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विधि प्रपा
इसी तरहका सुन्दर शिक्षावचनपूर्ण उपदेश महत्तरा और प्रवर्तिनी पद प्राप्त करनेवाली साध्वीके लिये भी कहा गया है। प्रवर्तिनीको अनुशिष्टि देते हुए आचार्य कहते हैं कि- तुमने जो यह महत्तर पद ग्रहण किया है इसकी सार्थकता तभी होगी जब तुम अपनी शिष्याओंको और अनुगामिनी साध्वियोंको ज्ञानादि सद्गुणोंमें प्रवर्तन करा कर, उनके कल्याण पथकी मार्गदर्शिका बनोगी। तुम्हें न केवल उन्हीं साध्वियों के हितकी प्रवृत्ति करने में प्रवर्तित होना चाहिये जो विदुषियां हैं, जिनका बडा खानदान है, जिनका बहुत बडा स्वजनवर्ग है, एवं जो सेठ, साहुकार आदि धनिकोंकी पुत्रियां हैं। पर तुम्हें उन साध्वियोंकी हित-प्रवृत्तिमें भी वैसे ही प्रवर्तित होना कर्तव्य है जो दीन और दुःस्थित दशामें हों, जो अज्ञान हों, शक्तिहीन हों, शरीरसे विकल हों, निःसहाय हों, बन्धुवर्गरहित हों, वृद्धावस्थासे जर्जरित हों और दुरवस्थामें पड जाने के कारण भ्रष्ट और पतित भी हों । इन सबकी तुम्हें गुरुकी तरह, अंगप्रतिचारिकाकी तरह, धायकी तरह, प्रियसखीकी तरह, भगिनी-जननी-मातामही एवं पितामही आदिकी तरह, वत्सलभाव हो कर प्रतिपालना करनी होगी।
२७ इसके बाद, २७ वें द्वारमें, गणानुज्ञाविधि बतलाई गई है। गणानुज्ञाका अर्थ है गणको अर्थात् समुदायको अनुज्ञा यानि निजकी आज्ञामें प्रवर्तन करानेका संपूर्ण अधिकार प्राप्त करना। यह अधिकार, मुख्याचार्यके कालप्राप्त होने पर अथवा अन्य किसी तरह असमर्थ हो जाने पर प्राप्त किया जाता है। इस विधिमें भी प्रायः वैसा ही भाव
और उपदेशादि गर्भित है । इस गणानुज्ञापदकी प्राप्ति होने पर, फीर वही नवीन आचार्य गच्छका संपूर्ण अधिनायक बनता है और उसीकी आज्ञामें सारे संघको विचरण करना पडता है।
२८ इसके बादके २८ वे द्वारमें, वृद्ध होने पर और जीवितका अन्त समीप दिखाई देने पर, साधुको पर्यन्ताराधना कैसे करनी चाहिये और अन्तमें कैसे अनशन व्रत लेना चाहिये, इसका विधान बतलाया गया है। इसी विधिके अन्तमें, श्रावकको भी यह अन्तिम आराधना करनी बतलाई गई है।
२९ इस प्रकारकी अन्तिम आराधनाके बाद, जब साधु कालधर्म प्राप्त हो जाय तब फिर उसके शरीरका अन्तिम संस्कार कैसे किया जाय, इसकी विधिका वर्णन २९ वें महापारिट्रावणिया नामक प्रकरणमें दिया गया है।
३० तदनन्तर, ३० वे द्वारमें, साधु और श्रावक दोनोंके व्रतों में लगने वाले प्रायश्चित्तोंका बहुत विस्तृत वर्णन दिया गया है। इस प्रायश्चित्तविधानमें एक तरहसे प्रायः यति और श्राद्ध दोनों प्रकारके जीतकल्प ग्रन्थोंका पूरा सार आ गया है। इसमें श्रावकके सम्यक्त्व-मूल १२ व्रतोंका प्रायश्चित्त-विधान पूर्ण रूपसे दिया गया है और इसी तरह साधुके मूल गुण और उत्तर गुण आदि आचारों में लगनेवाले छोटे बडे सभी प्रायश्चित्तोंका यथेष्ट वर्णन किया गया है। साधुके भिक्षाविषयक दोषोंका विधान करनेवाला 'पिंडालोयणविहाण' नामक ७३ गाथाका एक बड़ा स्वतंत्र प्रकरण भी, नया बना कर, ग्रन्थकारने इसमें सन्निविष्ट कर दिया है। और इसी तरह एक दूसरा ६४ गाथाका 'आलोयणविहीं' मामका भी स्वतंत्र प्रकरण इस द्वारके अन्तभागमें ग्रथित किया है।
३१-३६ इसके बाद 'प्रतिष्ठाविधि' नामक बडा प्रकरण आता है जिसमें जिनबिम्बप्रतिष्ठा, कलशप्रतिष्ठा, ध्वजारोप, कूर्मप्रतिष्ठा, यन्त्रप्रतिष्ठा और स्थापनाचार्यप्रतिष्ठा- इस प्रकार ३१ से ले कर ३६ तकके ६ द्वारोंका समावेश होता है। इसीके अन्तर्गत अधिवासना अधिकार, नन्द्यावर्तस्थापना, जलानयनविधि-आदि भी प्रसंगोषित कई विधि-विधानोंका समावेश किया गया है। इसमें प्रतिष्ठोपयोगी सामग्रीका भी प्रमाणभूत निर्देश है और मन्त्र तथा स्तुति भादि वचनोंका भी उत्तम संग्रह है। प्रतिष्ठाविधिके लिये यह प्रकरण बहुत ही आधारभूत और सुनिहित समझा जाने योग्य है।
३७ प्रतिष्ठा भौर अन्य बहुतसी क्रियाओंमें 'मुद्राकरण आवश्यक' होता है, इसलिये ३७ वे द्वारमें, मित्र मित्र प्रकारकी मुद्राओंका वर्णन लिखा गया है।
३८ मन्दीरचना और प्रतिष्ठाविषयक क्रियाभों में ६४ योगिनियोंके यत्रादिका आलेखन किया जाता है, इसडिये १८ द्वारमें, इन योगिलियों के नाम बतलाये गये हैं।
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