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संपादकीय प्रस्तावना संपादकीय प्रस्तावना ।
पी जैन ग्रन्थ मालामें प्रकाशित श्रीजिनप्रभसूरिकृत विविधतीर्थकल्प नामक अद्वितीय अन्धका
"संपादन करते समय ही हमारे मन में इनके बनाये हुए ऐसे ही महत्वके इस विधिप्रपा नामक ग्रन्थका संपादन करनेका भी संकल्प हुआ था और इसके लिये हमने इस ग्रन्थकी हस्तलिखित प्रतियां भी इकही करनेका प्रयत्न करना प्रारंभ किया था । इतने में, संवत् १९९५ में, बंबईके महावीर स्वामी मन्दिरमें चातुर्मासार्थ रहे हुए सौम्यमूर्ति उपाध्यायवर्य श्रीसुखसागरजी महाराज व उनके साहित्यप्रकाशनप्रेमी शिष्यवर श्रीमुनि मंगलसागरजीसे साक्षात्कार हुआ, और प्रासङ्गिक वार्तालाप करते हुए हमने इनके पास विधिप्रपाकी कोई अच्छी प्रतिके होनेकी पृच्छा की। इस पर उपाध्यायजी महाराजने इच्छा प्रकट की कि-"इस प्रन्धको प्रकाशित करनेकी तो हमारी भी बहुत समयसे प्रबल इच्छा हो रही है और यदि आप इस कामको हाथमें लें तो हमारे लिये बहुत ही आनन्द और अभिमानकी बात होगी; और हम श्रीजिनदत्तसूरि-प्राचीन-पुस्तकोद्धार फण्ड की ओरसे इसके प्रकाशित करनेका बडे प्रमोदसे प्रबन्ध करेंगे"-इत्यादि । चूं कि यह ग्रन्थ खरतर गच्छके एक बहुत बडे प्रभाविक आचार्यकी प्रमाणभूत कृति है और इसमें खास करके इस गच्छकी सामाचारीके सम्मत विधि-विधानोंका ही गुम्फन किया हुआ है इसलिये यदि यह श्रीजिनदत्तसूरि-प्राचीन-पुस्तकोद्धार-ग्रन्थावलिमें गुम्फित हो कर प्रकाशित हो तो
और भी विशेष उचित और प्रशस्त होगा-ऐसा सोच कर हमने उपाध्यायजी महाराजकी आदरणीय इच्छाका सहर्ष स्वीकार कर लिया और इनके सौजन्यपूर्ण सौहार्दभावके वशीभूत हो कर हमने, इस ग्रन्थका यह प्रस्तुत संपादन कर, इनकी स्नेहाङ्कित आज्ञाका, इस प्रकार यथाशक्ति सादर पालन किया।
उपाध्यायजीकी यह प्रबल उत्कंठा थी कि इनके बंबईके वर्षानिवास दरम्यान ही इस ग्रन्थका प्रकाशन हो जाय तो बहुत ही अच्छा हो, पर हम इसको इतना शीघ्र पूरा न कर सके । क्यों कि हमारे हाथमें सिंघी जैन ग्रन्थमालाके अनेकानेक ग्रन्थोंका समकालीन संपादनकार्य भरपूर होनेके अतिरिक्त, बम्बईमें नवीन प्रस्थापित भारतीय विद्याभवनकी ग्रन्थावलि और 'भारतीय विद्या' नामक संशोधन विषयक प्रतिष्ठित त्रैमासिक पत्रिकाका विशिष्ट संपादनकार्य भी हमारे ऊपर निर्भर है, इसलिये प्रस्तुत ग्रन्थके संपादनमें कुछ विलंब होना अनिवार्य था ।
ग्रन्थका नामाभिधान।
इस ग्रन्थका संपूर्ण नाम, जैसा कि ग्रन्थकी सबसे अन्तकी गाथामें सूचित किया गया है, विधिमार्गप्रपा नाम सामाचारी (विहिमग्गपवा नाम सामायारी, देखो पृ० १२०, गाथा १६) ऐसा है । पर इसकी पुरानी सब प्रतियोंमें तथा अन्यान्य उल्लेखोंमें भी संक्षेपमें इसका नाम 'विधिप्रपा' ऐसा ही प्रायः लिखा हुआ मिलता है। इसलिये हमने भी मूल ग्रन्थमें इसका यही नाम सर्वत्र मुद्रित किया है; पर वास्तव में ग्रन्थकारका निजका किया हुआ पूर्ण नामाभिधान अधिक अन्वर्थक और संगत मालूम देता है, इसलिये पुस्तकके मुखपृष्ठ पर यह नाम मुद्रित करना अधिक उचित समझा है । इस विधिमार्ग' शब्दसे ग्रन्थकारका खास विशिष्ट अभिप्राय उद्दिष्ट है । सामान्य अर्थमें तो 'विधिमार्ग' का 'क्रियामार्ग' ऐसा ही अर्थ विवक्षित होता है, पर यहांपर विशेष अर्थमें खरतरगच्छीय विधि-क्रिया-मार्ग ऐसा भी अर्थ अभिप्रेत है । क्यों कि खरतर गच्छका दूसरा नाम विधिमार्ग है और इस सामाचारीमें जो विधि-विधान प्रतिपादित किये गये है वे प्रधानतया खरतर गच्छके पूर्व आचार्यों द्वारा स्वीकृत और सम्मत है। इन विधि-विधानोंकी प्रक्रियामें और और गच्छके आचार्योंका कहीं कुछ मतभेद हो सकता है ओर है भी सही । अतएव अन्धकारने स्पष्ट रूपसे इसके नाममें किसीको कुछ भ्रान्ति न हो इसलिये इसका 'विधिमार्ग प्रपा' ऐसा अन्वर्थक नामकरण किया है। तदुपरान्त, ग्रन्थकारने, ग्रन्थकी प्रशस्तिकी प्रथम गाथामें, यह भी सूचित किया है कि-'भिन्न भिन्न गच्छोंमें प्रवर्तित अनेकविध सामाचारियोंको देख कर शिष्योंको किसी प्रकारका मतिभ्रम न हो इसलिये अपने गच्छकी प्रतिबद्ध ऐसी यह सामाचारी हमने लिखी है। इसलिये इसका यह 'विधिमार्ग प्रपा' नाम सर्वथा सुन्दर, सुसंगत और वस्तुसूचक है ऐसा कहने में कोई अत्युक्ति नहीं होगी।
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