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आ
विधि प्रपा
इस ग्रन्थकी विशिष्टता।
यों तो श्रीजिनप्रभ सूरिकी-जैसा कि इसके साथमें दिये हुए उनके चरित्रात्मक निबन्धसे ज्ञात होता हैसाहित्यिक कृतियां बहुत अधिक संख्यामें उपलब्ध होती है। पर उन सबमें, इनकी ये दो कृतियां सबसे अधिक महस्वकी और मौलिक हैं- एक तो विविध तीर्थ कल्प'; और दूसरी यह 'विधिमार्गप्रपा सामाचारी'|'विविधतीर्थ करुप' नामक अन्धके महत्वके विषयमें, संक्षेपमें पर सारभूत रूपसे, हमने अपनी संपादित आवृत्तिकी प्रस्तावनामें लिखा है, इसलिये उसकी यहांपर पुनरुक्ति करनेकी कोई आवश्यकता नहीं। यह विधिप्रपा प्रन्थ कैसा महत्वका शास्त्र है इसका परिचय तो जो इस विषयके जिज्ञासु और मर्मज्ञ हैं उनको इसका अवलोकन और अध्ययन करनेहीसे ठीक ज्ञात हो सकता है। स्व. जर्मन विद्वान् प्रो. वेबरने जो 'सेकेड बुकस् ऑफ दी जैनस्' इस नामका सुप्रसिद्ध और सुपठित ऐसा जैनागमोंका परिचायक मौलिक निबन्ध लिखा है उसमें मुख्य आधार इसी अन्यका लिया है।
ग्रन्थका रचना-समय ।
जिनप्रभ सूरिने इस ग्रन्थकी रचना समाप्ति वि. सं. १३६३ के विजयादशमीके दिन, कोशला अर्थात् अयोध्या नगरीमें की है। इसकी प्रथम प्रति उनके प्रधान शिष्य वाचनाचार्य उदयाकर गणिने अपने हाथसे लिखी थी।
यह कृति उनकी प्रौढावस्था में बनी हुई प्रतीत होती है। जैसा कि उनके जीवनचरित्रविषयक उल्लेखोंसे ज्ञात होता है, उन्होंने वि. सं. १३२६ में दीक्षा ली थी; अतः इस ग्रन्थके बनानेके समय उनका दीक्षापर्याय प्रायः ३७ वर्ष जितना हो चुका था। इस दीर्घ दीक्षाकालमें उन्होंने अनेक प्रकारके विधि-विधान स्वयं अनुष्ठित किये होंगे और सेंकडों ही साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकाओंको कराये होंगे, इसलिये उनका यह ग्रन्थसन्दर्भ, स्वयं अनुभूत एवं शास्त्र और संप्रदायगत विशिष्ट परंपरासे परिज्ञात ऐसे विधानोंका एक प्रमाणभूत प्रणयन है। इसमें उन्होंने जगह जगह पर कई पूर्वाचार्योंके कथनोंको उल्लिखित किया है और प्रसङ्गवश कुछ तो पूरे के पूरे पूर्वरचित प्रकरण ही उद्धृत कर दिये हैं। उदाहरणके लिये- उपधानविधिमें, मानदेवसूरिकृत पूरा 'उवहाणविही' नामक प्रकरण, जिसकी ५४ गाथायें है, उद्धृत किया गया है। उपधानप्रतिष्ठा प्रकरणमें, किसी पूर्वाचार्यका बनाया हुआ 'उवहाणपइट्रापंचासय' नामक प्रकरण अवतारित है, जिसकी ५१ गाथायें हैं। पौषधविधि प्रकरण में, जिनवल्लभसूरिकृत विस्तृत 'पोसहविहिपयरण'का, १५ गाथाओंमें पूरा सार दे दिया है। नन्दिरचनाविधिमें, ३६ गाथाका 'अरिहाणादिथुत्त' उद्धृत किया है। योगविधिमें, उत्तराध्ययनसूत्रका 'असंखयं' नाम १३ पथोंवाला ४ था अध्ययन उद्धृत कर दिया है । प्रतिष्ठाविधिमें, चन्द्रसूरिकृत ७ प्रतिष्ठा संग्रहकाव्य, तथा कथारत्नकोश नामक ग्रन्थ मेंसे ५. गाथावाला 'ध्वजारोपणविधि' नामक प्रकरण उद्धृत किया गया है । और ग्रन्थके अन्तमें जो अंगविद्यासिद्धिविधि नामक प्रकरण है वह सैद्धान्तिक विनयचन्द्रसूरिके उपदेशसे लिखा गया है। इस प्रकार, इस ग्रन्थमें जो विधिविधान प्रतिपादित किये गये हैं वे पूर्वाचार्योंके संप्रदायानुसार ही लिखे गये हैं, न कि केवल स्वमतिकल्पनानुसारऐसा ग्रन्थकारका इसमें स्पष्ट सूचन है। जिनको जैन संप्रदायगत गण-गच्छादिके मेदोपभेदोंके इतिहासका अच्छा ज्ञान है उनको ज्ञात है कि, जैन मतमें जो इतने गच्छ और संप्रदाय उत्पन्न हुए हैं और जिनमें परस्पर बडा तीन विरोधभाव व्याप्त हुआ ज्ञात होता है, उसमें मुख्य कारण ऐसे विधि-विधानोंकी प्रक्रियामें मतभेद का होना ही है। केवल सैद्धान्तिक या तात्त्विक मतभेदके कारण वैसा बहुत ही कम हुआ है।
ग्रन्थगत विषयोंका संक्षिप्त परिचय ।
जैसा कि इसके नामसे ही सूचित होता है-यह ग्रन्थ, साधु और श्रावक जीवन में कर्तव्य ऐसी निस्य और नैमित्तिक दोनों ही प्रकारकी क्रिया-विधियोंके मार्ग में संचरण करनेवाले मोक्षार्थी जनोंकी जिज्ञासारूप तृष्णाकी तृप्तिके लिये एक सुन्दर 'प्रपा' समान है। इसमें सब मिला कर मुख्य द्वार यानि प्रकरण हैं । इन द्वारोंके नाम, ग्रन्थके अन्तमें, स्वयं शास्त्रकारने १ से इतककी गाथाओंमें सूचित किये हैं। इन मुख्य द्वारों में कहीं कहीं कितनेक भवान्तर हार भी सम्मिलित हैं जो यथास्थान उल्लिखित किये गये हैं। इन भवान्तर द्वारोंका नामनिर्देश, हमने विषयानुक्रमणिकामें कर दिया है । उदाहरणके तौर पर, २४ । 'जोगविही' नामक प्रकरणमें, दशवैकालिक आदि सब सूत्रोंकी योगोदहन
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