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संपादकीय प्रस्तावना कियाका वर्णन करनेवाले भिन्न भिन्न विधान-प्रकरण हैं; और ३४ वें 'आलोयणविही' संज्ञक प्रकरणमें ज्ञानातिचार, दर्शनातिचार आदि आलोचना विषयक अनेक भिन्न भिन्न अन्तर्गत प्रकरण हैं । इसी तरह ३५ ३ 'पट्टाविही' नामक प्रकरणमें जलानयनविधि, कलशारोपणविधि, ध्वजारोपणविधि-आदि कई एक भानुषंगिक विधियोंके स्वतंत्र प्रकरण सनिविष्ट हैं।
इन ११द्वारों-प्रकरणोंमेंसे प्रथमके १२ द्वारोंका विषय, मुख्य करके श्रावक जीवनके साथ संबंध रखनेवाली किया-विधियों का विधायक है। १३ वे द्वारसे ले कर २९ वे द्वार तकमें विहित क्रिया-विधियां प्रायः करके साधु जीवनके साथ संबंध रखती हैं और भागेके ३०वें द्वारसे लेकर अन्तके ४१वे द्वार तकमें वर्णित क्रिया-विधान, साप और श्रावक दोनोंके जीवनके साथ संबंध रखनेवाली कर्तव्यरूप विधियोंके संग्राहक हैं।
यहां पर संक्षेपमें इन ११ ही द्वारोंका कुछ परिचय देना उपयुक्त होगा।
१ पहले द्वारमें, सबसे प्रथम, श्रावकको किस तरह सम्यक्स्ववत ग्रहण करना चाहिये-इसकी विधि बतलाई गई है। इस सम्यक्स्वव्रतग्रहणके समय श्रावकके लिये जीवन में किन किन निस्य और नैमित्तिक धर्मकृत्योंका करना आवश्यक हैं और किन किन धर्मप्रतिकूल कृत्योंका निषेध करना उचित है, यह संक्षेपमें अच्छी तरह बतलाया गया है।
२ दूसरे द्वार में, सम्यक्त्वव्रतका ग्रहण किये बाद, जब श्रावकको देशविरति व्रतके अर्थात् श्रावकधर्मके परिचायक ऐसे १२ व्रतोंके ग्रहण करनेकी इच्छा हो, तब उनका ग्रहण कैसे किया जाय - इसकी क्रिया-विधि बतलाई है। इसका नाम 'परिग्रहपरिमाणविधि' है-क्यौं कि इसमें मुख्य करके श्रावकको अपने परिग्रह यानि स्थावर और जंगम ऐसी संपत्तिकी मर्यादाका विशेषरूपसे नियम लेना आवश्यक होता है और इसीलिये इसका दूसरा प्रधान नाम परिग्रहपरिमाणविधि रखा गया है। इसमें यह भी कहा गया है कि इस प्रकारका परिग्रहपरिमाणवत लेनेवाले श्रावक या भाविकाको अपने नियमकी सूचिवाली एक टिप्पणी (यादी-सूचि) बना लेनी चाहिये और उसमें नियमोंकी सूचिके साथ यह लिखा रहना चाहिये कि यह व्रत मैंने अमुक आचार्य के पास अमुक संवत्के अमुक मास और तिथिक दिन ग्रहण किया है-इत्यादि।
३ तीसरे द्वारमें, इस प्रकार देशविरति यानि श्रावकधर्मवत लेनेके बाद श्रावकको कभी छ महिनेका सामायिक व्रत भी लेना चाहिये, यह कहा गया है और इसकी ग्रहणविधि बतलाई गई है।
४ चौथे द्वारमें, सामायिकवतके ग्रहण और पारणकी विधि कही गई है। यह विधि प्रायः सबको सुज्ञात ही है।
५ पांचवें द्वारमें, उपधान विषयक क्रियाका विस्तृत वर्णन और विधान है। इसके प्रारंभमें कहा गया है कि-कोई कोई प्राचार्य इस प्रसंगमें, श्रावककी जो १२ प्रतिमायें शास्त्रोंमें प्रतिपादित की हुई हैं, उनमें से प्रथमकी ४ प्रतिमाओंका ग्रहण करना भी विधान करते हैं; परंतु, वह हमारे गुरुओंको सम्मत नहीं है। क्यों कि शास्त्रकारोंने ऐसा कहा है कि वर्तमान कालमें प्रतिमाग्रहणरूप श्रावकधर्म व्युच्छिन्नप्राय हो गया है, इसलिये इसका विधान करना उचित नहीं है।
६ उक्त उपधान विधिमें, मुख्य रूपसे पंचमंगलका उपधान वर्णित किया गया है, इसलिये ६ ठेद्वार में उसकी सामाचारी बतलाई गई है।
७ उपधान तपकी समाप्तिके उद्यापनरूपमें मालारोपणकी क्रिया होनी चाहिये, इसलिये वे द्वारमें, विस्तारके साथ मालारोपणकी विधि बतलाई गई है। इस विधिमें मानदेवसूरिरचित ५५ गाथाका 'उवहाणविही' नामका पूरा प्राकृत प्रकरण, जो महानिशीथ नामक भागमभूत सिद्धान्तके आधार परसे रचा गया है, उद्धृत किया गया है।
८ इस महानिशीथ सिद्धान्तकी प्रामाणिकताके विषय में प्राचीन कालसे कुछ आचार्योंका विशिष्ट मतभेद चला भा रहा है, और वे इस उपधानविधिको अनागमिक कहा करते हैं, इसलिये ८वें द्वारमें, इस विधिके समर्थनरूप 'उवहाणपइट्टापंचासय' (उपधानप्रतिष्ठापंचाशक) नामका ५१ गाथाका एक संपूर्ण प्रकरण, जो किसी पूर्वाचार्यका बनाया हुआ है, उद्धृत कर दिया है। इस प्रकरणमें महानिशीथ सूत्रकी प्रामाणिकताका यथेष्ट प्रतिपादन किया गया है।
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