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विधि पा
तीसरी प्रति बीकानेरके भंडारकी थी जो श्रीयुत अगरचंदजी नाहटा द्वारा प्राप्त हुई थी। यह प्रति भी नई ही लिखी हुई है पर कुछ शुद्ध है* । इसके अन्त भागमें, जिनप्रभसूरिकृत 'देवपूजाविधि' नामक स्वतंत्र प्रकरण लिखा हुआ मिला, जिसे उपयोगी समझ कर हमने इस ग्रन्थके परिशिष्टके रूपमें मुद्रित कर दिया है। असल में यह पूजाविधि भी इसी ग्रन्थका एक अवान्तर प्रकरण होना चाहिये । परंतु न मालूम क्यौं प्रन्थकारने इसको इस ग्रन्थमें सन्निविष्ट न कर ख़ुदा ही प्रकरण रूपसे प्रथित किया है। संभव है कि यह देवपूजाविधि प्रत्येक गृहस्थ जैनके लिये अवश्य और नित्य कर्तव्य होनेसे इसकी रचना स्वतंत्र रूप से करना आवश्यक प्रतीत हुआ हो, ता कि सब कोई इसका अध्ययन और लेखन आदि सुलभताके साथ कर सके। इस देवपूजाविधि गृहप्रतिमापूजाविधि चैवन्दनविधि स्वपनविधि, छत्रभ्रमणविधि, पञ्चामृतस्नानविधि और शान्तिपर्यविधि आदि और भी आनुषङ्गिक कई विधियों का समावेश कर इस विषयक संपूर्णतया प्रतिपादित किया गया है।
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उक्त प्रकारसे प्रस्तुत प्रन्धके संपादनकी प्रेरणा कर, उपाध्याय श्रीमुखसागरजी महाराजने इस प्रकार क्रियाविधिके अमूहद निधिरूप प्रस्तुत ग्रन्थराजके विशिष्ट स्वाध्यायका जो प्रशस्त प्रसंग हमारे लिये उपस्थित किया, तदर्थं हम, अन्तमें, आपके प्रति अपना कृतज्ञभाव प्रदर्शित कर; और जो कोई जिज्ञासु जन, इस ग्रन्थके पठन-पाठन से अपनी ज्ञानवृद्धि करके विधिमार्गक प्रवास में प्रगतिगामी बनेंगे, तो हम अपना यह परिश्रम सफल समझेंगे ऐसी शाशा प्रकट कर इस प्रस्तावनाकी यहां पर पूर्णता की जाती है।
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फाल्गुन पूर्णिमा विक्रम संवत् १९९७ बंबई
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यह प्रति बीकानेरके श्रीपूजयजीके भंडारकी ई आर इसके अन्तमें लिपिकर्तने अपना समय और नामादि बतलानेवाली इस प्रकारकी पुष्पिका लिखी है
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जिन विजय
" संवत् १८९२ वर्षे मिती ज्येष्ठ शुक्ल ५ तिथ्यां कुमुदबारे श्रीहमीरगढ नयरे चतुर्मासी स्थिता पं० व्धिविलास लिखितं । श्रीमद्दत् खरतर गच्छे श्रीकीर्तिरत्तसूरि संतानीया । श्रीफलवर्गीनयरे लिखितं ॥ "
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