________________
संपादकीय प्रस्तावना
२० यह योगोद्वहन 'कप्पतिप्प' सामाचारीकी क्रियापूर्वक किया जाता है, इसलिये २० वे द्वारमें, यह कपतिप्प' सामाचारी बतलाई गई है।
२१ इस प्रकार कप्पतिप्पविधिपूर्वक योगोद्वहन किये बाद, साधुको मूल ग्रन्थ, नन्दी, अनुयोगद्वार, उत्तराध्ययन, ऋषिभाषित, अंग, उपांग, प्रकीर्णक और छेद अन्य आदि आगम शानोंकी वाचना करनी चाहिये, इसलिये २१ द्वारमें, इस आगमवाचनाकी विधि बतलाई गई है।
२२-२६ इस तरह आगमादिका पूर्ण ज्ञाता हो कर शिष्य जब यथायोग्य गुणवान् बन जाता है, तो उसे फिर वाचनाचार्य, उपाध्याय एवं आचार्य आदिकी योग्य पदवी प्रदान करनी चाहिये, और साध्वीको प्रवर्तिनी अथवा महत्तराकी पदवी देनी चाहिये । इसलिये अनन्तरके द्वारोंमेंसे क्रमशः-२२वें द्वारमें वाचनाचार्य, २३ में उपाध्याय, २४ में आचार्य, २५ में महत्तरा और २६ वेंमें प्रवर्तिनी पदके देनेकी क्रियाविधि बतलाई गई है। इस विधिके प्रारंभमें यह भी स्पष्ट रूपसे कह दिया गया है कि किस योग्यतावाले साधुको वाचनाचार्य अथवा उपाध्याय एवं आचार्य आदिका पद देना उचित है। वाचनाचार्य अथवा उपाध्याय उसीको बनाना चाहिये, जो समप्र सूत्रार्थके ग्रहण, धारण और व्याख्यान करने में समर्थ हो; सूत्रवाचनामें जो पूरा परिश्रमी हो; प्रशान्त हो और आचार्य स्थानके योग्य हो। इस पदके धारकको, एक मात्र आचार्य के सिवाय अन्य सब साधु साध्वी-चाहे वे दीक्षापर्यायमें छोटे हों या बड़े-वन्दन करें।
इस भाचार्य पदके योग्य व्यक्तिका विधान करते हुए कहा है कि-जो साधु आचार, श्रुत, शरीर, वचन, वाचना, मतिप्रयोग, मतिसंग्रह और परिज्ञा रूप इन आठ गणिपदसे युक्त हो; देश, कुल, जाति और रूप आदि गुणोंसें भलंकृत हो; बारह वर्षतक जिसने सूत्रोंका अध्ययन किया हो; बारह वर्षतक जिसने शामोंके अर्थका सार प्राप्त किया हो
और बारह वर्षतक अपनी शक्तिकी परीक्षाके निमित्त जिसने देशपर्यटन किया हो-वह भाचार्य बनने योग्य है और ऐसे योग्य व्यक्तिको आचार्यपद देना चाहिये । नन्दीरचना आदि विहित क्रियाविधिके साथ, निर्णीत लग्नमें, मूलाचार्य इस नव्य आचार्यको सूरिमन प्रदान करें। यह सूरिमन्न मूलमें भगवान महावीर स्वामीने २१०० अक्षरप्रमाण ऐसा गौतमस्वामीको दिया था और उन्होंने उसे ३२ श्लोकके परिमाणमें गुम्फित किया था। इसका कालक्रमके प्रभावसे हास हो रहा है और अन्तिम आचार्य दुःप्रसहके समयमें यह २॥ श्लोक परिमित रह जायगा। यह गुरुमुखसे ही पढा जाता है-पुस्तकमें नहीं लिखा जाता। प्रन्थकार कहते हैं कि इस सूरिमनकी साधना विधि देखना हो उसे हमारा बनाया हुआ 'सूरिमन्त्रकल्प' नामक प्रकरण देखना चाहिये।
यह आचार्यपद-प्रदानविधि बडा भावपूर्ण है। इसमें कहा गया है, कि जब इस प्रकार शिष्यको आचार्य पद देनेकी विधि समाप्तपर होती है तब खुद मूल आचार्य अपने आसन परसे उठ कर शिष्यकी जगह बैठे और शिष्य - नवीन पद धारक आचार्य - अपने गुरुके आसन पर जा कर बैठे। फिर गुरु अपने शिष्य - आचार्यको, द्वादशावर्तविधिसे वन्दन करें-यह बतलानेके लिये कि तुम भी मेरे ही समान आचार्यपदके धारक हो गये हो और इसलिये अन्य सभीके साथ मेरे भी तुम वन्दनीय हो । ऐसा कह कर गुरु उससे कहे कि, कुछ व्याख्यान करो-जिसके उत्तरमें नवीन आचार्य परिषद्के योग्य कुछ व्याख्यान करे और उसकी समाप्तिमें फिर सब साधु उसे चन्दन करें। फिर वह शिष्य उस गुरुके आसन परसे उठ कर अपने आसन पर जा कर बैठे, और गुरु अपने मूल भासन पर। बादमें गुरु, नवीन आचार्यको शिक्षारूप कुछ उपदेशवचन सुनावे जिसको 'अनुशिष्टि' कहते हैं । इस अनुशिष्टिमें, गुरु नवीन आचार्यको किन किन बातोंकी शिक्षा देता है, इसका प्रतिपादन करनेके लिये जिनप्रभ सुरिने ५५ गाथाका एक स्वतंत्र प्रकरण दिया है जो बहुत ही भाववाही और सारगर्भित है। आचार्यको अपने समुदायके साथ कैसा व्यवहार रखना चाहिये और किस तरह गच्छकी प्रतिपालना करनी चाहिये-इसका बडा मार्मिक उपदेश इसमें दिया गया है। आचार्यको अपने चारित्रमें सदैव सावधान रहना चाहिये और अपने अनुवर्तियोंकी चारित्ररक्षाका भी पूरा खयाल रखना चाहिये। सब को समष्टि से देखना चाहिये। किसी पर किसी प्रकारका पक्षपात न करना चाहिये । अपने और दूसरेके पक्षमें किसी प्रकारका विरोधभाव पैदा करे वैसा वचन कभी न बोलना चाहिये । असमाधिकारक कोई व्यवहार नहीं करना चाहिये। स्वयं कषायोंसे मुक्त होनेके लिये सतत प्रयत्नवान् रहना चाहिये-इत्यादि प्रकारके बहुत ही सुन्दर उपदेश-वचन कहे गये हैं जो वर्तमानके नामधारी आचार्योंके मनन करने योग्य हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org