाढनइउत्तारणे य आं० । पईवफुसणयसंखाए आं० । कंबलिपावरणं विणा पईवफुसणे उ०, सकंबले आं०, उ०, विज्जुफुसणे नि०, अकंबले पु० । छप्पईहरनासणे पंचकल्लाणं । संनाकिमिपाडणे उ० । उदउल्लवत्थसंघट्टे पु० । जल संघट्टिए ओसक्किए य आं० । किसलयमलणे उ० । संखाईयाणं वेइंदियाणं उद्दवणे दोन्नि पंचकल्लाणाई, उप० २० | संखाईयाणं तेइंदियाणं उद्दवणे तिनि पंचकल्लाणाई, उ० ३० । संखाईयाणं चउरिंदियाणं उद्दवणे चत्तारि पंचकलाणाई, ४० । जहन्नमज्झिम- उक्कोसेसु मुसावाय- अदिन्नादाण-परिग्गहेसु जहासंखं ए०, आं०, उ० । मेहुणस्स चिंताए आं० । मेहुणपरिणामे उ० । रागे छ । नपुंसगस्स पुरिसस्स वा वयण- 20 सेवाए मूलं । अन्नोन्नं करणे पारंचियं । गव्भाहाण - गन्भसाडणेसु मूलं । सकाममेहुणवणे मूलं । करकम्मे अट्ठमं । बहुठाणे तम्मि पंचकल्लाणं । लेवाडदबोवलित्तपत्ताइपरिवासे उ० । सुंठिमाइसुक्कसंनिहिभोगे उ० । घयगुलाइ अल्लसंनिहिभोगे छठ्ठे । दिवागहिय-दिवाभुत्ताइ - सेसनिसिभत्ते अट्टमं । सुक्क - अल्लसंनिहिधारणे जहासंखं पु०, ए० । गयं मूलगुणपायच्छित्तं । 1 B C °थिरोतिगाईणं । विधि० ११ 5 ८२. आहाकम्मिए कम्मुद्देसिय चरिमभेयतिगे मिस्सजाय अंतिमभेयदुगे बायरपाहुडियाए सपच्चवायपर - 2 गामाभिहडे लोभपिंडे अणंतकाय-अणंतरनिक्खित्त-पिहिय-साहरिय- उम्मीसापरिणयछड्डिएसु गलंतकुट्ठ-पाउयारूढदायगेसु गुरुअचित्तपिहिए संजोयणा - इंगालेसु वट्टमाणाणागयनिमित्ते य उ० । कम्मोद्देसियआइमभेए मीसजायपढमभेदे धाईपिंडे दूईपिंडे अईयनिमित्ते आजीवणापिंडे वणीमगपिंडे बादरचिगिच्छाए कोहमाण पिंडेसु संबंधिसंथवकरणे विज्जामन्तचुण्णजोगपिंडेसु पयासकरणे दुविहे दबकीए आयभावकीए लोइय-पामिच्चपरियट्टिए निपच्चवायपरग्गामाभिहडे पिहिओब्भिन्ने कवाडोब्भिन्ने उक्किट्टमालोहडे अच्छि - 20 ज्जा णिसिद्वेषु पुरोकम्म-पच्छाकम्मेसु गरहियमक्खिए संसत्तमक्खिए पत्तेयअणंतरनिक्खित्तपिहियसाहरियउम्मीसापरिणयछड्डिएसु बालबुड्ढाइदायगदुट्ठे पमाणोल्लंघणे सधूमे अकारणभोयणे य आं० । अब्भवपूरगअंतिमभेयदुगे कडभेयचउक्के भत्तपाणपूईए मायापिंडे अनंतकाय परंपरनिक्खित्तपिहियाइसु मीस - अनंतअणंतरनिक्खित्ताइसु य ए० । ओहोद्देसिए उद्दिट्टभेयचउक्के उबगरणपूईए चिरट्टविए पायडकरणे लोगोत्तर 10 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮૨ विधिप्रपा । परियट्टियपामिच्चे परभावकीए सरनामाभिहडे दहरोब्भिन्ने जहन्नमालोहडे पढमभवपूरगे सुहुमचिगिच्छाए गुणसंथवकरणे मीसकद्दमेण लवणसेडियाइणा य मक्खिए पिट्ठाइमक्खिए कत्तगलोढगविरोलगपिंजगदायगेसु पत्तेयपरंपरट्टवियाइसु मीसाणंतरट्ठवियाइसु य पु० । इत्तरट्टविए सुहुमपाहुडियाए ससिणिद्धे ससरक्खमक्खिए मीसपरंपरठवियाइसु पत्तयाणंतबीयट्ठवियाइसु य नि० । मूलकम्मे मूलं । ६८३. विसेसओ पुण पिंडदोसपायच्छित्तं पिंडालोयणाविहाणाओ नेयं । तं चेम कयपवयणप्पणामो सत्तालीसाइं पिंडदोसाणं । वोच्छं पायच्छित्तं कमेण जीयाणुसारेणं ॥१॥ पणगं तह मासलहुं मासगुरुं चउलहुं च चउगुरुयं । सण्णाओ निपुण आउ जोगओ जाण कल्लाणं ॥२॥ सोलस उग्गमदोसा सोलस उपायणाइ दोसाओ। दस एसणाइ दोसा संजोयणमाइ पंचेव ॥ ३ ॥ आहाकम्मे चउगुरु' दुविहं उद्देसियं वियाणाहि । ओहविभागेहिं तहिं मासलहू ओहनिद्देसो॥४॥ बारसविहं विभागे चहु उद्दिढ कडं च कम्मं च । उद्देस-समुद्देसा देससमा देसभेएणं ॥५॥ चउभेए उद्दिढे लहुमासो अह चउविहंमि कडे । गुरुमासो चउलहुयं कम्मुद्देसे य नायचं ॥ ६॥ कम्मसमुद्देसाइसु तिसु चउगुरुयं भणति समयण्णू'। दुविहं तु पूइकम्म उवगरणे भत्तपाणे वा ॥ ७ ॥ उवगरणपूइमासलहु मासगुरु भत्तपाणपूइम्मि। जावंतिय-जइ-पासंडि-मीसजायं भवे तिविहं ॥८॥ जावंतिमीस चउलहु चउगुरु पासंडि-सपरमीसंमि। चिर-इत्तरभेएणं निहिट्ठा ठावणा दुविहा ॥९॥ चिरठविए लहुमासो इत्तरठवियंमि देसियं पणगं'। पाहुडिया विहु दुविहा बायर-सुहुमप्पयारेहिं ॥१०॥ बायरपाहुडियाए चउगुरु सुहुमाइ पावए पणगं । पागड-पयासकरणं ति बिंति पाओयरं दुविहं ॥ ११ ॥ मासलहु पयडकरणे पगासकरणे य चउलहुं लहइ। अप्प-पर-दव-भावेहिं चउविहं कीयमाहंसु ॥१२॥ अप्पपरदवकीए सभावकीए य होइ चउलहुयं । परभावक्कीए पुण मासलहुं पावए समणों ॥१३॥ अह लोउत्तर-लोइयभेएणं दुविहमाहु पामिचं । लोउत्तरि मासलहू चउलहुयं लोइए हवई ॥ १४ ॥ परियटियं पि दुविहं लोउत्तर-लोइयप्पयारेहिं । लोउत्तरि मासलहू चउलहुयं लोहए होई ॥१५॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तविधि-पिण्डालोचनाविधानप्रकरण । अभिहडमुत्तुं दुविहं सगाम-परगामभेयओ तत्थ । चरमं सपञ्चवायं अपचवायं च इय दुविहं ॥ १६ ॥ सप्पञ्चवायपरगामआहडे चउगुरुं लहइ साहू । निपञ्चवायपरगामआहडे चउलहुं जाण ॥१७॥ मासलहू सग्गामाहडंमि" तिविहं च होइ उभिन्नं । जउ-छगणाइविलित्तु भिन्नं तह दहरुभिन्नं ॥ १८ ॥ तह य कवाडुन्भिन्नं लहुमासो तत्थ दद्दरुन्भिन्ने । चउलहुयं सेसदुगे तिविहं मालोहडं तु भवे ॥१९॥ उकिट-मज्झिम-जहण्णभेयओ तत्थ चउलहुकि।। लहुमासो य जहन्ने गुरुमासो मज्झिमे जाण ॥२०॥ सामि-प्पहु-तेणकए तिविहे विहु चउलहुं तु अच्छिज्जे"। साहारण-चोल्लग-जडभेयओ तिविहमणिसिह ॥ २१ ॥ तिविहे वि तत्थ चउलहु" तत्तो अज्झोयरं वियणाहि । जावंतिय-जइ-पासंडिमीसभेएण तिविकप्पं ॥ २२ ॥ मासलहु पढमभेए मासगुरुं जाण चरमभेयदुगे । इय उग्गमदोसाणं पायच्छित्तं मए वुत्तं ॥ २३ ॥-दारं । धाईउ पंचखीराइभेयओ चउलहुं तु तप्पिडे'। चउलह दुईपिंडे सगाम-परगामभिन्नंमि॥२४॥ तिविहं निमित्तपिंडं तिकालभेएण तत्थ तीयंमि । चउलहु अह चउगुरुयं अणागए वद्दमाणे य॥२५॥ जाइ-कुल-सिप्प-गण-कम्मभेयओ पंचहा विणिदिहो। आजीवणाइपिंडो पच्छित्तं तत्थ चउलहुया ॥२६॥ चउलहु वणीमगपिंडे तिगिच्छपिंडं दुहा भणन्ति जिणा । बायर-सुहुमं च तहा चउलहु बायरचिगिच्छाए ॥ २७ ॥ सुहुमाए मासलहू चउलहुया कोह-माणपिंडेसु । मायाए मासगुरू' चउगुरु तह लोभपिंडंमि ॥ २८ ॥ पुचि-पच्छासंथवमाहु दुहा पढममित्थ गुणथुणणे । मासलहु तत्थ बीयं संबंधे तत्थ चउलहुयं ॥ २९ ॥ विजा मंते" चुण्णे" जोगे" चउसु वि लहेइ चउलहुयं । मूलं च मूलकम्मे उप्पायणदोसपच्छित्तं ॥ ३०॥-दारं । संकियदोससमाणं आवजइ संकियंमि पच्छित्तं'। दुविहं मक्खियमुत्तं सच्चित्ताचित्तभेएणं ॥ ३१॥ भूदगवणमक्खियमिइ तिविहं सच्चित्तमक्खियं चिंति । पुढवीमक्खियमित्थं चउविहं बिति गीयत्था ॥ ३२॥ 1 'दर्दरो वनचर्मादिबन्धनरूपः ।' इति टिप्पणी । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रपा ससरक्खमक्खियं तह सेडिय-ओसाइमक्खियं चेव । निम्मीस-भीसकद्दममक्खियमिइ पुढविमक्खियं चउहा ॥ ३३ ॥ तत्थ कमेणं पणगं लहुमासो चउलहू य मासलहू। दगमक्खियं पि चउहा पच्छाकम्मं पुरोकम्मं ॥ ३४ ॥ ससिणिद्धं उदउल्लं चउलहु चउलहु य पणग लहुमासा। वणमक्खियं तु दुविहं पत्तेयाणंतभेएणं ॥ ३५॥ उक्कुट-पिट्ठ-कुकुसभेया पत्तेयमक्खियं तिविहं । तिविहे विहु लहुमासो गुरुमासोऽणंतमक्खियए ॥ ३६ ॥ गरहियइयरेहिं अचित्तमक्खियं दुविहमाहु साहुवरा। गरहियअचित्तमक्खियदोसेणं लहइ चउलहुयं ॥ ३७॥ अगरिहसंसत्तअचित्तमक्खियंमि वि लहेइ चउलहुयं । निक्खित्तं पुढवाइसु अणंतर-परंपरं ति दुहा ॥ ३८॥ ठविए सचित्तभू-दग-सिहि-पवण-परित्तवणस्सह-तसेसु । चउलहुय-मासलहुया अणंतर-परंपरेसु कमा ॥ ३९ ॥ अइरपरंपरठविए मीसेसु य तेसुमासलहु-पणगा। अइरपरंपरठविए पणगं पत्तेयणंतबीएसु॥४०॥ सचित्तणंतकाए अणंतर-परंपरेण निक्खित्ते । चउगुरु मासगुरु कमा मीसे गुरुमास पणगाई ॥४१॥ तह गुरुअचित्तपिहियं सचित्तपिहियं च मीसपिहियं च । पिहियं तिहा अभिहियं चउगुरुयमचित्तगुरुपिहिए.॥ ४२ ॥ पिहिए सचित्तभू-दग-सिहि-पवण-परित्तवणसइ-तसेहिं । चउलहुय-मासलहुया अणंतर-परंपरेहिं कमा ॥ ४३ ॥ अइरपरंपरपिहिए मीसेहिं य तेहिं मासलहु पणगा। अइरपरंपरपिहिए पणगं पत्तेयणंतबीएहिं ॥ ४४ ॥ सच्चित्तअणंतेणं अणंतरपरंपरेण पिहियंमि। चउगुरु-मासगुरु कमा मीसेणं मासगुरु पणगा ॥४५॥ साहरिए' सजियभू-दग-सिहि-पवण-परित्तवणसइ-तसेसु । चउलहुय-मासलहुया अणंतर-परंपरपरेण कमा ॥ ४६॥ अहरतिरोसाहरिए मीसेसु उ तेसु मासलहु पणगा। अइरतिरोसाहरिए पणगं पत्तेयणंतबीएसु ॥४७॥ सचित्तअणंतेसुं अणंतर-परंपरेण साहरिए। चउगुरु मासगुरु कमा मीसेसुं मासगुरु पणगा ॥४८॥ * 'उत्कृष्टं कालिंगाम्रवालुक्यादीनां लक्ष्णीकृतानि खंडानि अम्लिकापत्रसमुदायो वा उदूखलखण्डितस्तैर्मक्षितं पिष्टं आमतंदुलक्षोदादि ।'-इति A B टिप्पणी। 1 पृथिव्यादिषु। 2 'संहृतदोष अतिक्षिप्तसमानयोग्यत्वान्न मेदाख्यानम्'-इति B टिप्पणी। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तविधि-पिण्डालोचनाविधानप्रकरण । चउगुरु अचित्तगुरु साहरिए' अह दायग त्ति थेराई । येर-पहु-पंड-वेविर-जरियंधचत्त-मत्त-उम्मत्ते ॥ ४९॥ छिन्नकरचरणगुष्विणिनियलंदुयबद्धबालवच्छाए। खंडइ पीसइ भुंजह जिमइ विरोलह दलइ सजियं ॥५०॥ ठवह बलिं ओयत्तइ पिढराइ तिहा सपचवाया जा। साहारणचोरियगं देह परकं परडं वा ॥५१॥ दितेसु एसु चउलहु चउगुरु पगलंतपाउयारूढे । कत्तइ लोढइ पिंजइ विक्खिणइ' पमहए य मासलहू ॥५२॥ छक्कायवग्गहत्था समणट्ठा णिक्खिवित्तु ते चेव । घहती गाहंती आरंभंतीई सहाणं ॥५३॥ भू-जल-सिहि-पवण-परित्तघट्टणागाढगाढपरियावे । उद्दवणे वि य कमसो पणगं लहु-गुरुयमांस-चउलहुया ॥५४॥ लहुमासाई चउगुरु अंतं विगलेसु तह अणंतवणे । पंचिंदिएसु गुरुमासाइ जाव कल्लाणगं एगं ॥५५॥ एगाइ दसंतेसुं एगाइ दसतयं सपच्छित्तं ।। तेण परं दसगं चिय बहुएसु वि सगल-विगलेसु ॥५६॥ पुढवाइ जिउम्मीसे चउलहु पणगं च बीयउम्मीसे । मिस्सपुढवाइ मीसे मासलहुं पावए साहू ॥५७॥ चउगुरु सचित्तअणंतमीसिए मिस्सणंतओम्मीसे। मासगुरु दुविहं पुण अपरिणयं दव-भावेहिं ॥५८॥ ओहेण दवभावापरिणयभेएसु दुसु वि चउ लहुयं । दवापरिणमिए पुण जं नाणत्तं तयं सुणह ॥ ५९॥ अपरिणयंमि छकाए' चउलहु पणगं च बीयअपरिणए। मीसछक्कायापरिणयदोसे लहुमासमाहंसु॥६०॥ सञ्चित्तणंतकाए अपरिणए चउगुरू मुणेयर्छ । मीसाणंत अपरिणए गुरुमासो भासिओ गुरुणा ॥ ६१॥ घउलहुयं लहइ मुणी लित्ते दहिमाइ लित्तकरमत्ते'। छडियमिह पुढवाइसु अणंतर-परंपरं ति दुहा ॥ १२ ॥ छड्डियसचित्तभू-दग-सिहि-पवण-परित्तवणसह-तसेसु । चउलहुय-मासलहुया अणंतर-परंपरेसु कमा ॥ ६३ ॥ अहरै-तिरोछड्डियए मीसेसु य तेसु मासलहु पणगा। अइर-तिरोछड्डियए पणगं पत्तेयणंतबीएसु॥६४॥ 1 A विक्खिणिइ । 2 'स्वस्थानमेवाह । 3 मासशब्दः प्रत्येकं अभिसम्बध्यते। 4 अनेनोल्लेखेनान्येष्वपि प्रायश्चित्तस्थानेष्वयमेव न्यायः। 5 अत्रापि संहृतदोषवन मेदाख्यानम् । इति B टिप्पणी। 6A चउगुण । 7 गृह्यमाणे। 8 अप्तसप्तमीकं । गृह्यमाणे। 10 अधिर इति साक्षात् , तिर इति परंपर । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 विधिप्रपा । सञ्चित्तणंतकाए अणंतर-परंपरेण छड्डियए । चउगुरु-मासगुरु कमा मीसे गुरुमासपणगाई ॥६५॥-दारं । इय एसणदोसाणं पायच्छित्तं निरूवियं इत्तो। संजोयणाइ चउगुरू' अइप्पमाणंमि चउलहुयं ॥६६॥ इंगाले चउगुरुया चउलहु धूमे अकारणाहारे। घासेसणदोसाणं इय पायच्छित्तमक्खायं ॥ ६७ ॥ जंजीयदाणमुत्तं एयं पायं पमायसहियरस । इत्तोच्चिय ठाणंतरमेगं वहिज दप्पवओ॥ ६८॥ आउहियाइ ठाणंतरं च सट्ठाणमेव वा दिजा। कप्पेण पडिकमणं तदुभयमिह वा विणिदिलं ॥ ६९॥ आलोयणकालंमि वि संकेस-विसोहिभावओ नाउं । हीणं वा अहियं वा तम्मत्तं वावि दिज्जाहि ॥ ७० ॥ पच्छित्तऊण अहियप्पयाणहेउं च इत्थ दवाई। अलमित्थ वित्थरेणं सुत्ताओ चेव जाणिज्जा ॥७१ ॥ इय पच्छित्तविहाणं जीयाओ पिंडदोससंबद्धं । जिणपहसूरीहिं इमं उद्धरियं आयसरणत्थं ॥७२॥ जं किंचि इत्थणुचियं अन्नाणाओ मए समक्खायं । तं मह काऊण दयं गुरुणो सोहिंतु गीयत्था ॥ ७३ ॥ ॥ इति पिंडालोयणाविहाणं नाम पयरणं समत्तं ॥ " ६८४. सेज्जायरपिंडे आं० । मयंतरे पु० । पमाएण कालद्धाणातीए कए नि०, पमायओ तब्भोगे नि०, अन्नहा उ० । उवओगस्स अकरणे अविहिणा वा करणे पु०, अहवा नि०, अहवा सज्झाय १२५ । उवओगमकाऊण सभत्तपाणविहरणे आं० । गोयरचरियअपडिक्कमणे पु० । काइयभूमीअप्पमजणे य नि० । सुत्तपोरिसिं अत्थपोरिसिं वा न करेइ पु०, तदुभयं न करेइ उ०। हरियकार्य पमद्दइ पु०। झुसिरतणं सेवए पु० । निक्कारणदुप्पडिलेहियदूसपंचगं, अझुसिरतणपंचगं चम्मपंचगं पुत्थयपंचगं अपडिलेहियदूसपंचगं च " सेवए कमेण नि० नि० नि० आं० ए० । गमणियापरिभोगे अचक्खुविसए वा दिणसंघाए पु० । मुत्तो चारअसणाइपरिट्टप्पं अविहिणा परिट्ठवइ, गिहिपञ्चक्खं अगुत्तं भासइ भुंजइ य, पडिमानियडे खेलमल्लगं धारेइ, गिलाणं न पडिजागरइ, अकाले सागारियहत्थेणं वा अंगं मद्दावेइ मक्खाएइ वा, उस्संघट्टसंथारए चडइ, नम्मगाइ झुसिरं परिभुंजइ, दारदेसे पवेस-निग्गमभूमि न पमज्जइ, सज्झायमकाऊण भुंजइ, अवेलाए उच्चारभूमिं गच्छइ, सागारियस्स पिच्छंतस्स काइयसन्नाइ वोसिरइ- सवत्थ पु० । अपारिए भत्तं भुंजइ दवं वा " पिबइ पु०, अथवा सज्झाय १२५ । ठवणकुलेसु अणापुच्छाए पविसइ ए० । इत्थि-रायकहासु उ०, देस भत्तकहासु आं० । कोह-माण-मायाकरणे आं०, लोभकरणे उ० । अणणुन्नाए संथारए आरोहइ आं० । मयंतरे पु० । संनिहिपरिभोगे आं० । कालवेलाए उदगपाणे पायधोवणे य आं० । अविहिदेववंदणे सबहाअवंदणे वा उ० । मयंतरे . देवगिहे देवावंदणे पु० । पुप्फललवंगाइभक्खणे उ० । निसिवमणे सण्णाए च उ० । 1 'इतः संयोजनादिदोषाणां प्रायश्चित्तमित्यर्थः।' इति B टिप्पणी। 2 A नास्ति 'नाम पयरणं । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तविधि । 40 दिवासयणे उ० । वियडपाणे उ० । पक्खाइरित्तं चाउम्मासाइरित्तं वा कोवं परिवासेइ उ० । दिणअप्पडिलेहिय-अप्पमज्जियथंडिल्ले वोसिरह उ० । थंडिल्लअकरणे सज्झाय ५० । गुरुणो अणालोइए भतपाणे सज्झायअकरणे गुरुपायसंघट्टणे उ० । पक्खिए विसेसतवं अकरिताणं खुड्य-थविर-भिक्खु-उवज्झाय-सूरीणं जहसंखं नि० पु० ए० आं० उ० । चाउम्मासिए पु० ए० आं० उ० छट्ठाणि । संवच्छरिए ए० आं० उ० छट्ठ-अट्टमाणि । निद्दापमाएण एगम्मि काउम्सग्गे वंदणए वा, गुरुणो पच्छाकए पुवं पारिए भग्गे वा, . आलस्सेण सबहा अकए वा नि०, दोसु पु०, तिसु ए०, सवेसु आं० । सधावस्सयअकरणे उ० । कत्तियचउमासयपारणए अन्नत्थ अविरताणं आं० । खुरेण लोयं कारेइ पु०, कत्तरीए ए० । दीहद्धाणपडिवन्ने गिलाणकप्पावसाणे वरिसारंभं विणा सबोवहिधोवणे, पमाएण पउणपहरे मत्तगअपडिलेहणे, तहा चउम्मासिय-संवच्छरिएसु सुद्धस्स वि पंचकल्लाणं । कओववासस्स पढम-पच्छिमपोरिसीसु पत्तगअपडिलेहणे पडिलेहणाकाले य फिडिए अट्ठमयकरणे य एगकल्लाणं । सद्द-रूव-रस-फरिसेसु दोसे आं०, रागे उ० ।।। गंधे राग-दोसेसु पु० । मयंतरे सद्द-रूव-रस-गंधेसु रागे आं०, दोसे उ० । फासे राग-दोसेसु पु० । अचित्तचंदणाइगंधग्घाणे पु० । अवग्गहाओ अद्भुट्टहत्थप्पमाणाओ मुहणतए फिडिए नि० । रयहरणे उ० । नवरमवग्गहो इत्थ हत्थप्पमाणो । मुहणंतए नासिए उ० । रयहरणे छठें । मुहपोत्तियं विणा भासणे नि० । उवही जहण्णाइभेया तिविहो- मुहपोत्ती केसरिया गुच्छओ पायठवणं ति जहन्नो । पडला रयत्ताणं पत्ताबंधो चोलपट्टो मत्तओ रयहरणं ति मज्झिमो । पत्तं तिन्नि कप्पा य त्ति उक्कोसो । एस ओहिओ उवही । । ओवग्गहिओ पुण जहन्नो पीढनिसिज्जादंडउंछणाई । मज्झिमो वासत्ताणपणगं, दंडपणगं, मत्तगतिगं, चम्मतिगं, संथारुत्तरपट्टो इच्चाई । उक्कोसो अक्खा पुत्थगपणगं इच्चाई । ओहिओवग्गहिए जहन्नओवहिम्मि वि चुयलद्धे अप्पडिलेहिए वा नि० । मज्झिमे पु० । उकिटे ए० । सधोवहिम्मि पुण आं० । जहन्ने उवहिम्मि नासिए, वरिसारंभ विणा धोविए उ० । गमिऊणं गुरुणो अणिवेदिए य ए० । मज्झिमे आं० । उकिटे उ०। आयरियाईहिं अदिन्नं जहन्नमुवहिं धारयंतस्स भुजंतस्स वा गुरुमणापुच्छिय अन्नेसिं दितस्स य ए० ।। मज्झिमे आं० । उक्किटे उ० । सबोवहिम्मि नासियाइगमेसु छटुं। ओसन्नपधावियस्स ओसन्नया विहारिस्स इत्थी-तिरिच्छीमेहुणसेविणो य मूलं । सावजसुविणे काउस्सग्गे उज्जोयगरचउक्कचिंतणं । माणुस-तिरिक्खजोणीए पडिमाए य प्रगलनिसम्गाइमेहणसविणे पण उज्जोयचजकं नमोकारो य चितिजड । मयंतरेण सागरवरगंभीरा जाव । सुमिणे राइभोयणे उ० । निकारणं धावणे डेवणे, समसीसियागमणे, जमलियजाणे, चउरंग-सारि-जूयाइकीलाए, इंदजाल-गोलयाखिल्लणे, समस्सा-पहेलियाईसु उक्कुट्टीए गीए सिंठियसद्दे मोर-४ अरहट्टाइ जीवाजीवरुए, सूइमाइलोहनासे उ० । उवविट्ठए पडिक्कमणे आं० । दगमट्टियागमणे आं० । वाघारे आं० । तसपायाइभंगे आं० । अपडिलेहियठवणायरियपुरओ अणुट्टाणकरणे पु० । इत्थीए अवयवफासे आं० । वत्थप्फासे नि० । अंगसंघट्टे नि । वत्थसंघट्टे अबहुवयणे य सज्झाय १०० । आवस्सियानिसीहिया अकरणे दंडगअप्पडिलेहणे समिइगुत्तिविराहणे गुणवंतनिंदणे नि० । वासावासग्गहियं पीढफलगाइ न समप्पेइ पु० । वरिसंतसमाणियभत्तादिपरिभोगे आं० । रुक्खपरिट्ठावणे पु० । सिणिद्धपरिद्वावणे ।। उ०। रयहरणस्स अपडिलेहणे पु० । मुहपोत्तीयाए नि० । दोरए पत्तबंधे तेप्पणए मुहणंतए य खरडिए उ० । गंतीजोयणगमणे गमणियाजोयणपरिभोगे जोयणमचक्खुविसए उ०। आभोगेणं जोयणमिसे गंतीगमणे छटै हट्ठाणं । गमणागमणं न आलोएइ, इरियावहियं न पडिक्कमइ, वियालवेलाए पाणगं न पञ्चक्खाइ, उच्चारपासवणकालभूमीओ एगरत्तं न पडिलेहइ नि० । सीसदुवारियं करेइ पु० । गरुलपक्खं पाउणइ उ० । एगओ दुहओ वा कप्पअंचला खंधारोविया गरुलपक्खं । बोडिय-खुड्डयाणं व उत्तरासंगे उ० । चोलपट्टयकच्छादाणे उ० । चउप्फलं मुक्कलं वा कप्पं खंधे करेइ पु० । दो वि बाहाओ छायंतो संजइपा Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रपा। उरणेणं पाउणइ आं० । गिहिलिंग-अन्नतित्थियलिंगकप्पकरणे मूलं । ओगुष्टुिं चउफलकप्पं वा हत्थोसिंचदंडएण वा सिरे कप्पं करेइ पु० । उत्तरासंगं न करेइ, अचित्तं लसुणं भक्खेइ, तण्णयाइ उम्मोएड पु०। गंठिसहियं नासेइ उ० । कप्पं न पिबइ उ० । सति सामत्थे अट्ठमि-चउद्दसि-नाणपंचमीसु चउत्थं न करेइ उ० । वत्थधोवणियाए पइकप्पं नि० । पमाएण पञ्चक्खाणअग्गहणे पु० । वाणमंतराइ• पडिमाकोहलपलोयणे पु० । इत्थियालोयणे ए० । दंडरहियगमणे उ० । निसागमणे सोवाणहे कोस: दुगप्पमाणे आं० । अणुवाणहे नि०। सिया एगइओ लडुं विविहं पाणभोयणं । भद्दगं भगं भुच्चा विवणं विरसमाहरे ॥ हवेव मंडलीवंचणे उ० । गयं उत्तरगुणाइयारपच्छित्तं ॥ * ॥समत्तं च चारित्ताइयारपच्छित्तं ॥ ६८५. उववासभंगे आं० २, नि० ३, ए० ४, पु० ५। सज्झायसहस्सदुगं, नवगारसहस्समेगं । आयं। बिलभंगे आं० २, नि० ३, पु०४ । निविगइयभंगे पु० २ । एकासणाइभंगे तदहियपञ्चक्खाणं देयं । गंठिसहियाइभंगे दवाइअभिग्गहभंगे वा संखाए पु० । तवं कुणंताणं निंदाअंतरायाइकरणे पु० । ६८६. इयाणि जोगवाहीणं अन्नाणपमायदोसा जहुत्ताणुट्ठाणे अकए पायच्छित्तं भण्णइ - उस्संघ मुंजइ ७० । लेवाडयदवोवलित्तस्स पत्ताइणो परिवासे उ० । आहाकम्मियपरिभोगे उ० । सन्निहिपरिभोगे उ० । अकालसन्नाए उ० । थंडिले न पडिलेहेइ उ० । अपडिलेहियथंडिले उर्ल्ड' करेइ उ० । असंखडं करेइ ॥ उ०। कोह-माण-माया-लोभेसु उ०। पंचसु वएसु उ० । अब्भक्खाण-पेसुन्न-परपरिवाएसु उ०॥ पुत्थेयं भूमीए पाडेइ, कक्खाए करेइ, दुग्गंधहत्थेहिं लेइ, थुक्काहिं भरेइ, एवमाइसु उ० । रयहरणे चोलषट्टए य उग्गहाओ फिडिए उ०। उब्मो न पडिक्कमइ, वेरत्तियं न करेइ उ० । कवाडं किडियं वा अप. मजिथं उग्घाडेइ पु० । कालस्स न पडिक्कमइ, गोयरचरियं न पडिक्कमइ, आवस्सियं निसीहियं वा न करेह नि० । छप्पयाओ संघट्टेइ अणागाढं पु०, गाढासु ए० । ओहियं न पडिलेहेइ उ० । उद्देस-समुद्देसअणुना-भोयण-पडिक्कमणभूमीओ न पमजेइ उ० गयं तवाइयारपच्छित्तं। ६८७. तवोणुट्टाणाइसु विरियगृहणे एगासणदुगं । गयं विरियाइयारपच्छित्तं । ६.८८. इत्थ य छेयाई असहहओ मिउणो परियायगवियस्स गच्छाहिवइणो आयरियस्स कुलगणसंघाहिकईणं च छेय - मूल - अणवठ्ठप्प - पारंचियमवि आवन्नाणं जीयववहारेण तवं चिय दिज्जइ । ६८९. भणियं साहुपायच्छित्तं । संपयं आयरणाए किंचि विसेसो भण्णइ - साहु-साहुणीणं राईभत्तविर- इभंगे असणे पंचवि भेया नि० पु० ए० आं० उ० पंचगुणा । खाइमे ते चउग्गुणा । साइमे तिगुणा । पाणे दुगुणा । सुक्कसन्निहीए उ० २, अल्लसन्निहीए उ० ४ । सचित्तभोयणे कुरुडयाईए उ० ३ । अप्पउलियभक्खणे उ० ४ । दुप्पउलभक्खणे उ०२। कारणओ आहाकम्मम्गहणे ते पंच वि पंचगुणा । निकारणे तहिं पंचवि वीसगुणा । आहाकडकीयगडाइदोसासेवणेसु उ० ३ । अकालचारित्तणे कारणओ उ०४। निकारणओ ते वि दुगुणा । अकालसन्नाकरणे उ० २। थंडिलउवहीणमपडिलेहणे उ० ३। . वसहिअपमजणे कज्जगाईणं अणुद्धरणे अविहिपरिट्ठवणे उ० ३ । जिण-पुत्थय-गुरुपमुहाणं आसायणाए उ. ४ । अवरोप्परं वायाकलहे ते पंच । दंडादंडीए दस । उद्दवणे मूलं । पहारे जणनाए ते पंचवीसमुणा । सागारियदिट्ठीए आहारनीहारं करिते उ०४ । निंदियकुलेसु आहाराइगिहितस्स उ० ४ । सूयमभत्तं पढमगब्भूसुगमत्वं गिण्हंतस्स उ० २ । गणभेयं करितस्स उ०४ । निकारणं गिहिकज 1 वमनं। 2 'आचार्यादयो हि छेदादिके दत्ते अपरिणामकादीनां माऽवज्ञास्पदमभूवनिति तप एव धीयते -ति Bखणी। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तविधि - देश विरतिप्रायश्चित्तसंग्रह । ८९ चिंतंतस्स उ० २ । गुरूणं आणाए विणा पयट्टंतस्स समईए संमत्तनासो । अणाभोगे उ० ३ । वत्यधुवणे उ० ३ । गायब्भंगे चलणब्भंगे सरीरधुवणे उ० ४ । पारिट्ठावणियं सपचाई कार्रितस्स उ० ४ । मांमि नइलंघणे सामन्त्रेण उ० २ । पञ्चकखाण अकरणे उवओगाकरणे अपमज्जिय वसहीए सज्झायकरणे विकहाकरणे दिवासुयणे परपरिवायकरणे गीयाइकरणे कोऊहलदंसणे समईए कुसत्थसवणं करिते वक्खाणंते पढ़ते गुणंते उ० ३ । एगागिणो गुरूणमाणाए विणा वियरंतस्स उ० ४ । पत्तभंडाइभंगे । उ० १ । उवहिं हारवंतस्स उ० १ । गुरुण आणाए कारणओ आहाकम्माइ अगिव्हंतस्स उ० ४ । इंदिलोलुयाए संजोयणं करिंतस्स उ० ४ । छप्पइयासंघट्टणे वासासु उवहिअधुवणे उ० ४ । अकाले धुवंतस्स उ० ४ । हासं खिड्डुं कुणंतस्स उ० २ । सुत्तं विणा जिणपूयाइकज्जेसु पवाहेण पयट्टंतस्स उ० ४ । साहम्मियकज्जेसु जहासत्तीए अपयट्टमाणस्स उ० ४ । एवं संखेवेणं सङ्घ विरई भणिया । ९०. इयाणि वसहिदोसपायच्छित्तं । कालाइकंताए पणगं । उवट्टाणा अभिकंता अणभिकंता " वज्जासु चउलहु । महावज्जाइसु चउगुरु । अतिविसुद्धिकोडिवसहीसु पट्टीवंसाइचउदससु चउगुरु । विसो - हिकोडीसु दूसिया सु च उलहुया । भणियं च आइऍ पणगं चउसु चउलहू वसहीसु खमणमन्नासु । अविसुद्धा चउगुरु विसोहिकोडीसु चउलहुगा ॥ १ ॥ ९१. अह थंडिल्लदो सपच्छित्तं आवाए संलोए सिरतसेसुं हवंति चउलहुया । चउगुरु आसन्नबिले पुरिमं सेसेसु ससु ॥ २ ॥ ९९२. संपयं वंदणयदोसपच्छित्तं पडणी दुट्ठ तजिय स्वमणं आयाम रुद्धेसु । गारव तेणिय हीलिय जुए पुरिमं च सेसेसु ॥ ३ ॥ ६९३. संपइ पवाणरिहपवावणपच्छित्तं तेणे की रायावयारिट्ठे य जुंगिए दोसे | सेहे गुषिणि मूलं सेसेसु हवंति चउगुरुगा ॥ ४ ॥ सेहे इति सेहनिप्फेडिया । पवज्जाणरिहा य इमे - बाले बुढे नपुंसे य की वे जड्डे य वाहिए । तेणे रायावगारी य उम्मत्ते य अदंसणे ॥ १ ॥ दासे दुट्ठे य मूढे य अणत्ते जुंगिए इय । ओबद्धए य भयए सेहनिप्फेडिया इय ॥ २ ॥ इय अट्ठारसभेया पुरिसस्स तहित्थियाइ ते चेव । विणिसबालवच्छा दुन्नि इमे हुंति अन्ने वि ॥ ३ ॥ संपयं साहूणं निब्बिगइ - आयंबिल - उववास - सज्झाया चेव आलोयणा तवे पडंति, पुरिमो वा । ण उण एगासणं । पुरिमड्डो वि चउबिहाहारपरिहारेणेविति । ९४. इओ देसविरहपायच्छित्तसंगहो भण्णइ - देसओ संकाइसु अट्ठसु आं० । सइओ उ० । देवस्स वासकुंपिया - धूवायण - थुक्कियऊस ( स अंचललग्गणे, पडिमा पाडणे, सह नियमे देवगुरु अवंदणे पु० । विधि० १२ 15 25 30 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रपा। ९० अविहिणा पडिमाउज्जालणे ए० । देवदधस्स असणाइआहार - दम्म - वत्थाइणो, गुरुदवस्स वत्थाइणो साहारणधणस्स य भोगे जावइयं दवं भुत्तं तावइयं तस्स अन्नस्स वा देवस्स गुरुणो य देयं । तवो यदेव-गुरुदधे जहन्ने भुत्ते आं० । मज्झिमे उ० । उक्किट्ठे एगकल्लाणं । एयं दुगमवि देयं । गुरुआसणमाइणो पायाइणा घट्टणे नि० । अंधयारमाइम्मि गुरुणो हत्थपायाइलग्गणे जहन्न - मज्झिम - उक्किटे पु०, । ए०, आं० । अट्ठवियस्स ठवणायरियस्स पायप्फंसे नि० । ठवियस्स पु० । पाडणे उभयं । ठवणायरियनासणे पवइयाणं आसणमुहपोत्तियाइ उवभोगे नि०। पाणासणभोगेसु ए०, आं० । वासकुंपियाए पडिमाअप्फालणे १, धोवत्तियं विणा देवच्चणे २, पमाएण भूमिपाडणे ३ । पुत्थय - पट्टिया-टिप्पणमाइणो वयणोत्थनिट्ठीवणालवप्फंसे १, चरणघट्टणनिट्ठीवणपट्टियाअक्खरमज्जणेसु २, भूमिपाडणे ३ । अणुट्टवियठवणा यरियस्स चालणे १, भूमिपाडणे २, पणासणे ३। एवं जहन्न - मज्झिम- उक्किट्ठआसायणासु पु०, ए०, " आं० । अप्पडिलेहियठवणायरियपुरओ अणुट्ठाणकरणे पु०, सज्झायसयं वा । अवयारणगाइबायरमिच्छतकरणे पंचकल्लाणं उ० १० । जवमालियानासणे ए० । केसिं चि ठवणायरिए गमिए जवमालियानिग्गभणे य एगकल्लाणं, सज्झायपंचसहस्सं वा । कन्नाहलग्गहणे संडाइविवाहे आं० । घिउल्लियाइकरणे पु० । पडिमादाहे भंगे पलीवणाइसु पमायओ वावि । तह पुत्थ-पट्टियाईणहिणवकारावणे सुद्धी॥ " पुत्थयमाईण कक्खाकरणे दुग्गंधहत्यग्गहणे पायलग्गणे आं० । देवहरे निकारणं सयणे आं० २। देवजगईए हत्थपायपक्खालणे उ० । हाणे उ० २ । विकहाकरणे आं०, पु० । झगडयं जुज्झं वा करेइ उ०२, पु० २ । घरलेक्खयं पुत्तपुत्तियासंबंधं च करेइ उ० ३, पु० ३ । हत्थरुंडिं हासं चच्छरि देवट्ठाणे परोप्परं पुरिसाणं करिताणं उ० ३, पु० ३ । इत्थीहिं सह उ० ६, पु० ६ । पुढविमाइसु चउरिंदियावसाणेसु साहु व पच्छित्तं । पंचिदिएसु पमाएण पाणाइवाए कल्लाणं । ४ संकप्पेणं पंचकल्लाणं । दोण्हं विगलाणं वहे उ० २ । तिण्हं उ० ३ । जाव दसहं उ० १० । एक्कारसाइसु बहुसु वि उ० १० । मयंतरे बहुएसु विगलेसु पंचकल्लाणं । पभूयतरबेइंदियउद्दवणे उ० २०, पभूयतरतेइंदियउद्दवणे उ० ३० । पभूयतरचउरिंदियउद्दवणे उ० ४० । जीववाणिय - कोलियपुड - कीडियानगर - उद्देहियाइउद्दवणे पंचकल्लाणं । अगलियजलस्स एगवारं हाणपाणतावणाइसु एगकल्लाणं । अगलियजलेण वत्थसमूहधुयणे पंचकल्लाणं । जित्तियवारं अगलियजलं वावरेइ तित्तिया कल्लाणगा । पत्तावेक्खाए उ०१। जलोयामोयणे आं०। जीववाणियसंखारगउज्झणे एगकल्लाणं उ०२। थोवे थोवतरमवि । अणंतकाइयकीडियानगरझुसिरवाडियाइसु ण्हाणजल - उण्हअवसावणाइवणे संखारगसोसे अगलियजलवावारे गलेजंतस्स वा कित्तियस्स वि उज्झणे असोहियइंधणस्स अग्गिमि निक्खेवे केसविरलीकरणे सिरकंडूयणे कीलाए सरले?माइक्खेवे पुरिमडाईणि । मुसावाय - अदिन्नादाण - परिग्गहेसु जहन्नाइसु ए०, आं०, उ० । दप्पेण तिसु वि पंचकल्लाणं । 10 अहवा मुसावाए जहण्णे पु०, मज्झिमे आं०, उकिट्टे पंचकल्लाणं । दप्पेणं जहन्न - मज्झिमेसु वि तं चेव । दवाइचउबिहे अदिन्नादाणे जहन्ने पु०, मज्झिमे सघरे अन्नाए ए०, नाए आं० । अहवा उ० । उकि? अन्नाए पंचकल्लाणं, नाए रायपज्जंतकलहसंपन्ने तं चेव, सज्झायलक्ख च । सदारे चउत्थवयभंगे अट्ठमं एगकल्लाणं च । अन्नाए परदारे हीणजणरूवे पंचकल्लाणं, नाए सज्झायलक्खं । उत्तमपरदारे अन्नाए सज्झायलक्खं, असीइसहस्साहियं । नाए मूलं । उत्तमपरकलते वि। नपुंसगस्स अच्चंतपच्छायाविस्स कल्लाणं, पंचकल्लाणं वा । मयंतरे पमाएण असुमरंतस्स सदारे क्यभंगे उ० १, Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१ प्रायश्चित्तविधि-देशविरतिप्रायश्चित्तसंग्रह । जाणंतस्स पंचकल्लाणं । जइ इत्थी बलाकारं करेइ तया तीसे पंचकल्लाणं । इत्तरकालपरिग्गहियाए वि वयभंगे कल्लाणं, अहवा उ० १। वेसाए वयभंगे पमाएण असंभरंतस्स उ० २, अहवा उ० १। कुलवहूए वयभंगे मूलं । मिउणो पंचकल्लाणं । अहवा दप्पेणं परदारे पंचकल्लाणं । अइपसिद्धिपत्तम्स उत्तमकुलकलत्ते वयभंगेण मूलमवि आवन्नम्स पंच कल्लाणं । सकलते वयभंगे पंचविसोवया पावं । वेसाए दस । कुलडाए पन्नरस । कुलंगणाए वीसं । दप्पेण परिग्गहपमाणभंगे पंचकल्लाणं । उक्किट्टे सज्झायलक्खमसीइसहस्साहियं ।' दिसिपरिमाणवयभंगे उ० । भोगोवभोगमाणभंगे छठें । अणाभोगेणं मज्ज-मंस-महु-मक्खणभोगे उ०, आउट्टीए पंचकल्लाणं, अट्ठमं वा । अणंतकायभोगोवद्दवणेसु उ० । अकारणं राईभोत्ते उ० । सचित्तवजिणो सचित्तअंबगाइपत्तेयभोगे आं० । पनरसकम्मादाणनियमभंगे आं०, अहवा उ०, अहवा छठें, एगकल्लाणमिति भावो । दवसच्चित्तअसण-पाण-खाइम-साइम-विलेवण-पुप्फाइपरिमाणभंगे पु० । अहियविगइभोगे नि०। हाणनियमभंगे आं०, अहवा उ० । पंचुंबराइफलभक्खणवयभंगे, पच्चक्खाणवय- ॥ भंगे अट्ठमं । पञ्चक्खाणनियमभंगे अट्ठमं । पञ्चकखाणनियमे सइ निकारणं तदकरणे उ० । अकारणसुयणे उ० । नमोक्कारसहिय-पोरिसि-सडपोरिसि-पुरमट्ट-दोक्कासण-एक्कासण-विगइ-निश्चिगइय-आयंबिल-उववासाणं भंगे तदहियपच्चक्खाणं देयं । उववासभंगे उ० २। वमिवसेण पच्चक्खाणभंगे पु०, अहवा ए० । मयंतरे नवकारसहिय-पोरिसि-गंठिसहियाईणं भंगे संखाए नवकार १०८, अहवा ए० । मयंतरे गठिसहियभंगे सज्झाय २०० । गंठिसहियनासे उ० । चरिमपञ्चक्खाणअग्गहणे रत्तीए य संवरणे अकरणे । पु० । अणत्थदंडे चउविहे उ० । मयंतरे आं० । पेसुन्न-अभक्खाणदाण-परपरिवाय-असब्भराडिकरणेसु आं०, अहवा उ० । नियमे सइ सामाइय-पोसह-अतिहिसंविभागअकरणे उ०। देसावगासिए भंगे आं० । वायणंतरेण सामाइय-पोसहेसु वि आं० । चाउम्मासिय-संवच्छरिएसु निरइयारस्सावि पचकल्लाणं । कारणे पासत्थाईणं किइकम्मअकरणे आं० । अभिग्गहभंगे आं० । इरियावहियमपडिक्कमिय सज्झायाइ करेइ पु० । इत्थीए नालयमउलणे एगकल्लाणं ति पुजाणं आएसो, न पुण कहिं पि दिटुं । बालं वुद्धं असमत्थं ॥ नाऊण तइओ भागो पाडिजइ । आलोयणाए गहियाए अणंतरं जावंति वरिसा अंतरे जति तावंति कल्लाणाणि दिजंति त्ति गुरूवएसो । महल्लयरे वि अबराहे छम्मासोववासपजंतमेव तवं दायबं । जओ वीरजिणतित्थे इत्तियमेव च उक्कोसओ तवं वट्टइ। एगाइ नब जाव अवराहणट्टाणसंखाए पायच्छित्त दायव । दसाइसु संखाईएसु वि दसगुणमेव देयं ति। ६९५. इयाणिं पोसहियस्स पायच्छित्तं भण्णइ - तत्थ पोसहिओ आवस्सियं निसीहियं वा न करेइ, उच्चार- 4 पासवणाइभूमीओ न पडिलेहइ, अप्पमज्जिऊण कट्टासणगाइ गिण्हइ मुंचइ वा, कवाडं अविहिणा उग्याडेइ पिहेइ वा, कायमपमज्जिय कंडुयइ, कुड्डमप्पमजिय अवटुंभ करेइ, इरियावहियं न पडिक्कमइ, गमणागमणं न आलोयइ, वसहिं न पमज्जइ, उबहिं न पडिलेहइ, सज्झायं न करेइ, नि० । पाडिय मुहपत्तियं लहइ नि० । न लहइ उ० । पुरिसम्स इथियाए य इत्थी-पुरिसवत्थसंघट्टे नि० । गायसंघट्टे पु० । कंबलिपावरणे, आउकाय - विजुजोइफुसणे नि०। कंबलिविणा पु०, अहवा आं० । कंबलिपावरणं विणा " पईवफुसणे उ० । अपाराविऊण भोयणे पाणे पुंजयअणुद्धरणे पु० । असज्झ ति अभणणे पु० । वमणे निसि सण्णाए भुत्तूणं वंदणयसंवरणअकरणे अणिमित्तदिवासुवणे विगहासावज्जभासासु संथारयअसंदिसावणे संथारयगाहाओ अणुच्चारिऊण सयणे उबविट्टपडिकमणे वाघारे दगमट्टियागमणे य आं० । पुरिसम्स थीफासे आं० । इत्थीए पुरिसफासे उ० । संतरफासे पु० । अंचलफासे मज्जारीमाइतिरियफासे य नि० । तरूण पण्णतोडणे आं० । अप्पडिलेहियथंडिले पासवणाइबोसिरणे आं० । वंदणकाउम्सग्गाणं गुरुणो पच्छा # करणाइसु पुढवाइसंघट्टणाइसु य साहुणो व पच्छित्तं देयं । एवं सामाइयत्थस्स वि जहासंभवं चिंतणीयं । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रपा। ६९६. संपयं पत्ताविक्खाए सामायारीविसेसेण सावयपायच्छित्तं भण्णइ-देवजगईए मज्झे भोयणे उ०१, पाणे आं० १। जईणं भोयणे कए उ० ५, पाणे २ । तेसिं नियडे निद्दाकरणे आं० २, उ० ३ । देसओ पच्छा अद्धं, अप्पं ओघिजइ । देसओ ए० २, उ० । सबओ नि० ३ । उस्सुत्तअणुमोयणे देसओ उ०, आं०; सबओ उ०५, आं० ३, नि० ३, ए० ५। देवदवउवभोगे कए थोवे उ० ५, आं०५, नि० ५, । ए० ५, पु० ५। पउरे जणन्नाए एयं चउग्गुणं, अन्नाए दुगुणं । सबओ नाए पंचावि वीसगुणा । अनाए दसगुणा । उवेक्खणे पण्णाहीणे अन्नाए पंचावि सबओ तिगुणा, नाए चउग्गुणा । एवं साहम्मियधणोवभोगे नाए चउग्गुणा, अन्नाए दुगुणा । साहम्मिएण सह कलहे अन्नाए थोवे उ०, आं०, नि०, पु०,ए। पउरे नाए तिगुणा । साहम्मियअवमाणे थोवे अन्नाए उ०, आं०, नि०, पु०, ए० । पउरे नाए बिउणा। गिलाणअपालणे देसओ पंचावि दुगुणा । साहम्मियगिलाणअपालणे देसओ पंचगुणा, सबओ छग्गुणा । ॥ सामन्नओ विसेसओ गिलाणअपालणे सबओ पंचवीसगुणा । देसओ सम्मत्ताइयारेसु अट्ठसु पंचावि एगगुणाई जाव अट्टगुणा, सबओ दुगुणाई जाव नवगुणा । - सम्मत्तपच्छित्तं गयं । ६९७. पाणाइवाए सुहुमे बायरे वा देसओ कए कप्पे ते पंच, पमाए बिउणा, दप्पे तिगुणा, आउट्टियाए चउग्गुणा । पुढवि-आउ-तेउ-वाउ-वणस्सईणं संघट्टणे पु०, परियावणे ए०, उद्दवणे उ० । तसकायसंघट्टणे आं०, परिआवणे आं० २, उद्दवणे पंच० । कप्पंमि उद्दवणे पंच - दुगुणाणि, पमाएण तिगुणाणि, आउट्टि" याए पंचगुणाणि । एवं देसओ । सबओ पुढविकायाईणं अट्टण्हं संघट्टणे कमेण पु० २, नि० ३, ए० ४, आं० २, उ० २, उ० ३, उ० ४, उ० ५। नवमे पंचविहं एवं पंचगुणं । परियावणे एएसु एयं दुगुणं । उद्दवणे पंचगुणं । कप्पे संघट्टणपरियावणुद्दवणेसु सबओ आं० १, आं० २, आं० ३ । पमाए उ० १, उ० २, उ० ३ । दप्पे उ० २, उ० ३, उ० ४ । आउट्टियाए संघट्टणाइसु उ० २, उ० ३, उ०४।-भणिओ पाणाइवाओ। ॥ सुहुमे मुसावाए देसओ जयणा । कयपोसहसामाइओ जइ भासइ सुहुमं मुसावायं तो उ०२। बायरं भासइ उ० ४ । अकयसामाइओ बायरमुसावायं भासइ उ० ३ । सबओ सुहुमे मुसावाए पंचविहं पि दुगुणं । बायरे पंचविहं पि पंचगुणं । - मुसावाओ गओ।। ___अदत्तगहणे सुहुमे देसओ जयणा । कयपोसहसामाइओ अदत्तं गेहइ सुहुमं तो पंच बिउणा । बायरं गेण्हइ पंच वि अट्ठगुणा । सबओ सुहुमे पंचगुणा बायरे दसगुणा । - गयं अदत्तादाणं । । मेहुणपच्छित्तं पुत्वं व । विसेसो पुण इमो- देवहरे वेसाए सह पसंगे जाए उ० १०, आं० १०, नि०१०, ए०१०, सज्झायसहस्सतीसं ३० । सावियाहिं सद्धिं तं चेव तिगुणं देयं अन्नाए, नाए पंचगुणं । सावग-अजियाणं पसंगे जाए नाए य वीसगुणं, अन्नाए तेरसगुणं । संजय-सावियाणं अन्नाए पन्नरसगुणं, नाए तीसगुणं । संजय-अज्जियाणं अन्नाए सट्टिगुणं, नाए सयगुणं । देवहरं विणा पुबोत्तेहिं वेसाईहिं सह पसंगे जाए नाए उ० ३०, आं० ३०, नि० १००, पु० ५००, ए० १०००, सज्झायलक्ख ३० • अन्नाए एयद्धं । -गयं मेहुणं । देसओ धणधन्नाइनवविहे परिग्गहपमाणाइक्कमे एगगुणाई पंच वि मेया जाव नवगुणा । सबओ उण कयपञ्चक्खाणस्स परिग्गहे नवविहे वि विहिए चउग्गुणाई जाव बारसगुणा । - गओ परिग्गहो।। देसओ दिसिभोगाइसु सत्तसु जाए अइयारे जहक्कमं पंच वि भेया इक्कगुणाई जाव सत्तगुणा । देसविरइयस्स असणाईनिसिभत्ते कप्पे उ० ३, पंचगुणा* जाव अट्टगुणा । दुहाहारपञ्चक्खाणभंगे उ० * 'कल्पे पंचगुणाः, प्रमादे षड्गुणाः, दर्प सप्तगुणाः, आकुव्यामष्टगुणाः।-इति A टिप्पणी। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोचना ग्रहणविधिप्रकरण । ९३ १ । तिविहाहारपञ्चक्खाणभंगे उ० २ । चउबिहाहारपच्चक्खाणभंगे उ० ४ । दुक्कासणभंगे उ० २ । इक्कासणभंगे उ० ३ । अहिगविगइगहणे आं० । अहिगदबसच्चित्तग्गहणे उ० १ । रसलोलओ उक्किट्ठदधभोगे आं० | अहवा नि० । संकेयपञ्चक्खाणभंगे उ० १ । निश्यिभंगे उ० २ । आयंबिलभंगे उ० ३, पुरिम २ । - संखेवेणं देसविरई भणिया । * hreeगुरुपपूओ पियधम्माइगुणसंजुओ सण्णी । इरियं पडिकमिय करे दुवाल सावत्तकी कम्मं ॥ १ ॥ सुगुरुस्स पायमूले लहुवंदण - संदिसाविय विसोही । मंगलपाढं काउं ओणयकाओ भणइ गाहं ॥ २ ॥ जेमे जाणंति जिणा अवराहे नाणदंसणचरित्ते । तेह आलोएवं उवडिओ सबभावेण ॥ ३ ॥ तो दाओं खमासमणं जाणुठिओ पुत्तिठइयमुहकमलो सणियं आलोइज्जा चउवीसं सयमईयारे ॥ ४ ॥ पण संलेहण पनरस कम्म नाणाइ अट्ठ पत्तेयं । बारस तव विरिय तियं पण सम्मवयाई पत्तेयं ॥ ५ ॥ मुत्तुं दद्धतिहीओ अमावसं अट्ठमिं च नवमिं च । छचि चउत्थि वा बारसिं च आलोयणं दिजा ॥ ६ ॥ चित्ताणुराह रेवइ मिसिर कर उत्तरातियं पुरसो । रोहिणि साइ अभीई पुणवसु अस्सिणि धणिट्ठा य ॥ ७ ॥ सवणो यतारं तह इमेसु रिक्खेसु सुंदरे खित्ते । सण- भोमवज्जिएसुं वारेसु य दिज तं विहिणा ॥ ८ ॥ इत्थं पुण उभंगो अरिहो अरिहंमि दलयह कमेण । आसेवणाइणा खलु मंदं दवाइ सुद्धीए ॥ ९॥ कसालोयण १ आलोयओ य २ आलोइयब्वयं चेव ३ | आलोयणविहि ४ मुवारं तद्दोसगुणे य ६ वोच्छामि ॥ १० ॥ अक्खंडियचारित्तो वयगहणाओ य जो भवे निच्चं । तस्स सगासे दंसण-वयगहणं सोहिगहणं च ॥ ११ ॥ * आयारवमाहार ववहारोऽवीलए पकुवे य । अपरिस्सावी निज्जव अवायदंसी गुरू भणिओ ॥ १२ ॥ आगम सुर्य आण धारणा य जीयं च होइ ववहारो । केवलिमणोहि- चउदस-दस - नवपुवाई पढमोत्थ ॥ १३ ॥ कहि सवं जो वृत्तो जाणमाणो विगूहइ । * न तस्स दिंति पच्छित्तं विंति अन्नत्थ सोहय ॥ १४ ॥ * "आचारवान् पंचविधाचारवान् । आधारवान् आलोचितापराधानामवधारकः । व्यवहारो वक्ष्यमाणपंचविधव्यवहारवान् । अपनीडको लज्जयाऽतीचारान् गोपर्यंतं विचित्रैर्वचनैर्विलजीकृत्य सम्यगालोचनाकारयिता । प्रकुर्वक आलोचितापराधेषु सम्यक् प्रायश्चित्तदानतो विशुद्धिं कारयितुं समर्थः । अपरिश्रावी आलोचकोक्तदोषाणामन्यस्मै अकथकः । निर्यापको समर्थस्य तदुचितदानानिर्वाहकः । अपायदर्शी अनालोचयतः पारलौकिकापायदर्शकः ।" इति A B आदर्शगता टिप्पणी । 10 28 28 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रपा। न संभरह जो दोसे सम्भावा न य मायया । पच्चक्खी साहए ते उ माइणो उ न साहई ॥ १५ ॥ आयारपगप्पाई सेसं सवं सुयं विणिटिं। देसंतरहियाणं गूढपयालोयणा आणा ॥ १६ ॥ गीयत्थेणं दिन्नं सुद्धिं अवहारिऊण तह चेव । दितस्स धारणा सा उद्धियपयधरणरूवा वा ॥ १७॥ दवाइ चिंतिऊणं संघयणाईण हाणिमासज्ज । पायच्छित्तं जीयं रूढं वा जं जहिं गच्छे ॥ १८॥ अग्गीओ नवि जाणइ सोहिं चरणस्स देइ ऊणहियं । तो अप्पाणं आलोयगं च पाडेइ संसारे ॥ १९॥ तम्हा उक्कोसेणं खित्तम्मि उ सत्तजोयणसयाई। काले बारसवरिसा गीयत्थगवेसणं कुज्जा ॥ २०॥ आलोयणापरिणओ सम्मं संपहिओ गुरुसगासे। जइ अंतरा वि कालं करिज आराहओ तह वि ॥ २१ ॥-दारं १। जाइ-कुल-विणय-उवसम-इंदियजय-नाण-दंसणसमग्गो। अण्णणुतावी' अमाई चरणजुया लोयगा भणिया ॥ २२॥-दारं २। मूलुत्तरगुणविसयं निसेवियं जमिह रागदोसेहिं । दप्पेण पमाएण व विहिणालोएज तं सवं ॥ २३ ॥ पढमं काले विणए बहुमाणुवहाण तह अणिण्हवणे । वंजण-अत्थ-तदुभये अट्ठविहो नाणमायारो य २४ ॥ नाणपडणीय निण्हव अच्चासायण तहन्तरायं च । कुणमाणस्सइयारो पद्दियपुत्थाइपडणीयं ॥ २५॥ निस्संकिय निकंखिय निवितिगिच्छा अमूढदिट्टी य । उववूह थिरीकरणे वच्छल्लपभावणे अट्ठ ॥ २६॥ चेयसाहू सावय विण उवह उचियकरणिजं । जं न कयं तं निंदे मिच्छत्तं जं कयं तं च ॥ २७ ॥ बेइंदिया य जलुया सिमिया किमिया य हुंति पुंअरया। तेइंदिय मंकोडा जूवा मंकुणग उद्देही ॥ २८ ॥ चउरिंदिय मच्छिय विच्छिया य मसया तहेव तिड्डाय । पंचिंदिय मंडुक्का पक्खी मूसा य सप्पा य ॥ २९ ॥ अलिये अभक्खाणं दिट्ठीवंचणमदत्तदाणंमि। मेहुणसुमिणासेवण कीडा अंगस्स संफासे ॥ ३०॥ भत्तारअन्नपुरिसे केली गुज्झंगफासणा चेव ॥ इत्थी पुरिसाणं पुण वीवाहण-पीइकरणाई ॥ ३१॥ 1 'अवराहिऊण' इति B पाठः। 2 किमिदं मयाऽऽलोचितमिति । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५ आलोचनाग्रहणविधिप्रकरण । तह य परिग्गहमाणे खित्ताईणं तु भंगमालोए। दिसिमाणे आणयणं अन्नस्स य पेसणं जं वा ॥ ३२॥ सच्चित्तगं तु दवं पक्कासण-पहाण-पिवण-तंबोलं । राईभोयणभं पाणस्स य संवरं वियडे ॥ ३३ ॥ वियडे अणत्थविसयं तिल्लाईणं पमाणकरणं तु । पाओवएसं च तहा कंदप्पाई अवज्झाणं ॥ ३४ ॥ सामाइयफुसणाई दुप्पणिहाणाइ छिन्नणाईयं । दंडगचालणमविहाणकरणं सवं च आलोए ॥ ३५॥ देसावगासियंमी पुढ विक्कायाइ संवरं न करे। जयणाइ चीरधुवणे वितहायरणे य अइयारो ॥ ३६॥ पोसहकरणे थंडिल्ल वितहकरणं च अविहिसुयणं च । बंभे य भत्तविसए देसे सवे य पत्थणया ॥ ३७॥ अतिहिविभागो य कओ असुद्धभत्तेण साहुवग्गम्मि । सद्दहणं चिय न कयं सद्दहण-परूवणावि तहा ॥ ३८ ॥ साहू साहुणिवग्गो गिलाणओसहनिरुवणं न कयं । तिस्थयराणं भवणे अपमजणमाइ जं च कयं ॥ ३९ ॥ तवसंजमजुत्ताणं किचं उवहणाइ जं न कयं । दोसुब्भावण मच्छर तं पिय सवं समालोए ॥ ४०॥ तह अन्नधम्मियाणं तेसिं देवाण धम्मबुद्धीए । आरंभे य अजयणा धम्मस्स य दूसणा जाओ ॥४१॥ पायच्छित्तस्स ठाणाइं संखाइयाइं गोयमा। अणालोयंतो हु इक्किकं ससल्लं मरणं मरे ॥ ४२॥ आलोयणं अदाउं सइ अन्नमि य तहप्पणो दाउं। जे वि य करिंति सोहिं ते वि ससल्ला मुणेयवा ॥४३॥ चाउम्मासिय वरिसे दायबालोयणा व चउकन्ना। -दारं ३। संवेगभाविएणं सवं विहिणा कहेयवं ॥४४॥ जह बालो जंपतो कजमकजं च उजुयं भणइ । तं तह आलोइज्जा मायामयविप्पमुक्को उ ॥४५॥ छत्तीसगुणसमन्नागएण तेणवि अवस्स कायवा। परसक्खिया विसोही सुट्ठ विवहारकुसलेण ॥ ४६॥ जह सुकुसलो वि विज्जो अन्नस्स कहेइ अत्तणो वाहिं । एवं जाणतस्स वि सल्लुद्धरणं परसगासे ॥ ४७ ॥ आयरियाइ सगच्छे संभोइय-इयरगीय-पासत्थे । पच्छाकडसास्वी-देवयपडिमा-अरिहसिद्धे ॥४८॥ - दारं ४ । अप्पं पि भावसलं अणुद्वियं राय-वणियतणएहिं । जायं कडयविवागं किं पुण बहुयाई पावाई ॥ ४९॥ ४ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रपा। लज्जाइ गारवेण व बहुस्सुयमएण वावि दुचरियं । जे न कहंति गुरूणं न हु ते आराहगा हुति ॥५०॥ न वि तं सत्यं च विसं च दुप्पउत्तो व कुणइ वेयालो । जं कुणइ भावसल्लं अणुद्धियं सव्वदुहमूलं ॥५१॥ आकंपइत्ता अणुमाणइत्ता जं दिहें वायरं च सुहुमं वा । . छण्णं सदाउलयं बहुजणअवत्ततस्सेवी ॥५२॥ एयदोस विमुकं पइसमयं वड्डमाणसंवेगो।। आलोइज्ज अकजं न पुणो काहं ति निच्छइओ ॥५३ ॥ जो भणइ नत्थि इण्हि पच्छित्तं तस्स दायगो वावि । सो कुबइ संसारं जम्हा सुत्ते विणिदिलं ॥ ५४॥ सचं पि य पच्छित्तं नवमे पुर्वमि तइयवत्थुमि । तत्तो चि य निजूढो कप्प-पकप्पो य ववहारो॥५५॥ ते चिय धरंति अज्जवि तेसु धरंतेसु कह तुम भणसि । वुच्छिन्नं पच्छित्तं तदायारो य जा तित्थं ॥५६॥-दारं ५। कयपावो विमणुस्सो आलोइय निंदिय गुरुसगासे। होइ अइरेगलहुओ ओहरियभरो व भारवहो ॥ ५७ ॥ आलोइए गुणा खलु वियाणओ मग्गदसणा चेव । सुहपरिणामो य तहा पुणो अकरणम्मि ववहारो॥५८॥ निवियपावपंका सम्म आलोइउं गुरुसगासे।। पत्ता अणंतजीवा सासयसुक्खं अणाबाहं ॥ ५९॥-दारं । आलोयणमिइ दाउं पडिच्छिउं गुरुविइन्नपच्छित्तं । दाऊण खमासमणं भूनिहियसिरो इमं भणइ ॥ ६॥ छउमत्थो मूढमणो कित्तियमित्तं पि संभरइ जीवो। इम्हि जं न सरामी मिच्छामि दुक्कडं तस्स ॥ ६१ ॥ तत्तो गुरुभणियतवं पच्छित्तविसोहणत्थमणुचरह । उववासंबिलनिविय-एगासणपुरिमकाउस्सग्गेहिं ॥ ६२॥ इगभत्तपुरिमनिवियंबिलेहिं चउ बार ति दुहिं उववासो। सज्झायदुसहसेहि य काउस्सग्गे च उज्जोया ॥ ६३ ॥ आलोयणगहणविही पुवायरियप्पणीयगाहाहिं। . इय एस गिहत्थाणं जिणपहसूरीहिं अक्खाओ॥ ६४ ॥ t"आवर्जितः सन्नाचार्यः स्तोकं प्रायश्चित्तं मे दास्यति-इत्याचार्य वैयावृत्त्यादिनाऽकंप्य आवर्ण्य । अनुमान्य अनुमान कृत्वा लघुतरापराधनिवेदनादिना मृदुदंडप्रदायकत्वादिखरूपमाचार्यस्याकलय्य, एवं यदाचार्यादिनाऽदृष्टमपराधजातं तदालोचयति, नापरम् । बादरमेव वालोचयति न सूक्ष्मम्। तत्रावज्ञापरत्वात् सूक्ष्ममेवालोचयति न बादरम्। यः किल सूक्ष्ममेवालोचयात स कथं बादरं नालोचयेदित्याचार्यस्य प्रत्यायनार्थम् । छन्नं प्रच्छन्नमालोचयति लजालुतादिना, यथा स्वयमेव शृणोति न गुरुः। तथैवाव्यक्तवचनेनालोचयतीत्यर्थः । शब्दाकुलं यथा भवत्येवमगीतार्थादीनपि श्रावयति । बहुजनं एकस्यापराधपदस्य बहुभ्यो निवेदनम् । अव्यक्तमिति अव्यक्तस्यागीतार्थस्य गुरोर्यघोषालोचनम् । तस्सेवि ति यमपराधं शिष्यस्य आलोचयिष्यात तमेवासेवते यो गुरुस्तस्मै यदालोचनम् । | Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठाविधि। ९७ ६९८. जत्थ य गुरुणो दूरदेसे तत्थ ठवणायरियं ठवित्तु इरियं पडिक्कमिय दुवालसावत्तवंदणं दाउं सोहिं संदिसाविय गाहं भणिय, तद्दिणाओ आरम्भ आलोयणातवं कुणइ । पच्छा गुरूणं समागमे आलोयणं गिण्हइ । सावएणं आलोयणातवे पारद्धे फासुयाहारो सच्चित्तवज्जणं बंभं अविभूसा कम्मादाणचाओ विकहोवहास-कलह-भोगाइरेग-परपरीवाय-दिवासुयणवजणं, तिकालं जहन्नओ वि चीवंदणं जिणसाहुपूयणं, रुद्दट्टज्झाणपरिहारो तिविहाहारपञ्चक्खाणं पुरिमड्ढे चउविहाहारपरिच्चाओ निधीए उस्सग्गेणं उक्कोसदधापरी-' भोगो, निसाए चउबिहाहारपञ्चक्खाणं कायचं । तहा पुप्फंवईए कयं चित्तासोयसियसत्तमट्ठमीनवमीकयं च आलोयणातवे पडइ । इक्कासणाइ पंचसु तिहीसु जस्सत्थि सो तवं गुरुयं । कुणइ इह निबियाई पविसह आलोयणाइतवे ॥१॥ जइ तं तिहि भणियतवं अन्नत्थदिणे करिज विहिसजो। अह न कुणइ जो सो गुरुतवो वि जं तिहितवे पडइ ॥२॥ पइदिवसं सज्झाए अभिग्गहो जस्स सयसहस्साई। सो कम्मक्खयहेऊ अहिगो आलोयणाइतवे ॥३॥ सज्झाओ य इरियं पडिक्कमिय कालवेलाचउक्कं चित्तासोयसियसत्तमट्ठमीनवमीओ य वज्जिय, हे मुहणंतयं वत्थंचलं वा दाउं काययो । न उण पुत्थिओवरि । नवकाराणं च मोणगुणियाणं सहस्सेणं दोणि 15 सहस्सा सज्झाओ पविसइ ति सामायारी ॥ ॥ आलोयणविही समत्तो ॥ ३४ ॥ ॥ प्रतिष्ठाविधिः॥ ६९९. मूलगुरुंमि पुरंदरपुराभरणीभूए सो अहिणवसूरी पइट्टापमुहकज्जाई सयं चिय करेइ । अओ संपयं पइट्ठाविही भण्णइ । सो य सक्यभासाबद्धमंतबहुलो त्ति सक्कयभासाए चेव लिहिज्जा । __ प्रतिष्ठास्थाने जघन्यतोऽपि हस्तशतप्रमाणक्षेत्रे शोधिते विचित्रवस्त्रोल्लोचे पूर्वोत्तरदिगभिमुखस्य नव्यबिम्बस्य स्थापना । तदनन्तरं श्रीखंडरसद्रवेण ललाटे ‘आँ ह्रीं' हृदये 'औं हमें' इति बीजानि न्यसनीयानि । गन्धोदकपुष्पादिभिर्भूमिसत्कारः, अमारिघोषणम् , राजप्रच्छनम् , वैज्ञानिकसन्माननम् , संघाह्वानम् , महोत्सवेन पवित्रस्थानाजलानयनम् , वेदिकारचना, दिक्पालस्थापनम् , स्नपनकाराश्च समुद्राः सकंकणाः अक्षताजा दक्षा अक्षतेन्द्रियाः कृतकवचरक्षा अखण्डितोज्ज्वलवेषा उपोषिता धर्मबहुमानिनः कुलजाश्च- 25 त्वारः करणीयाः । तत्रैव मंगलाचारपूर्वकम् , अविधवाभिश्चतुःप्रभृतिभिर्जीवपितृमातृश्वश्रूश्वशुरादिभिः प्रधानोज्वलनेपथ्याभरणाभिर्विशुद्धशीलाभिः सकंकणहस्ताभिर्नारीभिः पञ्चरत्नकषायमृत्तिका-मांगल्यमूलिकाअष्टवर्गसर्वोषध्यादीनां वर्त्तनं कारणीयं क्रमेण । ततो भूतबलिपूर्वकं विधिना पूर्वप्रतिष्ठितप्रतिमानानं क्रियते। ततः सूरिः प्रत्यग्रवस्त्रपरिधानः स्नात्रकारयुक्तः शुचिरुपोषितो भूत्वा पूर्वप्रतिष्ठितप्रतिमाग्रतश्चतुर्विधश्रीश्रमणसंघसहितो अधिकृतजिनस्तुत्या देववन्दनं करोति । ततः श्रीशान्तिनाथ-श्रुतदेवी-शासनदेवी-अम्बिका- 30 अच्छुप्ता-समस्तवैयावृत्त्यकराणां कायोत्सर्गकरणम् । ततः सूरिः कङ्कणमुद्रिकाहस्तः सदशवरूपरिधान आत्मनः सकलीकरणं शुचिविद्यां चारोपयति । तच्चेदम् - 'आँ नमो अरहंताणं हृदये, औं नमो सिद्धाणं शिरसि, औं नमो आयरियाणं शिखायाम् , औं नमो उवज्झायाणं कवचम् , औं नमो सधसाहूणं अस्त्रम् । १ 'ओं नमो अरहंताणं इत्यादिमंत्राभिमंत्रित' - इति टिप्पणी । विधि० १३ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रपा । ९८ इति सकलीकरणं । ततः - 'ॐ नमो अरिहंताणं, ओं नमो सिद्धाणं, ओं नमो आयरियाणं, ओं नमो उवज्झायाणं, ओं नमो सबसाहूणं, ओं नमो आगासगामीणं, ओं हः क्षः नमः ' - इति शुचिविद्या । अनया त्रि-पञ्च- सप्तवारान् आत्मानं परिजपेत् । ततः स्त्रपनकारान् अभिमत्र्य अभिमन्त्रितदिशाबलिप्रक्षेपणं धूमसहितं सोदकं क्रियते । 'औँ ह्रीं क्ष्वीं सर्वोपद्रवं बिम्बस्य रक्ष रक्ष स्वाहा - इत्यनेन बल्यभिमन्त्रणम् । ततः कुसु· मांजलिक्षेपः। नमोऽर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः । I अभिनव सुगन्धिविकसितपुष्पौघभृता सुधूपगन्धाढ्या । -बिम्बोपरि निपतन्ती सुखानि पुष्पाञ्जलिः कुरुताम् ॥ १ ॥ तदनन्तरं आचार्येण मध्याङ्गुलीद्वयोर्वीकरणेन बिम्बस्य तर्जनीमुद्रा रौद्रदृष्ट्या देया । तदनन्तरं वामकरे जलं गृहीत्वा आचार्येण प्रतिमा आच्छोटनीया । ततश्चन्दनतिलकं पुष्पैः पूजनं च प्रतिमायाः । 10 ततो मुद्गरमुद्रादर्शनम्, अक्षतभृतस्थालदानम्, वज्रगरुडादिमुद्राभिर्बिम्बस्य चक्षूरक्षामन्त्रेण 'औँ ह्रीं क्ष्वीं ० ' इत्यादिना कवचं करणीयम्, दिग्बन्धश्ध अनेनैव । ततः श्रावकाः सप्तधान्यं सण-लाज - कुलत्थ-यव- कंगुउडद-सर्षपरूपं प्रतिमोपरि क्षिपन्ति । ततो जिनमुद्रया कलशाभिमन्त्रणम् । जलाद्यभिमन्त्रणमन्त्राश्चैते - औँ नमो यः सर्व शरीरावस्थिते महाभूते आ ३ आप ४ ज ४ जलं गृह्ण गृह्ण स्वाहा । जलाभिमत्रणमन्त्रः । ओं नमो यः शरीरावस्थिते पृथु पृथु गन्धान् गृह्ण गृह्ण खाहा । गन्धाधिवासनमन्त्रः । 15 सर्वौषधिचन्दनसमालभनमन्त्रश्च - ओं नमो यः सर्वतो मे मेदिनि पुष्पवति पुष्पं गृह्ण गृह्ण स्वाहा । पुष्पाभिमन्त्रणमत्रः । ओं नमो यः सर्वतो बलिं दह दह महाभूते तेजाधिपति धुधु धूपं गृह गृह स्वाहा । धूपामिमन्त्रणमन्त्रः । ततः पञ्चरलकषायग्रन्थिर्बिम्बस्य दक्षिणकराङ्गुल्यां बध्यते । ततः सूत्रधारेणैककलशेन प्रतिमायां स्त्रापितायां पञ्चमङ्गलपूर्वकं मुद्रामन्त्राधिवासितैर्जलादिद्रव्यैगतितूर्यपूर्वकं सकुशलस्त्रात्रकारैः स्नात्रकरणमारभ्यते । तद्यथा, सहिरण्यकलशचतुष्टयस्नानम् १ सुपवित्रतीर्थनीरेण संयुतं गन्धपुष्पसन्मिश्रम् । पततु जलं बिम्बोपरि सहिरण्यं मन्त्रपरिपूतम् ॥ २ ॥ सर्वस्नात्रेष्वन्तरा शिरसि पुष्पारोपणं चन्दनटिक्ककं धूपोत्पाटनं च कर्त्तव्यम् । ततः प्रवालमौक्तिकसुवर्णरजतताम्रगर्भ पञ्चरलजलखानम् २ 20 25 30 35 नानारत्नौघयुतं सुगन्धिपुष्पाधिवासितं नीरम् । पतताद् विचित्रवर्ण मन्त्राख्यं स्थापनाबिम्बे ॥ ३ ॥ ततः प्लक्षअश्वत्थउदुम्बरशिरीषवटांतरच्छल्लीकषायस्नानम् ३– लक्षाश्वत्थोदुम्बरशिरीषछल्यादिकल्क सन्मृष्टे । बिम्बे कषायनीरं पततादधिवासितं जैने ॥ ४ ॥ ततो गजवृषभविषाणोद्धृतपर्वतवल्मीकमहाराजद्वारनदीसङ्गमो भयतटपद्मतडागोद्भवमृत्तिकास्तानम् ४ - पर्वत सरोनदीसंगमादिमृद्भिश्च मन्त्रपूताभिः । उद्वृत्त्य जैनबिम्बं स्नपयाम्यधिवासनासमये ॥ ५॥ ततश्छगणमूत्रघृतदधिदुग्धदर्भरूपगवांगदर्भोदकेन पञ्चगव्यस्नानम् ५जिनबिम्बोपरि निपततु घृतदधिदुग्धादिद्रव्यपरिपूतम् । दर्भोदकसन्मित्रं पञ्चगवं हरतु दुरितानि ॥ ६ ॥ सहदेवी -वला- शतमूली - शतावरी - कुमारी - गुहा- सिंही व्याघ्रीसदौषधिस्नानम् ६. 1 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिकानानम् ७ प्रतिष्ठाविधि । सहदेव्यादिसदौषधिवर्गेणोद्वर्त्तितस्य बिम्बस्य । तन्मिश्रं बिम्बोपरि पतज्जलं हरतु दुरितानि ॥ ७ ॥ मयूरशिखा-विरहक-अंकोल्ल-लक्ष्मणा-शंखपुष्पी -शरपुंखा- विष्णुक्रान्ता चक्रांका-सर्पाक्षी-महानीलीमू सुपवित्रमूलिकावर्गमर्दिते तदुदकस्य शुभधारा । बिम्बेsधिवाससमये यच्छतु सौख्यानि निपतन्ती ॥ ८ ॥ कुष्टं प्रियंगु वचा रोधं उशीरं देवदारु दूर्वा मधुयष्टिका ऋद्धिवृद्धिप्रथमाष्टवर्गस्नानम् ८नानाकुष्टाद्यौषधिसन्मृष्टे तदयुतं पतन्नीरम् । बिम्बे कृतसन्मत्रं कर्मोघं हन्तु भव्यानाम् ॥ ९ ॥ मेद-महामेद-कंकोल-क्षीरकंकोल -जीवक - ऋषभक नखी - महानखी-द्वितीयाष्टकवर्गस्नानम् ९मेदाद्यौषधिभेदोऽपरोऽष्टवर्गः सुमन्त्रपरिपूतः । निपतन् बिम्बस्योपरि सिद्धिं विदधातु भव्यजने ॥ १० ॥ ततः सूरिरुत्थाय गरुडमुद्रया मुक्ताशुक्तिमुद्रया वा परमेष्ठिमुद्रया वा प्रतिष्ठाप्य देवताह्वाननं तदतो भूत्वा ऊर्ध्वः सन् करोति । ओं नमोऽर्हत्परमेश्वराय चतुर्मुखपरमेष्ठिने त्रैलोक्यगताय अष्टदिग्विभागकुमारीपरिपूजिताय देवाधिदेवाय दिव्यशरीराय त्रैलोक्यमहिताय आगच्छ आगच्छ स्वाहा - इत्यनेन अपरदिक्पालाश्वाहूयन्ते । ओं इन्द्राय सायुधाय सवाहनाय इह जिनेन्द्रस्थापने आगच्छ आगच्छ स्वाहा । १ । औँ अग्नये सायुधायेत्यादि आगच्छ आगच्छ स्वाहा । २ । ओं यमाय सायुधायेत्यादि । ३। ॐ नैऋत सायुधायेत्यादि । ४ । ओं वरुणाय सायुधायेत्यादि । ५ । औँ वायवे सायुधायेत्यादि । ६ । ओँ कुबेराय सायुधायेत्यादि । ७ । औँ ईशानाय सायुधाय सवाहनायेत्यादि । ८ । ओं नागाय सायुधायेत्यादि । ९ । औँ ब्रह्मणे सायुधायेत्यादि । १० । ततः पुष्पांजलिक्षेपः । -९९ ततो हरिद्रा-वचा-शोफ-बालक-मोथ-ग्रन्थिपर्णक-प्रियंगु-मुरवास - कर्चूरक कुष्ट-एला- तज-तमालपत्र - नागकेसर-लवंग-कंकोल-जातीफल - जातिपत्रिका-नख-चन्दन- सिल्हक - प्रभृतिसर्वौषधिस्नानम् १० - सकलौषधिसंयुक्तया सुगंधया घर्षितं सुगतिहेतोः । पयामि जैनबिम्बं मत्रिततन्नीरनिवहेन ॥ ११ ॥ ततोऽञ्जलिमुद्रया स्वर्णभाजनस्थार्षं मन्त्रपूर्वकं निवेदयेत् । स च - औं भः अर्ध प्रतीच्छन्तु पूजां गृदन्तु जिनेन्द्राः स्वाहा । सिद्धार्थदध्यक्षतघृतदर्भरूपश्वार्घ उच्यते । ततः १ दात्रेण अलन । अत्र दीपदर्शनमित्येके । ततः 'सिद्धा जिनादि ' मन्त्रः सूरिणा दृष्टिदोषघाताय दक्षिणहस्तामर्षेण तत्काले 25 बिम्बे न्यसनीयः । स चायम्- 'इहागच्छन्तु जिनाः सिद्धा भगवन्तः खसमयेनेहानुग्रहाय भव्यानां भः स्वाहा' । 'हुं क्षां ह्रीं क्ष्वीं इवीं औँ भः खाहा' - इत्ययं वा । ततो लोहेनास्पृष्टश्वेतसिद्धार्थरक्षापोट्टलिका करे बन्धनीया तदभिमब्रेण । मन्त्रोऽयम् - 'औँ झां झीं इवीं खाहा' इत्ययम् । ततश्चन्दनटिक्ककम् । ततो जिनपुरतोऽञ्जलिं बद्धा विज्ञप्तिकावचनं कार्यम् । तच्चेदम् – 'खागता जिनाः सिद्धाः प्रसाददाः सन्तु प्रसाद घिया कुर्वन्तु अनुग्रहपरा भवन्तु भव्यानां स्वागतमनुखागतम्' । 10 20 30 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रपा इन्द्रमग्निं यमं चैव नैऋतं वरुणं तथा। वायुं कुबेरमीशानं नागान् ब्रह्माणमेव च ॥१२॥ आँ इन्द्राय आगच्छ आगच्छ अर्घ प्रतीच्छ प्रतीच्छ पूजां गृह गृह खाहा' - एवमेव शेषाणामपि नवानां आह्वानपूर्वकं अर्घनिवेदनं च । ततः कुसुमस्नानम् ११ - अधिवासितं सुमनः सुमनः किंजल्कराजितं तोयम् । तीर्थजलादिसु पृक्तं कलशोन्मुक्तं पततु विम्बे ॥ १३ ॥ ततः सिहक-कुष्ट-सुरमांसि-चंदन-अगरु-कर्पूरादियुक्तगन्धनानिकास्नानम् १२ - गन्धाङ्गलानिकया सन्मृष्टं तदुदकस्य धाराभिः । लपयामि जैन विम्बं कौघोच्छित्तये शिवदम् ॥ १४॥ गन्धा एव शुक्लवर्णा वासा उच्यन्ते, त एव मनाक् कृष्णा गन्धा इति । ततो वासस्नानम् १३ हृयैराल्हादकरैः स्पृहणीयैर्मसंस्कृतैजैनम् ।। लपयामि सुगतिहेतोर्षिम्बं अधिवासितं वासैः ॥ १५ ॥ ततश्च चन्दनस्नानम् १४ - शीतलसरससुगन्धिर्मनोमतश्चन्दनद्रुमसमुत्थः। चन्दनकल्कः सजलो मत्रयुतः पततु जिनबिम्बे ॥ १६ ॥ ततः कुंकुमस्नानम् १५ काश्मीरजसुविलिप्तं बिम्बं तन्नीरधारयाऽभिनवम् । सन्मनयुक्तया शुचि जैनं लपयामि सिद्ध्यर्थम् ॥ १७ ॥ तत आदर्शकदर्शनं शंखदर्शनं च बिम्बस्य । ततस्तीर्थोदकस्नानम् १६ जलधिनदीह्रदकुण्डेषु यानि तीर्थोदकानि शुद्धानि । तैमसंस्कृतैरिह विम्बं लपयामि सिद्ध्यर्थम् ॥ १८ ॥ ततः कर्पूरलानम् १७ - शशिकरतुषारधवला उज्ज्वलगन्धा सुतीर्थजलमिश्रा । कर्पूरोदकधारा सुमन्त्रपूता पततु बिम्बे ॥ १९ ॥ ___25 ततः पुष्पाञ्जलिक्षेपः १८ - नानासुगन्धपुष्पौधरञ्जिता चश्चरीककृतनादा। धूपामोदविमिश्रा पततात् पुष्पाञ्जलिबिम्बे ॥२०॥ ततः शुद्धजलकलश १०८ स्नानम् १९चक्रे देवेन्द्रराजैः सुरगिरिशिखरे योऽभिषेकः पयोभि नृत्यन्तीभिः सुरीभिर्ललितपदगमं तूर्यनादैः सुदीप्तैः । कर्तुं तस्यानुकारं शिवसुखजनकं मन्त्रपूतैः सुकुम्भै जैनं बिम्बं प्रतिष्ठाविधिवचनपरः लापयाम्यत्र काले ॥ १९॥ तत आचार्यमंत्रेणाधिवासनामंत्रेण वाऽभिमंत्रितचन्दनेन सूरिमिकरधृतदक्षिणकरेण प्रतिमा सर्वाङ्गमालेपयति, कुसुमारोपणं धूपोत्पाटनं वासनिक्षेपः सुरभिमुद्रादर्शनम् । पद्ममुद्रा ऊर्ध्वा दर्शाते, अञ्जलिमुद्रा Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठाविधि। दर्शनं च । ततः प्रियंगुकर्पूरगोरोचनाहस्तलेपो हस्ते दीयते । अधिवासनामंत्रेण करे पार्श्वत ऋद्धिवृद्धिसमेत विद्धमदनफलाख्यकंकणबन्धनम् । स चायम् -'ॐ नमो खीरासवलद्धीणं, ॐ नमो महुयासवलद्धीणं, ॐ नमो संभिन्नसोईणं, ॐ नमो पयाणुसारीणं, ॐ नमो कुट्टबुद्धीणं, जमियं विजं पउंजामि सा मे विजा पसिज्जउ, ॐ अवतर अवतर सोमे सोमे कुरु कुरु ॐ वग्गु वग्गु निवग्गु सुमणे सोमणसे महुमहुरे कविल ॐ कक्षः खाहा' - अधिवासनामंत्रः । यद्वा-ॐ नमः शान्तये हूं झू हूं सः' - कंकणमंत्रः। अधिवासना- . मंत्रेणैव-ॐ स्थावरे तिष्ठ तिष्ठ स्वाहा'- इति स्थिरीकरणमंत्रेण वा मुक्ताशुक्त्या बिम्बे पञ्चांगस्पर्शः । मस्तक १ स्कन्ध २ जानु २ वारसप्त सप्त चक्रमुद्रया वा । धूपश्च निरंतरं दातव्यः । परमेष्ठिमुद्रां सूरिः करोति । पुनरपि जिनाह्वानम् । ततो निषद्यायामुपविश्यासनमुद्रया मध्यात्प्रभृति नन्द्यावर्त्तमामकर्पूरेण पूजयेत् । वक्ष्यमाणक्रमेण सदशाव्यंगवस्त्रेण तमाच्छादयेत् । तदुपरि नालिकेरप्रदानम् । तदुपरि संकल्पमात्रेण प्रतिष्ठाप्य बिम्बस्थापनं चलप्रतिष्ठाख्यापनाय । ततः प्रधानफलैनन्द्यावर्तस्य पूजनं चतुर्विंशत्या पत्रैः ।। पूर्णश्च पूजनीयः । ततो विचित्रबलिविधानम् । यथा - जंबीर-बीजपूरक-पनसाम्र-दाडिमेक्षुवृक्ष-इत्यादिफलढौकनम् । ततश्चतुःकोणकेषु वेदिकायाः पूर्व न्यस्तायाश्चतुस्तन्तुवेष्टनम् ,. चतुर्दिशं श्वेतवारकोपरि गोधूमबीहि-यवानां यववारकाः स्थाप्याः । ततो द्राक्षा-खजूर-वर्षोलक-ऊतती-अक्षोटक-वायम्व-इत्यादिढौकनम् । ततो बाटु-खीरि-करंखुउ-कीसरि-कूर-सींर्धवडि-पूयली-सरावु ७ दीयन्ते । काकरिया मुगसत्का ५, यवसक ५ गोहू ५ चिणा ५ तिलसत्क ५ सुहाली खाजा लाडू मांडी मुरकी इत्यादि प्रचूरबलिदौकनम् । पुनः सूत्र- 15 सहितसहिरण्यचंदनचर्चितकलशाश्चत्वारः प्रतिमानिकटे स्थाप्यन्ते । घृतगुडसमेतमंगलप्रदीप ४ खस्तिकपट्टस्य चतसृष्वपि दिक्षु सकपर्दक-सहिरण्य-सजल-सधान्य-चतुर्वारकस्थापनम् । तेषु च सुकुमालिकाकंकणानि करणीयानि, यववाराश्च स्थाप्याः । पूर्णकौसुम्भरक्तवस्त्रसूत्रेण चतुर्गुणं वेष्टनं वारकाणाम् । ततः शक्रस्तवेन चैत्यवन्दनं कृत्वा अधिवासनालमसमये कण्ठे कुसुम्भसूत्रेण पुष्पमालासमेतऋद्धिवृद्धियुतमदनफलारोपणपूर्वकं चन्दनयुक्तेन पुष्पवासधूपप्रत्यप्राधिवासितेन वस्त्रेण सदशेन वदनाच्छादनं माइसाडी चारोप्यते । तदुपरि । चन्दनच्छटा सूरिणा सूरिमंत्रेणाधिवासनं च वारत्रयं कार्यम् । ततो गन्धपुष्पयुक्तसप्तधान्यसपनमञ्जलिमिः । तच्चेदम् - शालि-यव-गोधूम-मुद्ग-वल्ल-चणक-चवला इति । ततः पुष्पारोपणं धूपोत्पाटनम् । ततस्त्रीभिरविधवाभिश्चतसृभिरधिकाभिर्वा प्रोक्षणकम् , यथाशक्ति हिरण्यदानं च । ताभिरेव पुनः प्रचुरलड्डुकादिबलिकरणम् । ततः पुटिका ३६० दीयन्ते । साम्प्रतं क्रयाणकानि ३६० संमील्य एकैव पुटिका शरावे कृत्वा प्रतिमाग्रे दीयते, इति दृश्यते । ततः श्राद्धा आरत्रिकावतारणं मंगलप्रदीपं च कुर्वन्ति । चैत्यवन्दनं कायो- 25 त्सर्गोऽधिवासनादेव्याश्चतुर्विशतिस्तवचिन्तनम् । तस्या एव स्तुतिः विश्वाशेषेषु वस्तुषु मढर्याऽजस्रमधिवसति वसतौ । सेमामवतरतु श्रीजिनतनुमधिवासनादेवी ॥१॥ यद्वा - पातालमन्तरिक्षं भवनं वा या समाश्रिता नित्यम् । साऽत्रावतरतु जैनी प्रतिमामधिवासनादेवी ॥२॥ ततः श्रुतदेवी १ शान्ति २ अम्बा ३ क्षेत्र ४ शासनदेवी ५ समस्तवैयावृत्त्य ६ कायोत्सर्गः। या पाति शासनं जैनं सद्यः प्रत्यूहनाशिनी। साभिप्रेतसमृद्ध्यर्थं भूयाच्छासनदेवता ॥१॥ पुनरपि धारणोपविश्य कार्या सूरिणा-'खागता जिनाः सिद्धा-' इत्यादिनेति। अधिवासनाविधिरयम् । 1 'विलतंतुलमाषाः समराद्धाः। 2 'चूरिमानी पींडी' इति टिप्पणी । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रपा। ६१००. अधिवासना रात्रौ दिवा प्रतिष्ठा प्रायशः कार्या । इतरथापि किश्चित्कालं स्थित्वा विमिन्ने प्रतिष्ठालमे प्रतिष्ठा विधेया । तत्र प्रथमं शान्तिदेवतामंत्रेणाभिमंत्र्य शान्तिबलिः । शान्तिदेवतामंत्रश्चायम् -ॐ नमो भगवते अर्हते शान्तिनाथखामिने सकलातिशेषमहासम्यत्समन्विताय त्रैलोक्यपूजिताय नमो नमः शान्तिदेवाय सर्वामरसमूहखामिसंपूजिताय भुवनजनपालनोद्यताय सर्वदुरितविनाशनाय सर्वाशिवप्रशमनाय सर्वदुष्टप्रहभूत: पिशाचमारिशाकिनीप्रमथनाय नमो भगवति जये विजये अजिते अपराजिते जयन्ति जयावहे सर्वसंघस्य भद्रकल्याणमंगलप्रदे साधूनां श्रीशान्तितुष्टिपुष्टिदे च खस्तिदे च भव्यानां सिद्धिवृद्धिनिर्वृत्तिनिर्वाणजनने सत्त्वानामभयप्रदानरते भक्तानां शुभावहे सम्यग्दृष्टीनां धृतिरतिमतिबुद्धिप्रदानोद्यते जिनशासनरतानां श्रीसम्प कीर्चियशोवर्द्धनि रोगजलज्वलनविषविषधरदुष्टज्वरव्यन्तरराक्षसरिपुमारिचौरइतिश्वापदोपसर्गादिभयेभ्यो रक्ष रक्ष शिवं कुरु कुरु शान्ति कुरु कुरु तुष्टिं कुरु कुरु पुष्टिं कुरु कुरु ॐ नमो नमः हूं हः यः क्षः ही फुट "खाहा' । ततश्चैत्यवन्दनम् । प्रतिष्ठादेवतायाः कायोत्सर्गः, चतुर्विंशतिस्तवचिन्तनम् । ततः स्तुतिदानम् - यदधिष्ठिताः प्रतिष्ठाः सर्वाः सर्वास्पदेषु नन्दन्ति । श्रीजिनबिम्ब सा विशतु देवता सुप्रतिष्ठमिदम् ॥१॥ शासनदेवी-क्षेत्रदेवी--समस्तवैयावृत्त्य० धूपमुत्क्षिप्याच्छादनमपनयेत् लमसमये। ततो घृतभाजनमग्रे कृत्वा सौवीरकं घृतमधुशर्करागजमदकर्पूरकस्तूरिकाभृतरूपवर्तिकायां सुवर्णशलाकया 'अहं अई' इति वा । बीजेन नेत्रोन्मीलनं वर्णन्यासपूर्वकम् । यथा-हां ललाटे, श्री नयनयोः, ही हृदये, % सर्वसन्धिषु, श्लौं प्राकारः । कुम्भकेन न्यासः। शिरस्यभिमंत्रितवासदानम्, दक्षिणकर्णे श्रीखण्डादिचर्चिते आचार्यमंत्रन्यासः। प्रतिष्ठामंत्रेण त्रि ३ पञ्च ५ सप्तवारान् सर्वाङ्गं प्रतिमा स्पृशेत् चक्रमुद्रया । सामान्ययतिं प्रति मंत्रो यथा'वीरे वीरे जयवीरे सेणवीरे महावीरे जये विजये जयन्ते अपराजिए ॐ हीं खाहा' अयं प्रतिष्ठामंत्रः । ततो दधिभाण्डदर्शनम् , आदर्शकदर्शनम्, शंखदर्शनम् , दृष्टेश्चक्षुरक्षणाय सौभाग्याय स्थैर्याय च समुद्रा मंत्रा न्यस० नीयाः । ॐ अवतर अवतर सोमे सोमे कुरु कुरु वग्गु वग्गु' इत्यादिकाः। ततः सौभाग्यमुद्रादर्शनं १, सुरमिमुद्रा २, प्रवचनमुद्रा ३, कृतांजलिः ४, गुरुडा पर्यन्ते । पुनरप्यवमिननं स्त्रीभिः । इह च स्थिरप्रतिमाऽधो घृतवर्तिका श्रीखंडं तंदुलयुतपञ्चधातुकं कुम्भकारचक्रमृत्तिकासहितं पूर्वमेव बिम्बनिवेशसमये न्यसेत् । ततः-ॐ स्थावरे तिष्ठ तिष्ठ खाहा' - इति स्थिरीकरणमंत्रो ऽवमिननोवं न्यसनीयः । चलप्रतिष्ठायां तु नैषः । नवरं चलप्रतिमाऽधः सशिरस्कदर्भो वालिका' च प्रथमत एव वामांगे 'न्यसनीया । तत्र च-ॐ ॐ जये श्रीं ह्रीं सुभद्रे नमः'-इति मंत्रश्च प्रतिष्ठानन्तरं न्यस्यः। ततः पद्ममुद्रया रत्नासनस्थापन कार्यमिदं वदता, यथा- इदं रत्नमयमासनमलंकुर्वन्तु, इहोपविष्टा भन्यानवलोकयन्तु, हृष्टदृष्ट्या जिनाः खाहा । ॐ हये गंधान्यः प्रतीच्छतु खाहा । ॐ हये पुष्पाणि गृह्णन्तु खाहा । ॐ ह्रये धूपं भजंतु स्वाहा । ॐ हये भूतबलिं जुषन्तु स्वाहा । ॐ हृये सकलसत्त्वालोककर अवलोकय भगवन् अवलोकय खाहा- इति पठित्वा पुष्पांजलित्रयं क्षिपेत् । ततो वस्त्रालंकारादिभिः समस्तपूजा, माइसाडी-कंकणिकारोपश्च, पुष्पारोपणं बल्या"दिश्च । मोरिंडा-सुहालीप्रभृतिका दीयते । ततो लवणावतारणम् , आरत्रिकावतारणम् , मंगलप्रदीपः कार्यः । अत्रापि भूतबलिप्रक्षेप इत्येके । भूतबल्यभिमंत्रणमंत्रस्त्वयम् -'ॐ नमो अरिहंताणं, ॐ नमो सिद्धाणं, ॐ नमो आयरियाणं, ॐ नमो उवज्झायाणं, ॐ नमो लोए सबसाहूणं, ॐ नमो आगासगामीणं, ॐ नमो चारणाइलद्धीणं, जे इमे नरकिंनरकिंपुरिसमहोरगगुरुलसिद्धगंधवजक्खरक्खसप्रिमायभूयपेयडाइणिपभियओ 1 वाटली। 2 प्रोक्षणं । 3 वेल। 4 न्यस्यैव बिम्बं निवेश्यम् । 5 'क्वचिदिदं कूटं सानुस्खारं द्विमात्रं (व्य) दृश्यते।' इति B टिप्पणी। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठाविधि। जिणघरनिवासिणो नियनिलयट्ठिया पवियारिणो सन्निहिया असन्निहिया य ते सवे विलेवणध्वपुप्फफलसणाहं बलिं पडिच्छंता तुट्टिकरा भवन्तु पुट्टिकरा भवन्तु सिवकरा संतिकरा भवन्तु, सत्थयणं कुबन्तु, सबजिणाणं सन्निहाणपभावओ पसन्नभावत्तणेण सबत्थ रक्खं कुवंतु, सवत्थ दुरियाणि नासिंतु, सबासिवमुवसमन्तु, संतितुट्टिपुट्ठिसिवसत्थयणकारिणो भवन्तु स्वाहा' । ततः संघसहितः सूरिश्चैत्यवन्दनं करोति । कायोत्सर्गाः श्रुतदेव्यादीनां पर्यन्ते प्रतिष्ठादेव्याश्च । 'यदधिष्ठिताः' प्रतिष्ठास्तुतिश्च दातव्या । शकस्तवपाठः, शान्तिस्तवभ-.. णनम् । ततोऽखंडाक्षताञ्जलिभृतलोकसमेतेन मंगलगाथापाठः कार्यः । नमोऽर्हत्सिद्धेत्यादिपूर्वकम् , यथा जह सिद्धाण पइट्ठा तिलोयचूडामणिम्मि सिद्धिपए। आचंदसूरियं तह होउ इमा सुप्पइट त्ति ॥१॥ जह सग्गस्स पइट्ठा समत्थलोयस्स मज्झियारम्मि । आचंद०॥२॥ जह मेरुस्स पइट्ठा दीवसमुदाण मज्झियारम्मि । आचंद०॥३॥ जह जम्बुस्स पइट्टा जंबुद्दीवस्स मज्झियारम्मि । आचंद०॥४॥ जह लवणस्स पइहा समत्थउदहीण मज्झियारम्मि । आचंद०॥५॥ इति पठित्वा अक्षतान् निक्षिपेत् पुष्पाञ्जलींश्च क्षिपेत् । ततः प्रवचनमुद्रया सूरिणा धर्मदेशना कार्या। ततः संघाय दानं मुखोद्घाटनं दिनत्रयं पूजा अष्टाह्निका पूजा वा । तत्रापि प्रशस्तदिने तृतीये पञ्चमे सप्तमे वा स्नात्रं कृत्वा जिनबलिं विधाय भूतबलिं प्रक्षिप्य चैत्यवन्दनं विधाय कंकणमोचनाद्यर्थ कायोत्सर्गः ॥ नमस्कारस्य चिन्तनं भणनं च । प्रतिष्ठादेवताविसर्जनकायोत्सर्गः । चतुर्विंशतिस्तवचिन्तनं तस्यैव पठनं श्रुतदेवता १, शान्ति० २, उन्मृष्टरिष्टदुष्टग्रहगतिदुःखमदुर्निमित्तादि। संपादितहितसम्पन्नामग्रहणं जयति शान्तेः॥ क्षेत्रदेवतासमस्तवैयावृत्त्यकरकायोत्सर्गाः। ततः सौभाग्यमंत्रन्यासपूर्वकं मदनफलोत्तारणम् । स च-५ 'ॐ अवतर अवतर सोमे'- इत्यादि । ततो नन्द्यावर्तपूजनं विसर्जनं च । 'ॐ विसर विसर खखस्थानं गच्छ गच्छ खाहा' -नन्द्यावर्त्तविसर्जनमंत्रः । ॐ विसर विसर प्रतिष्ठादेवते वाहा' - इति प्रतिष्ठादेवताविसर्जनमंत्रः । ततो घृतदुग्धदध्यादिभिः स्नानं विधाय अष्टोत्तरशतेन वारकाणां स्नानम् । प्रतिष्ठावृत्तौ द्वादशमासिकसपनानि कृत्वा पूर्णे वत्सरेऽष्टाहिकां विशेषपूजां च विधाय आयुर्घन्थि निबन्धयेत् । उत्तरोत्तरपूजा च यथा स्यात्तथा विधेयम् । लिप्पाइमए वि विही विंबे एसेव किंतु सविसेसं । कायचं हवणाई दप्पणसंकंतपडिविवे ॥१॥ 'ॐ क्षि नमः' अंबिकादीनामधिवासनामंत्रः । ॐ हीं नमो वीराय स्वाहा' -तेषामेव प्रतिष्ठामंत्रः । यद्वा 'ॐ ही क्ष्मी स्वाहा' प्रतिष्ठामंत्रः । अंजल्याकारहस्तोपरि हस्त आसनमुद्रा, चप्पुटिका प्रवचनमुद्रा । थुइदाणमंतनासो आहवणं तह जिणाण दिसिबंधो । नेतुम्मीलणदेसण गुरु अहिगारा इहं कप्पो ॥१॥ राया बलेण वड्डइ जसेण धवलेइ सयलदिसिभाए । पुण्णं वड्डइ विउलं सुपइट्ठा जस्स देसम्मि ॥२॥ उवहणइ रोगमारी दुन्भिक्खं हणइ कुणइ सुहभावे । भावेण कीरमाणा सुपइट्ठा सयललोयस्स ॥ ३ ॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 प्रतिष्ठानन्तरमिमां गाथां पठता वासा अक्षताश्व देवशिरसि दीयन्ते । ॐ विद्युत्पुलिने महाविधे 10. सर्वकल्मषं दह दह स्वाहा' - कल्मषदहनमंत्रः । 'ॐ हूं क्षं फुट् किरीटि किरीटि घातय घातय परीविभान् स्फोटय स्फोटय सहस्रखण्डान् कुरु कुरु परमुद्रां छिन्द छिन्द, परमंत्रान् भिन्द भिन्द क्षः फुट् स्वाहा' सिद्धार्थानभिमंत्र्य सर्वदिक्षु प्रक्षिपेत् । विघ्नशान्तिः प्रतिष्ठाकाले । ॐ ह्रां ललाटे, ॐ ह्रीं वामकर्णे, ॐ हुं दक्षिणकर्णे, ॐ हुं शिरः पश्चिमभागे, ॐ हुं मस्तकोपरि ॐ क्ष्मीं नेत्रयोः, ॐ क्ष्मीं मुखे, ॐ क्ष्मीं कण्ठे, ॐ क्ष्मीं हृदये, ॐ क्ष्मः बाहोः, ॐ क्लों उदरे, ॐ ह्रीं कटौ, ॐ हूं जंघयोः, ॐ क्ष्मं पादयोः, ॥ ॐ क्षः हस्तयोरिति कुंकुम श्रीखंडकर्पूरादिना चक्षुः प्रतिस्फोटनिवारणाय प्रतिमायां लिखेत् । अथोक्तप्रतिष्ठाविधिसंग्रहगाथाः संक्षेपार्थं लिख्यन्ते – पुवं पडिमण्हवणं चिइ उस्सग्ग थुइ अप्पण्हवणयारेसु । रक्खा कुसुमाणंजलि तज्जणिपूयं च तिलयं वा ॥ १ ॥ मोग्गरमक्खयथालं वज्जं गुरुडो बली [ ॐ ह्रीं क्ष्वीं] समंतेणं । कवयं दिसिबंधो चिय पक्खिवणं सत्तधन्नस्स ॥ २ ॥ कलसहिमंतणसवोस हिचंदणच चिबिंब मंतेणं । पंचरयणस्स गंठी परमेट्ठीपंचगं ण्हवणं ॥ ३॥ पढमं हिरण्णसह' - पंचरयर्ण-सकसायमहिया हैवणं । दग्भोदयमीसं पंचगवॅण्हवणं च पंचमयं ॥ ४ ॥ सहदेवाईसोसहीण 'वग्गो य मूलियावग्गो । पढagar बीयट्ठवग्ग' हवणं तहा नवमं ॥ ५ ॥ जिगदिसपालाहवणं कुसुमंजलि सबओसहीण्हवणं" । दाहिणकर मरिसेणं जिणमंतो सरिसवोह लिया ॥ ६ ॥ तिलयंजलिमुद्दाए विन्नत्ती हेमभायणत्थग्घो । पुण दिसपालाहवणं परमेट्ठी- गरुडमुद्दाए ॥ ७ ॥ कुसुमजेल गंधहीणिय वासेहिं" चंदणेण" घुसिणेण " । पनर सण्हाणे करसु दप्पणदंसणं पुरओ ॥ ८ ॥ तित्थोदरण पहाणं" कप्पूरेण च पुष्फअंजलिया । अट्ठारसमं पहाणं सुद्धघडट्टुत्तरसर्पणं ॥ ९ ॥ 25 १०४ 20 विधिप्रपा । tories जे करिंति तह कारविंति भत्तीए । अणुमन्नइ पइदियहं सबे सुहभायणं हुंति ॥ ४ ॥ ai तमेव मन्नइ जिणबिंबपणाइकजेसु । जं लग्गह तं सहलं दुग्गइजणणं हवइ सेसं ॥ ५ ॥ एवं नाऊण सया जिणवरबिंबस्स कुणह सुपइटुं । पावेह जेण जरमरणवज्जियं सासयं ठाणं ॥ ६ ॥ - इत्येते प्रतिष्ठागुणाः । कमलवने पाताले क्षीरोदे संस्थिता यदि खर्गे । भगवति कुरु सांनिध्यं बिम्बे श्रीश्रमणसंघे च ॥ १ ॥ - Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठाविधि-गव्यावर्तलेखनविधि । सबविशेषणसूरी पुष्फाई धूपवासमयणफल । सुरही पडमा पउमा अंजसिमुदाओ हस्थमेवो य॥१०॥ अहिवासपामतेणं कंकण तेपोव चकमुहाए । पंचंगफास पुण जिणाहवणं नंवपूया य ॥११॥ सत्त सरावा चंदणचचियकलसा सततुपो चउरो। घयगुलदीवा चउरो चउकलसा नंदवत्तस्स ॥ १२ ॥ सकत्थयअहिवासणसमए छाएहि माइसाडीए। सूरिमंताहिवासण-ण्हवणंजलि सत्तधनस्स ॥१३॥ पुंखणयकणयदाणं बलिलयमाइ पुडिय आरतियं । चिइअहिवासण देवयथुइधारण सागयाईहिं ॥ १४ ॥ ॥ अधिवासनाधिकारः समाप्तः ॥ अथ प्रतिष्ठाधिकारःसंतिवलि चिहपइहा उस्सग्गो थी य भायणं निते। वन्नसिरि वास कन्ने मंतो सधंगफास चक्केणं ॥ १५ ॥ दहिभंड मंत मुद्दा पुंखण पुप्पंजलीउ मंतेणं। भूयबलि लवणरत्तिय चिह अक्खय धम्मकह महिमा ॥१६॥ तइय पण सत्तमदिणे जिणबलि भूयबलि वंदिर देवे। कंकणमायणहे पइट उस्सग्ग मंत नसे ॥ १७ ॥ का पूयविसग्गो नंदावत्तस्स कंकणच्छोडे। पंचपरमेहिपुवं मंगलगाहाओं पढमाणो ॥१८॥ ६१०१. अथ नन्द्यावर्तस्थापना लिख्यते-कर्पूरसन्मिश्रेण प्रधानश्रीखण्डेन लोहेनास्पृष्टैकखण्डश्री. पादिपट्टके सप्तलेपाः क्रमेण दीयन्ते उपर्यधश्च । कर्पूर-कस्तूरिका-गोरोचना-कुंकुम केसररसेन जातिलेखिन्या प्रथमं नन्द्यावर्तो लिख्यते प्रदक्षिणया नवकोणः । ततस्तन्मध्ये प्रतिष्ठाघ्यजिनप्रतिमा, तत्पाघे एकत्र शक्रः, अन्यत्रेशानः, अधः श्रुतदेवता । ततो नन्द्यावर्त्तस्योपरिवलके गृहाष्टकरचिते 'नमोऽर्हद्भ्यः, नमः सिद्धेभ्यः, नम आचार्येभ्यः, नम उपाध्यायेभ्यः, नमः सर्वसाधुभ्यः, नमो ज्ञानाय, नमो दर्शनाय, नमश्चारित्राय' । ततः पूर्वादिषु चतुर्दारेषु तुंबरप्रतीहारः; तथा सोमः, यमः, वरुणः, कुबेरः; तथा धनुः-दण्ड-पाश-गदाचिहानि । इति प्रथमवलकः । तस्योपरि द्वितीयवलके पूर्वादिप्रतोल्यन्तरेषु आमेयादिषु गृहपटक-पटकविरचितेषु क्रमेण प्रतिगृहं मरुदेव्यादिजिनमातरो लिख्यन्ते - मरुदेवि १, विजया २, सेना ३, सिद्धत्था ४, मंगला ५, सुसीमा ६, पुहवी ७, लक्खणा ८, रामा ९, नंदा १०, विण्हू ११, जया १२, सामा १३, सुजसा १४, सुखया १५, अइरा १६, सिरी १७, देवी १८, पभावई १९, पउमा २०, वप्पा २१, सिवा २२, वम्मा २३, ४ तिसला २४ ।- इति द्वितीयः । तृतीयवलके पूर्वाद्यन्तरालेषु गृहचतुष्टय-चतुष्टयविरचितेषु षोडशविद्यादेव्यो लिख्यन्ते - रोहिणी १, पन्नत्ती २, वजसिंखला ३, वजंकुंसी ४, अपडिचक्का ५, पुरिसदचा ६, काली ७, महाकाली 4, गोरी ९, गांधारी १९, सवत्थमहाजाला ११, माणवी १२, वइरोट्टा १३, विधि०१४ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रपा । १०६ अच्छुत्ता १४, माणसी १५, महामाणसी १६ । - इति तृतीयवलकः । तत उपरि चतुर्थवलके पूर्वाद्यन्तरालेषु गृहषट्क-षट्कविरचितेषु सारस्वतादयो लिख्यन्ते - सारखत १, आदित्य, २, वह्नि ३, अरुण ४, गर्दतोय ५, तुषित, ६, अव्याबाध ७, अरिष्ट ८, अभ्याभ ९, सूर्याभ १०, चन्द्राभ ११, सत्याभ १२, श्रेयस्कर १३, क्षेमंकर १४, वृषभ १५, कामचार १६, निर्माण १७, दिशान्तरक्षित १८, आत्मरक्षित १९, सर्वरक्षित २०, • मरुत् २१, बसु २२, अश्व २३, विश्व २४ - इति चतुर्थवलकः । तदुपरि पंचमबलके पूर्वाद्यन्तरालेषु गृहद्वय-द्वयविरचितेऽमी लिख्यन्ते - ॐ सौधर्मादीन्द्रादिभ्यः स्वाहा १, तद्देवीभ्यः स्वाहा २ ॐ चमरादीन्द्रादिभ्यः खाहा ३, तद्देवीभ्यः स्वाहा ४, ॐ चन्द्रादीन्द्रादिभ्यः स्वाहा ५, तद्देवीभ्यः स्वाहा ६, ॐ किन्नरादीन्द्रादिभ्यः स्वाहा ७, तद्देवीभ्यः स्वाहा ८ - इति पंचमवलकः । तदुपरि षष्ठवलके पूर्वाद्यन्तरालेषु. गृहद्वय-द्वयविरचिते दिक्पाला लिख्यन्ते - ॐ इन्द्राय स्वाहा १, ॐ अग्नये स्वाहा २, ॐ यमाय " खाहा ३, ॐ नैर्ऋतये स्वाहा ४, ॐ वरुणाय स्वाहा ५, ॐ वायवे स्वाहा ६, ॐ कुबेराय स्वाहा ७, ॐ ईशानाय स्वाहा ८ । अधः- ॐ नागेभ्यः स्वाहा ९ । उपरि - ॐ ब्रह्मणे स्वाहा १० । " इति नन्द्यावर्त्तलेखनविधिः । १०२. प्रतिष्ठादिनात् पूर्वमेवेत्थं लिखित्वा प्रधानवस्त्रेण वेष्टयित्वा एकान्ते नन्द्यावर्त्तपट्टो धारणीयः । ततो देवाधिवासनानन्तरं पूर्व वा कर्पूरवासप्रधानश्वेतकुसुमैराचार्येण नामोच्चारणमन्त्रपूर्वकं नन्द्यावर्त्तः पूजनीयः 1s क्रमेण । तद्यथा, प्रथमबलके - ॐ नमोऽर्हद्भ्यः स्वाहा, ॐ नमः सिद्धेभ्यः स्वाहा, ॐ नम आचार्येभ्यः स्वाहा, ॐ नम उपाध्यायेभ्यः स्वाहा, ॐ नमः सर्वसाधुभ्यः स्वाहा, ॐ नमो ज्ञानाय खाहा, ॐ नमो दर्शनाय स्वाहा, ॐ नमश्चारित्राय स्वाहा ॥ ततो द्वितीयवलके - ॐ मरुदेव्यै स्वाहा १, ॐ विजयादेव्यै स्वाहा २, ॐ सेनादेव्यै खाहा ३, ॐ सिद्धार्थादेव्यै स्वाहा ४, ॐ मंगलादेव्यै स्वाहा ५, ॐ सुसीमादेव्यै खाहा ६, ॐ पृथ्वीदेव्यै स्वाहा ७, ॐ लक्ष्मणादेव्यै स्वाहा ८ ॐ रामादेव्यै स्वाहा ९, ॐ नन्दादेव्यै 20 स्वाहा १०, ॐ विष्णुदेव्यै खाहा ११, ॐ जयादेव्यै स्वाहा १२, ॐ श्यामादेव्यै खाहा १३, ॐ सुयशादेव्यै स्वाहा १४, ॐ सुव्रतादेव्यै स्वाहा १५, ॐ अचिरादेव्यै स्वाहा १६, ॐ श्रीदेव्यै स्वाहा १७, ॐ देवीदेव्यै स्वाहा १८, ॐ प्रभावतीदेव्यै खाहा १९, ॐ पद्मादेव्यै स्वाहा २०, ॐ वप्रादेव्यै स्वाहा २१, ॐ शिवादेव्यै स्वाहा २२, ॐ वामादेव्यै खाहा २३, ॐ त्रिशलादेव्यै स्वाहा २४ ॥ तृतीयवलकेॐ रोहिणीदेव्यै खाहा १, ॐ प्रज्ञप्तीदेव्यै खाहा २, ॐ वज्रशृंखलादेव्यै खाहा ३, ॐ बज्रांकुशीदेव्यै स्वाहा 25 ४, ॐ अप्रतिचक्रादेव्यै स्वाहा ५, ॐ पुरुषदत्तादेव्यै स्वाहा ६, ॐ कालीदेव्यै स्वाहा ७, ॐ महाकालीदेव्यै स्वाहा ८, ॐ गौरीदेव्यै स्वाहा ९, ॐ गांधारीदेव्यै स्वाहा १०, ॐ महाज्वालादेव्यै स्वाहा ११, ॐ मानवीदेव्यै स्वाहा १२, ॐ वैरोट्या देव्यै स्वाहा १३, ॐ अच्छुप्तादेव्यै खाहा १४, ॐ मानसीदेव्यै स्वाहा १५, ॐ महामानसीदेव्यै खाहा १६ । मतांतरे तु - ॐ रोहिणीए स्वात्म्यं स्वाहा १ । ॐ पन्नत्तीए रां क्षां २ । ॐ वज्जसिंखलाए लां ई ३ । ॐ वज्जंकुसाए क्ष्मां वां ४ । ॐ अप्पडिचक्काए हूं ५ । ॐ पुरिसॐ दत्ताए क्ष्मां ६ । ॐ कालीए सां हैं ७ । ॐ महाकालीए ॐ क्षीं ८ । ॐ गोरीए यूं हूं ९ । ॐ गंधारीए रां क्ष्मां १० । ॐ सवत्थ महाजालाए लं भां ११ । ॐ माणवीए यूं क्ष्मां १२ । ॐ अच्छुत्ताए यूं मां १३ । ॐ वइरुट्टाए सूं मां १४ । ॐ माणसीए सूं मां १५ । ॐ महामाणसीए हूं सूं १६ । सर्वे खाहान्ता वाच्याः ॥ चतुर्थवलके – ॐ सारखतेभ्यः खाहा १ । ॐ आदित्येभ्यः स्वाहा २ । ॐ वह्निभ्यः स्वाहा ३ । ॐ वरुणेभ्यः स्वाहा ४ । ॐ गर्दतोयेभ्यः स्वाहा ५ । ॐ तुषितेभ्यः स्वाहा ६ । ॐ अव्याबाधेभ्यः खाहा 35 ७ । ॐ रिष्टेभ्यः खाहा ८ । ॐ अम्याभेभ्यः स्वाहा ९ । ॐ सूर्याभेभ्यः खाहा १० । ॐ चन्द्रामेभ्यः खाहा ११ । ॐ सत्या भेभ्यः स्वाहा १२ । ॐ श्रेयस्करेभ्यः स्वाहा १३ । ॐ क्षेमंकरेभ्यः स्वाहा १४ । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठाविधि-जलानयन - कलशारोपणादिविधि । १०७ ॐ वृषभेभ्यः स्वाहा १५ । ॐ कामचारेभ्यः स्वाहा १६ । ॐ निर्माणेभ्यः स्वाहा १७ । ॐ दिशान्तरक्षितेभ्यः खाहा १८ । ॐ आत्मरक्षितेभ्यः स्वाहा १९ । ॐ सर्वरक्षितेभ्यः स्वाहा २० । ॐ मरुद्भयः खाहा २१ । ॐ वसुभ्यः खाहा २२ । ॐ अश्वेभ्यः स्वाहा २३ । ॐ विश्वेभ्यः स्वाहा २४ ॥ पञ्चमवलकेॐ सौधर्मादीन्द्रादिभ्यः स्वाहा १ । तद्देवीभ्यः स्वाहा २ । ॐ चमरादीन्द्रादीभ्यः खाहा ३ । तद्देवीभ्यः खाहा ४ । ॐ चन्द्रादीन्द्रादिभ्यः स्वाहा ५ । तद्देवीभ्यः स्वाहा ६ । ॐ किन्नरादीन्द्रादिभ्यः खाहा ७ । ३ तद्देवीभ्यः खाहा ८॥ षष्ठवलके-ॐ इन्द्राय खाहा १ । ॐ अग्नये स्वाहा २। ॐ यमाय स्वाहा ३ । ॐ नैर्ऋतये वाहा ४ । ॐ वरुणाय स्वाहा ५ । ॐ वायवे वाहा ६ । ॐ कुबेराय स्वाहा ७ । ॐ ईशानाय स्वाहा ८ इति ॥ एके वाहुः- ॐ नागाय खाहा १ । ॐ ब्रह्मणे खाहा २ । इति नागब्रह्माणौ पुनरप्यमीशानदलयोः पूजयेत् । पुनः प्रथमवलके ग्रहपूजा - ॐ आदित्याय खाहा १ । ॐ सोमाय स्वाहा २। ॐ भूमिपुत्राय खाहा ३ । ॐ बुधाय खाहा ४ । ॐ बृहस्पतये खाहा ५ । ॐ शुक्राय खाहा ६ । ॐ ॥ शनैश्चराय स्वाहा ७ । ॐ राहवे खाहा ८ । ॐ केतवे खाहा ९। इति नन्द्यावर्त्तलिखितोच्चारणेन पूजा कार्या । ततः सदशाव्यंगवस्त्रेणेत्यादिक्रमः प्रागुक्त एव । नन्द्यावर्त च बहुषु प्रतिष्ठाचार्येषु मुख्य एव प्रतिष्ठाचार्यः पूजयति । ६१०३. अथ जलानयनविधिः- महामहोत्सवेन जलाशयतीरमुपगम्य पूर्वप्रतिष्ठितप्रतिमानानं विधाय दिक्पालेभ्यो बलिं प्रदाय दिक्षु प्रक्षेपबलिः प्रक्षिप्यते । ततश्चैत्यवन्दनं श्रुत-शान्ति-देवतासमस्तवैया- 15 वृत्त्यकरकायोत्सर्गाः स्तुतयश्च । ततो वरुणदेवताकायोत्सर्गः स्तुतिश्च । मकरासनमासीनः शिवाशयेभ्यो ददाति पाशशयः । आशामाशापालः किरतु च दुरितानि वरुणो नः ॥१॥ ततो जलाशये पूजार्थं पुप्पफलादिक्षेपः । ततो वस्त्रपूतेन जलेन कुम्भाः पूर्यन्ते । पुनर्महोत्सवेन देवगृहे आगमनम् । जलानयनविधिः । अपरे त्वित्थमाहुः-धूपवेलापूर्व पार्श्वे बलिं विकीर्य सदशवस्त्रकंकणमुद्रिका परिधाय देवस्याग्रे धृत्वा रिक्तकलशांश्चतुरोऽधिवासयेत् । तान् शिरस्यधिरोप्याविधवाः कलशधरस्त्रियः साधःप्रतिमं छत्रं सातोद्यनादं गृहीतवति स्त्रात्रकारे जलाशयं गच्छन्ति । तत्र च पार्श्वे बलिं क्षिप्त्वा फलेन धूपादिना च जलाशयं पूजयित्वा तज्जलमानीय तेनापूर्य कलशान् छत्राधोधृतप्रतिमाग्रतो न्यसेत् । ततः प्रतिमा परिधाप्य देवान् वन्देत, श्रुतदेव्यादिकायोत्सर्गान् कुर्यात् , स्फीत्या चैत्यमागच्छेदिति । ६१०४. अथातः कलशारोपणविधिः-तत्र भूमिशुद्धिः गन्धोदकपुष्पादिसत्कारः, आदित एव कलशाधःपञ्चरत्नकं सुवर्ण-रूप्य-मुक्ता-प्रवाल-लोहकुम्भकारमृत्तिकारहितं न्यसनीयम् । पवित्रस्थानाज्जलानयनं प्रतिमास्नात्रं शान्तिबलिः सोदकासौषधिवर्तनं स्त्रीभिः ४ मात्रकाराभिमन्त्रणं सकलीकरणं शुचिविद्यारोपणं चैत्यवन्दनं शान्तिनाथादिकायोत्सर्गः । श्रुत १ शान्ति २ शासन ३ क्षेत्र ४ समस्तवै० ५। कलशे कुसुमांजलिक्षेपः । तदनन्तरमाचार्येण मध्यांगुलीद्वयोकिरणेन तर्जनीमुद्रा रौद्रदृष्ट्या देया । तदनु वामकरे जलं गृहीत्वा ॥ कलश आच्छोटनीयः । तिलकं पूजनं च । मुद्गरमुद्रादर्शनम् । औं ही क्ष्वी सर्वोपद्रवं रक्ष रक्ष स्वाहा । चक्षरक्षा कलशस्य सप्तधान्यकप्रक्षेपः हिरण्यकलशचतुष्टयनानं सौंषधिस्नानं मूलिकास्नानं गं० वा. चं० कुं० कर्पूरकुसुमजलकलशस्त्रानं पंचरत्नसिद्धार्थकसमेतग्रन्थिबन्धः । वामधृतदक्षिणकरेण चन्दनेन सर्वाङ्गमालिप्य पुष्पसमेतमदनफलऋद्धिवृद्धियुतारोपणम् । कलशपंचाङ्गस्पर्शः, धूपदानं, कंकणबंधः, स्त्रीमिः प्रोखणं, सुर Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ विधिप्रपा । भ्याविमुद्रादर्शनं, सूरिमन्त्रेण वारत्रयमधिवासनम् । औं स्थावरे तिष्ठ तिष्ठ वाहा-- वस्त्रेणाच्छादन; जंबीरादिफलोहलिषलेनिक्षेपः। तदुपरि सप्तधान्यकस्य च आरत्रिकावतारणं चैत्यवन्दनम् । अधिवासनादेव्याः कायोत्सर्गः । चतुर्विंशतिस्तवचिन्ता । तस्याः स्तुतिः पातालमन्तरिक्ष भुवनं वा या समाश्रिता नित्यम । साऽत्रावतरतु जैने कलशे अधिवासनादेवी ॥- इति पाठः । ___ शां० १ अं० २ समस्तवैः । तदनु शान्तिबलिं क्षिप्त्वा शक्रस्तवेन चैत्यवन्दनं शान्तिभणनं प्रतिष्ठादेवताकायोत्सर्गः । चतुर्विशः । यदधिष्ठिता० प्रतिष्ठास्तुतिदानं । अक्षतांजलिभृतलोकसमेतेन मंगलगाथापाठः कार्यः । नमोऽर्हत्सिद्धा० ।। जह सिद्धाण पइटा०॥जह सग्गस्स पइवा०॥ जह मेरुस्स पइट्ठा०॥ जह ॥ लवणस्स पइट्ठा समस्थ उदहीण मज्झयारम्मि०॥ जह जंबुस्स पइहा, जंबुदीवस्स मज्झयारम्मि ॥ आचंद०॥ पुष्पांजलिक्षेपः । धर्मदेशना ।-कलशप्रतिष्ठाविधिः। ६१०५. अर्थ ध्वजारोपणविधिरुच्यते- भूमिशुद्धिः, गम्धोदकपुष्पादिसत्कारः । अमारिघोषणम् । संघाहाननम् । दिक्पालस्थापनम् । वेदिकाविरचनम् । नन्द्यावर्तलेखनम् । ततः सूरि कंकणमुद्रिकाहस्तः सदश1s वस्त्रपरिधानः सकलीकरणं शुचिविद्यां चारोपयति । सपनकारानभिमन्त्रयेत् । अभिमन्त्रितदिशाबलिप्रक्षेपणं धूपसहितं सोदकं क्रियते । औं ही क्ष्वी सर्वोपद्रवं रक्ष रक्ष स्वाहा - इति बल्यभिमन्त्रणम् । दिक्पालाहाननम् – औं इन्द्राय सायुधाय सवाहनाय सपरिजनाय ध्वजारोपणे आगच्छ आगच्छ स्वाहा । एवं- आँ अमये-औं यमाय-औं नैऋतये-औं वरुणाय-औं वायवे-औं कुबेराय-ऑ ईशानाय-ऑ नागाय-आँ ब्रह्मणे आगच्छ आगच्छ स्वाहा । शांतिबलिपूर्वकं विधिना मूलपतिमास्नानम् । तदनु चैत्यवन्दनं संघसहितेने 20 गुरुणा कार्यम् । वंशे कुसुमांजलिझेपः, तिलक पूजनं च । हिरण्यकलशादिस्नानानि पूर्ववत् । कनक' पंचरत्नं कषाय' मृत्तिका मूलिका अष्टवर्ग सौंषधि गन्ध वास चन्दन कुंकुम" तीर्थोदक कर्पूर सत इक्षु रस"घृत-दुग्ध-वधि-मनिम्" । वंशस्य चर्चनम् । पुष्पारोपणम् । लमसमये सदशवस्त्रेणाच्छादनम् । मुद्राम्यासः । चतुःस्त्रीप्रोखणकम् । ध्वजाधिवासनं वासधूपादिप्रदानतः। ॐ श्रीं कण्ठः' - ध्वजावंशस्यामिमन्त्रणम् । इत्यधिवासना । जवारक-फलोहलि-बलिढौकनम् । आरत्रिकावतारणम् । अधिकृतजिनस्तुत्या चैत्यवन्दनम् । शान्ति21 नाथकायोत्सर्गः । श्रुतदे० १ शान्तिदे० २ शासनदे० ३ अंबिकादे० ४ क्षेत्रदे० ५ अधिवासना ६ कायोत्सर्गः । चतुर्विंशतिस्तवचिन्तम तस्या एव स्तुतिः- 'पातालमन्तरिक्षं भवने वा०' । १ । समस्तवैयावृत्त्यकरकायोत्सर्गः । स्तुतिदानम् । उपविश्य शक्रस्तवपाठः । शान्तिस्सवादिमणनम् । बलिसप्तधाम्यफलोहलिवासपुष्पधूपाधिवासनम् । ध्वजस्य चैत्यपाधैंण प्रदक्षिणाकरणम् । शिखरे पुष्पांजलिः । कलशस्नानम् । ध्वजागृहे मर्कटिकारूप पंचरननिक्षेपः । इष्टांशे ध्वजानिक्षेपः । ॐ श्री ठः' - अनेम सूरिमन्त्रेण ३४ वासक्षेपः । इति प्रतिष्ठा । फलोहलि-सप्तधान्यबलि-मोरिंडकमोदकादिवस्तूनां प्रभूतानां प्रक्षेपणम् । महाध्वजस्य ऋजुगत्या प्रतिमाया दक्षिण करे बन्धनम् । प्रवचनमुद्रया सूरिणा धर्मदेशना कार्या । संघदानम् । अष्टाहिकापूजा विषमदिने ३,५,७, जिनबलिं प्रक्षिप्य चैत्यवन्दनं विधाय शान्तिनाथादिकायोत्सर्गान् कृत्वों महाध्वजस्य छोटनम् । संघादिपूजाकरणे यथाशक्त्या । - इति ध्वजारोपणविधिः समाप्तः । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठाविधि – प्रतिष्ठोपकरणसंग्रह | - जिणमुंह- कलस- परमेट्ठि-अंग-अंजलि - तहास- चक्काँ । सुरभी-पवर्यण गरुंडा-सोहग्गै कयंजेली चेव ॥ १ ॥ जिणमुद्दा चउकलसठावणं तह करेइ थिरकरणं । अहिवासमंतनसणं आसणमुद्दाइ अन्ने उ ॥ २॥ कलसाए कलसन्हवणं परमेट्ठीए उ आहवणमंतं । अंगाइ समालभणं अंजलिणा पुप्फरुहणाई || ३॥ आसणयाए पट्टस्स पूयणं अंगफुसण चक्काए । सुरभीइ अमयमुत्ती पवयणमुद्दाइ पडिवूहो ॥ ४ ॥ गरुडाइ बुट्ठरक्खा सोहग्गाए य मंतसोहग्गं । तह अंजलीह देसण मुद्दाहिं कुणह कज्जाई ॥ ५ ॥ * $ १०६. अथ प्रतिष्ठोपकरणसंग्रह : - स्त्रपनकार ४। मूलशतवर्त्तनकारिका ४ अधिका वा । तासां गुडयुतसुहाली ४ । दानं पर्वणिदानं च । दिशाबलिः । अक्षतपात्रम् । सण १ लाज २ कुलत्थ ३ यव ४ कंगु ५ माष ६ सर्षप ७ इति सप्तधान्यम् । गंध १, धूप पुष्प वास सुवर्ण रूप्य रावट प्रवाल मौक्तिक पंच रत्न ८, हिरण्य चूर्णादिस्नानं १८, कौसुंभ कंकण २०, श्वेतसर्षप रखोटली ८, सिद्धार्थ दधि अक्षत घृत दर्भरूपोऽर्घः । आदर्श शंखं ऋद्धिवृद्धिसमेत मदनफल ८, कंकण ३, वेदि ४ मंडपकोणचतुष्टये एकैका । 15 जवारा १०, माटीवारा १०, माटीकलश १३२, रूपावाटुली १, सुवर्णशलाका १, नन्द्यावर्त्तपडु १, आच्छादनपाट ६, वेदीयोग्य ४, नन्द्यावर्त्तयोग्य १, प्रतिमायोग्य १, भाइसाडी २, अधिवासना प्रतिष्ठा - समययोग्य काकरिया द्वितीयनाम मोरिंडा २५, कथं मुद्द्र ५ यव ५ गोधूम ५ चिणा ५ तिल ५, मोदकसरावु १, वाटसरावु १, खीरिसरावु १, करंबासराव १, कीसरिसराव १, कूरसरावु १, चूँरिमापूयडी सरावु १, एवं ७; नालिकेर फोफल ऊतती खर्जूर द्राक्षा वरसोलां फलोहलि दाडिम जंबीरी नारंग बीजपूरक 20 आम्र इक्षु रक्तसूत्र तर्क कांकणी ५, अवमिननाय पउखणहारी ४ । तासां कांचुलीदेया । मंडासरावु १, सात धन सण बीज कुलत्थ मसूर वल्ल चणा त्रीहिं चवला । मंगलदीप ४ | गुडधनसमेतक्रियाणा ३६०। पुडी १। प्रियंगु-कर्पूर - गोरोचनाहस्तलेपः । घृतभाजनम् । सौवीराञ्जनघृतमधुशर्करा रूपनेत्रीञ्जनम् - इत्यादि । अव्यङ्गामञ्जलिं दत्त्वा कारयेदधिवासनम् । द्वितीयां भक्तितो दत्त्वा प्रतिष्ठां च विधापयेत् ॥ १ ॥ गुरुपरिधापनापूर्वमन्यसाधुजनाय सः । दद्यात् प्रवरवस्त्राणि पूजयेच्छ्रावकांस्ततः ॥ २ ॥ * १६९ 10 ६१०७. अथ कूर्मप्रतिष्ठाविधिः - कूर्मस्थापनाप्रदेशे पूर्वप्रतिष्ठितप्रतिमास्त्रात्रं पूजनं च । आरात्रिकं मंगलप्रदीपं च कृत्वा चैत्यवंदनं शान्तिस्तवमणनं च कार्यम् । ततो यत्र कूर्मस्थितिर्भविष्यति तत्र कूर्मगृहमाने 10 चतुरस्रे क्षेत्रे चतुर्षु कोणेषु चत्वारि इष्टकासंपुटानि अथवा पाषाणसंपुटानि कार्याणि । गर्भे पञ्चमं कार्यम्, यत्र बिम्बं स्थाप्यते । नंदा भद्रा जया विजया पूर्णा इति पंचानामपि नामानि भवन्ति । ततोऽधस्तनगर्त्ताः सुगर्त्ताः कृत्वा पंचरत्नानि सप्तधान्यसहितचारकमध्ये निक्षेप्तव्यानि । मध्यपुढे सुवर्णमयः १ कूम्र्मोऽधो 25 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० विधिप्रपा। मुखः स्थापनीयः प्रधानत्रिरेखकपर्दकसहितः । प्रधानपरिधापनिका चोपरि कर्त्तव्या । बल्यादिसमस्तं विधेयम् । संपुटकेषु मुद्रितकलशैः स्नानं कार्यम् - शृंगारैरित्यर्थः । लमसमये च वासक्षेपं कृत्वा संपुटानि निवेश्यन्ते । अथवा लमसमये छडिका उत्सार्यते दर्भसत्का या अधः क्षिप्ताऽऽसीत् । मंत्रश्चायम् - 'ॐ हां श्रीं कूर्म तिष्ठ तिष्ठ रथशाला देवगृहं वा धारय धारय खाहा' । ततो मुद्रान्यासः सर्वत्र कार्यः । पश्चा5 चैत्यवंदनं कृत्वा मंगलस्तुतिं भणित्वाऽक्षतांजलिनिक्षेपः कार्यः संघसमेतैः । मंगलस्तुतयश्च प्रतिष्ठाकल्पे 'जह सिद्धाण पइट्ठा' इत्यादिकाः पठित्वा, कूर्मोपरि अक्षता निक्षेप्याः । पुष्पाञ्जलिं श्रावकाः क्षिपन्ति । इति कूर्मप्रतिष्ठाविधिः समाप्तः। अथ शास्त्रोदितस्थाने पीठं शास्त्रोक्तलक्षणम् । संस्थाप्य निश्चलं तत्र समीपं प्रतिमां नयेत् ॥१॥ सौवर्ण राजतं तानं शैलं वा चतुरस्रकम् । रम्यं पत्रं विनिर्माप्य सदलं ममृणं तथा ॥२॥ एवं विलिख्य संस्लाप्य पत्रं क्षीरेण चाम्बुना। सुगन्धिद्रव्यमिश्रेण चन्दनेनानुलेपयेत् ॥३॥ सत्पुष्पाक्षतनैवेद्यधूपदीपफलैर्जपेत्। सुगन्धप्रसवैस्तत्र जाप्यमष्टोत्तरं शतम् ॥४॥ संस्थाप्य मातृकावर्ण मालामन्त्रेण तत्त्वतः। ॐ अर्ह अ आ इ ई इत्यादि शषसहान् यावत्-आँ ह्रीं क्षीकों स्वाहा । पत्रमध्ये च यत्पनं पीठे गन्धेन तल्लिखेत् । करिकुङ्कुमं गन्धं पारदं रत्नपञ्चकम् ॥५॥ क्षिप्त्वा च पत्रमारोप्य प्रतिमा स्थापयेत्ततः।। पृथ्वीतत्त्वं च धातव्यमित्याम्नाय इति ध्रुवम् ॥ ६॥ स्थिरप्रतिमाऽधो यंत्रम् - औं हीं आं श्रीपार्श्वनाथाय स्वाहा । जातीपुष्प १०००० जापः उपोषितेन कार्यः । इदं यंत्रं ताम्रपात्रे उत्कीर्य देवगृहे मूलनायकबिम्बस्याधो निधापयेत् । बिम्बस्य सकली करणं, शान्ति पुष्टिं च करोति । यस्याधस्तनविभागे मूलनायकस्य क्षिप्यते तस्य नाम मध्ये दीयते । मूल- नायकस्य यक्ष-यक्षिण्यौ चालिख्यते । अत्र तु श्री पार्श्वनाथ-तद्यक्षयक्षिणीनां नामन्यासो निदर्शनमात्रमिति ॥ भूतानां बलिदानमग्रिमजिनस्नानं तदने स्वयं चैत्यानामथ वन्दनं स्तुतिगणः स्तोत्रं करे मुद्रिका । खस्य लात्कृतां च शुद्धसकली सम्यक् शुचिप्रक्रिया धूपाम्भासहितोऽभिमत्रितबलिः पश्चाच पुष्पाञ्जलिः॥१॥ मुद्रा मध्यागुलीभ्यामतिकुपितदृशा वामहस्ताम्भसोचै बिम्बस्याच्छोटनं सत्सतिलककुसुमं मुद्गरश्चाक्षपात्रम् । मुद्राभिर्वज्रताादिभिरथ कवचं जैनबिम्बस्य सम्यम् दिग्बन्धः सप्तधान्यं जिनवपुरुपरि क्षिप्यते तत्क्षणं च ॥२॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठाविधि – प्रतिष्ठासंग्रहकाव्य - गाथादि । कुम्भानामभिमन्त्रणं जिनपतेः सन्मुद्रया मन्त्रयते नीरं गन्धमहौषधी मलयजं पुष्पाणि धूपस्ततः । अङ्गुल्यामथ पञ्चरत्नरचना स्नानं ततः काञ्चनं पुष्पारोपणधूपदानमसकृत् स्नात्रेषु तेष्वन्तरा ॥ 11 रत्नस्नानकषायमज्जनविधिर्मृत्पञ्चगव्ये ततः सिद्धौषध्यथ मूलिका तदनु च स्पष्टाष्टवर्गद्वयम् । मुक्ताशुक्तिसुमुद्रया गुरुरथोत्थाय प्रतिष्ठोचितं मन्त्रैदैवतमाह्वायेद् दशदिशामीशांश्च पुष्पाञ्जलिः ॥ ४ ॥ सर्वोषध्यथ सूरिहस्तकलनाद् दृग्दोषरक्षोन्मृजा रक्षापुहलिका ततश्च तिलकं विज्ञप्तिकाथाञ्जलिः । अर्धोऽर्हत्यथ दिग्धवेषु कुसुमस्नानं ततः स्लापनिका वासश्चन्दनकुङ्कुमे मुकुरहरू तीर्थाम्बु कर्पूरवत् ॥ ५ ॥ निक्षेप्यः कुसुमाञ्जलिर्जलघटनानं शतं साष्टकं मनावासितचन्दनेन वपुषो जैनस्य चालेपनम् । वामस्पृष्टकरेण वाससुमनो धूपः सुरभ्यम्बुजाञ्जल्यस्मात्करलेपकङ्कणमधो पञ्चाङ्गसंस्पर्शनम् ॥ ६ ॥ धूपश्च परमेष्ठी च जिनाह्वानं पुनस्ततः । उपविश्य निषद्यायां नन्द्यावर्त्तस्य पूजनम् ॥ ७ ॥ ॥ श्रीचन्द्रसूरिकृतप्रतिष्ठासंग्रहकाव्यानि ॥ घोषाविज्ज अमारिं रण्णो संघस्स तह य वाहरणं । विष्णाणियसंमाणं कुज्जा खित्तस्स सुद्धिं च ॥ १ ॥ तह य दिसिपालठवणं तक्किरियंगाण संनिहाणं च । दुविहसुई पोसहिओ वेईए ठविज्ज जिणबिंबं ॥ २ ॥ नवरं सुमुहुत्तंमी पुत्तरदिसि मुहं सउणपुवं । वजंतेसु चउहि मंगलतूरेसु पउरेसु ॥ ३ ॥ तो सवसंघसहिओ ठेवणायरियं ठवित्तु पडिमपुरो । देवे बंद सूरी परिहिय निरुबाहिसुइवत्थो ॥ ४ ॥ संतिसुयदेवयाणं करेइ उस्सग्गं थुइपयाणं च । सहिरण्णदा हिणकरो सयलीकरणं तओ कुजा ॥ ५ ॥ तो सुद्धोभयपक्खा दक्खा खेयन्नुया विहियरक्खा । वहणगराओ खिवंती दिसासु सासु सिद्धबलिं ॥ ६ ॥ तयणंतरं च मुद्दिय कलसचउक्केण ते न्हवंति जिणं । पंचरयणोदगेणं कसायसलिलेण तत्तो य ॥ ७ ॥ १११ 10 15 29 25 20 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ विधिमा महियजलेण तो अहवागसबोसहीजलेणं ।। गंधजलेणं तह पचरवाससलिलेण च हवंति ॥6॥ चंदणजलेण कुंकुम-जलकुंभेहिं च तित्थसलिलेणं । सुद्धकलसेहिं पच्छा गुरुणा अभिमंतिएहिं तहा ॥१॥ पहाणाणं सवाण वि जलधारापुप्फधूवगंधाई। दायवमंतराले जावंतिमकलसपत्थावो ॥१०॥ एवं पहविए बिंबे नाणकलानासमाचरिज गुरू । तो सरससुयंघेणं लिंपिज्जा चंदणदवेणं ॥११॥ कुसुमाइसुगंधाइं आरोवित्ता ठविज बियपुरो। नंदावत्तयवर्ट पूइज्जइ चारुदत्वेहिं ॥१२॥ चंदणच्छडुब्भडेणं वत्थेणं छायए तओ पढें । अह पडिसरमारोवे जिणबिंबे रिद्विविद्धिजुयं ॥ १३ ॥ तो सरससुयंधाई फलाई पुरओ ठविज बिंबस्स । जंबीरबीजपूराइयाइं तो दिज गंधाई ॥१४॥ मुद्दामंतन्नासं बिंबे हत्थंमि कंकणनिवेसं । मंतेण धारणविहिं करिन बिम्बस्स तो पुरओ ॥१५॥ बहुविहपकनाणं ठवणा वरवेहिगंधपुडियाणं । वरवंजणाण य तहा जाइफलाणं च सविसेसं ॥१६॥ सागिक्खूवरसोलयखंडाईणं वरोसहीणं च। संपुन्नबलीइ तहा ठवणं पुरओ जिणिदस्स ॥१७॥ घयगुडदीवो सुकुमारियाजुओ चउ जवारय दिसीसु। बिंबपुरओ ठविजा भूयाण बलिं तओ दिजा ॥१८॥ आरत्तियमंगलदीवयं च उत्तारिऊण जिणनाहं । वंदिजऽहिवासणदेवयाइ उस्सग्गथुइदाणं ॥ १९ ॥ अह जिणपंचंगेसु ठावेइ गुरू थिरीकरणमंतं । वाराउ तिन्नि पंच य सत्त य अचंतमपमत्तो ॥ २०॥ मयणहलं आरोवइ अहिवासणमंतनासमवि कुणइ । झायइ य तयं बिंब सजियं व जहा फुडं होइ ॥ २१ ॥ एवमहिवासियं तं बिंब ठाइज सदसवत्थेणं । चंदणछडभडेणं तदुवरि पुप्फाई विखिविजा ॥ २२ ॥ पहाविज सत्तधन्नेण तयणु जीवंतउभयपक्खाहिं। नारीहिं चउहिं समलंकियाहिं विजंतनाहाहि ॥ २३ ॥ पडिपुण्णवत्तसुत्तेणं वेढणं चउगुणं च काऊण । ओमिणणं कारिजा तुडेहिं हिरण्णदाणज्यं ॥ २४ ॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठाविधि । तो वंदना देवे पट्ठदेवी कायउस्सग्गं । दिज थुई तीए चिय ठविज पुरओं उ घयपत्तं ॥ २५ ॥ सोवण्णवहियाए कुज्जा महसक्कराहिं भरियाए । कणगसलागाए बिंबनयणउम्मीलणं लग्गे ॥ २३ ॥ सम्मं पट्ठमंतेण अंगसंघीणु अक्खरन्नासं । कुणमाणो एगमणो सूरी वासे खिविज्ज तहा ॥ २७ ॥ पुष्फक्खयंजलीहिं तो गुरुणा घोसणा ससंघेणं । furत्थं कreat मंगलसद्देहिं बिंबस्स ॥ २८ ॥ जह सिद्ध-मेरु-कुलपव्वयाण पंचत्थिकाय- कालाणं । इह सासया पइट्ठा सुपरट्ठा होउ तह एसा ॥ २९ ॥ जह दीव - सिंधु - ससहर- दिणयर-सुरवास - वासखित्ताणं । इह सासया पट्ठा सुपइट्ठा होउ तह एसा ॥ ३० ॥ इत्थं सुहभावक अक्खयखेवे कयंमि बिंबस्स । सविसेसं पुण पूया किच्चा चिइवंदणा य तहा ॥ ३१ ॥ मुहउघाडणसमणंतरं च पूयाह समणसंघस्स । फासुघय - गुड-गोरस-णंतगमाईहिं कायवा ॥ ३२ ॥ सोहादि य सोहग्गमंतविन्नासपुत्रयमवस्सं । मयणहलकंकणं करयलाओं बिंबस्स अवणिज्जा ॥ ३३ ॥ जिबिस य विसए नियनियठाणेसु सङ्घमुद्दाओ । गुरुणा उवउत्तेणं पउंजियधाओं ताओं इमा ॥ ३४ ॥ जिणमुद्दकलस० जिणमुद्दाए० कलसाए० आसणयाए० गरुडाए० विधि० १५ .... **** **** .... **** 0000 .... .... **** .... .... ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ गाहा ॥ ३५ ॥ गाहा ॥ ३६ ॥ गाहा ॥ ३७ ॥ गाहा ॥ ३८ ॥ गाहा ॥ ३९ ॥ घोसिए अमारी दीणाणाहाण दिज्जए दाणं । पणीकिज्जइ वंसो धयजुग्गो सरलसुसिणिद्धो ॥ ४० ॥ sarovar yesो कीडएहिं अक्खद्धो । अहो वण्णो अणुसुक्को पमाणजुओ ॥ ४१ ॥ काऊण मूलपरिमाण्हाणं चाउद्दिसं च भूसुद्धिं । दिसिदेवय आहदणं वंसस्स विलेवणं तह य ॥ ४२ ॥ अहिवासियकुसुमारोवणं च अहिवासणं च वंसस्स । मयणफलरिद्धिविद्धी सिद्धत्धारोवणं चैव ॥ ४३ ॥ ॥ इति प्रतिष्ठाविधिः ॥ ११३ 16 18 20 15 20 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ विधिप्रा। धूवक्खेवं मुद्दानासं चउसुंदरीहिं ओमिणणं । अहिवासणं च सम्मं महद्धयस्सिदुधवलस्स ॥४४॥ चाउद्दिसिं जवारय फलोहलीढोयणं च वंसपुरो। आरत्तियावयारणमह विहिणा देववंदणयं ॥ ४५ ॥ बलिसत्तधन्नफलवासकुसुमसकसायवत्थुनिवहेणं । अहिवासणं च तत्तो सिहरे तिपयाहिणीकरणं ॥ ४६॥ कुसुमंजलिपाडणपुरस्सरं च ण्हवणं च मूलकलसस्स । खेत्तदसद्धामलरयणधयहरा इट्ठसमयंमि ॥४७॥ सुपइट्ठपइट्ठाणंतखित्तवासस्स तयणु वंसस्स । ठवणं खिवणं च तओ फलोहलीभूरिभक्खाणं ॥४८॥ तत्तो उज्जगईए धयस्स परिमोयणं सजयसदं । पडिमाइ दाहिणकरे महद्धयस्सावि बंधणयं ॥४९॥ विसमदिणे उस्सयणं जहसत्तीए य संघदाणं च । इय सुत्तत्थविहीए कुणह धयारोवणं धन्ना ॥५०॥ ॥ इति ध्वजारोपणविधिः कथारत्नकोशात् ॥ ॥ इति प्रसङ्गानुप्रसङ्गसहितः प्रतिष्ठाविधिः समाप्तः ॥३५॥ ६१०८. अथ स्थापनाचार्यप्रतिष्ठा चोक्खंसुयकरचलणो आरोवियसयलिकरणसुइविजो। गरुडाइदलियविग्यो मलयजघुसिणेहिं लिंपित्ता॥१॥ अक्खं फलिहमणिं वा सुहकट्ठमयं च ठावणायरियं । काऊणं पंचपरमिटिटिक्कए चंदणरसेण ॥२॥ मंतेण गणहराणं अहवा वि हु वद्धमाणविजाए। काऊण सत्तखुत्तो वासक्खेवं पइडिज्जा ॥३॥ ॥ठवणायरियपइट्ठाविही समत्तो ॥ ३६ ॥ ५६१०९. अथ मुद्राविधिः- तत्र दक्षिणांगुष्ठेन तर्जनीमध्यमे समाक्रम्य पुनर्मध्यमामोक्षणेन नाराचमुद्रा १. किंचिदाकुंचितांगुलीकस्य वामहस्तस्योपरि शिथिलमुष्टिदक्षिणकरस्थापनेन कुम्भमुद्रा २.- शुचिमुद्राद्वयम् । बद्धमुट्योः करयोः संलमसंमुखांगुष्ठयोर्हृदयमुद्रा १. तावेव मुष्टी समीकृतौ ऊर्ध्वागुष्ठौ शिरसि विन्यसेदिति शिरोमुद्रा २. पूर्ववन्मुष्टी बद्ध्वा तर्जन्यौ प्रसारयेदिति शिखामुद्रा ३. पुनर्मुष्टिबन्धं विधाय कनीयस्यंगुष्ठौ प्रसारयेदिति कवचमुद्रा ४. कनिष्ठिकामंगुष्ठेन संपीड्य शेषांगुलीः प्रसारयेदिति क्षुरमुद्रा १ - नेत्रत्रयस्य " न्यासोऽयम् । दक्षिणकरेण मुष्टिं बद्धा तर्जनीमध्यमे प्रसारयेदिति अस्त्रमुद्रा । हृदयादीनां विन्यसनमुद्रा । 1 A पयक्खिणीकरणं । 2 B उस्सुयणं । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुद्राविधि । प्रसारिताधोमुखाभ्यां हस्ताभ्यां पादांगुलीतलामस्त कस्पर्शान्महामुद्रा १. अन्योऽन्यग्रथितांगुलीषु कनिष्ठिकानामिकयोर्मध्यमातर्जन्योश्च संयोजनेन गोस्तनाकारा धेनुमुद्रा २. दक्षिणहस्तस्य तर्जनीं वामहस्तस्य मध्यमया संदधीत, मध्यमां च तर्ज्जन्याऽनामिकां कनिष्ठिकया कनिष्ठिकां चानामिकया, एतच्चाधोमुखं कुर्यात् । एषा धेनुमुद्रेत्यन्ये विशिषन्ति । हस्ताभ्यामञ्जलिं कृत्वा प्राकामामूलपर्वागुष्ठसंयोजनेनावाहनी ३. इयमेवाधोमुखा स्थापनी ४. संलममुक्षुच्छ्रितांगुष्ठौ करौ संनिधानी ५. तावेव गर्भगांगुष्ठौ निष्ठुरा ६. उभयकनि - ष्ठिकामूलसंयुक्तांगुष्ठाग्रद्वयमुत्तानितं संहितं पाणियुगमावाहनमुद्रा ७ तदेव तर्जनीमूलसंयुक्तांगुष्ठद्वयावाङ्मुखं स्थापनमुद्रा ८. मुष्टिप्रसृतया तर्जन्या देवतामभितः परिभ्रमणं निरोधमुद्रा ९. शिरोदेशमारभ्याप्रपदं पार्श्वभ्यां तर्जन्योर्भ्रमणमवगुंठनमुद्रेत्येके । एता आवाहनादिमुद्राः ९ । बद्धमुष्टेर्दक्षिणहस्तस्य मध्यमातर्जन्योर्विस्फारितप्रसारणेन गोवृषमुद्रा १ | बद्धमुष्टेर्दक्षिणहस्तस्य प्रसा - रिततर्जन्या वामहस्ततलताडनेन त्रासनीमुद्रा १| नेत्रास्त्रयोः पूजामुद्रे । अंगुष्ठे तर्जनीं संयोज्य शेषांगुलि - प्रसारणेन पाशमुद्रा १. बद्धमुष्टेर्वामहस्तस्य तर्जनीं प्रसार्य किंचिदाकुंचयेदित्यकुशमुद्रा २. संहतोर्ध्वगुलि - वामहस्तमूले चांगुष्ठं तिर्यग् विधाय तर्जनीचालनेन ध्वजमुद्रा ३. दक्षिणहस्तमुत्तानं विधायाधःकरशाखाः प्रसारयेदिति वरदमुद्रा ४। एता जयादिदेवतानां पूजामुद्राः । ११५ वामहस्तेन मुष्टिं बद्धा कनिष्ठिकां प्रसार्य शेषांगुलीरंगुष्ठेन पीडयेदिति शंखमुद्रा १. परस्पराभिसुखहस्ताभ्यां वेणीबन्धं विधाय मध्यमे प्रसार्य संयोज्य च शेषांगुलीभिर्मुष्टिं बन्धयेत् - इति शक्तिमुद्रा २. Is हस्तद्वयेनांगुष्ठतर्जनीभ्यां वलके विधाय परस्परान्तः प्रवेशनेन शृंखलामुद्रा ३. वामहस्तस्योपरि दक्षिणकरं कृत्वा कनिष्ठिकांगुष्ठाभ्यां मणिबन्धं संवेष्ट्य शेषांगुलीनां विस्फारितप्रसारणेन वज्रमुद्रा ४. वामहस्ततले दक्षिणहस्तमूलं संनिवेश्य करशाखाविरलीकृत्य प्रसारयेदिति चक्रमुद्रा ५. पद्माकारौ करौ कृत्वा मध्येऽङ्गुष्ठौ कर्णिकाकारौ विन्यसेदिति पद्ममुद्रा ६. वामहस्तमुष्टेरुपरि दक्षिणमुष्टिं कृत्वा गोत्रेण सह किंचिदुन्नामयेदिति गदामुद्रा ७. अधोमुखवामहस्तांगुलीर्घण्टाकाराः प्रसार्य दक्षिणकरेण मुष्टिं बद्धा तर्जनीमूर्ध्वा कृत्वा 20 वामहस्ततले नियोज्य घण्टावच्चालनेन घण्टा मुद्रा ८ उन्नतपृष्ठहस्ताभ्यां संपुढं कृत्वा कनिष्ठिके निष्कास्य योजयेदिति कमण्डलुमुद्रा ९. पताकावत् हस्तं प्रसार्य अंगुष्ठसंयोजनेन परशुमुद्रा १०. यद्वा पताकाकारं दक्षिणकरं संहतांगुलिं कृत्वा तर्जन्यंगुष्ठाक्रमणेन परशुमुद्रा द्वितीया ११. ऊर्ध्वदंडौ करौ कृत्वा पद्मवत् करशाखाः प्रसारयेदिति वृक्षमुद्रा १२. दक्षिणहस्तं संहतांगुलिमुन्नमय्य सर्पफणावत् किंचिदाकुंचयेदिति सर्पमुद्रा १३. दक्षिणकरेण मुष्टिं बद्धा तर्जनीमध्यमे प्रसारयेदिति खङ्गमुद्रा १४. हस्ताभ्यां संपुटं विधायां - 25 गुलीः पद्मवद्विकास्य मध्यमे परस्परं संयोज्य तन्मूललग्नांगुष्ठौ कारयेदिति ज्वलनमुद्रा १५. बद्धमुष्टेर्दक्षिणकरस्य मध्यमांगुष्ठतर्जन्यौ मूलात् क्रमेण प्रसारयेदिति श्रीमणिमुद्रा १६ । एताः षोडशविद्या देवीनां मुद्राः । दक्षिणहस्तेन मुष्टिं बद्धा तर्जनीं प्रसारयेदिति दण्डमुद्रा १. परस्परोन्मुखौ मणिबन्धाभिमुखकरशाखौ करौ कृत्वा ततो दक्षिणांगुष्ठकनिष्ठाभ्यां वाममध्यमानामिके तर्जनीं च तथा वामांगुष्ठकनिष्ठाभ्यामितरस्य मध्यमानामिके तर्जनीं समाक्रामयेदिति पाशमुद्रा २. परस्पराभिमुखमूर्द्धांगुलीकौ करौ कृत्वा 30 तर्जनीमध्यमानामिका विरलीकृत्य परस्परं संयोज्य कनिष्ठांगुष्ठौ पातयेदिति शूलमुद्रा ३.. यद्वा पताकाकारं करं कृत्वा कनिष्ठिकामंगुष्ठेनाक्रम्य शेषांगुलीः प्रसारयेदिति शूलमुद्रा द्वितीया । एताः पूर्वोक्ताभिः सह दिक्पालानां मुद्राः । ग्राह्यस्योपरि हस्तं प्रसार्य कनिष्ठिकादि - तर्जन्यन्तानामङ्गुलीनां क्रमसंकोचनेनाङ्गुष्ठमूलानयनात् संहार - मुद्रा । विसर्जनमुद्रेयम् । उत्तानहस्तद्वयेन वेणीबन्धं विधायांगुष्ठाभ्यां कनिष्ठिके तर्जनीभ्यां च मध्यमे Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ विधिप्रपा। संगृणानामिके समीकुर्यात् - इति परमेष्ठिमुद्रा १. यद्वा वामकरांगुलीखवीकृत्य मध्यमां मध्ये कुर्यादिति द्वितीया २. पराङ्मुखहस्ताभ्यां वेणीबन्धं विधायाभिमुखीकृत्य तर्जन्यौ संश्लेष्य शेषांगुलिमध्येङ्गुष्ठद्वयं विन्यसेदिति पार्श्वमुद्रा । एता देवदर्शनमुद्राः। इदानी प्रतिष्ठाधुपयोगिमुद्राः- उत्तानौ किंचिदाकुंचितकरशाखौ पाणी विधारयेदिति अंजलि। मुद्रा १. अभयाकारौ समश्रेणिस्थितांगुलीको करौ विधायाङ्गुष्ठयोः परस्परप्रथनेन कपाटमुद्रा २. चतुरंगलमग्रतः पादयोरन्तरं किंचिन्न्यूनं च पृष्ठतः कृत्वा समपादः कायोत्सर्गेण जिनमुद्रा ३. परस्पराभिमुखौ प्रथितांगुलीको करौ कृत्वा तर्जनीभ्यामनामिके गृहीत्वा मध्यमे प्रसार्य तन्मध्येऽङ्गुष्ठद्वयं निक्षिपेदिति सौभाग्यमुद्रा ४. अत्रैवांगुष्ठद्वयस्याधः कनिष्ठिकां तदाक्रान्ततृतीयपर्विकां न्यसेदिति सबीजसौभाग्यमुद्रा ५. वामहस्तांगुलितर्जन्या कनिष्ठिकामाक्रम्य तर्जन्यग्रं मध्यमया कनिष्ठिकाग्रं पुनरनामिकया आकुंच्य मध्येऽ॥ ङ्गुष्ठं निक्षिपेदिति योनिमुद्रा ६. प्रथितानामंगुलीनां तर्जनीभ्यामनामिके संगृह्य मध्यपर्वस्थांगुष्ठयोर्मध्यमयोः सन्धानकरणं योनिमुद्रेत्यन्ये । आत्मनोऽभिमुखदक्षिणहस्तकनिष्ठिकया वामकनिष्ठिकां संगृह्याधःपरावर्तितहस्ताभ्यां गरुडमुद्रा ७. संलगौ दक्षिणांगुष्ठाक्रान्तवामांगुष्ठौ पाणी नमस्कृतिमुद्रा ८. किंचिद्गर्मिती हस्तौ समौ विधाय ललाटदेशयोजनेन मुक्ताशुक्तिमुद्रा ९. जानुहस्तोत्तमांगादिसंप्रणिपातेन प्रणिपातमुद्रा १०. संमुखहस्ताभ्यां वेणीबन्धं विधाय मध्यमांगुष्ठकनिष्ठिकानां परस्परयोजनेन त्रिशिखामुद्रा' ११. पराङ्मुखहस्ता1s भ्यामंगुली विदर्थ्य मुष्टिं बवा तर्जन्यौ समीकृत्य प्रसारयेदिति भंगारमुद्रा' १२. वामहस्तमणिबन्धोपरि पराङ्मुखं दक्षिणकरं कृत्वा करशाखा विदर्य किंचिद्वामचलनेनाधोमुखांगुष्ठाभ्यां मुष्टिं बवा समुत्क्षिपेदिति योगिनीमुद्रा १३. ऊर्ध्वशाखं वामपाणिं कृत्वाऽङ्गुष्ठेन कनिष्ठिकामाक्रमयेदिति क्षेत्रपालमुद्रा १४. दक्षिणकरेण मुष्टिं बद्धा कनिष्ठिकांगुष्ठौ प्रसार्य डमरुकवच्चालयेदिति डमरुकमुद्रा १५. दक्षिणहस्तेनो/गुलिना पताकाकरणादभयमुद्रा १६. तेनैवाधोमुखेन वरदमुद्रा १७. वामहस्तस्य मध्यमांगुष्ठयोजनेन अक्षसूत्रमुद्रा ॥ १८. पद्ममुदैव प्रसारितांगुष्ठसंलममध्यमांगुल्यमा बिंबमुद्रा १९। एताः सामान्यमुद्राः। दक्षिणांगुष्ठेन तर्जनीं संयोज्य शेषाङ्गुलीप्रसारणेन प्रवचनमुद्रा २०. हस्ताभ्यां संपुटं कृत्वा अंगुलीः पत्रवद्विकास्य मध्यमे परस्परं संयोज्य तन्मूललमावंगुष्ठौ कारयेदिति मंगलमुद्रा २१. अंजल्याकारहस्तस्योपरिहस्त आसनमुद्रा २२. वामकरधृतदक्षिणकरसमालभने अंगमुद्रा २३. अन्योऽन्यान्तरिताङ्गुलिकोशाकारहस्ताभ्यां कुक्ष्युपरि कूपरस्थाभ्यां योगमुद्रा २४. उभयोः करयोरनामिकामध्यमे परस्परानभिमुखे 21 ऊर्वीकृत्य मीलयेच्छेषांगुलीः पातयेदिति पर्वतमुद्रा २५. करस्य परावर्तनं विस्मयमुद्रा २६. अंगुष्ठरुखेतरांगुल्यप्रायास्तर्जन्या ऊर्ध्वीकारो नादमुद्रा २७. अनामिकयांगुष्ठाग्रस्पर्शनं बिन्दुमुद्रा २८ । ॥ इति मुद्राविधिः ॥ ३७॥ ६११०. वाराही १ वामनी २ गरुडी ३ इन्द्राणी ४ आमेयी ५ याम्या ६ नैर्ऋती ७ वारुणी ८ वायव्या ९ सौम्या १० ईशानी ११ ब्राह्मी १२ वैष्णवी १३ माहेश्वरी १४ विनायकी १५ शिवा १६ शिव" दूती १७ चामुंडा १८ जया १९ विजया २० अजिता २१ अपराजिता २२ हरसिद्धि २३ कालिका २४ चंडा २५ सुचंडा २६ कनकनंदा २७ सुनंदा २८ उमा २९ घंटा ३० सुघंटा ३१ मांसप्रिया ३२ आशापुरा ३३ लोहिता ३४ अंबा ३५ अस्थिभक्षी ३६ नारायणी ३७ नारसिंही ३८ कौमारी ३९ वामरता ४० अंगा ४१ वंगा ४२ दीर्घदंष्ट्रा ४३ महादंष्ट्रा ४४ प्रभा ४५ सुप्रभा ४६ लंबा ४७ 1 A त्रिशिखिमुद्रा। 2 B भंगमुद्रा । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थयात्राविधि। लंबोष्ठी १८ भद्रा ४९ सुभद्रा ५० काली ५१ रौद्री ५२ रौद्रमुखी ५३ कराली ५४ विकराली ५५ साक्षी ५६ विकटाक्षी ५७ तारा ५८ सुतारा ५९ रजनीकरा ६० रंजनी ६१ श्वेता ६२ भद्रकाली ६३ क्षमाकरी ६४। चतुःषष्टि समाख्याता योगिन्यः कामरूपिकाः । पूजिताः प्रतिपूज्यन्ते भवेयुर्वरदाः सदा ॥ अमुं श्लोकं पठित्वा योगिनीभिरधिष्ठिते क्षेत्रे पट्टकादिषु नामानि टिक्ककानि वा विन्यस्य नामोच्चारणपूर्व गन्धाथैः पूजयित्वा नन्दिप्रतिष्ठादिकार्याण्याचार्यः कुर्यात् । ॥ चउसद्धिजोगिणीउवसमप्पयारो ॥ ३८॥ ६१११. सो य अहिणवसूरी तित्थजत्ताए सुविहियविहारेण कयाइ गच्छइ; अववायओ संघेणावि समं वच्चइ । सो य संघो संघवइप्पहाणो त्ति तस्स किच्चं भण्णइ । तत्थ जाइकम्माइअदूसिओ उचियष्णू राय- ॥ सम्मओ नाओवज्जियदविणो जणमाणणिज्जो पुज्जपूयापरो जम्म-जीविय-वित्ताणं फलं गिहिउकामो सोहणतिहीए गुरुपायमूले गंतूण अप्पणो जत्तामणोरहं विनवेज्जा । गुरुणा वि तस्स उववूहणं काउं तित्थ. जताए गुणा दंसेयवा । ते य इमे - अन्नोन्नसाहु-सावयसामायारीइ दसणं होइ। सम्मत्तं सुविसुद्धं हवइ हु तीए य दिहाए ॥१॥ तित्थयराण भयवओ पवयण-पावयणि-अइसइड्डीणं । अभिगमण-नमण-दरिसण-कित्तण-संपूयणं थुणणं ॥२॥ सम्मत्तं सुविसुद्धं तु तित्थजत्ताइ होइ भवाणं । ता विहिणा कायवा भवेहिं भवविरत्तेहिं ॥ ३ ॥ तित्थं च तित्थयरजम्मभूमिमाइ । जओ भणियं आयारनिज्जुत्तीए - जम्माभिसेय-निक्खमण-चरण-नाणुप्पया य निवाणे । तियलोय-भवण-वंतर-नंदीसर-भोमनगरेसु ॥४॥ अहावय-उजिंते गयग्गपयए य धम्मचक्के य । पासरहावत्तनगं चमरुप्पायं च वंदामि ॥५॥ एवं गुरुणा वडिउच्छाहो पत्थाणदिणनिन्नयं काऊण बहुमाणपुवं साहम्मियाणं जताए आहवणत्थं म लेहे पट्टविज्जा । तओ वाहण-गुलइणी-कोस-पाइक्क-जुगजुत्ताइ-सगडंग-सिप्पिवग्ग-जलोवगरण-छत्त-दीवियाधारि-सूवार-धन्न-भेसज्ज-विज्जाइसंगहं चेइयसंघपूयत्थं चंदण-अगरु-कप्पूर-कुंकुम-कत्थूरी-वत्थाइसंगहं च काउं, सुमुहुत्ते जिणिदस्स ण्हवणं पूयं च काऊण, तप्पुरओ निसन्नस्स तस्स सुपुरिसस्स गुरुणा संघाहिवतदिक्खा दायथा । तओ दिसिपालाण मंतपुविं बलिं दाउं मंतमुद्दापुवं पुप्पवासाइपूइए रहे महूसवेण देवं सयमेव आरोविज्जा । तओ गुरुं पुरो काउं संघसहिओ चेइआई वंदिय कवडिजक्ख-अंबाइ-॥ सम्मदिट्ठिदेवयाणं काउस्सग्गे कुज्जा । खुद्दोवद्दवनिवारणमंतज्झाणपरेण गुरुणा तस्स अभितरं कवयं आउहाणि य कायवाणि । तओ जयजयसधवलमंगलज्झुणिमीसेहिं तूरनिग्धोसेहिं अंबरं बहिरेतो दाणसम्माणपूरियपणयजणमणोरहो पुरपरिसरे पत्थाणमंगलं कुज्जा । तओ णाणाठाणागए साहम्मिए सकारिय Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रपा । २१८ 3 तेसिं पूर्य पडिच्छिय सहजत्तिए धणेहिं धणत्थिणो वाहणेहिं वाहणत्थिणो. सहाएहिं असहाए पीणतो, बंदिगायणाई असण-वसण-दविणेहिं तोसंतो, मग्गे चेहयाई पूयंतो भरगाणि य उद्धरंतो, तक्कम्मकारिषु वच्छलंकुणंतो, तक्कज्जाई चिंतंतो, दुत्थियधम्मिए सक्कारेंतो, दाणेण दीणे पमोयंतो, भीयाणमभयं देतो, बंधणहिए मोयंतो, पंकममां भग्गं च सगडाइयं सिप्पीहिं उद्धारेंतो, छुहिय-तिसिय-वाहिय- खिन्ने अन्न-जल-मेसज्ज-वाहणेहिं सुत्थी कुणंतो, धम्मियजणाणं खुद्दोवद्दवे निवारेंतो, जिणपवयणं पभावेंतो, बंभचेरतवजुत्तो तित्थाई पाविऊण सत्तीए उववासं काउं पहाओ कयबलिकम्मो परिहियसुद्धनेवत्थो पुप्फवासकुंकुमाइमीसेणं तित्थो - दगेणं कलसे भरित्ता, संघं गंधवियवग्गं च कुंकुमचंदणाइहिं चच्चित्ता, अच्चब्भुयइंदविमाणाइ विभूईए मूलनायगस्स ण्हवणं काउं, जगई जिणबिंबाई वेयावच्चगरे य ण्हवित्ता, तओ पंचामयण्हवणं काउं चंदणकत्थूरी कप्पूराईहिं विलेवणं सुवण्णाभरणमल्लवत्थाईहिं अच्चणं कप्पूरागरुपभिईहिं धूवणं पिक्खणयं महद्ध1" यारोवणं चलिरचमरभिंगारजलधाराकुंकुमवुट्ठिविसिद्धं कंप्पूरारतियं च काउं, देवे वंदिज्जा । तओ देवसेवए सक्कारिय अट्ठाहियं अवारियसत्तं वहाविज्जा । तओ मुहोग्धाडणे माला उग्घडणे अक्खयनिहिक्खेवे भूमिभंडाइनिक्कए य देवस्स को संवडिय दीणाई अणुकंपिय तिलोयनाहं पूइय सगग्गर गिरं आपुच्छिय पुणो दंसणं मग्गिय पणमिय सहजत्तिए सक्कारिय तित्थे अणुज्झायंतो पडिनियत्तिज्जा । कमेण सनगरं पत्तो महया ऊसवेणं रहसालाए देवालयं पवेसिय पडिमं गेहमाणिज्जा । तओ साहम्मिय मित्त-नाइ - नागराई भोयणा1 ईहिं सम्माणिय संघं पूइज्जा । तओ गुरुणा देसणा कायबा । जहा - तं अत्थं तं च सामत्थं तं विन्नाणं सुउत्तमं । साहम्मियाण कज्जम्मि जं विच्चंति सुसावया ॥ १ ॥ अन्नन्नदेसाण समागयाणं अन्नन्नजाईइ समुन्भवाणं । साहम्मियाणं गुणसुट्ठियाणं तित्थंकराणं वयणे ठियाणं ॥ २ ॥ वत्थन्नपाणासणखाइमेहिं पुप्फेहिं पत्तेहिं य पुष्फलेहिं । सुसावयाणं करणिज्जमेयं कयं तु जम्हा भरहाहिवेणं ॥ ३ ॥ राया देसो नगरं तं भवणं गिहवई य सो धन्नो । विहरन्ति जत्थ साहू अणुग्गहं मन्नमाणाणं ॥ ४ ॥ इणमेव महादाणं एवं चिय संपयाण मूलं ति । एसेव भावजन्नो जं पूया समणसंघस्स ॥ ५॥ सो संघ सिद्धंतापुत्थलेहणत्थं नाणकोसं साहारणसंवलयं च संवद्धारिज्ज ति ॥ ॥ तित्थजत्ताविही समत्तो ॥ ३९ ॥ ११२. संपयं तिहिविही - पक्खिय - चाउम्मा सिय- अट्टमि पंचमी - कल्लाणयाइतिहीसु तवपूयाईए उदरयतिही अप्पयरभुत्तावि घेत्तवा न बहुतरभुत्ता वि इयरा । जया य पक्खियाइप तिही पडइ तया पुवतिही 20 चेव तब्भुत्तिबहुला पच्चक्खाणपूयाइसु धिप्पइ न उत्तरा । तब्भोगे गंधस्स वि अभावाओ । पबतिहिवुड्डीए पुण पढमा चेव पमाणं संपुण्ण त्ति काउं । नवरं चाउम्मासिए चउदसीहा से पुण्णिमा जुज्जइ । तेरसीगह आगमआयरणाणं अन्नयरं पि नाराहियं होज्जा । संवच्छरियं पुण आसाढचाउम्मासियाओ नियमा पण्णासमे दिणे काय, न इकपंचासहमे । जया वि लोइयटिप्पणयानुसारेण दो सावणा दो भद्दवया भवंति, 20 25 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्गविद्यासिद्धिविधि । तया वि पण्णासइमे दिणे, न उण कालचूलाविक्खाए असीइमे । 'सवीसइराए मासे वइक्कंते पज्जोसवेंति'त्ति वयणाओ। जं च 'अभिवडियंमि वीस'त्ति वुत्तं तं 'जुगमज्झे दो पोसा जुगअंते दोन्नि आसाढ'ति सिद्धतटिप्पणयाणुरोहेण चेव घडइ । ते य संपयं न वटुंति ति जहुत्तमेव पन्जुसणादिणं ति सामायारी । ॥ इति तिहिविही ॥४०॥ ६११३. संपयं अंगविजासिद्धिविही जहासंपदाय भण्णइ । भगवइए अंगविजाए सट्ठिअज्झायमईए । महापुरिसदिण्णाए भूमिकम्मविज्जा किण्हचउद्दसीए चउत्थं काऊण गहियवा । तीए उवयारो उंबररुक्खच्छायाए उवविसिय मासाइकालं जाव अट्ठमभत्तेण खीरन्नपारणेण उडिदिन्नाइ आहारेण वा कायवो ॥१॥ तओ अन्ना विजा छटेण गहिया अहयवस्थेण कुससत्थरोवविद्वेण छट्ठभत्तं काउं अट्ठसयजावेण साहियबा ॥ २ ॥ अवरा य छटेण गहिया अट्ठमभत्तण अट्ठसयं जावेण साहियवा ॥ ३ ॥ एवं साहिओ दंडपरीहारविजं पउंजिउं चउबिहाहारनिसेहं काउं एगंते पवितदेसे इत्थीणं अदंसण टाणे तिकालं आम- ।। कप्पूरेणं पुत्थयं पूइय अगरुधूवमुग्गाहिय मण-वयण-कायसुद्धबंभचेरपरायणो पवित्तदेहवत्थो इत्थीणं मुहमणवलोइंतो तासिं सइं च असुणितो तइयअज्झायउवक्खायगुणगणालंकिओ गुरुसमीवे सयं वा अविच्छिन्नं मुहपोत्तियाठइयमुहकमलो वाइज्जा । एवं सिद्धा संती भगवई अंगविज्जा एगूणसोलसआएसे अवितहे करिज ति । अविहिवायणे उम्मायाई दोसा परमपुरिसाणं च आसायणाकया होइ त्ति । विहिणा पुण आराहिय एयं सिझंत अवितहाएसो। छउमत्थो वि हु जायइ भुवणेसु जिणप्पभायरिओ॥ अंगविज्जाराहणाविही सिद्धतियसिरिविणयचंदसरिउवएसाओ लिहिओ । ॥ अंगविज्जासिद्धिविही ॥४१॥ सम्म'-गिहिवय-समइयारोवण'-तग्गहण'-पारणविही य। उवहाण-मालरोवणविहि-उवहाणप्पइहा य॥१॥ पोसह-पडिकमण"-तवाइ"-नंदिरयणाविही सथुइथुत्तो। पवजा लोयविही" उवओगा-इल्लअडणविही ॥२॥ मंडलितव"-उवठावण'-जोगविहीं-कप्पतिप्प"-वायणया"। कमसो वाणायरिओं"-वज्झाया -यरियपयठवणा" ॥३॥ महयर-पवत्तिणिपयट्ठवण-गणाणुन्न"-अणसणविही य"। महपारिट्ठावणिया" पच्छित्तं साहु-सड्डाणं ॥ ४॥ जिणबिंबपइहाविहि-कलस-धयारोवणं च सपसंग। कुम्मपइट्ठा" जंतं" ठवणायरियप्पइट्ठाओ५ ॥५॥ मुद्दाविही" य चउसहिजोगिणीउवसमप्पयारो य" । जत्ताविहि"-तिहिविहि-अंगविज्ञसिद्धि" त्ति इह दारा ॥ ६॥ । ॥ 1 'जिनप्रभादृतः' इति टिप्पणी । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० विधिप्रपा। अथ ग्रन्थप्रशस्तिः । बहुविहसामायारीओं दडु मा मोहमिंतु सीस त्ति । एसा सामायारी लिहिया नियगच्छपडिबद्धा ॥७॥ आगमआयरणाहिं जं किंचि विरुद्धमित्थ मे लिहियं । तं सोहिंतु सुयधरा अमच्छरा मह किवं काउं ॥८॥ जिणदत्तसूरिसंताणतिलयजिणसिंहसूरिसीसेण ।। गुत्ति-रस-किरियठाणप्पमिए विक्कमनिवइवरिसे ॥९॥ विजयदसमीइ एसा सिरिजिणपहरिणा समायारी । सपरोवयारहेउं समाणिया कोसलानयरे ॥१०॥ सिरिजिणवल्लह-जिणदत्तसूरि-जिणचंद-जिणवइमुणिंदा। सुगुरुजिणेसर-जिणसिंहसूरिणो मह पसीयंतु ॥ ११ ॥ वाइयसयलसुएणं वाणायरिएण अम्ह सीसेण । उदयाकरण गणिणा पढमायरिसे कया एसा ॥१२॥ जीए पसायाओं नरा 'सुकई सरसत्थवल्लहा हुंति। सा सरसई य पउमावई य मे दितु सुयरिद्धिं ॥ १३ ॥ ससि-सूरपईवा जाव भुवणभवणोदरं पभासेंति । एसा सामायारी सफलिजउ ताव सूरीहि ॥ १४ ॥ पच्चक्खरगणणाए पाएण कयं पमाणमेईए। चउहत्तरी समहिया पणतीससया सिलोयाणं ॥१५॥ विहिमग्गपवा नामं सामायारी इमा चिरं जयइ । पल्हायंती हिययं सिद्धिपुरीपंथियजणाणं ॥ १६ ॥ ॥ अङ्कतोऽपि ग्रन्थानं ३५७४ ।। ॥ इति विधिमार्गप्रपा सामाचारी संपूर्णा ॥ 1 सुकवयः सरसार्थवल्लभाः, पक्षे सुकृतिनः ईश्वरसार्थे वल्लभाः। 2 श्रुतं सुताच शिष्याः। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् । श्रीजिनप्रभसूरिकृतो दे व पूजा विधिः। संपयं जहासंपदायं देवपूयाविही भण्णइ – तत्थ सावओ बंभमुहुत्ते पंचनमोकार सुमरंतो सिज्जं मुत्तूण अप्पणो कुलधम्मवयाई संभरिय, सरीरचिंताइ काऊण, फासुएणं अफासुएणं वा गलियजलेणं देसओ . सबओ वा पहाणं काऊण, कडिल्लवत्थं चाय परियिधोयवत्थजुगलो निसीहियातिगपुवं घरदेवालए पविसेज्जा । तत्थ मुह-कर-चरणपक्खालणं देसण्हाणं, सिरमाइसवंगपक्खालणं सवण्हाणं । तओ भगवओ आलोयमित्तो चेव भालयले अंजलिमउलियग्गहत्थो 'नमो जिणाणं' ति पणामं काउं जय जय सदं भणिय मुहकोसं काऊण, गिहपडिमाओ निम्मल्लमवणित्तु उवउत्तो लोमहत्थयाइणा निमज्जिय, जलेण पक्खालिय सरससुरहिचंदणेण देवस्स दाहिणजाणु - दाहिणखंध-निलाड - वामखंध - वामजाणुलक्खणेसु पंचसु, । हियएण सह छसु वा अंगेसु पूयं काऊण पञ्चग्गकुसुमेहिं च पूइय, तओ वामहत्थेण घंटं वाइयंतो दाहिणकरगहियधूवकडच्छुओ कालागुरु-पवरकुंदुरुक्क-तुरुक-मलयजमीससुगंधधूवं देवस्स पुरोभागादारब्भ 'असुरिंदसुरिंदाणं' इच्चाइधूमावलीगाहाओ पढंतो सिट्ठीए दसदिसं उम्गाहिय पुरो धारेइ । तओ चंदणवासक्खयाहि वासियं कुसुमंजलिं करयलसंपुडेण गिण्हित्ता 'नमोऽर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः' इति भणिय, 'ओसरणे जिणपुरओ' इच्चाइवित्तेण देवस्स उवरि खिवेइ । तओ 'लोणत्त'इच्चाइवित्तं 15 पढंतो सिट्टीए ओयारिय दाहिणपासधरियपडिग्गहियाठियजलणे खिवेइ । एवं अन्ने वि दो वारे वित्तदुगेणं । तओ धाराघडियाओ जलं घेत्तूण 'उन्नयपयपन्भहस्स' इच्चाइवित्ततिगेणं तेणेव कमेण भगवओ ओयारिय तहेव जलणे खिवेइ । तओ थालयम्स उवरि पंच-सत्ताइविसमवट्टिवोहियदीवसीहावमालियमारत्तियं दोहिं हत्थेहिं गहिय 'गीयस्थगणाइण्णं' इच्चाइवित्ततिगं भणिय वारे तिण्णि आरत्तियमुत्तारेइ । एगो य दाहिणपासट्टिओ आरत्तियंमि उत्तरंते तिण्णिवारे जलधाराओ पडिग्गहियाठियजलणे देइ । अन्ना- 20 भावे आरत्तियउत्तारणाणंतरं सयमेव वा धाराओ देइ । उत्तरंते आरत्तिए उभओ पासेसु सावयनियचेलंचलेहिं चामरेहिं वा भगवओ चामरुक्खेवं कुणंति । एयं च लवणाइउत्तारणं पालित्तयसूरिमाइपुवपुरिसेहिं संहारेण अणुण्णायं वि संपयं सिट्टीए कारिजइ । विसमो खु गड्डरियापवाहो । तओ पडिगहियाठियंगारजलाइ बाहिं उज्झिय थालियं पक्खालिय, तत्थ चंदणेण सत्थियं नंदावत्तं वा काउं तम्सुवरि पुप्फक्खयवासो खिविय ओसग्गओ अविहवनारीबोहियं तदभावे सयं वा पवोहियं रत्तवहि-मंगलदीवयं । टाविय चंदणपुप्फवासाईहिं पूइय मंगलछप्पयाइ पढणाणंतरं 'नमोऽर्हत्सिद्धाचार्यो०' इच्चाइ भणिय, 'जेणेगो जिणनाहो' इच्चाइवित्ततिगं पढित्ता मंगलदीवं उज्झविय, सबेमु तदुवरि कुसुमाई खिवितेसु पंचसद्दे वजंते अभिमितो भगवओ पुरो धारेइ । तओ सकत्थयं भणित्ता. वासक्खेवं काउं मंगलदीवयमगुन्नविय एगदेसे मुंचइ, न उण आरत्तियं व झिवेइ ति - घरपडिमापूया[विही]समत्तो ॥ १ ॥ विधि० १६ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ देवपूजाविधि । पुणो नियवित्तिच्छेयं रक्खतो हाओ सविसेसं वत्थाभरणाइ सिंगारं काऊण पत्थियाइभायणट्टावियसुरहिधूवअखंडक्खयकुसुमचंदणफलाइपूयादवो महिड्डीए जिणिंदभवणे गच्छइ । तस्स सीहदुवारदेसे करचरण-मुहसोयं काउं सच्चित्तदवाईणि पुप्फ-तंबोल-हय-गयमाईणि अच्चित्तदवाणि य मउड-छुरिया-खग्ग-छत्तोवाणह-चामर-जंपाणाईणि मुत्तूण एगसाडियं उत्तरासंग काउं अग्गदुवारमझदेसेसु कमेण उदारसदं तिन्नि निसीहीओ उच्चरंतो जगगुरुणो आलोए चेव भालयलमिलियकरकमलमउलजुयलो 'नमो जिणाणं'ति भणिय जयसद्दमुहलो जिणभवणं पविसइ । एगसाडियं नाम असीवियमखंडियं च, एवं च एगं हिठिल्लवत्थं एगं च उवरिमवत्थं ति वत्थजुयलेण धोवत्तिया कीरइ । न उण पुबदेसिच्चयाणं पिव अट्ठ(द्धः). बयं ति रूढं एगमेव वत्थं उवरिं हिट्ठा य जिणभवणे हुज त्ति । न य कंचुयं विणा मंकुणयपाउयंगी वा साविया जिण-गुरुभवणेसु वच्चइ त्ति, अलं पसंगेण । तओ देवस्स दाहिणवाहाओ आरभ तिण्णि पया"हिणाओ देइ । पयाहिणं च दितो जया देवस्स अग्गे उवणमइ तया पणामं करेइ । एवं तिहि पणामे ' करेइ । तओ नाण-दंसण-चारित्तपूयाहेउं अक्खयमुट्ठितिगं सेढीए देवस्स पुरओ अक्खयपट्टाइसु फलसहियं मुंचइ । तओ कयमुहकोसो पुवत्तनिम्मल्लावणयणनिमज्जणाइविहिणा एगग्गमणो मंगलदीवयपजंतं पयं करेइ । नवरं जहासंभवं सबजिण बिंबाणं सम्मदिट्ठिदेवयाणं च करेइ । तओ उक्कोसेणं देवाओ सहिहत्थमित्ते जहण्णेणं नवहत्थमित्ते मज्झिमओ अंतराले उचियअवग्गहे ठाऊण तिक्खुत्तो वत्थाइ पमज्जिय Is भूमिभागे छउमत्थ-समोसरणत्थ-मुक्खत्थ-रूवावत्थातिगं भावितो जिणबिंबे निवेसियनयणमाणसो पए पएँ सुत्तत्थसुद्धिपरायणो जहाजोगं मुद्दातियं पउंजतो उक्कोस-मज्झिम-जहण्णाहिं चीवंदणाहिं जहासंपत्ति देवे वंदइ । तासिं च विभागो इमो नवकारेण जहण्णा दंडथुइजुयलमज्झिमा नेया। उक्कोसा चीवंदण सक्कथयपंचनिम्माया ॥१॥ ४ तत्थ नवकारो सीसनमणमेत्तं पंचंगपणिवाओ वा । अहिगयजिणस्स गुणथुइरूव-सिलोगाइरूवौं वा नमोक्कारो तेण जहण्णा चीवंदणा होइ । तहा दंडगो सक्कत्थयरूवो, थुई य थुत्तसरूवा एएण जुगलेण मज्झिमा चीवंदणा । अहवा - दंडगो 'अरिहंतचेइआणं करेमि काउस्सग्गं' इच्चाइ। तओ काउस्सग्गं अट्ठोस्सासं काउं पारिय एगा थुई दिज्जइ । पणिहाणगाहाओ य मुत्तासुत्तीए पढिजंति । इत्थमवि मज्झिमा हवइ । अहवा- इरियावहियं पडिकमिय वत्थंतेण भूमिं पमज्जिय तत्थ वामजाणुं अंचिय दाहिणजाणुं 21 धरणितले साहट्ट जोगमुद्दाए सिलोगाइरूवं नमोकारं पढिय, नमोत्थुणं इच्चाइ पणिवायदंडगं भणिय, पच्छाँ पमज्जिय उट्ठिय जिणमुदं विरइय 'अरहंतचेइआणं'ति ठवणारिहंतत्थयदंडगं पढिय, अट्ठोस्सासं काउस्सग्गं करिय, अरिहंतनमोक्कारेण पारिय, अहिगयजिणथुइं दाउं 'लोगस्सुजोयगरे' इच्चाइ नमोरिहंतत्थयदंडगं पढित्ता 'सबलोए अरहंतचेइआणं'ति दंडगं भणिय तहेव उस्सग्गे कए, पारिय सबजिणथुई दिजद । तओ 'पुक्खरवरदीवड्ढे' इच्चाइ सुयत्थवं पढित्ता 'सुयस्सभगवओ करेमि काउस्सग्गं वंदणवत्तीयाए' इच्चाइ * भणिय, तहेव उस्सग्गे कए पारिए य सिद्धतथुई दिज्जइ । 'तओ सिद्धाणं बुद्धाणं' इच्चाइ सिद्धत्यवं पढिऊणं 'वेयावच्चगराणं' इच्चाइ भणित्तु तहेव उस्सग्गे कए पारिए य सरस्सई-कोहंडिमाइवेयावच्चगराणं थुई दिजइ । इत्थ पढम-चउत्थथुइओ 'नमोऽर्हत्सिद्धा०' इच्चाइ भणिऊणं दिजंति, इत्थीओ य एयं न भणंति । तओ जाणूहि ठाउं जोडियहत्थो सक्कत्थयं दंडगं भणित्तु, पंचंगपणिवाए कए 'जावंति चेइआई' इञ्चाइ गाहं पढित्ता, खमासमणं दाउं 'जावंत के वि साहू' इच्चाइ गाहं भणिय, 'नमोऽर्हत्सिद्धा' इच्चाइ पढिय, जोग15 मुद्दाए महाकविविरइयं गंभीरत्थं अट्ठसहस्सलक्खणोववन्नसरीरपरीसहोवसग्गसहणाइकिरियाइगुणवण्णणा Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवपूजाविधि । कयिं पावयं निवेयणगब्भं पणिहाणसारं विचित्तसद्दत्थं पवरथोचं भणिता, मुत्तासुत्तिमुद्दाए 'जयवीयराय' इचाइ पणिहाणगाहादुगं पढइ । तओ आयरियाइ बंदिज चि । इत्थ पक्खे दंडगा पंच, धुईओ चचारि जुयले मन्झिमति नेयं । Fear अंगुलाई पुरओ ऊणाई जत्थ पच्छिमओ । पायाणमंतराल एसा पुण होइ जिणमुद्दा ॥ १ ॥ अन्नोन्नतरि अंगुलि को सागारेहिं दोहि हत्थे हि । पिट्टोवरि कुप्परसंठिएहिं तह जोगमुद्दति ॥ २ ॥ मुत्तात्तिमुद्दा समा जहिं दो विगविभया हत्था । ते पुण निलाडदेसे लग्गा अन्ने अलग्ग ति ॥ ३ ॥ १२३ एसा वि मज्झिमा चीवंदणा । उक्कोसा पुण सक्कत्थयपणगेणं । सा चेवं - पढमं सिलोगाइरूवे नमो - 10 कारे भणित्ता, सक्कत्थयं भणिय उट्टिय इरियावहियं पडिक्कमिय, पुत्रं व नमोक्कारे सक्कत्थयं च भणिय उट्टिय, 'अरहंतचेइआणं' इच्चाइदंडगेहिं पुणरवि चउरो थुई दाउं पुणो सक्कत्थयं पढिय ' जावंति चेइआई' इच्चाइ माहादु भणित्ता 'नमोऽर्हत्सिद्धा०' इन्वाइभणणपुत्रं, थोत्तं भणिय पुणो सक्कत्थयं पढिय पणिहाणगाहादुगं व भणइति चीवंदणाविही । एवमन्नयराए चीवंदणाए देवे वंदिय तओ आयरियाईण खमासमणे, देवस्स पुरओ गीयवाइ - 15 यनट्टाइभावपूयं काऊण दद्दूण वा चेइयवंदणत्थमागएसु विहिए वंदिय, सह पत्थावे तेसिं समीवे धम्मो - वएसं सुणिय, जिणभवणकज्जाणं देवदबस्स य तत्तिं काऊण, धोवत्तियं मुत्तूण, सुकयत्थमप्पाणं मन्नतो पूयासु कयमणुमोहंतो जहोचियं दीणदाणं दितो नियघरमागच्छिज्जा । तओ वाणिज्जाइववहारं काउं भोयणकाले तहेव घरपड़िमाओ पूइय, तासिं पुरो निवेज्जं ढोइय, तओ वसहिं गंतु फासुयएस णिज्जेण भत्तपाणओसहभैसज्जवत्थपत्ताइणा अणुग्गहो कायबो त्ति खमासमणं दाउं आगम्म सुविहियाणं संविभागं काउं, अभितरबाहिरं परिवारं गवाइयं च संभालिय, तेसिं अन्नपाणाइचित्तं काउं सयं भुंजिज्जा । तओ घरवा - पिज्जा ब्रावारं काउं, दिणट्टमभागे वियाले पुणरवि भुंजिय, पुणरवि घरे वा जिणहरे वा पूयं पुवभणियनीईए करेइ । नवरं तत्थ चंदणपूयं न करेज्जत्ति । 20 जो उण निब्बाणकलियाए पूयाविही द्रीसह सो तारिसं नाणविन्नाणकुलसं पहाणपुरिसमविक्ख डो, न उण सबसामन्नो चि न इत्थ भण्णइ । पूया यदुविहा निचा नेमित्तिया य । तत्थ निच्चा पइदिणकरणिज्जा सा य भणिया । नैमित्तिया पुण अट्ठमि - चउद्दसि -कल्लाणतिहि अट्ठाहिया-संवच्छरियाइपवभाविणी । सा य ण्हवणपहाणा, अओ संपयं ण्हवविही दंसिज्जइ । साय सकयभासाबद्ध गीइकब - अज्जयाबद्धवित्तबहुल त्ति सक्कयभासाए चेव लिहिज्ज - 5 तत्र प्रथमं पूर्वोक्तस्त्रात्रादिक्रमेण देवगृहं प्रविश्य धोतपोतिकां परिधाय, देवस्य धूपवेलां धूमाव'लीपुष्पांजलिलवणजलारात्रि कावतारणमङ्गलदीपोद्भावनारूपां कृत्वा शक्रस्तवं भणित्वा, साधूनभिवन्द्य, रूप - 30 पीठं प्रक्षाल्य, चन्दनेन तत्र स्वस्तिकं विधाय, पुष्पवासादिभिश्च संपूज्य, प्रतिमाया अग्रतः स्थित्वा, सविशेषकृतमुखकोशो 'नमोऽर्हत्सिद्धाचार्योषाध्यायसर्वसाधुभ्यः' इति भणनपूर्व 'श्रीमत्पुण्यं पवित्र' - मित्यादिवृत्तपंचकं पठित्वा, स्नपनपीठस्वोपरि कुसुमांजलि स्वपनकारः क्षिपेत् । नपनकाराश्च द्वयादयो द्वात्रिंश 25 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ देवपूजाविधि। दन्ता अधिकाः स्युः । ततश्चलपतिमां नपनीठे स्थापयेत् सृष्ट्या च प्रतिमाया जलधारां भ्रामयेचन्दनेन च पूजयेत् । ततः शक्रस्तवभणन-साधुवन्दने कुर्यात् । स्थिरप्रतिमानां तु स्थानस्थितानामेव कुसुमांजल्यादिसर्व कर्तव्यम् । ततः कुसुमांजलिं गृहीत्वा 'प्रोद्भूतभक्तिभरे' त्यादिवृत्तपंचकं भणित्वा प्रतिमायास्तं क्षिपेत् । ततो निर्माल्यमपनीय प्रतिमां प्रक्षाल्य पूजयेत् । ततः 'सद्वेद्यां भद्रपीठे' इत्यादिवृत्तद्वयेन कुसुमांजलिं 5 क्षिपेत् । ततः सर्वोषधिं गृहीत्वा 'मुक्तालंकारे त्यार्यया पुप्पालंकारावतारणे कृते सर्वौषधिस्नानं कारयेत् । ततः प्रक्षाल्य संपूज्य च प्रतिमाया 'भव्यानां भवसागरे' इतिवृत्तेन धूपमुत्क्षिपेत् । ततः एकं पुप्पं समादाय 'किं लोकनाथेति वृत्तं भणित्वा उप्णीषदेशे पुष्पमारोपयेत् । ततः कलशद्वयं कलशचतुष्टयादि वा प्रक्षाल्य धूपपुष्पचन्दनवासाद्यैरधिवास्य कुङ्कुमकर्पूरश्रीखण्डादिसंपृक्तसुरभिजलेन भृत्वा पिहितमुखं पट्टके चन्दनकृतस्वस्तिके संस्थापयेत् । ततः कुसुमांजलिपंचकं क्रमेण 'बहलपरिमले'त्यादि मात्रावृत्तपंचकं पठित्वा 10 क्षिपेत् । नवरमाद्यान्त्यवृत्तयोर्नमोऽर्ह सिद्धेत्यादि भणेत् । वृत्तान्ते तु शङ्खभेरीझलादिठणत्कारं मन्द्रं दधुः शाक्षिकाद्याः कलशान् भृत्वा कुसुमांजलिपंचकं क्षिपेत् , क्षित्वा वा कलशान् भरेदुभयथाऽप्यदोषः । तत इन्द्रहस्तान् प्रक्षाल्य हस्तयोर्भाले च चन्दनतिलकान् कृत्वा, नपनक्रियद्रव्यनिक्षिप्त सकलसंघानुमत्या कलशानुत्थाप्य, नमोऽर्हत्सिद्धेत्यधीत्य 'जम्ममजणि जिणहवीरस्से' त्यादि कलशवृत्तेषु जन्माभिषेककलशवृत्तान्तरेषु वाऽन्यः पठितेषु तदभावे स्वयं वा भणितेपु, कुम्भपिधानान्यपनीय, पंचशब्दे वाद्यमाने श्राविकासु जिन' जन्माभिषेकगीतानि गायन्तीपूभयतोऽप्यखण्डधारं सपनं कुर्वन्ति, द्रष्टारश्च जिनमज्जनप्रतिबद्धहृयपद्यानि पठन्ति, मुहुर्मुहुर्मूर्धानं नमयन्ति । यच्च स्त्रात्रे जलं मू द्यङ्गेषु केचिलगयन्ति तद् गतानुगतिकं मन्यन्ते गीतार्थाः । श्रीपादलिप्ताचार्यायैस्तन्निषेधात् । तथा च तद्वचः-'निर्माल्यभेदाः कथ्यन्ते - देवखं देवद्रव्यं नैवेद्यं निर्माल्यं चेति । देवसंबन्धिग्रामादि देवस्वम् , अलंकारादि देवद्रव्यम् , देवार्थमुपकल्पितं नैवेद्यम्। तदेवोत्सृष्टं निवेदितं बहिः निक्षिप्तं निर्माल्यं पंचविधमपि निर्माल्यं न जिनेन्न च लंघयेन्न च दद्यान्न च 20 विक्रीणीत । दत्त्वा कव्यादो भवति, भुक्त्वा मातंगः, लंघने सिद्धिहानिः, आघ्राणे वृक्षः, स्पर्शने स्त्रीत्वम् , विक्रये शबरः । पूजायां दीपालोकनधूपामात्रादिगन्धे न दोषः । नदीप्रवाहनिर्माल्ये चेति कृतं प्रसंगेन । ततः शुद्धोदकेन प्रक्षालं कृत्वा धूपितवस्त्रखण्डेन प्रतिमां कृषित्वा चन्दनेन समभ्यर्च्य समालभ्य वा पुष्पपूजां विधाय 'मीनकुरंगमदेति वृत्तेन धूपमुग्राहयेत् । तत आहारस्थालं दद्यात् । ततः परिधापनिकां प्रतिलिख्य करयोरुपरि निवेश्यैकस्मिन् धूपमुद्राहयति सति पुष्पचन्दनवासैरधिवास्य 'नमोऽर्हत्सिद्धाचार्ये' त्यादि 2: भणित्वा, 'शको यथा जिनपते'रिति वृत्तद्वयमधीत्य सोत्सवं देवस्योपरिष्टादुभयतो लम्बमानां निवेशयेत् । ततः कुसुमांजलिवर्ज लवणजलारात्रिकावतारणं मङ्गलदीपान् प्राग्वत् कुर्यात् । नवरं लवणाद्यवतारणेषु तथैव प्रतिवृत्त वादित्रमन्त्रध्वनि कुर्यात् । ततो यथासंभवं गुरुदेशनां श्रुत्वा स्वगृहमेत्य सपनकारादिसाधर्मिकान् भोजयेदित्योघतः स्नपनविधिः। यस्य पुनर्विशेषपर्वापेक्षया छत्रभ्रमणं प्रति भावना भवति, स प्राग्वत् स्लपनमारभ्य यावत् 'प्रोद्भूतभक्ती'७ त्यादिवृत्तैः कुसुमांजलिं प्रक्षिप्य निर्माल्यमपनीय पूजां च कृत्वा, स्वपनपीठस्थाया एकस्याः प्रतिमायाः पुरतः 'सरससुबंध' इति वृत्तेन कुसुमांजलिं क्षिपेत् । ततस्तस्याः प्रतिमाया 'हिययाइं पडत'मिति गाथया स्नानं कुर्यात् । तदनन्तरं स्थाले चन्दनेन स्वस्तिकं कृत्वा, तत्र पीठात् तां प्रतिमां धारयेत् । ततश्च पुरतः स्थाल एवाक्षतपुंजिकात्रयं न्यसेत् । अनन्तरं जलधारादानपूर्वमातोद्यवादनापूर्व च छत्रतले प्रतिमां नयेत् । ततो देवस्याग्रभागादारभ्य प्रथमामथ(:) कृते गूंहलिकेति रूढे गोमयगोमुखचतुष्टये प्रथमगूहलिकायामक्षतपुंजिकात्रयं 35 पूपिकाश्च दद्यात् । ततः पुप्पांजलिमुपादाय क्रमेणोत्साहत्रयं पठित्वा, एकैकं कुसुमांजलिं प्रक्षिपेत् । उत्साह Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवपूजाविधि । १२५ त्रयं चैतत् - उदिन्नादाणमुणियेत्यादि १, 'पाणय दसमे'त्यादि २, 'बायासीदिणेहिं' इत्यादि ३ । ततः सप्रतिम छत्रं दक्षिणदिग्गूहलिकां नीत्वा तत्रोत्साहद्वयं 'वित्तचलक्खे'त्यादि, 'मेरुसिरुम्मी'त्यादि च पठित्वाऽक्षतपुंजिकात्रयं पूपिकाश्च दद्यात् । एवं पश्चिमदिशि 'जम्मि जिणिंदवंदे'त्यादि 'गुरुवहुमाणे'त्यादि चोत्साहद्वयम् , तथैवोत्तरस्याम् –'उत्तरफाल्गुणीसु'-'रयणवण्णे'त्यादिचोत्साहद्वयं पठेत् । ततः पुनरग्राहलिकामागते छत्रे 'वरपावापुरीइ' इत्यादि 'ता सक्कीसाणचमरे'त्यादिना चोत्साहद्वयेन पुष्पांजलिं प्रक्षिप्य, लवणपानीयारात्रिकावतारणं विधाय, जलधारादानातोद्यवादनापूर्वकं छत्रप्रतिमां खात्रपीठमानयेत् । पीठे संस्थाप्य ततः 'सद्वैद्यां' इत्यादि प्रागुक्तक्रमेण सपनं कुर्यात् । इति छत्रभ्रमणविधिः । अथ पञ्चामृतस्नात्रविधिः- तच्च छत्रभ्रमणकृते वा 'जम्ममजणे ति वृत्तपंचकेन प्रथमं गन्धोदकखानपर्यन्तं विधिं कृत्वा, 'मीनकुरंगमदेति धूपं दत्त्वा, ततो 'नमोऽर्हत्सिद्धेति भणनपूर्व 'महुरो सुर होडति गाथयेक्षरसस्नानं विदध्यात् । ततो 'मीनकरंगमदेति धूपः । एवं वक्ष्यमाणसर्बस्नानान्तरालेवनेनैव ॥ धूपं दद्यात् । ततः 'पायात् स्निग्धमपी'त्यार्यया घृतस्नानं, ततः पिष्टादिभिः स्नेहमुत्तार्य 'उचितमभिषेके - त्यार्यया 'वहइ सिरिं तियसगणेति गाथया वा दुग्धस्नानम् । तत. 'उवणेउ मंगलं वो' इत्यादि गाथाद्वयेन दधिस्नानम् । तत एकोनविंशत्या 'अभिषेकपयोधारे त्यादिभित्तैराद्यान्त्यवृत्तयोर्नमोऽहत्सिद्धाचार्यत्युच्चारयन्नेकोनविंशतिगन्धोदकेन धारा देवशिरसि दद्यात् । ततः पंचधारकं तत्र प्रथमं 'सर्वजित०' इति वृत्तेन सर्वोषधिस्नानम् । ततः 'स्वामिन्नित्य'मिति वृत्तेन जातीफलादिसौगन्धिकस्नानम् । ततः 'स्वच्छतयेति ।। वृत्तेन शुद्धजलस्नानम् । ततः कथमय'मिति वृत्तेन कुङ्कुमस्नानम् । ततश्च 'भवती लघोरपी'ति वृत्तेन कुड्डमचन्दनस्नानम् - इति पंचधारकम् । ततः 'कुंकुमहद्यं द्यो मिति वृत्तेन चन्दनविलेपनः । ततः 'उपनयतु भवांत मिति वृत्तेन कस्तूरिकामयपटुं कुर्यात् । ततो 'भाति भवतो ललाटे' इति वृत्तेन गोरोच्नया सर्षपेश्व देवस्य तिलकं कुर्यात् । ततो 'मेरो नन्दनपारिजाते'त्यादिवृत्तसप्तकेन क्रमात् सप्त कुसुमांजलीन् क्षिपेत् । ततः पूजाकारोऽधिवासिते कलशचतुष्टये स्नपनकारैर्गृहीते सत्येकं प्रतिमायाः पुरतः स्थित्वा 'कपूरस्फुट- 20 भिनेत्यादिवृत्तद्वयेन कुसुमांजलिद्वयं प्रक्षिपेत् । पश्चात् कलशचतुष्टयेन स्नपनकाराः स्नानं कुर्युः । तदनन्तरमाहारस्थालं भगवतः पुरो दध्यात् । ततः परिधापनिकां लवणजलारात्रिकावतारणं मङ्गलप्रदीपं च प्रागवत् कुर्यात् - इति पञ्चामृतस्नानम् १ । ___एतच्च विशेषपर्वसु विघ्नशान्त्यै निरुपाधिवासनामात्रेण वा कुर्यात् । इदं च प्रायो दिक्पालादिस्थापन विना न भवतीत्यष्टाहिकाधुपयोगी तद्विधिः प्रदर्श्यते –'सद्वेद्यां भद्रपीठे' इति वृत्तद्वयेन कुसुमांजलिप्रक्षेप- 24 पर्यन्तं विधि विधाय, पट्टकं प्रक्षाल्य, देवपादपीठाग्रे निश्चलीकृत्य 'ज्ञानदर्शनचारित्रे'त्यादि वृत्तत्रयेण तत्र पट्टके पंचविंशतिं पूंजिकाः कुर्यात् । पुंजिकाशब्देन कुंकुममिश्रचन्दनटिक्कका ज्ञेयाः । क्रमश्वायम् - ज्ञान १ दर्शन २ चारित्र ३; वासव १ सोम २ यम ३ वरुण ४ कुवेर ५; शासनयक्ष १ शासनयक्षिणी २; आदित्य १ सोम २ मंगल ३ बुध ४ बृहस्पति ५ शुक्र ६ शनैश्चर ७ राहु ८ केतु ९; साधर्मिकदेवता १............भद्रकदेवता ३ क्षेत्रदेवता ४ देशदेवता ५ आगंतुकदेवता ६-एवं २५ । । स्थापना चेयम् - एवं पंचविशति पुंजिकाः कृत्वा बलिपुप्पधूपवासपूपिकादधिदुर्वाभिः प्रपूज्य, पुंजिकासु ..:. 'वये देवा' इति वृत्तनाग्खण्डितं जलधारादानं कुर्यात् । तत एकः फालिपत्रपर्पटादि• सो वा व ० . मिश्रवकुलादिप्रक्षे पबलिभाजनं गृह्णीयात् , अन्यो धारादानार्थं धारघटीम् , अपरश्च १००० कु ००० धूपदानम् , अन्यश्च पुप्पादीनि यथासंभवं वा। ततः प्रतिमाभिमुखां दिशं पूर्वी परिभाव्य 5 तत्संमुखं भूत्वा 'ऐरावतसमारूढ' इति वृत्तं पठित्वा प्रक्षेपबलिं प्रक्षिपेत् । 'एकं सदा वह्निदशेने' Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवपूजाविधि । स्वादिमिर्नवमिवृत्तैनवखपि दिक्षु संक्षिपेत् । नवरमाद्यान्त्यवृत्तयोर्नमोऽर्हत्सिद्धेत्यादि भणेत् । ततो प्रमशा कायसंगृहीतदेवतातोषणार्थ शेषवलिभाजनमधोमुखी कुर्यात् । अत एव केचिद्देहलीदेशे ब्रह्मशान्त्यादीनपि स्वाफ्यस्ति । ततश्च दिक्पालयोग्यं प्रक्षाकितं पट्टकं देवस्व दक्षिणबाहौ स्थापयित्वा 'यो भो सुरेति उद्वयेम दिमालयकोपरि कुसुमांजलिं क्षिपेत् । तद् 'इन्द्रमणियमं चैवेति वृत्तेन क्रमेण दिक्पालान् 'कुटुमानावनाटिककेषु खापयेत् । स्थापना चेयम् । तेषु दशपूपिका धूपसुरभिता दृधिदूर्वाक्षतपुष्पयुक्ता। 'प्राचीदिग्वधूवरेत्यादिवृत्तदशकं ६० ० पठित्वा क्रमेण दद्यात् । एकैकां पूपिकायेकैकेन वृत्तेन एकैकसिटिक्के दध्यात् । अत्राप्याद्या कु० ई० ०य न्त्यवृत्तयोर्नमोऽर्हत्सिद्भाचार्य इति भणेत् । तदिति -दिगविलि इखेन द्विपालानामुपरि वा ना० ने पुष्पांजलिं प्रक्षिपेत् । तदनन्तरं चैत्यवन्दनं साधुवन्दनं च कर्यात् । अनन्तरं 'मुक्कालंकारविकारे'त्यादिविधिः प्रागुक्त एव । यावन्मङ्गलप्रदीपे कृते शकस्तवानन्तरं सलादीपमनुज्ञाच्य ततो धूपमुत्क्षिपेतू । नमोऽर्हत्सिद्धेति गृणन् 'चोलोत्क्षेपैरिति वृत्तद्येन दिक्पालान् मिर्जयेत् । दिक्पालपट्टिकायामीशानदिक्पूपिकां मुक्त्वाऽन्यो नवदिक्पूपिका उत्तारयेत् । अंचलं वावता खेत । एवं 'शकाद्या लोकपाल' इति वृत्तेन गृहपट्टिकादैवतान् विसृज्यांचलावतारणं कुर्यात् । केचितू प्रथममतान् विसज्य पश्चादिकूपालान् विसृजन्ति । ___ अष्टाहिकासु प्रथमदिनादारभ्य शान्तिपर्वदिनं यावन्मूलप्रतिमा दिक्पालपट्टिका च न चालयेत् ; 18 ग्रहपट्टिका तूत्पाट्यैकदेशे मुश्चेत् । अष्टाह्निकाप्रारम्भश्च यद्यपि चैत्राश्विनयोः शुक्लाष्टमीत आरभ्य सर्वत्र रूढस्तथापि पूज्यश्रीजिनदत्तसूरीणामाम्नाये संघस्य चन्द्रबलाद्यपेक्षया तथा कर्तव्यो यथा सप्तभ्यष्टमीनवम्यः क्षुद्रदैववादिनतया रौद्रा अष्टाहिकामध्ये आयान्तीति गुरवः । अष्टाह्निकाद्यदेवपूजा देवद्रव्योत्पत्तिसाधर्मिकभोजनगीतनृत्यवादित्रादिप्रभावनाभिर्यथोत्तरमारोहप्रकर्षाः कर्तव्याः । एवमष्टाहिकासु सम्पूर्णासु नक्मदिने संघस्य चन्द्रबलाद्यभाने विरुद्भदिनसद्वैव(?) दिनांतरे वा शान्ति "पर्व कुर्यात् । वा चायं विधिः चन्द्रबलायुमेतशुभवेलायां जीवम्मातापितृश्वश्रूश्वशुरभञका निःशश्या नायिका माधर्मिकस्लीजन खवेश्मन्याहून ती ताम्बुलायुपचारं यथाशक्ति कृत्वा, शुभमापाकोतीर्ण वं............ ........... पूगफलहिरण्यगर्भ कण्ठाबद्धसुगन्धिकुसुममाल्यं चतुर्दिग्न्यस्तनागवल्लीदलं पिधानस्थगिताननं कला मर्दानबारोप्न विततायमाने चाल्लोचे पंचशब्दे वाधमाने मायनीषु शुभवनितासु शालिकमाईङ्गिकपालविकादिभ्यो दामं दूदानाः पेशकनेपथ्यपधानाः, दैवगृहसिंहद्वारं प्राप्य तवारभिचौ चन्दनपिष्टकादिसालितल्लनि दश्वा विधिना देवगृहं प्रविश्व गूंहलियां सुस्थितान्नुपरि कलशं स्थापयेत् । एतावता लास वाचना जाम । सतः सा साध्वी गृहमागल्य लपनेप्सितामयमाहारस्थालं प्रक्षेपबलिं पूपिकाश्च बीकुर्वान् । लतः शान्तिघोषका इन्द्राः कलशस्वोपर्याकाशे वंशादियष्टि कौसुंभचीरिकावेष्टितां तिर्यकू साथ, सच पुष्पमालां लम्बमानां कुम्भमुखं याद्धारयेयुः । ततः संघमाहूय प्रागुकरीत्या देवस्य धूपवेलां मङ्गलदीपान्तं कृत्वा ततः प्राग्वद् दिक्पालाहपट्टिके स्थापयित्वा प्रक्षेपबलिपूपिकादिविधि च तथैव विधाय, " ततः कलशपार्श्वतो बलिं विकीर्य शान्त्युदकग्रहणाय निक्रयम् , आदितः कलशग्राहिणीतस्तवनु संघाद् गृहीत्व कलशाने लपवेप्सिताहारस्थालं दत्त्वा कलशस्य परिधापनिकां 'शको यथा जिनपते'रिति वृत्तद्वयेन कुर्युः । सबष्टसपरि परिधापनिका कुम्भसमीपं यावल्लम्धयेयुः । ततः कुङ्कमद्भवेण कलशोदकं मिश्रयेयुः । ततः कुसुमांजळिलवणोदकारात्रिकावतारणानि मङ्गलप्रदीपं च कलशस्यैवाग्रे कुर्युः । मङ्गलप्रदीपश्च तादृकर्तव्यो थाहक् चैत्यवन्दनं शान्तिघोषणां च यावद् दीध्यते, नान्तरालेऽपि निर्वाति । इत्थं हि संघस्य श्रेय इति । । तता ऐपिथिकी प्रतिक्रम्य जानुभ्यां प्राग्वत् स्थित्वा नमस्कारान् शकस्तवं न भणित्वा, उत्थाय खापनार्हस्तव Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवपूजाविधि । १२७ दण्डकभणनादिविधिपूर्व चतो व मानक्षिरखराः स्तुतीर्दत्त्वा, ततः श्रीशान्तिनाथाराधनार्थ कायोत्सर्गमष्टोच्छासं कृत्वा, पारयित्वा श्रीशान्तिनाथस्य स्तुतिमेको दद्यात् , शेषाः कायोत्सर्गस्थाः शृणुयुः । ततः क्रमेण श्रीशान्तिदेवता-श्रुतदेवता-भवनदेवता-क्षेत्रदेवता-अम्बिका-पद्मावती-चक्रेश्वरी-अछुप्ता-कुबेरा-ब्रह्मशान्ति-गोत्रदेवता-शक्रादिसमस्तवैयावृत्त्यकराणां कायोत्सर्गान्ते प्राग्वत् सामाचारीदर्शिताः स्तुतीस्तेषामेव दद्यादन्या वा प्राकृतभाषानिबद्धाः । ततः शासनदेवताकायोत्सर्गे उद्योतकरचतुष्टयं चिन्तयित्वा तस्याः स्तुतिं दत्त्वा श्रुत्वा । वा, चतुर्विंशतिस्तवं भणित्वा, पंचमङ्गलं त्रिः पठित्वा, ततो जानुभ्यां स्थित्वा, शंक्रस्तवं भणित्वा, 'जावंति चेइआई' इत्यादिगाथाद्वयमधीत्य, परमेष्ठिस्तवं शान्तिस्तवं वा भणित्वा प्रणिपत्य, ततो मुक्ताशुक्त्या प्रणिधानगाथाद्वयं भणेयुः । इति चैत्यवन्दना समाता । ततो द्वौ धौतपोतिको श्रावकेन्द्रो कलशोदकेन भृङ्गारद्वयं भृत्वोभयतस्तिष्ठेताम् । एक स्थालके कृत्वा पुष्पचंदनवासान् गृह्णीयादपरश्च धूपायनं पाणिप्रणयीकुर्यात् । ततस्त एव श्रावका सप्तनमस्कारान् । पठित्वा सप्तधाराः कलशे निक्षिप्य 'नमोऽर्हत्सिद्धा०' इत्युच्चार्य आदौ – 'अजियं जियसहभयं' इति स्तवेनान्यैः स्वयं वा पठितेन शान्ति घोषयेयुः । सर्वपद्यानां प्रान्ते एकैकां धारां कलशे भृङ्गारग्राहिणौ समकालं दद्याताम् । एकश्च पुष्पादीन् क्षिपेदपरश्च धूपं दद्यात् । स्तवसमाप्तौ पुनभृङ्गारौ भृत्वा 'उल्लासिक्कम'स्तोत्रेण शान्ति घोषयेयुः । तथैव पुनर्भयहरस्तवेन, ततः - 'तं जयउ जये तित्थं तदनु 'मयरहिय'मिति स्तवेन तदनन्तरं 'सिग्घमवहरउ विग्घमिति स्तवेन, शान्ति घोषयेयुः । सर्वत्र पद्यसमाप्तौ कलशे धारादानपुष्पादिक्षेपाः प्राग्वत् । नवरं सर्वस्तवानामन्त्यवृत्तं निर्भणेयुः । ततश्च सप्तकृत्व उपसर्गहरस्तोत्रं भणित्वा धारादानपुष्पादिक्षेपविधिना शान्ति घोषयेयुः । शान्तौ च घोष्यमाणायां साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका उपयुक्तास्तुमुलं निवार्य शान्ति शृणुयुः । इति शान्तिघोषणं कृत्वा मङ्गलदीपमनुज्ञाप्य प्राग्वदिक्पालापहादीन् विसृज्य, प्रक्षाल्य, ततः प्रथमं कलशग्राहिण्यै शान्त्युदकं पूंगफलादि च समर्प्य, क्रमात् सकलसंधाय समर्पयेयुः । तच्च सर्वेषु उत्तमाङ्गायङ्गेषु लगयेयुगृहादि च तेनाभिषिचेयुः । इति शान्तिपर्वविधि। देवाहिदेवपूजाविही इमो भवियणुग्गहहाए । उपदर्शितो श्रीजिनप्रभसूरिभिराम्नायतः सुगुरोः॥ ॥ ग्रन्थागं० २६९ ॥ ॥ इति देवपूजाविधिः समाप्तः॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनप्रभसूरिकता प्राभातिकनामावली । सौभाग्यभाजनमभङ्गुरभाग्य भङ्गीसङ्गीतधामनिजधाम निराकृतार्कम् । अर्चामि कामितफलं हतिकल्पवृक्षं श्रीमन्तमस्तवृजिनं जिनसिंहसूरिम् ॥ १॥ केवलज्ञानी १ निर्वाणी २ [ इत्यादि ] २४ अतीतजिननामानि । ऋषभ १ अजित २ [ इत्यादि ] २४ वर्तमानजिननामानि । पद्मनाभ १ सूरदेव २ [ इत्यादि] २४ भविष्यज्जिननामानि । सीमंधर खामी १ युगंधर खामी २ [ इत्यादि] २० विहरमानजिननामानि । ॐ नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं [ इत्यादि] पंचनमस्काराः । इंद्रभूति १ अग्मिभूति २ [ इत्यादि] ११ गणधरनामानि । रोहिणी १ प्रज्ञप्ति २ [ इत्यादि ] १६ विद्यादेवीनामानि । अप्रतिचक्रा १ अजितबला २ [ इत्यादि] २४ जिनायक्षिणीनामानि । गोमुख १ महायक्ष २ [इत्यादि] २४ जिनयक्षनामानि । नाभि १ जितशत्रु २ [ इत्यादि] २४ जिनपितृनामानि । मरुदेवा १ विजया २ [ इत्यादि] २४ जिनमातृनामानि । भरत १ सगर २ [ इत्यादि] १२ चक्रवर्तिनामानि । त्रिपृष्ठ १ द्विपृष्ठ २ [ इत्यादि ] ९ अर्द्धचक्रिनामानि । अचल १ विजय २ [ इत्यादि] ९ बलदेवनामानि । अश्वग्रीव १ तारक २ [ इत्यादि] ९ प्रतिवासुदेवनामानि । समुद्रविजय १ अक्षोभ २ [इत्यादि] १० दशाहनामानि । युधिष्ठिर १ भीम २ [ इत्यादि ] ५ पांडवनामानि । ब्राह्मी । सुन्दरी । रोहिणी । दवदंती । सीता । अंजना । राजीवती [इत्यादि] सतीनामानि । बाहुबली । सुग्रीव । विभीषण । हनूमंत । दशार्णभद्र । प्रसन्नचन्द्र [ इत्यादि ] सत्पुरुषनामानि । सिद्धार्थ । जंबूखामि । प्रभव । शय्यंभव । यशोभद्र । संभूतविजय । भद्रबाहु । स्थूलभद्र । आर्यसुहस्ति । सिंहगिरि । धनगिरि । आर्यसमित । वैरस्वामि । आर्यरक्षित । दुबलिकापुष्यमित्र । घृतपुष्यमित्र । वस्त्र23 पुष्यमित्र । वज्रसेन । नागेन्द्र । चन्द्र । निर्वृति । उद्देहिक । कोट्याचार्य । जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण । सिद्ध सेन दिवाकर । उमाखाति वाचक । आर्यश्याम वाचक । गोविंद वाचक । रेवती । नागार्जुन । आर्यखपट । यशोभद्रसूरि । मल्लवादी । वृद्धवादी । वप्पट्टि । कालकसूरि । शीलांकसूरि । हरिभद्रसूरि । सिद्धऋषि । पादलिप्तसूरि । देवसूरि । नेमिचंद्रसूरि । उद्योतनसूरि । वर्द्धमानसूरि । जिननेश्वरसूरि । जिनचंद्रसूरि । जिनभद्रसूरि (2) अभयदेवसूरि । जिनवल्लभसूरि । जिनदत्तसूरि । जिनचंद्रसूरि । जिनपतिसूरि । जिनेश्वर30 सूरि । श्रीजिनसिंहसूरि । श्रीजिनप्रभसूरि । श्रीजिनदेवसूरि । ॥ इति प्राभातिकनामावली समाप्ता । विरचितेयं श्रीमजिनप्रभसरिभट्टारकमित्रैः ॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनप्रभसूरिकृताः स्तुतयः श्रीजिनप्रभसूरिकृताः स्तुतित्रोटकाः । - [१] - ते धनत्रयुकयत्थनरा, जे पणमहि सामिउं भत्तिभरा । फलवद्धिपृ द्वियपास जिणं, अससेणह नंदण भयहरणं ॥ १ ॥ वामाइविराणीउयरसरे, उप्पन्नउ सामिउ हंसपरे । तुम्हि बंद भवियहु भाउधरे, जिम दुत्तरु भउ संसार तरे ॥ २ ॥ इहि दून ममइ महच्छरियं, फलवद्धिपास जं अवयरियं । भवियण मणिच्छिय देउ सुहं, सो इक जीह वंनियइ कहं ॥ ३ ॥ झणझणण व्रणकहिं घग्घरियं, तद्दुनकटि नाकट्टि तिविल झणियं । लकुटारस नचहि इकमणी, भवियण आनंदिहिं जिणभवणी ॥ ४ ॥ - [२] - नियम फल रावणहं सुयं, दिवराय जु तित्थहं जत्त कियं । निच्चलवः १) णि वेचिउ निययधणं, विमलग्गिरि वंदिउ आदिजिणं ॥ १ ॥ दिवराय गरिसुनहु अंनु कली, जिणि दूसमसमहहिं माणु मली । सुवित्त खित्तिहि वरिउ धणं, उज्ञ्जिलगिरि पणमिउ नेमिजिणं ॥ २ ॥ विधि० १७ महिमंड हु संघ घणा, दिवराय सरिस नहु अंनु जणा । जिणि निरहं मज्झि सयं, देवालउ कड्डिउ जत्त कियं ॥ ३ ॥ फालिहाससिहरकर विमले, जसकलसु चडाविउ जेण कुले । मरगण या तोसिय धणवरिसे, अवयरिउ कंनु दिवरायमिसे ॥ ४ ॥ सिरिमजिणप्पभत्तिन्भरे, सुताणिहि मंनिउ विविह परे । पउमात्र पानिधि सयल जए, चिरु नंदउ देल्हिगु संघवए ॥ ५ ॥ ॥ त्रोटकाः ाः समाप्ताः ॥ १२९ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० श्रीजिनप्रभसूरिकृताः स्तुतयः श्रीजिनप्रभसूरिकृतं तीर्थयात्रास्तोत्रम् । सिरिसत्तुंजयतित्थे रिसइजिणं पणिवयामि भत्तीए । उजिंतसेलसिहरे जायवकुलमंडलं (०णं) नेमिं ॥१॥ सेरीसयपुरतिलयं पासजिणमणेयबिंबपरियरियं । फलवद्धी-संखेसर-थंभणयपुरेसु तह वंदे ॥२॥ पाडलनयरे नेमि नमिमो तारणगिरिंमि अजियजिणं । भरुयच्छे मुणिसुषयजिणेसरं सवलियविहारे ॥३॥ जीवंतसामिपडिमं वायडनयरंमि सुबयजिणस्स । चंदप्पहसामि तह हरपट्टणभूसणं थुणिमो ॥ ४ ॥ अहिपुर-जालउरेसु पल्हणपुर-भीमपल्लि-सिरिमाले । अणहिलपुर-सिरिखिजे आसावल्ली य धवलके ॥ ५॥ धंधुक्कय-खंभाइत्त जिंन (जिन) दुग्गाइसुं च ठानेसु । सव्वेसु जिणवराणं पडिमाओ पणिवयामि सया ॥ ६ ॥ तेरहसय छावत्तर विक्कमसंवच्छरंमि जिट्ठस्स । बहुलाइ तेरसीए नमिओ सित्तुजतित्थपहू ॥७॥ जिट्ठस्स पुंनिमाए नमंसिओ रेवयंमि जिणे । सिरिदेवरा[य] संघाहिवस्स संघेण विहिपुव्वं ॥ ८॥ सिरिजिणपहुसरीहिं रइयमिणं जे पढंति संथवणं । पावंति तित्थजत्ताकरणफलं ते विमलपुन्ना ॥९॥ ॥ इति तीर्थयात्रास्तोत्रं समाप्तं ॥ छ ॥ . Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ श्रीजिनप्रभसूरिकताः स्तुतयः श्रीजिनप्रभसूरिकृतं मथुरायात्रास्तोत्रम् । सुराचलश्रीजिति देवनिर्मिते स्तूपेऽभिरूपे वरदो(द) कृतास्पदौ । सुवर्णनीलोपलकोमलच्छवी सुपार्थ-पाधों मुदित[:] स्तवीमि वाम् ॥१॥ पृथ्वीसुतोऽपि त्रिजगजनानां क्षेमकरस्त्वं भगवान् सुपार्श्व । अपि प्रतिष्ठाङ्गरुहस्तमीश कथं च लोके जनितप्रतिष्ठः ॥२॥ पार्श्वप्रभो येन मनोभिरामत्वन्नाममत्रसरणैकतानाः । उच्चञ्चलच्चञ्चलतागुणाया भवन्ति ते मन्दिरमिन्दिरायाः ॥३॥ महीतलास्फालनघृष्टभालः सुपार्श्व ! सर्पत्पुलकैर्विशालः । कदा त्वदंहि प्रणिपातकर्मप्रमोदमेदखिमना [नमामि ॥ ४ ॥ यात्रोत्सवेषु प्रभुपार्श्व! तेत्रागतस्य संघस्य चतुर्विधस्य ।। उत्क्षिप्यमाणागुरुधूपधूमव्याजेन निर्यान्ति तमासमूहाः ॥५॥ समुच्चरमशिखप्रदीपच्छलेन वां सेवितुमागता अमी । शिरश्वकाशन्मणयः फणाभृतो निजं कृतार्थाः प्रतियान्ति मन्दिरम् ॥६॥ रुजा भुजङ्गार्णवदावदन्तिनो मृगाधिपस्तेन नरेन्द्रसंयुगाः। पिशाचशाकिन्यरयश्च तन्वतो भियं न तस्य स्मरतीह यो युवाम् ॥ ७॥ पादारविन्दं सुरवृन्दवन्धं वन्दारवो ये युवयोरनिन्धम् । देवी कुबेरा विपदस्तदीया समूलकाषं कषति प्रसन्ना ॥८॥ यौष्माकवीक्षारसमझनेत्रप्रसारिहर्षाश्रुभिराम्भसीकाः। ज्वलन्तमन्तर्निचिताघवहिं निर्वाफ्यन्ते जगतीह धन्याः ॥९॥ इति स्तुति श्रीमथुरापुरीस्थयोः पठन्ति ये वां शठतां विनाकृताः। सुपार्श्वतीर्थेश्वर पार्श्वनाथ वा जिनप्रभद्रं पदमाप्नुवन्ति ते ॥१०॥ ॥ इति श्रीमथुरायात्रास्तोत्रं समाप्तम् ॥ श्रीजिनप्रभसूरिकृता मथुरास्तूपस्तुतयः । श्रीदेवनिर्मितस्तूपशृङ्गारतिलकश्रियो । सुपार्श्व-पार्वतीर्थेशी क्लेशं नाशयतां सताम् ॥१॥ प्रमोदसंमदं पादपीठी लुठदधीश्वराः । कर्मालिनलिनीचन्द्राः......संभवंतु वः ॥२॥ मिथ्यात्वविषविक्षेपदक्षं सुमनसां प्रियम् । जिनास्यजलदे......जीयात् प्रवचनामृतम् ॥३॥ विनौषधातने निमा मधूपनशिरस्थिता । कुबेरा नरमारूढा मूढभावं भिनत्तु नः॥४॥ ॥ श्रीदेवनिर्मित स्तूप] स्तुतयः ॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रपाग्रन्थान्तर्गत-अवतरणात्मक पद्यानामकारादिक्रमेण सूचिः। 9 0 अज्झयणं नव सोलस ... ... . ५८ | उ०नि०आ०नि०आ०नि० उ० इगेग ... ६७ अट्ठमतवेण नाणं | उन्मृष्टरिष्टदुष्टप्रह. अट्ठावय-उजिंते | उम्मायं व लभिज्जा अणुजाणह परमगुरू | उवहणइ रोगमारी अणुजाणह संथारं २० एयगुणविप्पमुक्के अणुवट्ठावियासहं ३८ एव पवत्तिणिसहो अधिवासितं सुमत्रैः ... १०० एवं जोगविहाणं अन्नन्नदेसाण समागयाणं ... ११८ एवं नाऊण सया १०४ अन्नोन्नसाहु-सावय० ... ओ०रा०जी० पण्णवणा ... अप्पाहार अवड्डा ... कप्पियपयत्थकप्पण अभिनवसुगन्धिविकसित. कमलवने पाताले १०४ अरिहिं देवो गुरुणों कम्मक्खओवसमेणं अव्यङ्गामञ्जलिं दत्त्वा ... कयकप्पतिप्पकिरिया अस्सिणि-कित्तिय० कल्लाणकंदकंदल. अहो जिणेहिऽसावज्जा कालो गोयरचरिया आइएँ पणगं चउसु | काश्मीरजसुविलिप्त आयरिय उवज्झाए | किं पुण एगंतिय० आयरिया इह पुरओ कीरंति धम्मचक्के आवस्सयंमि एगो कुम्भानामभिमश्रणं आवाए संलोए... खामेमि सबजीवे इकासणाइ पंचसु गन्धाङ्गनानिकया ... १०० इणमेव महादाणं गहिऊण य मोकाई इन्द्रमनिं यमं चैव गिहिधम्मे चीवंदण इय अट्ठारसभेया गीयत्था कयकरणा इय पडिपुग्नसुविहिणा गुरुपरिधापनापूर्व० इय मिच्छाओ विरमिय ... चउहा अणत्थदंड इय लोए फलमेयं ... ... ४८ चक्रे देवेन्द्रराजैः उकोसेण दुवालस ... ... ४२ चतुःषष्टि समाख्याता उ०नि०आ०नि०आ०नि०आ० चत्तारि परमंगाणि उ०नि०आ०नि०आ०नि० उ०इगट्ठ ... ६७ चिइवंदण वेसऽपण .... Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ८९ १११ ९९ ९८ १५ ९७ छउमत्यो मूढमणो छग सत्तड नव दसगं जइ तं तिहिणियतवं जइ मे होज पमाओ जम्मामिसेय-निक्खमण ... जलधिनदीहदकुण्डेषु जह जम्बुस्स पइट्ठा जह मेरुस्स पइट्ठा जह लवणस्स पइट्ठा जह सग्गस्स पइट्ठा जह सिद्धाण पइट्ठा जं जह जिणेहिं भणियं जं जं मणेण बद्धं जं पि सरीरं इ8 जा सा करडी कब्बरी जिणबिंबपइटुंजे जिनबिम्बोपरि निपततु जियकोह-माण-माया जूयजयकीलणाई जे मे जाणंति जिणा जो वट्टमाणमासो ठाणनिसीहियउचार तम्हा तित्थयराणं तस्स य संसिद्धि तह छग सत्तड नव तह दुति चउ पण तह रेवइ त्ति एए ... तं अत्यं तं च सामत्थं तितिणिए चलचित्ते तित्ययराण भयवओ तिन्नि चउ पंच छक तिभिसया बाणउया तेणे कीवे रायावया० तो तह कायवं... थुइदाणमंतनासो थोवोवहिओवगरणा :::::::::::::::::::::::::::::::::::: विधिप्रपा-अवतरण-सूचिः । ... ७६ दवं तमेव मन्नइ ... २८ दासे दुढे य मूढे ... ९७ देविंदवंदियपएहिं ७७ देसे कुलं पहाणं ११७ दो चेव तिरत्ताई १०० धन्ना सुणंति एवं धम्माउ भह सिरि० धूपश्च परमेष्ठी च नानाकुष्टाद्यौषधि० नानारनौघयुतं नानासुगन्धपुष्पौष ० निक्षेप्यः कुसुमाञ्जलिः निधाणमन्तकिरिया पइदिवसं सज्झाए पच्छिम छट्टि चउहसि ... पडणीय दुट्ट तन्जिय पडिमाइ सबभहाए पडिमादाहे भंगे पढम एगसरं चिय पढिए य कहिय पण छग सत्तग अड पण छग सत्तेक पन्नरसंगो एसो पभणामि महाभई पर्वतसरोनदीसंगमा० ७८ पंचपरमिटिमुद्दा ११८ पाणिवह-मुसावाए ८० पातालमन्तरिक्षं भवनं ... ११७ पातालमन्तरिक्षं भुवनं ... २८ पियधम्मा सुविणीया ... २८ पुष्विं पडिवय नवमी ... ८९ प्लक्षाश्वत्थोदुम्बर० ... ३ बाले वुड्डे नपुंसे ... १०३ भदाइतवेसु तहा ... ४० महोत्तरपडिमाए ३८ २८ ०१ १०८ au N M Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.३४ ९९ ६ :::::::::::::: ... १११ 20 भूएसु जंगमत्तं भूतानां बलिदान मकरासनमासीनः मुद्रा मध्याङ्गुली० मेवाद्यौषधिभेदोऽपरो० मोणेण सुरहिदव बदजिनमनादेव यदधिष्ठिताः प्रतिष्ठाः यस्याः सांनिध्यतो या पाति शासनं रत्ननानकषायमजन राया देसो नगरं राया बलेण वड्इ लाभमि जस्स नूणं लिप्पाइमए वि विही लोए वि अणेगंतियः लोगम्मि उडाहो वत्थन्नपाणासण० वत्थाइअपडिलेहिय वदन्ति वन्दारुगणा० विश्वाशेषेषु वस्तुषु बूढो गणहरसहो शक्रः सुरासुरवरैः शशिकरतुषारधवला शीतलसरससुगन्धिः , विधिप्रपा-अवतरण-सूचिः । ... २ सकलौषधिसंयुक्त्या ... ... ११० सग तेरस दस चोइस ... ... १०७ सग्गहनिबुड एवं सत्तय छ चउ चउरो सम्मत्तमूलमणुवय० सम्मत्तं सुविसुद्धं सयभिसया भरणीओ ... १०२ सर्वोषध्यथ सूरि० सहदेव्यादिसदौषधि० ... ... १०१ संकोइयसंडासे० । ... १११ | संगहुवग्गहनिरओ संघजिणपूयवंदण ... १०३ साहू य साहूणीओ ... ११ सिया एगइओ लर्बु १०३ सीले खाइयभावो | सुतत्थे निम्माओ | सुत्ते अत्थे भोयण | सुपवित्रतीर्थनीरेण २१ सुपवित्रमूलिकावर्ग ___३० सुमइत्थ निच्चभत्तेण ... १०१ | सुरपतिनतचरणयुगान् ... ७४ | सूयगडे सुयखंधा ३० हा दुगु कयं हा दुहु ... १०० | हृद्यैराहादकरैःस्पृहणीयै० ... ... १०० | होइ बले विय जीयं :: :: :: :: :: :: :: :: :: :: :: :: : ० ::::::::::::::::::::::::: ur ० 0 C ११ सय ७४ ११८/ :::::::: Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिप्रपाग्रन्थान्तर्गतानां विशेषनाम्नां अकारादिक्रमेण सूचिः। ४५ ५८ ४५,५७ ४५ ४५,५७,७७ १११ २४ ४५ ४५,५७ अजियसंतित्थय ७९ खुड्डियाविमाणपविभत्ती अट्ठावय १० गच्छायार अणुओगदार १७,४५ गणिविज्जा अणुत्तरोववाइय ४५,५६ गुरुलोववाय अरुणोववाय ४५ गोट्ठ असंखय . ४९ गोट्ठमाहिल अंगचूलिया ४५ गोट्ठामाहिल ) अंतगडदसा २५.५६ चउसरण आउरपचक्खाण ४५,५७,७७ चरणविही आयविसोही चंदपन्नत्ती आयार,-आयारंग ४५,५०,५१ चंदाविज्झय आयारनिजुत्ती चन्द्रसूरि आवस्सग(य) १७,३८,४०,४८ चारणभावणा आवस्सयचुण्णी चुल्लकप्पसुय आसीविसभावणा | जंबुद्दीवपण्णत्ती इसीभासिय इजिंततित्थ | जीवाभिगम उट्ठाणसुय जोगविहाण उत्तरायण ३५,४०,४५,४९,५०,७७ जिणचंदसूरि उदयाकर गणी १२० जिणदत्तसूरि उवहाणपइहापंचासय १६ जिणपहसूरि उवासगदसा ४५,५६ जिणवइसूरि ओवाइय ४५, ५७ जिणवल्लहसूरि ओह निजत्ती ४९ जिणसिंहसूरि कथारबकोश १४४ जिणेसरसूरि कप्प ४५, ५२ झाणविभत्ती कप्पवडिसिय ४५, ५७ ठाण, - ठाणंग कप्पभास १७ | तंदुलवेयालिय कप्पिय तेयग्गनिसग कप्पिया ५७ थूलभर कप्पियाकप्पिय ४५ थेरावलिय कोसळनयर १२० दसा ४५, ५८ जीयकप्प ४५,५७ १२० ८६, १२० १२० १२० १५ ४५,५२,५७ ४५,५७ ४५,५१ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ विधिप्रपा-विशेषनाम-सूचि । १५ ४५,५७ .....४.३५१६ ४५ ४५,५७ १,७ २४,४५,५२ १८ ५२ ४५ ११९ ४५,५६ ४५ दसकालिय। ४९ महापण्णवणा दसवेयालिय) ३८,४५ महापरिणा दिहिवाओ ४५,५६ महासुमिणगभावणा दिद्विविसभावणा ४५ | मंडलिपवेस दीवसागरपण्णत्ति | माणदेवसूरि दुब्बलिसरि रायपसेणइ देवदत्थय । वइरसामि देविंदत्थय । वग्गचूलिया देविंदोववाय वहीदसा धरणोववाय वद्धमाणविजा नवकारपडल ववहार नवकारपंजिया ववहारज्झयण नंदि १६,१७,४५ ववहारसुयखंध नागपरियावलिय वीयरायसुय नाया वीरत्थय नायाधम्मकहा ४५,५५ निरयावलिया विज्जाचरणविणिच्छिय ४५,५७ निसीह १६,४५,५२ विणयचंदसूरि पण्णवणा विवागसुय पहावागरण ४०,१५,४९,५६ विवाहचूलिया पमायप्पमाय विवाहपण्णत्ती पञ्चज्जाविहाण विहारकप्प पंचकम्प विहिमग्गपवा पालिजयसूरि वेलंधरोववाय पिंडनिजुत्ती वेसमणोववाय पुप्फचूलिया सत्यपुर पुष्फिा । समवाय,-वायंग पुफिया । समुट्ठाणसुय पोरिसीमंडल सयग बोडिड संगहणी भगवई ४९,५४,५७ संथारय मतपरिणा संलेहणासुय मथुरापुरि सामाइयनिजृत्ति मरणविसोही सिद्धचक्क मरणसमाहि ५७,७७ सीलंकायरिय महल्लियाविमाणपविभत्ती ४५ सूरपण्णत्ती महाकप्पसुय महानिसीह १५,१६,१७,१९,४०,४९,५८ | सूरिमंत महापाक्खाण ५७,७७ | सूरिमंतकप्प ४५ ४५ १२० ४५ .......... १ १७ ५७,७७ ४५ १८ सूयगड Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय विनयसागर जन्म-तिथि : 1 जुलाई, 1929 पिता : (स्व.) श्री सुखलालजी झाबक गुरू : स्व. श्री जिनमणिसागरसूरिजी म0 शैक्षणिक योग्यता - साहित्य महोपाध्याय 2. साहित्याचार्य 3. जैन दर्शन शास्त्री आदि सामाजिक उपाधियाँ शास्त्र विशारद, उपाध्याय, महोपाध्याय, विद्वदूरत्न सम्मानित - राजस्थान शासन शिक्षा विभाग, जयपुर नाहर सम्मान पुरस्कार, मुम्बई साहित्य वाचस्पति : सर्वोच्च मानद उपाधि : हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग प्राकृत भारती अकादमी द्वारा गौतम गणधर पुरस्कार, 1999 से सम्मानित। साहित्य सेवा सन् 1948 सेनिरन्तर शोध, लेखन, अनुवाद, संशोधन-संपादन का कार्य करते रहे हैं। वल्लभ भारती, कल्पसूत्र आदि विविध विषयों के 45 ग्रन्थ प्रकाशित होचुके हैं। और प्राकृत भारती अकादमी के 132 प्रकाशन इन्हीं के सम्पादकत्व में प्रकाशित हुए हैं। शोध पूर्ण पचासों निवन्ध भी प्रकाशित हो चुके है। भाषा एवं लिपिज्ञान - प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, गुजराती, राजस्थानी, हिन्दी भाषाओं एवं पुरालिपि का विशेष नान। सम्प्रति - सन् 1977 से प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर के निदेशक एवं संयुक्तसचिव पद पर कार्यरत। rate & Personal use only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छआचार्यपट-परम्परा ऋ आचार्य का नाम स आचार्य का नाम 1. श्री वर्द्धमानसूरि 20 श्री जिनसमुद्रसूरि 2. श्री जिनेश्वरसूरि 21 श्री जिनहंससूरि 3. श्री जिनचन्द्रसूरि 22 श्री जिनमाणिक्यसूरि 4. श्री अभयदेवसूरि 23 युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि (चतुर्थ दादा) 5. श्री जिनवल्लभसूरि 24 श्री जिनसिंहसूरि 6. युगप्रधान जिनदत्तसूरि (प्रथम दादा) 25 श्री जिनराजसूरि (द्वितीय) 7. मणिधारी जिनचन्द्रसूरि (द्वितीय दादा) 26 श्री जिनरत्नसूरि 8. श्री जिनपतिसूरि 27 श्री जिनचन्द्रसूरि 9. श्री जिनेश्वरसूरि (द्वितीय) 28 श्री जिनसुखसूरि 10. श्री जिनप्रबोधसूरि 29 श्री जिनभक्तिसूरि 11. श्री जिनचन्द्रसूरि 30 श्री जिनलाभसूरि | 12. श्री जिनकुशलसूरि (तृतीय दादा) 31 श्री जिनचन्द्रसूरि 13. श्री जिनपद्मसूरि 32 श्री जिनहर्षसूरि 14. श्री जिनलब्धिसूरि 33 श्री जिनसौभाग्यसूरि 15. श्री जिनचन्द्रसूरि 34 श्री जिनहंससूरि 16. श्री जिनोदयसूरि 35 श्री जिनचन्द्रसूरि 17. श्री जिनराजसूरि 36 श्री जिनकीर्तिसूरि 18. श्री जिनभद्रसूरि 37 श्री जिनचारित्रसूरि 19. श्री जिनचन्द्रसूरि 38 श्री जिनविजयेन्द्रसूरि खरतरगच्छ कीशाखाएं:1. मधुकर शाखा, 2. रुद्रपल्लीय शाखा, 3. लघुखरतर शाखा, 4.बेगड़शाखा, 5. पिप्पलक शाखा, 6. आद्यपक्षीय शाखा, 7. भावहर्षशाखा 8. आचार्य शाखा, 9. जिनरंगसूरि शाखा, 10. मण्डोवरी शाखा उपशाखाएं:1. क्षेमकीर्ति शाखा, 2. जिनभद्रसूरि शाखा, 3. सागरचन्द्रसूरिशाखा 4. कीर्तिरत्नसूरिशाखा 5. श्रीसारशाखा संविग्नपक्षीय साधु- परम्परा :1. महोपाध्याय क्षमाकल्याण वर्तमान में संविग्नपक्षीय तीनसाधुसमुदाय (परम्पराएं) हैं:1. श्री सुखसागरजी समुदाय, 2. श्री मोहनलालजी समुदाय 3. श्री जिनकृपाचन्द्रसूरिजी समुदाय Jain ES