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विधि पां
९ वें द्वारमें, श्रावकको पर्वादिके दिन पौषध घत लेना चाहिये, इसका विधान है और इस व्रतके ग्रहणपारणकी विधि बतलाई गई है। इसके अन्तकी गाथामें कहा है कि श्रीजिनवल्लभसूरिने जो पौषधविधिप्रकरण बनाया है उसीके आधार पर यहांपर यह विधि लिखी गई है। जिनको विशेष कुछ जाननेकी इच्छा हो वे उक्त प्रकरण देखें।
१० में प्रकरण में, प्रतिक्रमणसामाचारीका वर्णन दिया गया है, जिसमें देवसिक, शत्रिक और पाक्षिक (इसी में चातुर्मासिक और सांवत्सरिक भी सम्मिलित है) इन तीनों प्रतिक्रमणोंकी विधियोंका यथाक्रम वर्णन प्रथित है।
११ वें द्वारमें, तपोविधिका विधान है। इसमें कल्याणक तप, सर्वांगसुन्दर तप, परमभूषण, भायतिजनक, सौभाग्यकल्पवृक्ष, इन्द्रियजय, कषायमथन, योगशुद्धि, अष्टकर्मसूदन, रोहिणी, अंबा, ज्ञानपंचमी, नन्दीश्वर, सत्यसुखसंपत्ति, पुण्डरीक, मातृ, समवसरण, अक्षयनिधि वर्द्धमान, दुवदन्ती, चन्द्रायण, भग, महाभद्र, भद्रोत्तर, सर्वतोभद्र, एकादशांग-द्वादशांग आराधन, अष्टापद, वीशस्थानक, सांवत्सरिक, अष्टमासिक, षाण्मासिक- इत्यादि अनेक प्रकारके तपकी विधिका विस्तृत वर्णन दिया गया है। इसके अन्तमें कहा गया है कि इन तपके अतिरिक्त कई लोक, माणिक्यप्रस्तारिका, मुकुटसप्तमी, अमृताष्टमी, अविधवादशमी, गोयमपरिग्गह, मोक्षदण्डक, अदुक्खदिक्खिया, अखण्डदशमी इत्यादि नामके वर्षोंका भी आचरण करते दिखाई देते हैं। परंतु मे तप आगमविहित न होनेसे हमने उनका यहांपर वर्णन नहीं दिया है। इसी तरह एकावली, कनकावली, रत्नावली, मुक्तावली, गुणरत्नसंवत्सर, खुट्टमहल सिंहनिकीलित आदि जो तप हैं उनका आचरण करना, अभी इस कालमें, दुष्कर होनेसे उनका भी कोई वर्णन नहीं किया गया है।
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१२ तप आदिकी उक्त सब क्रियायें नन्दीरचनापूर्वक की जाती हैं, इसलिये १२ वें द्वारमें, बहुत विस्तारके साथ नन्दीरचनाविधि वर्णित की गई है। इसमें अनेक स्तुति स्तोत्र आदि भी दिये गये हैं।
१३ वें द्वारमें प्रवज्याविधि अर्थात् साधुधर्मकी दीक्षाविधिका विशिष्ट विधान बताया गया है।
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१४ प्रव्रज्या लिये बाद साधुको यथासमय लोच (कशोत्पाटन) करना चाहिये, इसलिये १४ वें द्वार में, लोचकरणकी विधि बतलाई गई है।
१५ प्रजितको 'उपयोगविधि' पूर्वक ही शास्त्रोंमें भक्त पानका ग्रहण करना विहित है, इसलिये १५ में द्वारमें यह 'उपयोगविधि' बतलाई गई है।
१६ इस तरह उपयोगविधि करनेके बाद, नवदीक्षित साधुको, सबसे प्रथम भिक्षा ग्रहण करने के लिये जाना हो, तब कैसे और किस शुभ दिनको जाना चाहिये इसकी विधिके लिये, १६ वें द्वारमें, 'आदिम अटन-विधि'का वर्णन दिया गया है।
१७-१८ नवदीक्षित साधुको भावश्यक तप और दशवेकालिक तप करा कर फिर उसे उपस्थापना (बडी दीक्षा) दी जाती है, और उसे मण्डलीमें स्थान दिया जाता है, इसलिये इसके बादके दो प्रकरणोंमें, इस मंडली तप और उपस्थापना विधिका विधान बतलाया गया है।
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१९ उपस्थापना होने के बाद, साधुको सूत्रोंका अध्ययन करना चाहिये; और यह सूत्राध्ययन विना योगोद्वहनके नहीं किया जाता, इसलिये १९ वें द्वारमें, योगोद्वहन विधिका सविस्तर वर्णन दिया गया है। यह योगविधि द्वार बहुत बढा है। इसमें पहले स्वाध्याय करनेकी विधि बतलाई गई है और वह स्वाध्याय कालग्रहणपूर्वक करना विहित है, अतः उसके साथ कालग्रहण करनेकी विधि भी कही गई है। इसके बाद, आवश्यकावि प्रत्येक सूत्रका पृथक् पृथक् तपोविधान बतलाया गया है। इस विधानमें प्रायः सब ही सूत्रोंका संक्षेपमें अध्ययनादिका निर्देश कर दिया गया है। इसके अन्तमें, इस समझ योगविधिका सूत्ररूपसे विवेचन करनेवाला ६८ गाथाका पूरा 'जोगविद्वाण' मामका प्रकरण दिया गया है, जो शायद अन्धकारकी निजकी ही एक स्वतंत्र रचना है।
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