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________________ सपादकाय प्रस्तावना ३९ वें द्वारमें, 'तीर्थयात्रा करने वालेको किस तरह यात्राविधि करना चाहिये और जो यात्रानिमिच संघ बीकाकना चाहे उसे किस विधिसे प्रस्थानादि कृत्य करने चाहिये-इस विषयका उपयुक्त विधान किया गया है। इसमें संघ नीकालने वालेको किस किस प्रकारकी सामग्रीका संग्रह करना चाहिये और यात्रार्थियोंको किस किस प्रकारकी सहायता पहुंचाना चाहिये-इत्यादि बातोंका भी संक्षेपमें पर सारभूत रूपमें ज्ञातव्य उल्लेख किया गया है। ४० वें द्वारमें, पर्वादि तिथियों का पालन किस नियमसे करना चाहिये, इसका विधान, ग्रन्थकारने अपनी सामाचारीके अनुसार, प्रतिपादित किया है । इस तिथिव्यवहारके विषयमें, जुदा जुदा गच्छके अनुयायियोंकी जुदी जुदी मान्यता है। कोई उदय तिथिको प्रमाण मानता है, तो कोई बहुभुक्त तिथिको ग्राह्य कहता है। पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक पर्वके पालनके विषयमें भी इसी तरहका गच्छवासियोंका पारस्परिक बडा मतभेद है। इस मतभेदको ले कर प्राचीन कालसे जैन संप्रदायों में परस्पर कितनाक विरोधभावपूर्ण व्यवहार चला आता दिखाई देता है। श्रीजिनप्रभ सूरिने अपने इस प्रन्थमें, उसी सामाचारीका प्रतिपादन किया है जो खरतर गच्छमें सामान्यतया मान्य है। ४१ वे द्वारमें, अंगविद्यासिद्धिकी विधि कही गई है। यह 'अंगविधा' नामक एक शास्त्र है जो आगममें नहीं गिना जाता, पर इसका स्थान आगमके जितना ही प्रधान माना जाता है । इसलिये इसकी साधनाविधि यहांपर स्वतंत्र रूपसे बतलाई गई है। यह विधि प्रन्थकारने, सैद्धान्तिक विनयचन्द्रसूरिके उपदेशसे प्रथित की है, ऐसा इसके अंतिम उल्लेखमें कहा है। इस प्रकार, विधिप्रपामें प्रतिपादित मुख्य द्वारोंका, यह संक्षिप्त विषयनिर्देश है । इस निर्देशके वाचनसे, जिज्ञासु जनोंको कुछ कल्पना आ सकेगी कि यह ग्रन्थ कितने महत्वका और अलभ्य सामग्रीपूर्ण है । इस प्रकारके अन्य अन्य आचार्योंके बनाये हुए और भी कितनेक विधि-विधानके ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं, पर वे इस ग्रन्थके जैसे क्रमबद्ध और विशद रूपसे बनाये हुए नहीं ज्ञात होते । इस प्रकारके ग्रन्थों में यह 'शिरोमणि' जैसा है ऐसा कहने में कोई अत्युक्ति नहीं होती। अन्धकार जिनप्रभ सूरि कैसे बड़े भारी विद्वान् और अपने समयमें एक अद्वितीय प्रभावशाली पुरुष हो गये हैं इसका पूरा परिचय तो इसके साथ दिये हुए उनके जीवनचरित्रके पढनेसे होगा, जो हमारे नेहास्पद धर्मबन्धु बीकानेरनिवासी इतिहासप्रेमी श्रीयुत अगरचन्दजी और भंवरलालजी नाहटाका लिखा हुआ है। इसलिये इस विषयमें और कुछ अधिक लिखनेकी आवश्यकता नहीं है। संपादनमें उपयुक्त प्रतियोंका परिचय । इस ग्रन्थका संपादन करने में हमें तीन हस्तलिखित प्रतियां प्राप्त हुई थीं-जिनमें मुख्य प्रति पूनाके भाण्डरकर प्राच्यविद्यासंशोधन मन्दिरमें संरक्षित राजकीय ग्रन्थसंग्रह की थी। यह प्रति बहुत प्राचीन और शुद्धप्राय है। इसके अन्तमें लिखनेवालेका नामनिर्देश और संवतादि नहीं दिया गया, इसलिये यह ठीक ठीक तो नहीं कहा जा सकता कि यह कबकी लिखी हुई है; पर पत्रादिकी स्थिति देखते हुए प्रायः संवत् १५०० के आसपासकी यह लिखी हुई होगी ऐसा संभवित अनुमान किया जा सकता है। इस प्रतिका पीछेसे किसी तज्ज्ञ विद्वान् यतिजनने खूब अच्छी तरह संशोधन भी किया है और इसलिये यह प्रति शुद्धप्रायः है, ऐसा कहना चाहिये। दूसरी प्रति श्रीमान् उपाध्यायवयं श्रीसुखसागरजी महाराजके निजी संग्रहकी मिली थी। पर यह नई ही लिखी हुई है और शुद्धिकी दृष्टि से कुछ विशेष उल्लेखयोग्य नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003393
Book TitleVidhi Marg Prapa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages186
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size12 MB
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